Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ तेरहवें अध्ययन में दर्दूर का उदाहरण है। नंद मणिकार राजगृह का निवासी था। सत्संग के प्रभाव में व्रत-नियम की साधना करते हुए मी वह चलित हो गया। उसने चार शालाओं के साथ एक वापिका का निर्माण कराया। उसकी वापिका के प्रति अत्यन्त ग्रासक्ति थी। आसक्ति के कारण प्रार्तध्यान में वह मृत्यू को वरण करता है और उसी वापी में दर्दुर बनता है। कुछ समय के बाद भगवान महावीर के प्रागमन की बात सुनकर जातिस्मरण प्राप्त करके वह वन्दन करने के लिए चला / पर घोड़े की टाप से घायल हो गया। वहीं पर अनशन पूर्वक प्राणों का परित्याग कर वह स्वर्ग का अधिकारी देव बना / इस अध्ययन में पुष्करिणी-वापिका का सुन्दर वर्णन है। वह वापिका चतुष्कोण थी और उसमें विविध प्रकार के कमल खिल रहे थे। उस पुष्करिणी के चारों ओर उपवन भी थे। उन उपवनों में प्राधुनिक युग के 'पाक' के सदृश स्थान-स्थान पर विविध प्रकार की कलाकृतियाँ निर्मित की गई थीं। वहाँ पर सैर-सपाटे के लिए जो लोग आते थे उनके लिए नाटक दिखाने की भी व्यवस्था की गई थी। चिकित्सालय का भी निर्माण कराया था। वहाँ पर कुशल निकित्सक नियुक्त थे। उन्हें वेतन भी मिलता था। उस युग में सोलह महारोग प्रचलित थे--- (1) श्वास (2) कास-खाँसी (3) ज्वर (4) दाह जलन (5) कुक्षिशूल (6) भंगदर (7) अर्श-बवासीर (8) अजीर्ण (9) नेत्रशूल (10) मस्तकशूल (12) भोजन विषयक अरुचि (12) नेत्रबेदना (13) कणवेदना (14) कडूखाज (15) दकोदर----जलोदर (16) कोढ / प्राचारांग१८3 में 16 महारोगों के नाम दूसरे प्रकार से मिलते हैं। विपाक,८४, निशीथ भाष्य'८५ आदि में भी 16 प्रकार की व्याधियों के उल्लेख हैं, पर नामों में भिन्नता है। चरकसंहिता१८६ में पाठ महारोगों का वर्णन है।। इस प्रकार इस अध्ययन में सांस्कृतिक दृष्टि से विपुल सामग्री है, जिसका ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है। चौदहवें अध्ययन में तेतलीपुत्र का वर्णन है। मानव जिस समय सुख के सागर पर तैरता हो उस समय उसे धार्मिक साधना करना पसन्द नहीं होता पर जिस समय दुःख की दावाग्नि में झुलस रहा हो, उस समय धर्म-क्रिया करने के लिए भावना उद्बुद्ध होती है। जब तेतली प्रधान का जीवन बहुत ही सुखी था, उस समय उसे धर्म-क्रिया करने की भावना ही नहीं जागृत हुई। पर पोट्टिल देव, जो पूर्वभव में पोट्टिला नामक उसकी धर्मपत्नी थी, उमने वचनबद्ध होने से तेतलीपुत्र को समझाने का प्रयास किया, पर जब वह नहीं समझा तो राजा कनकध्वज के अन्तर्मानस के विचार परिवर्तित कर दिये और प्रजा के भी। वह अपमान को सहन न कर सका। फांसी डालकर मरना चाहा, पर मर न सका। गर्दन में बड़ी शिला बाँधकर जल में कद कर, सूखी घास के ढेर में आग लगाकर, मरने का प्रयास किया, पर मर न सका / अन्त में देव ने प्रतिबोध देकर उसे संयममार्ग ग्रहण करने के लिए उत्प्रेरित किया। संयम ग्रहण कर उसने उत्कृष्ट संयम साधना की। इस अध्ययन में राजा कनकरथ की अत्यन्त निष्ठुरता का वर्णन है। वह स्वयं ही राज्य का उपभोग करना चाहता है और उसके मानस में यह क्रूर विचार उदबद्ध होता है कि कहीं मेरे पुत्र मुझसे राज्य छीन न लें। इसलिए वह अपने पुत्रों को विकलांग कर देता था। एक पिता राज्य के लोभ में इतना अमानवीय कृत्य 183. प्राचारांग--६-१-१७३ 184. विपाक-१, पृ० 7 185. निशीषभाष्य-११/३६४६ 186. वातव्याधिरपस्मारी, कुष्ठी शोफी तथोदरी। गूल्मी च मधुमेही च, राजयक्ष्मी च यो नरः / --चरकसंहिता इन्द्रियस्थान-९ 50 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org