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आनन्द प्रवचन भाग १
तथा कष्टों में गुजारते हैं। इससे यही रप्ताबित होता है कि दुष्ट व्यक्तियों को अपने कुकर्मों का, तथा सत्पुरूषों को अपने सुकर्मों का फल नहीं मिला करता ।
ऐसे शंकाशील व्यक्तियों को यह भली-भाँति जानना चाहिए कि कर्मवाद बड़ा गहन है। इसका गहराई से अध्ययन करने पर ही कर्मों की प्रकृतियों को समझा जा सकता है। यथा कुछ कर्म ऐसे होते हैं, जो अन्तर्मुहुर्त के बाद ही फल देना प्रारम्भ कर देते हैं, कुछ कर्म दिन महीनों और वर्षों के पश्चात् फल प्रदान करते हैं और कुछ निबिड़ कर्म ऐसे होते हैं जो कि जन्मजन्मान्तरों तक भी आत्मा का पीछा नहीं छोड़ते तथा समय-समय पर शुभ अथवा अशुभ फल दिया करते हैं। लाख प्रयत्न करने पर भी उनके नियत समय को टाला नहीं जा सकता। महाभारत में भी बताया गया है -
अचोद्यमानानि यथा पुष्पाणि ऊ फलानि च । स्वं कालं नातिवर्तन्ते तथा कर्म पुराकृतम् ॥
जैसे वृक्षों पर फूल और फल बिना किसी प्रेरणा के अपने समय पर लग जाते हैं, उसी प्रकार कर्म भी अपने फल प्रदान के समय का उल्लंघन नहीं करते।
इसलिये कर्म-बंधन के प्रधान वारण तथा दुःख व अशांति के बीज रूप कषायों से प्रत्येक मानव को बचने का प्रयात्न करना अनिवार्य है। दशवैकालिक सूत्र में भी यही निर्देश किया गया है -
वमे चत्तारि दोषाई छन्तो हियमप्पणो ।
अपना हित चाहने वाला प्राणी इन चारों दोषों का वमन
इसका अर्थ है
करता है, अर्थात् इन्हें त्याग देता है।
जब तक कषाय मन्द नहीं होते तब तक सुख एवं शांति प्राप्त करने के समस्त बाह्य प्रयत्न व्यर्थ हो जाते हैं। प्रिंस प्रकार शीतल जल के चंद छींटे दूध के उफान को नहीं रोक पाते, उसी प्रकार पूजा-पाठ भजन व प्रयत्न, श्रमण आदि बाह्य क्रियाएँ भी कषायों की वह्नि से झुलसती हुई आत्मा को शीतलता प्रदान नहीं कर सकतीं। कषायों की करामातों का पूज्यपाद श्री तिलोक ऋषिजी महाराज ने अपने पद्य में अत्यंत रुचिकर ढंग से वर्णन किया है। लिखा है -
प्रेम से जुझारसिंह वश किया विराज, मानसिंह, मायीदास, मिलिया कारों भाई हैं। कर्मसंन्द काठा भया, रुपचन्द को से प्यार, धनराज जी की बात चाहत सता ही है। ज्ञानचन्द जी की बात, सुनेन तनराम आवे नहीं दयाचन्द, सदा सुखदाई है। कहत तिलोकरिख मनाई लीजे मचन्द, नहीं तो कालूराम आया विपत गवाई है।