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अलङ्कार-धारणा का विकास
[४१ लक्षण के योग से अतिशयोक्ति नामक नवीन अलङ्कार की सृष्टि हुई है।' 'भामह ने अतिशयोक्ति में लोक का अतिक्रमण करनेवाले कथन पर बल दिया है। भरत ने भी अतिशय में इससे मिलती-जुलती धारणा व्यक्त की थी।२ अतिशय में उक्त अर्थ से विशेष के बोध पर बल दिया गया था। स्पष्ट है कि भरत की अतिशय-लक्षण-धारणा तथा उनकी रूपक-अलङ्कारधारणा को मिलाकर अतिशयोक्ति अलङ्कार की सर्जना हुई ।
यथासंख्य
यथासंख्य अलङ्कार में कथन की जिस विशेष भङ्गी पर बल दिया गया है उसे भरत ने अपने 'नाट्यशास्त्र' में कहीं परिभाषित नहीं किया है। इस अलङ्कार में पहले जिस क्रम में अर्थों का उपस्थापन होता है, उसी क्रम में उनका अनुकथन होता है।३ वर्णित अर्थों का यथाक्रम अनुनिर्देश वस्तुतः उक्ति की सुन्दर भङ्गी है, जो भरत के द्वारा अनिर्दिष्ट रह "गई थी। अतः यथासंख्य अलङ्कार की उद्भावना का श्रेय भामह को प्राप्त है। उत्प्रेक्षा
भामह के अनुसार जहाँ सादृश्य अविवक्षित हो, पर उपमा का थोड़ा पुट हो, वर्ण्य में वस्तुतः न रहनेवाले गुण या क्रिया का योग बताया जाय
और जिसमें अतिशय का योग हो उसे उत्प्रेक्षा-अलङ्कार कहते हैं। भरत ने उत्प्रेक्षा अलङ्कार का उल्लेख नहीं किया है, किन्तु वे उस उक्तिभङ्गी से अनभिज्ञ नहीं थे, जिसमें परवर्ती आचार्यों ने उत्प्रेक्षा अलङ्कार स्वीकार किया है। भरत की व्यापक उपमा-धारणा से पृथक् उत्प्रेक्षा अलङ्कार की कल्पना आवश्यक नहीं थी। उनकी उपमा के कल्पिता भेद में ही परवर्ती ‘आचार्यों की उत्प्रेक्षा अन्तभुक्त थी। उत्प्रेक्षा में उपमान कल्पित होता है। भरत ने यही धारणा कल्पितोपमा के सम्बन्ध में व्यक्त की है। अतः उत्प्रेक्षा १. लक्षणबलादलङ्काराणां वैचित्र्यमागच्छति तथा हि-..."अतिशयना
म्नातिशयोक्ति ।-ना० शा० अ० भा०; पृ० ३२१ २. तुलनीय-भामह, काव्यालं० २, ८१ तथा भरत, ना० शा० १६, १३ ३. भूयसामुपदिष्टानामर्थानामसधर्मणाम् । क्रमशो योऽनुनिर्देशो यथासंख्यं तदुच्यते ॥
-भामह, काव्यालं० २,८९ ४. भामह, काव्यालङ्कार, २, ६१