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• ऐसे पुत्र से क्या...? देता है। पान, बीड़ी, सिगरेट, चाय, सिनेमा और सैर-सपाटे का शौकीन छात्र कभी विद्या प्राप्त नहीं कर सकता। एक श्लोक में यही बताया गया है -
सुखार्थिनः कुतो विद्या, विद्यार्थिनः कुतः सुखम् ! सुखार्थी वा त्यजेद् विद्या, विद्यार्थी या त्यजेत् सुखम्!
- आचार्यचाणक्य - सुखार्थी को विद्या कहाँ, विद्यार्थी को सुख कहाँ? विद्यार्थी सुख को चाहे तो विद्या छोड़ दे और विद्या चाहे तो सुख त्या दे। क्या करना चाहिए?
तो बन्धुओं, अगर आप चाहते हैं कि आपकी संतान, आपके पुत्र व पुत्रियाँ, सुयोग्य, गुणवान, विद्वान और धार्मिक बनें, तो आपको उनके जन्म के साथ ही सजग होना चाहिए। तथा अपने पितृत्व धर्म का निर्वाह करते हुए उन्हें बचपन में ही उत्तम संस्कारों से युक्त एवं समस्त दुगुर्गों से बचाते हुए ज्ञान प्राप्ति की ओर अग्रसर करना चाहिए। उनमें नम्रता, विनयशीलता, निरभिमानता एवं अनुशासन-प्रियता के भाव भरने चाहिए। ऐसे सदगुणों से युतः हृदय ही धर्म को ग्रहण करने के उपयुक्त होते हैं। किन्तु अत्यधिक व्यस्तता और सांसारिक कार्यों में निमग्न रहने के कारण आप स्वयं अपने बालकों पर पूरा ध्यान नहीं दे सकते हैं तथा उन्हें यथोचित धार्मिक शिक्षण देने में असमर्थता का अनुभव करते हैं, तो आपको चाहिए कि धार्मिक शालाएँ खुलवाएँ और उनमें सुयोग्य अध्यापकों को रखकर अपने बचों को धर्म की जानकारी कराएँ, ताकि वे धर्म के महत्व को समझें और अपने जीवन को धर्ममय बनाते हुए मानव-जन्म को सार्थक बनाने का प्रयत्न करें।
संसार के अन्य कार्यों में आप हजारों और लाखों रूपये खर्च करते हैं। ब्याहशादियों में, सैर-सपाटों में तथा अन्य नाना प्रकार के मनोरंजक कार्यों में पानी की तरह पैसा उड़ाते हैं। फिर अपने बालकों के लिए, जिनसे आपके कुल की. समाज की और देश की शोभा बढ़ती है, उसके लिए कुछ प्रयत्न क्यों नहीं करते
याद रखिये
आपको यह नहीं भूलना चाहिए कि बालकों को अच्छा खिलाकर, अच्छा पहनाकर और खूब लाड़-प्यार से रखकर ही आप कर्तव्य को पूर्ण कर लेंगे। आपका प्यार और कर्तव्य अगर इन बातों तक ही सीमित रहा तो बचों का जीवन वही हंसों के बीच बगुले के समान हो जायगा और आपका पुत्र प्राप्त करना न करना बराबर हो जायगा। कवि "गिरधर' ने भी कहा है -