Book Title: Akhyanakmanikosha
Author(s): Nemichandrasuri, Punyavijay, Dalsukh Malvania, Vasudev S Agarwal
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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आख्यानकमणिकोशमूल के कर्ता नेमिचन्द्रसूरि
ऐसा हमारा निश्चय नहीं किन्तु अनुमान मात्र है। पांचवे आचार्य अजितदेवमूरि के पट्टधर आनन्दसूरि के तीन पट्टधर आचार्य हो गये हैं। एक नेमिचन्द्रसूरि (आम्रदेवोपाध्याय के शिष्य और इस ग्रन्थ के मूलकर्ता) दूसरे प्रद्योतनसूरि और तीसरे जिनचन्द्रमरि ( आख्यानकमणिकोश के वृत्तिकार आम्रदेवमूरि के गुरु )।
मूलकार नेमिचन्द्रसूरि ने अपने किसी शिष्य का उल्लेख नहीं किया ऐसी अवस्था में इस विषय में विशेष कहना कठिन है । किन्तु उनके रत्नचूडकथानामक ग्रन्थ की प्रशस्ति में प्रथम प्रति के लेखक रूपसे प्रद्युम्नसूरि के धर्मपौत्र यशोदेवगणि का नाम मिलता है। ये यशोदेवसूरि आ० म० को० वृत्तिकार आम्रदेवसूरि के तीसरे शिष्य हैं । और आम्रदेवमूरि ने अपने पट्टधर के रूप में स्थापित आचार्यों में इनका चौथा नाम 'है । यद्यपि उन्होंने उत्तराध्ययनवृत्ति की प्रतिलिपि करने में सहायक रूपसे सर्वदेवगणि का उल्लेख किया है तथापि सर्वदेवगणि उनके शिष्य थे ऐसा फलित करना कठिन है । ___ आ० म० कोषकार नेमिचन्द्रसूरि के बडे गुरुभ्राता का नाम मुनिचन्द्र सूरि था एसा उलेख स्वयं उन्होंने उत्तराध्ययनसूत्रवृत्ति की प्रशस्ति में और महावीरचरियं की प्रशस्ति में किया है ।
प्रस्तुत मूल ग्रन्थ की रचना उन्होंने गीपदवी के मिलन के पूर्व की थी । अतएव अन्य गाथा में ग्रन्थकार का नाम 'देविंद' लिखा है । इस अन्त्य गाथा की वृत्ति में वृत्तिकार आम्रदेवसूरि ने यह स्पष्टीकरण किया है ।
नेमिचन्द्र सूरि की छोटी बडी पांच रचनाएँ हैं
१. आख्यानकमणिकोश मूल गाथा ५२, २. आत्मबोधकुलक अथवा धर्मोपदेशकुलकै गाथा २२, ३. उत्तराध्ययनवृत्ति श्लोकसंख्या १२०००, ४. रत्नचूडकथा लोकसंख्या ३०८१ और ५. महावीरचरियं श्लोकसंख्या ३००० ।
उक्त पांच कृतियों के अतिरिक्त अन्य कोई कृति उन्होंने नहीं की, उनकी रचनाओं को आ. म. कोश के वृत्तिकार आम्रदेवसूरि अपनी प्रशस्ति में और आम्रदेवमूरि के शिष्य नेमिचन्द्रसूरि भी अपनी अनन्तनाथचरित की प्रशस्ति में गिनाते हैं। किन्तु ये दोनों आचार्य 'आत्मबोधकुलक' का उल्लेख नहीं करते । संभवतः मात्र बाइस आर्याछंद में रची गई यह लघुतम कृति उनकी दृष्टि में साधारण सी रही हो अत एव दोनोंने उसे उल्लेख योग्य न समझा हो। आख्यानकमणिकोश की अन्त्यगाथा का उत्तरार्द्ध और आत्मबोधकुलक को अन्त्यगाथा का उत्तरार्द्ध को देखते हुए ऐसा फलित होता है कि दोनों के कर्ता एक ही होने चाहिये । इसीलिए हमने इस लघुकृति को भी उनकी कृतिओं में शामिल किया है ।
उपरोक्त पांच कृतियों में से पहली दो प्राकृत भाषा में आर्याछन्द में हैं। इनकी रचना उन्होंने सामान्य मुनिअवस्था में विक्रम संवत् ११२९ के पहले की है । इसी लिए उनकी अन्य गाथा में 'देविंद' पद मिलता है। तीसरी कृति उत्तराध्ययन सूत्र वृत्ति की रचना उन्होंने गणी पद प्राप्त करने बाद संवत ११२९ में को है इसलिए उन्होंने अपना नाम अन्त में 'देवेंद्रगणि' दिया है । इस उत्तराध्ययन सूत्र की ताडपत्रीय एवं कागज पर लिखी गई अनेक प्रतियों की प्रशस्ति में इनका
१. यहाँ चर्चित तथ्यों के आधार के लिए उक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त अनन्तनाथचरित की प्रशस्ति को देखना चाहिए । उस प्रशस्ति का उपयोगी अंश आम्रदेवसूरि के परिचय में दे दिया गया है ॥
२ संघवी पाडा जैन ज्ञान भंडार-पाटण में प्रस्तुत कुलक की दो हस्तप्रतें हैं। उनमें इस कृति के अलग अलग नाम मिलते हैं । देखो-पत्तनस्थ जैन ज्ञान भण्डार सूचि (ओरिएन्टल इन्स्टीटयूट वडोदरा द्वारा प्रकाशित) पृ० ६५ वा तथा ११४ वा ॥
३. पाटण संघवी पाडे की ताडपत्रीय प्रति में ३५०० श्लोक प्रमाण है ॥ ४. भक्खाणयमणिकोसं एयं जो पढइ कुणइ जहजोगं। देविंदसाहुमहियं अइरा सो लहइ अपवग्गं ।। (आख्यानकमणिकोश) __ तामा कुणसु कसाए. इंदियवसगो व मा तुम होसु । देविंदसाहुमहियं सिवसोक्खं जेण पाविहिसि ।। (आत्मबोधकुलक)
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