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{ xviii} सेठजी के घर में चोर चोरी करने हेतु प्रवेश कर गया। सेठजी ने चोर को देख लिया। आप ही बताइये-चोर चोरी करेगा या वहाँ से नौ-दो-ग्यारह होने की कोशिश करेगा? स्पष्ट है चोर वहाँ से भागने की ही कोशिश करेगा।
इसी तरह जीव रूपी सेठ द्वारा दोष रूपी चोर देख लिए जाने पर दोष का निष्कासन ही होगा। इसीलिये अनंत ज्ञानियों ने साधना का प्रथम चरण सामायिक बतलाया है। क्योंकि अपने दोषों को देखे बिना विषम भाव हटने वाला नहीं है और विषम भाव हटे बिना समभाव आने वाला नहीं है।
प्रथम सामायिक आवश्यक में श्रमण वर्ग 125 अतिचारों व श्रावक वर्ग 99 अतिचारों का ध्यान करता है। ध्यान में वह "तस्स मिच्छामि दुक्कडम्” नहीं बोलकर "तस्स आलोउं" बोलता है। आलोउं (आलोचना) आसमन्तात्लोचयति इति आलोचना यानि अच्छी तरह से अपने दोषों को देखना। जब तक वह अपने दोषों को अच्छी तरह देखेगा नहीं तब तक अच्छी तरह मिथ्या दुष्कृत कैसे दे पायेगा? अगर दोषों का आलोचन सम्यक् प्रकार से नहीं हुआ है तो उसका चतुर्थ आवश्यक में मिच्छामि दुक्कडम् (मिथ्या-दुष्कृत) देना भी मिथ्या है। राग-द्वेषात्मक परिणति का परित्याग करने पर ही जीव अपनी सहज स्वाभाविक समभावमय परिणति को प्राप्त करता है। सावध योग का (18 पाप) परिहार करने पर ही जीव सामायिक में आता है (सामाइएणं भंते........ उत्तराध्ययन 29/8)
सामायिक की यह एक व्याख्या हुई। सामायिक को अनेक व्याख्याओं से व्याख्यायित किया जा सकता है। अनुयोग द्वार सूत्र में सामायिक के लिए गाथा-द्वय में कहा है-जस्स सामाणिओ अप्पा, संजमे णियमे तवे तस्स सामाइयं होइ इइ केवलिभासियं। जिसकी आत्मा संयम, नियम और तप से समाहित रहती है, उसी के सामायिक होती है ऐसा केवली भगवान ने कहा है।
जो समो सव्वभुएसु, तसेसु थावरेसुय।
तस्स सामाइयं होई, इइ केवलिभासियं।। अर्थात् जो त्रस और स्थावर रूप समस्त जीव राशि के ऊपर समान भाव वाला होता है-उसके सामायिक होती है, ऐसा केवलिभाषित है। भगवती सूत्र में कहा है-आयासामाइए, आया सामाइयस्स अट्ठे। अर्थात् अपने शुद्ध स्वरूप में विराजमान रहना ही सामायिक है। और सामायिक का प्रयोजन भी उस शुद्ध आत्मिक स्वरूप को प्राप्त करना ही है।
2. चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक (उत्कीर्तन)-चौबीस तीर्थङ्कर भगवंतों की स्तुति करना, उनके गुणों का उत्कृष्ट भाव पूर्वक कीर्तन करना द्वितीय आवश्यक है। जब साधक अपने दोषों को दूर करने का