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आनन्द प्रवचन : भाग १ के मार्ग की पहचान करता है। संसार के स्वभाव को समझता है तथा सही मार्ग को अपने ज्ञान एवं विवेक के द्वारा जान कर उस पर चलने के लिये कटिबद्ध हो जाता है।
संन्यासाश्रम
यह जीवन का चौथा भाग है, और अत्यन्त महत्वपूर्ण है। गणित का चौथा अंग भागाकार है। भाग करने पर जिस प्रका हिस्सा निकाला जाता है, उसी प्रकार जीवन में से भी हिस्सा निकालो! दुनियादा के लिये तो तुमने खूब खर्च किया किन्तु परमार्थ के लिये क्या निकाला? सेन भक्ति, ईश-स्मरण और परोपकार के लिये भी अपना समय और द्रव्य निकालो। अपने घर के लिये तो सभी करते हैं इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। समाज, देश और राष्ट्र के लिये भी कुछ करो! जीवन में सिर्फ इकट्ठा ही करते गए, जोड़ करली, गुणाकार कर लिया, मगर परमार्थ के लिये कुछ नहीं निकाला तो जीवन की क्या सार्थकता होगी? . बंधुओ, जिस प्रकार गणित में भागामार असली तत्व है उसी प्रकार बताए गए तीन आश्रम पूर्वपीठिका हैं। असली तच्च तो भागाकार के समान संन्यासाश्रम है। अगर इसमें भी आपने कुछ लाभ उठा लिया तो सब बिगड़ा हुआ सुधर सकता है। जैसे कुएँ में सारी रस्सी गिर जाने पर भी अगर चार अंगुल की डोरी हाथ में रह जाए तो घड़ा, लोटा या बाल्टी निकल जाती है, उसी प्रकार जीवन का अधिकांश भाग या तीन आश्रम चले जाने पर भी अगर अन्तिम भाग में मानव चेत जाय तो जीवन सफल बनाया जा सकता है।
चारवर्ष की उम्र संत वायजीद से एक व्यक्ति ने पूछा --- "महात्मन्! आपकी उम्र क्या
है?"
संत ने उत्तर दिया--- "चार साल। व्यक्ति चौंक पड़ा। बोला – 'यह कैसे"
वायजीद ने उसे समझाया - "गरी जिन्दगी के सत्तर साल तो दुनियाँ के प्रपंच में गुजर गये। सिर्फ चार वरस #. मैं प्रभु की ओर देख रहा हूँ। बस, जितना समय उसके नजदीक बीता है वही मेरा असली जीवन काल है।"
संन्यासाश्रम में अर्थात् जीवन के अन्तम वर्षों में तो मनुष्य की इस प्रकार की चित्तवृत्ति होनी ही चाहिए। उसे आत्मा क सचे स्वरूप को समझ लेना चाहिये। तथा भली-भाँति जान लेना चाहिए कि
मानव दानव देव नारकी कीट पतंग नहीं हूँ, चाकर-ठाकुर स्वापी-सेवक राजा-प्रजा नहीं हूँ।