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अलङ्कार-धारणा का विकास
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माना है। उदार गुण के कई तत्त्वों में से एक तत्त्व 'दिव्य-भाव-परीत' है, जिसकी व्याख्या करते हुए अभिनवगुप्त ने 'मानुषोचित व्यापार का भी दिव्यतया वर्णन' उदार का अङ्ग बताया है । यह धारणा आशयोत्कर्ष-वर्णन की धारणा से मिलती-जुलती है । इसके अतिरिक्त गुण-कीर्तन लक्षण तथा अतिशय लक्षण ( पाठान्तर ) में आशयोत्कर्ष-वर्णन पर बल दिया गया है। गुणकीर्तन लक्षण में दोष को छिपाकर केवल गुणों का वर्णन वाञ्छनीय माना गया है। अतिशय लक्षण के एक पाठ में यह कहा गया है कि इसमें जन-सामान्य में सम्भव बहुत-से गुणों का वर्णन कर विशेष का कथन होता है।' स्पष्टतः इन दोनों लक्षणों में व्यक्तित्व के उदात्त गुणों का वर्णन अपेक्षित माना गया है। भामह ने उदात्त अलङ्कार के सम्बन्ध में यही धारणा व्यक्त की है। भामह के अनुसार कुछ लोग वैभव के उत्कर्ष-वर्णन में भी उदात्त अलङ्कार स्वीकार करते हैं। हेमचन्द्र ने अपने काव्यानुशासन में भरत की उदात्तगुण-विषयक मान्यता उद्धृत करते हुए लिखा है कि भनेक सूक्ष्म विशेषणों से युक्त कथन में भरत उदार गुण मानते हैं । सम्भव है कि हेमचन्द्र ने 'नाट्य-शास्त्र' के एक पाठ में प्राप्त उस उदात्तगुण-लक्षण को इस रूप में प्रस्तुत किया हो, जिसमें यह कहा गया है कि जहाँ अनेक अर्थवाले विशेषणों से युक्त, सौष्ठव-पूर्ण तथा विचित्र अर्थमय कथन हो वहाँ उदात्त गुण होता है । 3 'नाट्यशास्त्र' में प्रत्येक गुण-लक्षण के एकाधिक पाठ उपलब्ध होने से इस सम्भावना का भी परिहार नहीं किया जा सकता कि हेमचन्द्र के सामने उदात्त-गुण की परिभाषा का कोई सम्पत्ति अनुपलब्ध पाठान्तर रहा हो, जिसमें उक्त धारणा व्यक्त की गई हो। अस्तु, हेमचन्द्र के कथन को प्रामाणिक मान लेने पर भूत्युत्कर्ष-वर्णनगत उदात्त तथा आशयोत्कर्ष-वर्णनमत उदात्त; इन दोनों अलङ्कार-भेदों का मूल भरत के उदात्त-गुण-लक्षण में माना जा सकता है ।'
१. "कीर्त्यमानैगुणर्यत्र विविधार्थसमुद्भवैः । दोषा न परिकथ्यन्ते तज्ज्ञ यं गुणकीर्तनम् ॥"
-भरत, ना० शा० १६, ६ २. बहून् गुणान् कीर्तयित्वा सामान्यजनसंभवान् । विशेषः कीर्त्यते यत्र ज्ञेयः सोऽतिशयो बुधैः ।।
-ना० शा० अ० पृ० ३०६. ३. बहुभिः सूक्ष्मैश्च विशेषः समेत्रमुदारमिति भरतः ।
—हेम० काव्यानु० पृ० २३८