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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ ४३ में प्रेय अलङ्कार स्वीकार किया गया है। अभिनवगुप्त ने भरत के प्रोत्साहन लक्षण की व्याख्या के क्रम में यह निर्देश किया है कि इसका पाठान्तर प्रियवचन संज्ञा से उपलब्ध है। प्रियवचन का जो लक्षण 'अभिनव-भारती' में उद्धृत है उससे प्रेय अलङ्कार तथा प्रियवचन लक्षण का स्वरूप अभिन्न सिद्ध होता है। पूज्य व्यक्तियों की पूजा के लिए हर्ष प्रकाशनार्थ जहाँ प्रसन्न चित्त से वचन प्रयुक्त होते हैं, वहाँ प्रियोक्ति नामक लक्षण माना गया है। इससे स्पष्ट है कि प्रेय अलङ्कार की धारणा प्रियोक्ति लक्षण-धारणा से भिन्न नहीं है।
रसवत
__रसवत् अलङ्कार की कल्पना सर्वप्रथम भामह ने की है। इसका आधार भरत की रस-धारणा है। भरत रसवादी आचार्य थे। उन्होंने नाट्य-प्रयोग में रस को प्रधान माना है। रस के अभाव में नाट्य का कोई भी प्रयोग व्यर्थं है ।२ अतः वाचिक अभिनय के अङ्ग गुण, अलङ्कार आदि भरत की दृष्टि में रस के सहायक मात्र हैं। दूसरी ओर भामह अलङ्कारवादी थे। इसीलिए उन्होंने रस को भी अलङ्कार की सीमा में ही समाहित कर लिया, रस को अलङ्कार का एक अङ्ग-मात्र बना दिया।
ऊर्जस्वी
भामह ने इस अलङ्कार का लक्षण नहीं देकर केवल उदाहरण दिया है।' ओजस्वी उक्ति में यह अलङ्कार माना गया है। उक्तिगत इस ऊर्जस्विता का सम्बन्ध हृदय के उत्साह आदि दीप्त भावों से माना जा सकता है । भरत ने भावगत ओजस्विता का वर्णन रस-सन्दर्भ में स्थायी भावों के विवेचन-क्रमः में किया है। भरत की भाव-विषयक इस मान्यता से प्रस्तुत अलङ्कार अनुप्राणित है।
१. यत्प्रसन्नेन मनसा पूज्यान् पूजयितु वचः । . हर्षप्रकाशनार्थं तु सा प्रियोक्तिरुदाहृता ॥
* ना० शा० अ० भा० पृ० ३०३ २. नहि रसादृते कश्चिदर्थः प्रवर्तते ।
-भरत, ना० शा० ६, पृ० २७२ ३. द्रष्टव्य-भामह, काव्यालं० ३, ७