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नहीं एसो जन्म बारम्बर
वैष्णव धर्म-ग्रन्थों में जीवन को चार भागों में बाँटा जाता है। जिनके नाम हैं - ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम औ संन्यासाश्रम।
ब्रह्मचर्याश्रम पहला आश्रम ब्रह्मचर्याश्रम कहलाता है, और आपके गणित में सर्वप्रथम जोड़ का नम्बर आता है। जोड़ में क्या होता है? दो और दो जोड़े, चार हुए। चार में छ: जोड़े, दस हो गए। तात्पर्य यही की। जोड़ में बढती होती रहती है, इकठ्ठा . हो जाता है। टीक इसी तरह जीवन के पहन भाग ब्रह्मचर्याश्रम में ज्ञान को इकट्ठा करना होता है और उसमें अनुभवों को जोड़ते हुए उसकी निरंतर अभिवृद्धि करनी पड़ती है। पचीस वर्ष की उम्र तक मानव शीक्षार्थी बना रहता है तथा अन्य किसी भी विषय की ओर ध्यान दिए बिना उसे अपना ध्येय केवल ज्ञानप्राप्ति ही रखना होता है। ज्ञान तभी प्राप्त होता है जबकि ज्ञानार्थी अपने समस्त सुखों को उस पर न्यौछावर कर दे। कहा भी है -
"विद्यातुराणांन सावन निद्रा।"
—जिन्हें विद्या प्राप्त करने की उत्कर: लालसा है, वे न तो सुख की आकांक्षा करते हैं और न निद्रा की ओर ही ध्यान दिया करते हैं।
किन्तु इसके लिए आवश्यक है म्स की सरलता आर सत्यनिष्ठा। आज के विद्यार्थी नकल करके अथवा अन्य प्रकार के छल-फरेख से और उससे भी काम न चले तो शिक्षकों को रिश्वत देकर परीक्षाओं में नम्बर बढ़वा लेते हैं और अपने उत्तीर्ण होने का प्रमाण पत्र बनवा लेते हैं। ऐसा ज्ञान जो कि असत्य की नींव पर खड़ा होता है, जीवन को उन्नत नहीं बना सकता। इसलिए ज्ञानार्थी को निर्दोष भाव से ज्ञानाराधन करना चाहिये।
सत्यवादिता का पुरस्कार गोपालकृष्ण गोखले बचपन में जब स्कूल में पढ़ा करते थे, एक दिन उनके अध्यापक ने अंकगणित के कुछ प्रश्न विद्यार्थियों को करने के लिए दिये।
गोखले से वे प्रश्न हल नहीं किए गये तो उन्होंने अपने एक मित्र की सहायता ली और सवाल कर लिये। अगले दिन स्कूल में अध्यापक ने सब छात्रों की कापियों जॉची तो गोखले की पीठ थपथपाते हार कहा
"सब छात्रों की अपेक्षा गोखले के सवाल सही हैं अत: मैं इसे पुरस्कार देता हूँ।"
किन्तु गोखले यह सुनकर फूट-फूट कर रो पड़े। अध्यापक ने चकित होकर पूछा - "रोते क्यों हो तुम?"
__"मैंने आज आपको धोखा दिया है। मुझे इसका दण्ड मिलना चाहिये पर आर उलटे पुरस्कार दे रहे हैं।"