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सत्यशरण सदैव सुखदायो ६ पड़ता।" उसका चिन्तन यश्न (६०/५) के अनुसार इस प्रकार रहता है हमारे घर में सत्य की प्रतिष्ठा हो, असत्य हमसे दूर हो।"
वास्तव में दुःख से संतप्त व्यक्ति अगर सत्य की शरण ग्रहण कर लेता है तो उसे अपना दुःख दुःख महसूस नहीं होता, बल्कि वह दुःख को कर्मक्षयजनक सुख का कारण मानकर उसे सहर्ष सहने की शक्ति पा लेता है । सत्य की शरण में जाने पर कदाचित् व्यक्ति निर्धन भी हो जाए या उसके पास धनपतियों जितनी धन की आय न हो, फिर भी उसे निर्धनता या स्वल्पधनता दुःखदायिनी महसूस नहीं होती । बल्कि सत्यार्थी पुरुष के लिए निर्धनता शोभारूप है । सत्य के लिए वह निर्धनता को स्वीकार कर लेगा, बाह्य सुख-सुविधाओं का भी स्वेच्छा से बलिदान कर देगा, परन्तु सत्य को छोड़ना या असत्य को प्रश्रय देना कदापि स्वीकार नहीं करेगा।
दादा मावलंकर जिस न्यायालय में वकील थे, उसमें मजिस्ट्रेट उनका घनिष्ठ मित्र था। यों वकालत के क्षेत्र में उन्हें पर्याप्त यश, सम्मान और धन भी मिला था, पर यह सब उनके लिए तभी तक था, जब तक सांच को आंच नहीं आने पाती । वे कोई भी झूठा मुकदमा नहीं लेते थे, फिर चाहे झूठे मुकदमे की पैरवी से मिलने वाले हजारों रुपये ही क्यों न ठुकराने पड़ें।
एक बार उनके पास बेदखली के चालीस मुकदमे आए । मुकदमे लेकर पहुंचने वाले जानते थे कि कलेक्टर साहब दादा मावलंकर के मित्र हैं, इसलिए जीत की आशा से भारी अर्थराशि देने को तैयार थे। मावलंकर चाहते तो वैसा कर भी सकते थे । लेकिन उन्होंने पैसे का रत्तीभर भी लोभ न कर अपनी सत्यनिष्ठा का परिचय दिया । सभी दावेदारों को बुलाकर उन्होंने साफ-साफ कह दिया- 'आप लोग आज तो घर जाएँ । कल जिनके मुकदमे सच्चे हों, वे ही मेरे पास आएँ ।"
आपको आश्चर्य होगा कि दूसरे दिन एक व्यक्ति पहुँचा। मावलंकरजी ने उसके मुकदमे की पैरवी की, शेष ने उन पर बहुत दवाब डलवाया, पर उन्होंने वे मुकदमे छुए तक नहीं।
इससे निष्कर्ष निकलता है कि मावलंकर जैसे सत्य का अश्रय लेने वाले लोग अल्पधनी होते हुए भी शान, सुख, निर्भयता, निश्चिन्तता और स्वाभिमान के साथ जीते हैं, जबकि असत्य का अश्रय लेकर चलने वाले चाहे एक बार धन का अम्बार लगा लें, सुख-सुविधा के साधन भी प्रचुर मात्रा में जुटा लें, लेकिन वे धन और साधन उन्हें सुख की नींद सोने नहीं दे सकते, उनके जीवन में विषाद, क्षोभ, ग्लानि, अपमान, अशान्ति और पश्चात्ताप की परिस्थितियाँ अधिक आने की सम्भावना है ।
सत्यशरण : कष्टहरण लोगों को प्रायः सत्य की शक्ति पर भरोसा नहीं होता, इस कारण वे सत्य की शरण लेने से कतराते है । वे समझते हैं, सत्य बोलने या सत्य व्यवहार करने से हमारा दोष, या अपराध जाहिर हो जाएगा, हमारी तौहीन होगी, समाज में हम अप
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