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आनन्द प्रवचन भाग १
है, असह्य गर्मी और मूसलधार वर्षा से प्राणियों को बचाता है। अर्थात् अपने ऊपर गर्मी, सर्दी और बरसात को सहन करके अनेक प्राणियों को उन कष्टों से दूर रखता
है।
इतना ही नहीं, अगर उसे काट लिया तो भी वह लकड़ी के रूप में इमारतें खड़ी करने में सहायक बनता है, धन के रूप में भोजन तैयार करने में सहायता देता है। इस प्रकार स्वयं जलकर भी वह उपकार करने से नहीं चूकता।
सहिष्णुता और नम्रता की शिक्षा भी वृक्ष से ली जा सकती है। हम प्रायः देखते हैं कि फलों से लदे रहने पर वह अभिमान से उठता नहीं, नीचे झुक जाता है। और मनुष्यों के द्वारा फेकें गये फाथरो की चोटों को सहकर भी उन्हें मधुर फल प्रदान करता है। पत्थरों का उत्तर वह पत्थरों की मार से नहीं देता, मीठे फलों से देता है। मनुष्यों में क्या ऐसी सहिष्णुता और धैर्यता पाई जाती है ? नहीं पाई जाती, यह बात तो नहीं है, किन्तु क्वचित महात्माओं में ही देखने को मिलती है।
सन्त न छोड़े संतई.....!
पद्य के अन्दर परोपकारियों की श्रेणी में तीसरा नम्बर सन्त का आया है । सन्तों का जन्म भी परोपकार के लिये होता है। जो सचे सन्त या साधु होते हैं, वे सदा ही संसार की कल्याण कामना करते हैं। वे अपने स्वार्थ के लिये नहीं जीते, परोपकार के लिये जीवन धारण करू हैं। अन्य कोई व्यक्ति अगर उनका कुछ बुरा करे तो वे उसका भला करने के प्रयत्न में उहते हैं।
कोई जागीर दे दो! एक बार स्वामी रामदास जी अपने शिष्यों के साथ कहीं जा रहे थे। रास्ते में एक गन्ने का खेत आया। स्वामी जी का एक शिष्य उस खेत में से गन्ना तोड़कर चूसने लगा। उसी समय खेत देत मालिक आ गया। बिना इजाजत अपने खेत से मन्ना खाया जाता देखकर उसे इकोध चढ़ आया और उसने स्वामी रामदास को गन्ना खाने वालों का मुखिया समझकर खुप पीटा।
शिवाजी को जब यह समाचार मिला तो वे अत्यन्त कुपित हुए और अपने गुरुजी के अपमान का बदला लेने को उतारू हो गए। उन्होंने फौरन कर्मचारी को भेजकर गन्ने के खेत के मालिक को बुलवाया।
उसने आकर देखा कि जिन्हें वह पी चुका है, वे स्वामी जी सिंहासन पर बैठे हैं और शिवाजी महाराज नीचे। यह देखते ही वह कांपने लगा।
"भगवान्! इस नीच व्यक्ति को क्या सजा
शिवाजी ने गुरुजी से पूछा दूँ ? बताइये!"
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स्वामी जी ने मुस्कराते हुए कहा- "मैं जो कहूँगा वह करोगे ?"