________________
• [६७]
आनन्द प्रवचन : भाग १ बड़े होने पर सभा-सोसाइटियों में हंसों के बीच में बगुलों के समान शोभाहीन मालूम देते हैं। सच्चे अर्थों में माता-पिता
नवजात शिशु इस पृथ्वी पर जम लेते ही जिनके सम्पर्क में आता है वे उसके माता-पिता ही होते हैं। माता-येता जिस प्रकार अपने बच्चे को बनाना चाहते हैं वह वैसा ही बन जाता है। माता-गेपेता ही बालक को चोर-डाकू या महापुरुष बना सकते हैं। पिता की सतर्कता और माता की लगन ही बालक के उज्ज्वल भविष्य के निर्माण में सहायक बन सकता हैं। कोई भी पुत्र तब तक सुपुत्र नहीं बन सकता, जब तक उसके माता-पिता उसे साही मार्ग-दर्शन न करें।
गाँधी जी की माता तो उनके शुवावस्था प्राप्त होने तक भी पूर्ण सजग रही थीं। उन्होंने गाँधीजी को विलायत भी तभी जाने दिया जब एक स्थानकवासी मुनिराज से मद्य-पान, माँस-भक्षण और परात्री-गमन का उन्हे त्याग करा दिया। ऐसी माताएं ही अपने बच्चों को धार्मिक और संस्कारी बना सकती हैं तथा सुसंस्कृत पुरुष ही अपने माता-पिता के गौरख को अक्षय:ख सकते हैं। विलायत नहीं जाऊँगा
श्री आशुतोष मुखर्जी जब कलकत्ता मइकोर्ट के जज और कलकत्ता विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर थे, उन्हें विलायत जानि का अवसर मिला। वे स्वयं जाने के लिए अत्यन्त उत्सुक होकर अपनी माता में विदेश यात्रा के लिए आज्ञा लेने गए। किन्तु धार्मिक विचारों से परिपूर्ण हृदयवा उनकी माता ने उन्हें विदेश जाने की अनुमति नहीं दी। मातृ-भक्त मुखर्जी ने उसी क्षणा विदेश जाने का विचार छोड़ दिया।
उस समय भारत के गवर्नर ला कर्जन थे। उन्हें जब यह बात मालूम हुई तो उन्होंने आशुतोष मुखर्जी को बुलाकर कहा - "आपको विलायत जाना चाहिए।"
मुखर्जी ने कहा - "सर ! मेरी माता ने इच्छा नहीं है।"
लार्ड कर्जन कुछ सत्ता पूर्ण स्वर से बोले - "जाकर अपनी माता से कहिये कि भारत के गवर्नर-जनरल आपको विल्लयत जाने की आज्ञा दे रहे हैं।"
मातृ-गौरव से दीप्त मुखर्जी ने उत्तम दिया - "मैं गवर्नर जनरल से निवेदन करता हूँ कि माता की आज्ञा का उलंधा करके मैं किसी भी दूसरे की आज्ञा का पालन नहीं कर सकता। चाहे वह कार व्यक्ति भारत का गवर्नर-जनरल ही क्यों न हो?"
बन्धुओं, ऐसे माता-पिता के भक्त और धार्मिक संस्कारों से ओत-प्रोत पुत्र अगर हों, तभी पुत्रों का होना सार्थक है अन्यथा यही कहना पड़ेगा कि :
कोऽर्थः पुत्रेण जातेन, यो न विद्वान् न धार्मिक:
पंचतंत्र