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आनन्द प्रवचन : भाग १
मुक्त कराने अपने ध्येय में सफल नहीं हो सकती। मनुष्य जब तक विषय-विकारों में आसक्त रहता है, यह भूल जाता है कि संसार के क्षणिक सुख उसे चिरकाल तक घोर दुःख देंगे तथा दुर्गति का कारण बनेंगे –..
'सल्लं कामा विसं कामा काम आसीविसोवमा।
कामे य पत्थेमाणा अकामा ति दुमाई॥ शब्द रूप रसादि के भोग शल्यरूप हैं, विष हैं। आशीविष के समान हैं। इनकी अभिलाषा करने वालों को अनिच्छा से दुर्गति में जाना पड़ता है।
इसीलिए महापुरुष जो संसार से मुक्त हो के लिए व्याकुल रहते हैं। विषय-विकारों को विषधर सर्प के समान समझकर दूर भागने की अष्टा करते हैं। शुभ मंगल सावधान!
नारायण नामक एक बालक बचपन सही संसार से विरक्त सा रहता था। उसका अधिक समय भजन, पूजन, ज्ञान, ध्यान एवं तप में बीतता था। नारायण की माँ अपने पुत्र का ब्याह कर पुत्र-वधू ना मुँह देखने के लिए उतावली थी। अत: बारह वर्ष की अवस्था में ही उसने पुत्र का ब्याह रचा दिया।
किशोर नारायण बड़ी धूम-धाम और पाजे-गाजे सहित बरात के साथ रवाना हुआ। तथा विवाह के लिए अपने श्वसुर गृह के द्वार पर पहुँचा।
जिस समय विवाह-मण्डप में मंगलाष्टक शुरू हुए, ब्राह्मणों ने कहा - 'शुभ मंगल, सावधान'।
नारायण ने मन ही मन इसका अर्थ लगाया - "संसार की दुःखदायिनी बेडी तुम्हारे पैरों में पड़नेवाली है अत: सावधान हो जाओ।'
नारायण तत्काल उठकर वहाँ से भाग गया। वही नारायण वर्षों की कठोर तपस्या के बल पर पहले 'रामदास' कहलाया और फिर 'समर्थ' बन गया। सद्गुरु 'समर्थ' जो शिवाजी के गुरु थे।
इस प्रकार महान् आत्माएँ विषयों से फर भागती हैं तथा उनसे विमुख होकर अपनी आत्मा के कल्याण में जुट जाती हैं। विषयों से विमुख होना ही आत्मोन्नति तथा आत्म-शुद्धि का प्रथम चरण कहलाता है। कहा भी है -
विषयेष्वति संरागो मानसो पल उच्यते।
तेष्वेव हि विरागोऽस्य नैर्मल्यं समुदालातम्।। विषयों मे अत्यन्त राग ही मन का मैल है और विषयों से वैराग्य होने को ही निर्मलता कहते हैं।