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"दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो"
उत्त० अ० ३२ गा० ७
अर्थात् जिसको मोह नहीं होता, मानों उसने दुःखों का भी नाश कर दिया । अतः सब प्रकार के दुःखों से छूटने के लिए स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए ।
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स्वाध्याय किन-किन ग्रन्थों का करना चाहिए ?
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स्वाध्याय उन्हीं ग्रन्थों का करना चाहिए, जो सर्वज्ञप्रणीत, सत्य पदार्थों के प्रदर्शक, ऐहलौकिक और पारलौकिक शिक्षाओं से युक्त, उभयलोकों के हितोपदेष्टा और जिनके स्वाध्याय से तप, क्षमा और हिंसा आदि तत्वों की प्राप्ति हो । तात्पर्य यह है कि जिनके स्वाध्याय से आत्मा ज्ञानी और चारित्रयुक्त एवं आदर्शरूप बन सके, वे ही आगम स्वाध्याय करने योग्य हैं । उन्हीं के स्वाध्याय से आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान सकता है । किंतु प्रत्येक मतावलम्बी अपने आगमों को सर्वज्ञप्रणीत मानता है; फिर इस बात का निर्णय कैसे हो कि अमुक आगम ही सर्वज्ञप्रणीत हैं, अन्य नहीं ? इसका उत्तर यही है कि आगमों की परीक्षा के लिए मध्यस्थ भाव से प्रमाण और नय के जानने की आवश्यकता है । जो आगम प्रमाण और नय से बाधित न हो सकें, वे ही प्रमाण-कोटी में माने जा सकते हैं । जैसे कि - कुछ व्यक्तियों ने अपने अपने आगमों को अपौरुषेय (ईश्वरोक्त ) माना है, उनका यह कथन प्रमाण - बाधित है । क्योंकि जब ईश्वर अकाय और अशरीरी है, तो भला फिर वह वर्णात्मकरूप छन्द किस प्रकार उच्चारण कर सकता है ! क्योंकि शरीर के बिना मुख नहीं होता और मुख के बिना वर्णों का उच्चारण नहीं हो सकता । अतः उनका यह कथन प्रमाण- बाधित सिद्ध हो जाता है । किन्तु जैनागम इस विषय को इस प्रकार प्रमाणपूर्वक सिद्ध करते हैं, जिसे मानने में किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकती और नाही किसी प्रकार की शंका ही उत्पन्न हो सकती है । उदाहरणार्थ - शब्द पौरुषेय है और अर्थ अपौरुषेय है; अर्थात् शब्दद्वारा सर्वज्ञ आत्माओं ने उन अर्थों का वर्णन किया जो कि अपौरुषेय हैं । कल्पना कीजिए कि सर्वज्ञ आत्मा ने वर्णन किया कि 'आत्मा नित्य है' सो यह शब्द तो पौरुषेय है, किन्तु शब्दों द्वारा जिस द्रव्य का वर्णन किया गया है, वह नित्य (अपौरुषेय) है । इसी प्रकार प्रत्येक द्रव्य के विषय में समझ लेना चाहिए । अतः सिद्ध हुआ कि सर्वज्ञप्रणीत आगमों का ही स्वाध्याय करना चाहिए ।
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