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कषाय
जाणो पेले रे पार
तीसरा प्रमाद कषाय को माना गया है। कषायों के द्वारा आत्मा का जितना अहित होता है, उतना अन्य किसी भी शत्रु के द्वारा नहीं होता है। कषाय कर्म-बन्ध के सबसे प्रबल कारण हैं और यही आत्मा को समस्त योनियों में भटकाते हैं। जिनकी आत्माओं में कषायों की अग्नि शधकती रहती है, अर्थात् कषायों के कारण जिनकी आत्मा मलिन है उन आत्माओं में सम्यक् ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र का आविर्भाव नहीं होता। कषायों की तीव्रता के कारणा ही आत्मा अध: पतन की गहरी खाई में गिरती जाती है। तथा आत्मोत्थान की कल्पना कभी साकार नहीं बन पाती। मन में कषायों के प्रवेश करते ही अन्य स्मास्त सद्गुण एक-एक करके बाहर निकल जाते हैं। क्योंकि दुर्गुणों का तथा सद्गुणों का कभी मेल नहीं होता। शास्त्रों में बताया भी है -
कोहो पीड़ पणासेड़, माणो विधायनासो
माया मित्राणि नासेई लोभो प्रव्व-विणासणो ॥
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- दशवैकालिक सूत्र
क्रोध प्रीति का नाश करता है। मान विनय का, माया मित्रता का नाश
करती है और लोभ तो हृदय के समस्त सद्गुणों को ही नष्ट कर देता है।
क्रोध का आवेश तो अल्प सम्प्र के लिए होता है, किन्तु उससे वैर का जब जन्म होता है तो वह बहुत लमर समय तक और कभी कभी तो जीवन के अन्त तक रहता है। इसके अलावा भी हमारा इतिहास साक्षी है कि वैर अनेक
जन्मों तक भी शान्त नहीं होता। त्रिष्ठा वासुदेव के भव में भगवान महावीर के
जीव ने शय्यापालक के कानों में गरम गरम जीव ने गोपालक के रूप में भगवान महावीर
शीशा डलवाया था। परिणामस्वरूप उसी कानों में कीलें टोके ।
इसी प्रकार कमठ संन्यासी दस उपसर्ग देता रहा। महात्मा गांधी ने पर लिखा है -
भवों तक निरन्तर भगवान पार्श्वनाथ को क्रोध की भर्त्सना करते हुए एक स्थान
"क्रोध वह प्रचंड अग्रि है, जिसे मनुष्य अगर वश में नहीं कर लेता तो स्वयं को जला डालता है। और वश में करने पर उसे बुझा देता है।"
मैं स्वीकार नहीं करता
एक ब्राह्मण गौतम बुद्ध से दीक्षा लेकर भिक्षु बन गया। उसका एक संबंधी इससे अत्यन्त कुपित हुआ और आकर बुद्ध को गालियाँ देने लगा। बहुत देर तक गालियाँ देने के पश्चात् जब वह थककर चुप हो गया तो तथागत ने पूछा -
"क्यों भाई ! तुम्हारे यहाँ अतिथि धाते भी हैं कभी ?"