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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
आ जाता है । अतः इस प्रकार की भङ्गी - भणिति आलङ्कारिक मानी जाती है । भरत ने न तो अपने किसी अलङ्कार - लक्षण में इस प्रकार की उक्ति भङ्गी का सङ्क ेत किया है और न किसी लक्षण की परिभाषा में ही । यह नहीं कहा जा सकता कि भरत के पूर्व ऐसी उक्तियों का प्रयोग ही नहीं हुआ था । ऋग्वेदसंहिता के पुरुष आदि सूक्तों में विभावना अलङ्कार का प्रयोग हुआ है । उदाहरणार्थ—
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥
यह, पुरुष सूक्त का मन्त्र 'अकारण से कार्य के जन्म' रूप विभावना का एक उदाहरण है ।
समासोक्ति
समासोक्ति अलङ्कार की कल्पना लक्षण के आधार पर ही की गई है । भामह के अनुसार समासोक्ति में एक कल्पित अर्थ से उसके समान विशेषण वाले अन्य अर्थ की व्यञ्जना होती है । कथित तथा अकथित अर्थों में विशेषण - साम्य के कारण ऐसा होता है ।' कार्य-लक्षण के एक पाठ में, अभिनवगुप्त के अनुसार, अर्थान्तर के कथन से अन्य अर्थ की प्रतीति पर बल दिया गया है । इसे अर्थापत्ति-संज्ञा से अभिहित किया गया है । २ समासोक्ति अलङ्कार तथा इस लक्षण के स्वरूप में विशेष अन्तर नहीं । अतः यह अनुमान किया जा सकता है कि उपमा अलङ्कार तथा इस लक्षण के आधार पर ही समासोक्ति अलङ्कार की कल्पना की गई होगी ।
अतिशयोक्ति
अभिनवगुप्त ने 'अभिनव भारती' में अपने आचार्य के मत की ओर निर्देश करते हुए यह कहा है कि भरत के अलङ्कार में अतिशय - नामक
१. यत्रोक्ते गम्यतेऽन्योर्थस्तत्समानविशेषणः ।
सा समासोक्तिरुद्दिष्टा संक्षिप्तार्थतया यथा ॥ - भामह, काव्यालं ० २, ७६ २. अन्ये त्वधीयते — अर्थान्तरस्य कथने यत्रान्योऽर्थः प्रतीयते । वाक्यमाधुर्यसम्पन्ना सार्थापत्तिरिति स्मृता ॥ ना० शा० अ० भा०
पृ० ३१६