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तिन्नाणं तारियाणं
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"वाह गुरुदेव! क्या मैं आपकी आइन का पालन नहीं करूँगा?"
"तो इसे कोई जागीर दे दो! यह गरीब है। गन्ना कम हो जाने से ही इसे दुःख हुआ होगा। अत: जागीर देकर इसनी दरिद्रता मिटा दो!"
इसे ही सच्चा साधुत्व कहते हैं कि मार खाकर भी जागीर दिलवा दी। बुरा करने वाले का भी भला किया। सन्त कभी "जैसे को तैसा', यह कहावत चरितार्थ नहीं करते। तभी तो कहा जाता है :---
सन्त न छोड़े सन्तई कोटिक मिले असन्त।
मलय भुजंगहि बेधिश, सीतलता न तजंत ॥ जिस प्रकार चन्दन के वृक्ष गम्पों के लिपटे रहने पर भी चन्दन अपनी शीतलता और सगन्ध नहीं त्यागता, इसी प्रकार सन्तों को कितने भी असन्त अर्थात बुरे व्यक्ति क्यों न मिलें, वे अपनी उत्त्परता का त्याग नहीं करते। संसार में सन्तों को कटुववन कहने वाले और उनका अपमान करने वालों की कमी नहीं है।
___ अनेक व्यक्ति साधुओं को देखकर कह उठते हैं - 'खाने के लिये नहीं होगा, इसलिये साधु बन गए।' कोई ग्रहता है -- 'कमाने के लिये परिश्रम नहीं किया जाता, इससे साधु बने फिरते है। कोई यह भी कहने से नहीं चूकता कि 'कोई रोने वाला नहीं होगा इसलिये सार बने हैं। हाथ में भिक्षा-पात्र देखकर कहते हैं --'पेट भरने के लिये यह स्वांग सबसे अच्छा है।'
किन्तु साधु यह सब सुनकर भी मन में कभी रोष नहीं लाते। अपमान किया जाने पर भी उनमें कभी बदला लेने की भावना नहीं आती। उलटे वे अपकारी की कल्याण-कामना करते हैं।
रामदुहाई कहते हैं कि महात्मा कबीर एक बार कहीं जा रहे थे। रास्ते में उन्हें किसी ने कहा- "इनका दिमाग ठिकाने पर नहीं, बिगड़ गया है।" कबीर पहुँचे हुए सन्त और कवि थे। तुरन्त बोल उठे -
हम बिगड़े तो बिगड़े रे भाई।
तुम बिगड़गि तो राम दुहाई। अर्थात् --भाई! हम बिगड़ गए तो कोई बात नहीं, पर तुम मत बिगड़ जाना। और बिगड़ो तो तुम्हें राम की सौगन्ध है।
बन्धुओ, याद रखो- बिगड़ना दो प्रकार का होता है। एक प्रकार का बिगड़ना अपनी कीमत कम करता है, और दूसरे प्रकार का बिगड़ना महत्त्व को बढ़ाता है। उदाहरण के लिये दूध को ही लीजिये। हमारे सामने दूध है। हम उसमें