________________
• बहुपुण्य केरा पुँज थी
[८] हो जाती है, उसे चारों ओर से आनन्द की प्राप्ति होती है। पर क्षीण पुण्यदाले प्राणी को, वह जहाँ भी जाय निंदा, अफाश, तिरस्कार एवं कटु-वचनों के कीले चुभते हैं। उसके लिए प्रत्येक मार्ग काँटो का बन जाता है। पूज्यपाद श्री तिलोकऋषिजी महाराज ने भी पुण्य और पाप के अन्तर को बड़े सुन्दर दंग से बताया है। कहा
कहा है कि
होता है, तुम्हें
चारों और
पुण्य ते आदर पाप अनादर,
पाप जो पत्थर पुण्य जहाजो। पुण्य थी लोग नमे कर जोड़ने,
ये घर आपका ऊँचे निराजो। पाप उदे कहे काहे तू श्वान ज्यों
घर-घर डोलत नेक लाजो? पुण्य तिलोक मिले सुख संपतिः
पुण्य ही से मिले अपर ताजो। महाराज श्री ने पुण्य और पाप देत अन्तर को स्पष्ट समझा दिया है। ज्ञानी, अनुभवी वैराग्य संपन्न एवं प्रौढ़ कवि के शब्द में चमत्कारिक शक्ति है। आपके कथनानुसार पुण्य क्या है?- इस विषय में कहा है कि कहीं भी जाने पर अगर तुम्हारा आदर व सम्मान होता है, तुम्हें देखकर लेगा प्रसन्न हो उठते हैं, आनन्द का वातावरण चारों और फैल जाता है तो समझो कि यह सब तुम्हारे पुण्य का प्रताप है। अपने परिवार में, इष्ट-मित्रों के बीच में, संघ, समुदाय और समाज में अपने पुण्य के कारण ही तुम्हें इज्जत प्राप्त होती है।
___ इसके विपरीत कही पहुँचने पर अगर कोई अनादर करे, वहाँ के व्यक्तियों के द्वारा उपेक्षा और असम्मान का भाव जाहिर किया जाए तो समझना चाहिए कि तुम्हारे पापों का उदय है। ऐसे समय में अन्य की तो बात ही क्या है? सगे भाइयों के द्वारा भी स्नेह प्राप्त नहीं होता। कभी-कभी तो जन्म देने वाली माता भी झिडक देती है - "चला जा यहाँ से! खाने के लिए आ गया? किस काम का है तू? पत्थर होता तो नींव भरने में काम आता।"
माता के द्वारा भी ऐसे शब्द काणे सुनने पड़ते हैं? सिर्फ इसलिए कि पोते में पुण्य नहीं है। पापों का उदय है। पग पत्थर के समान है जिनके कारण आत्मा संसार-सागर में डूबी रहती है। और पूण्य जहाज के समान है, जिनका आधार लेकर भव-सागर को पार किया जा सकता है।
पद्य में आगे और भी स्पष्टीकरण किया गया है कि पुण्य जिसके प्रबल होते हैं, वह जहाँ कहीं भी जाता है लोग हाथ-जोड़े तैयार मिलते हैं। कभी जिन्दगी में जिसे देखा नहीं, केवल नाम और गुण ही सुने उसके मिलने पर भी व्यक्ति सम्मान सहित नमस्कार करते हैं, उचासन प्रदान करते हैं, तथा बात-बात में 'आपकी