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आनन्द प्रवचन भाग १
निश्चय ही दया, सेवा, परोपकार, करुणः। सहिष्णुता आदि अनेकानेक सद्गुणों के अंकुर आपके ह्रदय में जम जाएँगे। आवश्यकता है त्यागी एवं साधु-पुरुषों के समीप आने की उनकी संगत में रुचि लेने ली संतों के पास आने की भावना भी पुण्योदय से होती है, जिनके पुण्य का ह्रदय नहीं होता, उनके लिए सत्संग की भावना का हृदय में उदय होना ही कल्लि होता है, संत दर्शन तो महादुर्लभ है ही। कहा भी है कि संसार में सभी कुछ मिलना सुलभ है किन्तु संत समागम होना अति दुर्लभ हैं -
तात मिले पुनि मात मिले सुत बात मिले युवती सुखदाई. राज मिले गजराज मिले सब साज मिले मनवांछित पाई। लोक मिले सुरलोक मिले विधिलोक मिले वैकुंठको जाई, सुन्दर और मिले सब ही सुख संतसमागम दुर्लभ भाई।
अभिप्राय यही है कि अन्य सभी कुछ प्राप्त हो सकता है सरलता से, किन्तु सुसंत का मिलना बड़ा कठिन होता है। मेषधारी बाबा, साधु, संन्यासी, योगी तथा यती आदि अनेक मिल जाते हैं जिन्तु जो सच्चे अर्थों में साधु कहे जाने योग्य हैं वे क्वचित् ही सद्भाग्य से मिलते हैं। अतः जब भी आपको ऐसा सुयोग मिले उसका लाभ उठाने से मत चूको ! छाद रखो कि मनुष्य जैसी संगति करता है उसमें वैसे ही गुण आते हैं। त्यागी पुरुषों की संगति से त्याग का पाठ सीखने को मिलता है तथा भोगियों के सहवास से भोगों की ओर मन उन्मुख होने लगता है। शराबी के साथ रहने से कभी न कभी शराब की लत पड़ जाती है और गवैये के साथ रहने से गाने की सारांश मेरे कहने का यही है कि जैसे की संगति में रहो कुछ न कुछ असर आए बिना नहीं रह सकता है। एक दोहे में कहा भी है:
काजर केरी कोठरी में, कैसो ही सयानो जाय
एक लीक काजर की लागि है पै लागि है।
भावार्थ इसका यही है कि व्यक्ति कितना भी सयाना क्यों न हो, अगर कुसंगियों के साथ रहेगा तो कुछ न कुछ दुर्गुण उसके हृदय में घर किये बिना नहीं रहेंगे।
समय की प्रतीक्षा मत करो!
इसलिये उत्साही छात्रो! अपनी लगन और बुध्दि को तुम्हें अच्छाई की ओर ले जाना है। अपनी शक्ति को सम्यन मोड़ देकर जीवन को सफल बनाने का प्रयास करना है। इसके लिए समय की प्रतीक्षा नहीं करनी है। शुभ कार्य जिस समय से प्रारम्भ किया जाय वही उत्तम समय होता है। उचित समय की प्रतीक्षा प्रमादी व्यक्ति करते हैं, किन्तु प्रतीक्षा में ही पुरुषार्थ करने का अवसर बीत जाता है और अन्त में पश्चात्ताप ही हाथ आता है। हाथ मलते हुए उन्हें यही कहना