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{xx} विद्यमान वीतरागता आदि स्मृति पथ में लाकर उसमें तल्लीन होना। मानव भव में श्रावक व्रतों का विराधक होने वाला नंदमणिकार का जीव तिर्यंच के भव में प्रभु भक्ति से मुक्ति मार्ग का आराधक बन गया। उत्तराध्ययन 29/1 4 में बताया ही है स्तव-स्तुति करने वाला ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप बोधि लाभ को प्राप्त कर लेता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप बोधि लाभ को प्राप्त हुआ जीव उसी भव में अंत क्रिया (मुक्ति) को प्राप्त कर लेता है या कल्प विमान को प्राप्त करता है। जो जिसको भजता है-वह उसको पाता है। संसार में किसी राजा, सेठ आदि की सेवा-पूजा करने वाला भौतिक सम्पत्ति का स्वामी बन सकता है, परंतु भगवान की निष्काम भाव भक्ति करने वाला तो आत्मिक गुणों के शाश्वत ऐश्वर्य को प्राप्त कर लेता है। जब साधक भगवद् भक्ति में, मन के तार को जोड़ता है, उसमें एकतार बनता है तो सहज ही उसके भीतर वे गुण प्रादुर्भूत होने लग जाते हैं। गुरुदवे फरमाते थे-जैसे सूर्योदय होने पर कमल खिलने लगता है, वैसे ही प्रभु भक्ति से आत्मा में विद्यमान गुण सहज ही सुविकसित होने लगते हैं। यह उन लोगों के लिए समाधान है जो ये कहते हैं कि भगवात तो वीतराग है-वह तो हमें कुछ देते नहीं है। परंतु यह सत्य है भक्त प्रभु भक्ति से स्वयं भगवान बन जाता है।
एक बात और समझने की है-जैनदर्शन की भक्ति अपने पुरुषार्थ को गौण नहीं करती है। भक्ति सहित पुरुषार्थ साधक का कार्य सुलभ हो जाता है। भगवान हमारे सारथी बनने को तैयार है, पर इस आंतरिक संग्राम में युद्ध तो हमें स्वयं ही लड़ना है। जैसे महाभारत के युद्ध में श्रीकृष्ण, अर्जुन के सारथी बनते हैं। युद्ध स्वयं अर्जुन ही करता है और विजय पताका भी फहराता है। पर यह भी सत्य है-समर्थ सारथी होने पर विजय भी आपके चरण अवश्य चूमेगी। इसलिए नमोत्थुणं में आता है-“धम्मसारहीणं" भगवान इस कर्मयुद्ध में हमारे सारथि बनने को तैयार है-पर यह समर हमें स्वयं ही लड़ना होगा। हाँ, यह निश्चित है कि प्रभु को हमने सारथि बनाकर युद्ध किया, तो हमारी कर्मों पर विजय मिलना आसान है, मुक्ति के साम्राज्य को प्राप्त करना सुनिश्चित ही है। कहते हैं भक्ति दो तरह की होती है, सचेष्ट और निश्चेष्ट। इसे एक उदाहरण के माध्यम से समझते हैं। एक तो है बिल्ली का बच्चा और दूसरा है बंदर का बच्चा। बिल्ली के बच्चे को उसकी माँ मुँह से पकड़ती है, परंतु बच्चे की तरफ कोई चेष्टा नहीं रहती यह है निश्चेष्ट भक्ति, जो यहाँ अनभीष्ट है। दूसरी तरफ है बंदर का बच्चा जिसे माँ अपनी छाती से चिपकाती है, परंतु बच्चा स्वयं अपनी तरफ से भी छाती से पकड़ के रखता है, यह है सचेष्ट्र भक्ति यही यहाँ अभीष्ट है। हम साधना में पुरुषार्थ करें, पर प्रभु भक्ति सहित करें। भक्ति से साधना में सरसता पैदा होती है। भक्त भक्ति से आनन्द मग्न बना रहता है और उसी प्रभु भक्ति से परमानन्द को प्राप्त कर लेता है। वह भगवान से कोई कामना नहीं करके मात्र मोक्ष प्राप्ति की भावना रखता है। इसीलिए चतुर्विंशति स्तव के अंतिम चरण में बोलता है-“सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु” हे सिद्ध भगवान आप