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आनन्द प्रवचन भाग १
कृपा है। अपाकी दया से आनन्द है। आईि आदि प्रिय वाक्य कहकर अतिथि को प्रसन्न करते हैं।
किन्तु जिसके पास पुण्यों का अभाव होता है, उसके द्वार पर आ जाने पर स्वागत सत्कार तो दूर, मीठे दो शब्द मिलना भी दुर्लभ हो जाता है। उलटे सुनने को मिलता है 'क्यों इधर-उधर कुत्ते के नाईं भटकते हो ? लज्जा नहीं आती क्या ?
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स्पष्ट है कि आदर-सम्मान यश-कीर्ते सभी पुण्य के योग से ही प्राप्त हो सकते हैं -
"यशः पुण्यैरवाप्यते ।”
परिश्रम कम, लाभ अधिक
पुण्यवान पुरुष थोड़ा कार्य करके मो यश का उपार्जन अधिक कर लेता है। गिरधर कवि ने अपनी एक रचना में इसे उदाहरण सहित स्पष्ट किया है :
सांई एके गिरिधरयो, गिरिधर गिरिगर होय, हनुमान बहु गिरि धरे, गिरिधर कहे न कोय। गिरिधर कहे न कोय हनु द्रोणागि लायो, ताको किनका टूट पड़यो सो कृष्णा उठायो । कहे गिरधर कविराय, बड़ेन की कड़ी बड़ाई,
थोड़े ही यश होय, यशी पुरुषन की सांई ।
श्रीकृष्ण ने एक बार कनिष्ठ अंगुलि गर पर्वत उठाया तो संसार उन्हें गिरधारी कहने लगा और हनुमान अनेकों बार पर्वत उठाकर भी गिरधारी नहीं कहला सके। आश्चर्य होता है कि बहुत बार पर्वत उठाने पर भी गिरिधारी की पदवी नहीं मिली और एक बार पहाड़ उठाकर भी गिरिधर कछला गए। इसका क्या कारण है? केवल पुण्यवानी का संचय ही तो है। अन्यथा जिन द्रोणागिरि पर्वत को हनुमानने उठाया और उसके गिरे हुए टुकड़े को श्रीकृष्ण ने उठाया था वे कैसे गिरिधर कहलाये ? पूरा पर्वत उठाने वाला गिरधर नहीं कहला मका और उसी का एक टुकड़ा धारण करने वाला गिरधर हो गया।
कवि का कथन है कि बड़ों की अर्थात् पुण्यवानों की बड़ाई बहुत जल्दी हो जाती है। थोड़ा कार्य करके भी वे अधिक प्रसिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। अतः अब करना क्या है, यही हमारे लिए विचारणीय है ।।
जीवन का उद्देश्य
पुण्य और पाप के परिणामों को देखते हुए अब हमें यही चाहिए कि हम जीवन को गम्भीरता से समझते हुए अपने मानव पर्याय को सफल बनाने के प्रयत्न