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{ xxii } बंधनों को पार करते हुए तीसरी नारकी तक सीमित कर दिया। वंदनावश्यक में दो खमासमणो में बारह आवर्ती के साथ भक्ति भाव से, अहोभाव से गुरुदेव को वंदन करना चाहिए। यह उत्कृष्ट वंदन है। प्रभु महावीर ने अपनी अंतिम देशना उत्तराध्ययन सूत्र के प्रथम अध्ययन विनयश्रुत में फरमाया है। दशवैकालिक सूत्र के 9वें अध्ययन के चार उद्देशकों में “विनय समाधि' के नाम से बहुत ही सुंदर समायोजना शय्यंभवाचार्य ने की है। विनय अहंकार का मारक है, इसीलिए भव-सिंधु से तारक है। वंदन करने से पूर्व वंदनीय के गुणों का ज्ञान होना आवश्यक है। जो महाव्रतधारी हैं, रत्नत्रय से युक्त हैं, चारित्रिक गुणों से समृद्ध हैं, वही हमारे वंदनीय हैं।" “वेश देख पूजो रे भाई जिन करणी जोहि जाई।" यह अन्यन्मतियों का कथन हो सकता है। हमारे यहाँ तो कहते हैं-“इर्याभाषाएषणा, ओलखलो आचार। गुणवंत गुरु देखते, वंदो बारम्बार।” यह साधुत्व के गुणो की, आचार की भी आवश्यकता है। इसीलिए इस आवश्यक का नाम 'गुणवत्प्रतिपत्ति' है, यानि वंदनीय में वंदन योग्य गुण होने पर ही वंदनीय है, अन्यथा नहीं। कहते हैं ऐसे वेशधारियों को वंदन से कर्मों की निर्जरा नहीं होती मात्र कायक्लेश होता है। अपितु असंयम का अनुमोदन होने से कर्मों का बंधन ही होता है। वर्तमान में श्रावक समाज का यह कर्त्तव्य है कि वह जिनाज्ञा में रहकर आराधना करने वाले आचार निष्ठ संतों को ही आदर व बहुमान दें। शिथिलाचारियों, एकलविहारियों को वंदन आदि करने में विवेक रखने की आवश्यकता है। उन्हें साध्वाचार के अनुसार आहार, पानी, वस्त्र, स्थान आदि देने का निषेध नहीं कर रहा। क्योंकि गृहस्थ के दरवाजे सबके लिए खुले रहते हैं। परंतु उन्हें गुरु तरीके से तवज्जा देने में तो विवेक रखना ही चाहिए। गुरुदेव में विद्यमान गुणों को मद्देनजर रखकर वंदन करने से वे गुण हमारे भीतर भी प्रकट होते हैं। इसीलिए कहा है-“वंदे तद्गुण लब्ध्ये।" गुरुदेव का विनय तो करना ही है, परंतु उनकी अविनय, आशातना से सदैव बचते रहना है। कहा है-“अनाशातना बहुमान करणं च विनयः।" आशातना से बचते रहकर बहुमान करते रहने पर ही विनयगुण की पूर्णता होती है। गुरुदवे को वंदन आदि से विनय तो करे उनकी बात न माने तो यह अधूरा विनय है। उनके कथन को प्रभु-आज्ञा की तरह स्वीकार करने पर ही आराधना होती है। कुछ समझने के लिए जिज्ञासा या तर्क किया जा सकता है, वह अविनयय नहीं है। वंदन पाप, ताप व संताप सबको मिटाने वाला है। वंदन-चंदन से भी बढ़कर शीतलतादायक है।
___4. प्रतिक्रमण (स्खलित निंदना)-आवश्यक सूत्र का चतुर्थ चरण है प्रतिक्रमण। प्रथमावश्यक में जिन दोषों का समालोचन किया था-उन्हीं दोषों का यहाँ मिच्छामि दुक्कडम् देना है। उन दोषों से अपने आपको अलग करना है। भूतकाल में भूलवश जो अतिक्रमण हो गया था-उसी का प्रतिक्रमण करना है। साधक का साध्य तो समत्व ही है। उस समत्व को साध चुके या उसकी साधना में तल्लीन ऐसे गुरुदेव को क्रमश: दूसरे-तीसरे आवश्यक में स्तुति-वंदन करके अपने आत्मबल को बढ़ाया है। षड़ावश्यक में सबसे