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T महावीर जीवन प्रभा
कथा [ लेखक ] हा प्रखरवक्ता सिद्धान्तवेदी वीरपुत्र श्री आनन्दसागरजी महाराज
[प्रकाशक] वीरपुत्र श्री आनन्दसागर ज्ञान भण्डार
[ द्रव्य सहायिका ] श्रीमतीजैनश्रीजी-वर्धन श्रीजी म.के
उपदेश से बीकानेर निवासिनी बैरागन प्रेमबाई
wooooवि०सं० १९९९ वीर सं० २४६९ सन् १९४३ प्रथम संस्करण । सर्व हक ( मूल्य५०० स्वाधीन । शिक्षा ग्रहण
जैन प्रेस-कोटा
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- Goलायलचल
विश्ववन्द्य चरित्र नायक
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भगवान महावीर
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समर्पण
परमपूज्य- परमत्यागी-परम संयमी, परोपकार-परायण, महा तपस्वी, क्षमावन्त-गुणवन्त, दयानिधी, समानभावी, धर्मावतार महा मुनी. श्वरों की पवित्र सेवा में “महावीर जीवन प्रभा" नामक यह लघु ग्रन्य समर्पण है.
ॐ शान्ति छ
चरणोपासकवीरपुत्र आनन्दसागर
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* विषय दर्शक *
नम्बर.
विषय.
उत्थान
8 प्रकरण पहिला ®
[पूर्वकाल ] सत्तावीस भव
ॐ प्रकरण दूसरा ® [गर्भावस्था ]
ज्ञानत्रय
स्वम दर्शन
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धन वृद्धि और धान्य वृष्टि करुणा-शोक-प्रतिज्ञा-हर्ष गर्भरक्षा और पालन दोहले
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* विषय दर्शक *
नम्बर.
विषय.
पृष्ठ.
® प्रकरण तीसरा ®
[जन्म]
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समय की स्थिति मात पिताओं का परिचय जन्म का प्रभाव सौतिक कर्म जन्माभिषेक जन्म महोत्सव नाम करण शैशव काल विवाह त्याग के सन्मुख
م
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.
8 प्रकरण चौथा ®
[दीक्षा]
६२
महोत्सव
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* विषय दर्शक *
नम्बर.
विषय.
(प्रवास क्रम) इन्द्र की प्रार्थना अस्वीकार प्रथम पारणा अमिग्रह विविध उपसर्ग सामुद्रिक पण्डित का प्रसङ्ग गौशालक का संयोग तपधरण विलक्षण अभिग्रह रहन-सहन छयस्थ कालीन चतुर्मास
® प्रकरण पाँचवाँ
[कैवल्य] समवसरण की रचना प्रथम देशना सुन्दर प्रसङ्ग
१०५ १०७ १०८
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* विषय वर्शक *
पृष्ठ
.* ४०
नम्बर.
विषय. गौतम ऋषि का गर्व ५. संघ स्थापना ६ . . मेघ कुमार का उद्धार
कौणिक की श्रद्धापूर्ण भक्ति ८ . . गौशालक का उपद्रव
समस्त चतुर्मास भगवन्त की देशमाएँ भगवान् का परिवार
प्रकरण छट्टवाँ ॐ
[मोक्ष] इन्द्र की प्रार्थना
१११ ११७ ११९ १२२ १२४ १२७
१२८
r ~ MM
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निर्वाण
~
मनियों का मोक्ष ® प्रकरण सातवाँ ७
[अवशेष] गौतम गणधर गौशालक का आत्म-पश्चाताप
१३८
१४२
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* विषय दर्शक*
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: १४४ : १४७ ।
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नम्बर.. विषयः
महत्व पूर्ण दीक्षाएँ भावना का प्राधान्य श्रावकोत्तम शासन रत्न . .. भक्त नृपेन्द्रों भावितीर्थकरों शासन काल
१
१५. ६ १५४
; १५५ । ....: १५७ ::
.
१५८
परिशिष्ट निवेदन
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इस ग्रंथ के लेखकपूज्यपाद प्रखरवक्ता सिद्धान्तवेदी
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बी. मा.मा.ना.म.
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वीरपुत्र श्री आनन्दसागरजी महाराज.
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महावीर जीवन प्रभा
(लेखक-अरवरवक्ता वीरपुत्र श्री आनन्द सागरजी महाराज)
___® उत्थान ® हम एक ऐसे पुरुषोत्तम की आदर्श जीवनी (Ideal-biography ) आपके सम्मुख उपस्थित कर रहे हैं कि जो अपने जीवन काल में एक अद्वितीय महात्मा थे; जिनका प्रभाकर ज्ञान ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता था. जिनकी दिव्य मधुरी वाणी सुधागंगा के प्रवाह समान जगज्जीवों के हृदयों को पवित्र बनाती थी, जिनका अद्भुत त्याग संसार के जीवों को भोगमुक्त करने की सबल प्रेरणा करता था, जिनकी घोर तपस्या विश्वजनों को देहादिक मूर्छा से दूर करने को विवश करती थी; जिनकी क्षमता दुनिया के लोगों को क्रोधाग्नि से निकाल कर शान्त रस में मम बना देती थी, जिनकी मृदुता आलम के आदमों को अहंभाव मिटाकर विनयशील बनाती थी, जिनकी ऋजुता खलक के बासिन्दों की वक्रता नाश कर सरलभावी कर देती थी, जिनका सन्तोष जगज्जनों की तृष्णा स्तम्भित करदेता था, जिनकी अमित शक्ति ब्रह्माण्ड को हिला कर पराक्रमियों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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२]
* महावीर जीवन प्रभा*
का गर्व नष्ट करदेती थी, जिनका परोपकार नदी के अस्खलित प्रवाह के समान प्रवाहित होकर सृष्टि के लोगों का सन्ताप अपहरण करदेती थी, जिनका प्रभाव सुर-सुरेन्द्र-नरेन्द्र-नर और पशुओं के जीवन को भारी प्रभावित करता था, वे सब किङ्करवत् होजाते थे और उनकी आध्यात्मिक शैली की योगीन्द्रो, मुनीन्द्रो आदि तमाम उपासना करते थे और करते हैं.
हम एक ऐसे ढंग से इस जीवनप्रभा का निर्माण करने का प्रयत्न करते हैं जोन केवल ऐतिहासिक या सैद्धान्तिक या व्यावहारिक दृष्टि से ही सम्पन्न हो, अथवा न मात्र किंवदन्तियों का ही खजाना हो, परन्तु आवश्यकीय समस्त उपयुक्त सामग्रियों का इसमें संचय किया जायना; इसमें यह भी ध्यान रक्खा जायगा कि मताग्रह के कारण, प्रद्वेष को सफल बनाने के हेतु जो जो उक्तियाँ होंगी तथा अघटित घटनाएं होंगी, उन सब से परे रहने का प्रयत्न किया जायगा- हमारा यह उद्देश्य है कि भगवान महावीर के समाचरित और औपदेशिक नौतिक सिद्धान्त जनता के सम्मुख रक्खे जाँय, उन की उदघोषणाओं को संसार के आत्माओं तक पहुँचाई जाय; जिन से वे अपने जीवन को पवित्र बनाकर आधि-व्याधि-उपाधि से मुक्त होकर मोक्षपद (Salvation) प्राप्त करने के योग्य बनें.
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[ ३
अब हम भगवान् महावीरदेव के पूर्वकाल सहित गर्भावस्था से मोक्ष पर्यन्त औपकारिक आदर्श जीवन चरित्र उपस्थित करते हैं; समय समय पर योग्य विषयों पर प्रकाश भी डालने का यत्न किया जायगा.
* उत्थान *
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४]
* महावीर जीवन प्रभा *
प्रकरण पहिला [ पूर्वकाल ]
( सत्तावीस भव )
जैन सिद्धान्तों की ऐसी मान्यता है कि सम्यक्त्व (Right-belief) यानी श्रद्धा ( मोक्ष का बीज ) प्राप्ति के पश्चात् के भव ही संख्या में शुमार होते हैं; इस नियम के अनुसार भगवन्त महावीर के सत्तावीस भवों में से छब्बीस भवों का मात्र दिग्दर्शन कराते हैं; और सत्तावीसवें भव का विस्तृत वर्णन करेंगे. उनके नाम ये हैं
Vlaand
ग्रामेशस्त्रिदशो मरीचिरमरो, षोढा परिवाद सुरः । संसारो बहु विश्वभूतिरमरो, नारायणो नारकः ॥ सिंहो नैरयिको भवेषु बहुश-वक्री सुरो नन्दनः । श्री पुष्पोत्तर निर्जरोऽवतु भवा - द्वीरस्त्रिलोकी गुरुः ॥ १ ॥
अर्थ - १ ग्रामचिन्तक २ देव ३ मरीचि ४- १५ देव और परिव्राजक क्रमशः १६ देव - बहुत से क्षुल्लक भव १७ विश्वभूति १८ देव १९ वासुदेव २० नारक २१ सिंह २२ नारक - बहुत छोटे छोटे भव २३ चक्रवर्ती २४ देव २५ नन्दन राजा २६ प्राणत नामक दसम
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* पूर्वकाल *
देवलोक के देव २७ तीन लोक के गुरु महावीर भगवान् हुए.
वीस भवों में से आवश्यकीय कतिपय भवों का संक्षिप्त वर्णन करेंगे; शेष भवों का ग्रन्थान्तरों से जान लेना चाहिए.
भगवन्त महावीर देवने पहिले भव में सम्यक्त्व उपार्जन किया- इस जम्बूद्वीप के पश्चिम महाविदेहान्तरगत प्रतिष्ठान पट्टन में नृपेन्द्र का नयसार नामक एक ग्राम चिन्तक था, राजा की आज्ञानुसार बहुत से नौकर और गाड़े साथ में लेकर लकड़ी लेने बन में गया, सव भृत्यों अपने अपने काम में व्यस्त थे और नयसार एक वृक्ष की साया में बैठा हुवा था; इस वक्त संघ से बिछुड़े हुए कितनेक साधु महाराज वहाँ पधारते देखे, तत्काल ही नयसार उठ कर सन्मुख गया, बन्दन किया और आदरसहित अपने स्थान पर ले आया, प्रार्थना पूर्वक उग्र भाव से अपने लिये लाये हुए भाते में से आहार दान दिया; यानी बहराया, उनसे धर्मोपदेश सुना और उन्हें रास्ता बता दिया- आहार दान से और वन्दन से नयसार ने यहाँ सम्यक्त्व उपार्जन किया.
प्रकाश-टीका टिप्पणी करने वाले यहाँ तुरन्त ही बोल उठेंगे कि अत्यन्त दुर्लभ सम्यक्त्तवरत्न रोटियों
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* महावीर जीवन प्रभा *
और सर झुकाने में ही मिल गया, यह बड़े सस्ते भाव का है। ऐसी मजाक उड़ाएंगे मगर उनका कहना समझदारी से परे है, श्रद्धा और भावना तत्व से वे अज्ञात हैं- त्यागी महात्माओं को चाहे लुखा और नीरस ही आहार दिया जाय; एवं सामान्य ही अभिवन्दन किया जाय; लेकिन उग्रभावना एक बड़े दर्जे ( Standered ) पर पहुँचा देती है, तो सम्यक्तव का प्राप्त होना कोई अतिशयोक्ति नहीं है. इससे आप सुपात्र दान का पाठ सीरव कर कार्यान्वित करें,
भगवन्त के तीसरे भव में तीर्थंकर भव का खुलासा होगया- परमात्मा ऋषभदेव स्वामी के उपदेश से अपने पुत्र भरत चक्रवर्ती के ५०० पाँच सौ पुत्रों ने और ७०० सात सौ पौत्रों ने भवतारिणी दीक्षा अङ्गीकार की; उनमें मरीचि नामक भरत का पुत्र था, उससे खड्गधारा समान दीक्षा न पलने से साधुवेष त्याग कर त्रीदण्डी का बाना धारण किया- लोच न कराकर मस्तक मंडाने लगा, पैरों में खड़ाउ रखने लगा, बल के लिए कमण्डलु धारण किया, गेरु के रंगे वस्त्र पहनने लगा; मतलब कि साधुपद की तमाम क्रियाओं को स्तिफा देदिया: समवसरण के बाहर इस ढंग से रहने लगा, आगन्तुक लोगों को उपदेश देकर
भगवन्त के पास दीक्षा दिला दिया करता था- एक वक्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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* पूर्वकाल -
कपिल नामक राजपुत्र मरीचि के पास आया, धर्मोपदेश सुनकर दीक्षा के लिए तैयार होगया, त्रिदण्डी ने ऋषभ देव स्वामी के पास प्रव्रज्या लेने का संकेत किया; वह वहाँ गया, समवसरण की रचना देखकर वापस लौट आया और कहने लगा कि ऋषभदेव में तो कुछ भी धर्म नहीं है, वे तो राज्य लीला में मग्न हैं, आप में धर्म हो तो मुझे दीक्षा देदो मरीचिने सोचा यह मेरे योग्य ही है, बस तुरन्त ही यह कहकर कि हाँ मेरे में धर्म है ! उसे दीक्षा देदी; उसमें धर्म न होते हुए भी 'मेरे में धर्म है। यहाँ उत्सूत्र (सिद्धान्तों के खिलाफ) प्ररूपणा कर कोटानुकोटि सागर प्रमाण संसार भ्रमण उपार्जन किया.
एक वक्त प्रभु को वन्दन कर भरत चक्रवर्ती ने प्रश्न किया कि भगवान् ! इस समय समवसरण में कोई भावि तीर्थकर का जीव है ? उत्तर मिला कि-बाहिर द्वार देश पर रहा हुवा तेरा पुत्र मरीचि जो त्रिदण्डी के वेश में है, वह 'महावीर' नाम का चौवीसवा तीथकर होगा। उसके पहिले भरत क्षेत्र में वासुदेव होगा और महाविदेह में चक्रवर्ती होगा, यह सुन हर्षित होकर भरत महाराज मावि तीथकर की हैसियत से मरीचि को वन्दन कर अपने घर पर चलेगये। इससे मरीचि फूला न समाया, गर्वान्वित होकर यह कहने लगा- मेरा कुल कितना उच्च है मेरे पितामह तीर्थकर
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८ ]
* महावीर जीवन प्रभा *
हुए, मेरे पिता चक्रवर्ती हैं, मैं इन दोनों से एक वासुदेव पद अधिक प्राप्त करूँगा; इस कुलमद से यहाँ नीचगोत्र उपार्जन हुवा - भगवान् के कथनानुसार उन्नीसवें भाव में पोतनपुर नगर में ' त्रिपृष्ट' नाम का पहिला वासुदेव हुबा और तेवीसवें भव में 'प्रियमित्र' नामक चक्रवर्ती हुवा; अन्त में दीक्षा ली, एक क्रोड़ वर्ष चारित्र पालकर समाधि पूर्वक मृत्यु हुई; एवं सत्तावीसवें भव में तीर्थंकर हुए.
प्रकाश - जैन मुनियों का चारित्र इतना कठिन है कि मरीचि जैसे भी उसके पालन में असमर्थ सिद्ध हुए चारित्र की रूपरेखा ( Out-Line ) इस प्रकार है(१) मुनिजन माधुकरी भिक्षा लाकर अपना निर्वाह करते
हैं, वह भी नीरस, दोषमुक्त और एक वक्त लाई जाती है,
योग्य मुनिजनों के अतिरिक्त आहार किसी को दे नहीं सकते, फेंक नहीं सकते और सिलक रख भी नहीं सकते रात्री के समय जल तक त्याग कर दिया जाता (२) प्रमाणोपेत श्वेतवस्त्र रखना होता है, वह भी जहाँ तक संभव हो अल्प मूल्य का हो और सादा हो, वस्त्रों का संग्रह हो नहीं सकता, किसी को दिया नहीं जा सकता (३) काष्ट के, मिट्टी के या तुम्बे के पात्र रक्खे जाते हैं; वे भी अल्प संख्या में हों, इन का भी संग्रह नहीं हो सकता और किसी को दिया नहीं जा सकता ( ४-६) बाल
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* पूर्वकाल *
बनवाना नहीं, जूती पहनना नहीं और किसी सवारी में बैठना नहीं; यानी लुंचन कराना, नंगे पैर रहना और पैर पैदल चलना (७) विहार में वरत्र-पात्रदि का अपना वजन खुद उठाना, यानी गृहस्थ को उठाने नहीं देना (८) पैसा रख नहीं सकते, उसे छतक नहीं सकते-पैसा इन्द से तमाम प्रकार के सिक्खे, नोट वगैरः जानना (९) बालिका-युवतियाँ वृद्धा; अर्थात् स्त्रीमात्र को स्पर्श नहीं कर सकते (१०) अग्नि को, कच्चे अनाज को, कच्चे जल को और कच्चे फल को छूतक नहीं सकते; चाहे शीतकाल हो या उष्णकाल हो, भूखे हों या प्यासे हों; सब ही सहन करना होता है इसके अतिरिक्त (१) व्रत-नियम पालन का पूरा ध्यान रखना होता है (२) सीनेमा-थीएटर-सरकस-मदारीखेलइन्द्रजाल-राज्य सवारी-धार्मिक के अतिरिक्त प्रत्येक प्रोसेसन (जलूस) आदि देखना नहीं (३) व्यर्थ डौलते फिरना नहीं (४) लबाड़पन-व्यर्थ वकवाद-मृषाभाषण-मार्मिक वचनादि कुत्सित भाषाओं त्याग करने का पूर्ण प्रत्यन कर सत्य-मधुरी और अर्थपूर्ण भाषा बोलते हुए मितभाषी बनना होता है। यानी संयमित भाषा होनी चाहिए (५) सोना उठना-बैठना-चलना-खाना-पीना-पहनना-बोलना; इत्यादि तमाम बर्ताव यत्नापूर्वक किये जाने चाहिए-मनिवरों के आचारों का यह संक्षेप उल्लेख किया गया; ग्रन्थ गौरव
के कारण उनके उन्नत विचारों का उल्लेख नहीं किया गया है. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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१०]
* महावीर जीवन प्रभा *
आप समझ गए होंगे कि जैन मुनियों का कितना उच्च और आदर्श त्याग होता है। आप ऐसे उच्च त्याग की भावना करें- त्रिदण्डी के जीवन में यह बड़ी श्रद्धा थी कि हरएक मुमुक्षु को उपदेश देकर भगवान् के शरण में भेजदिया करता था; आप भी ऐसी श्रद्धा रक्खा करें, मरीचिने यह बहुत बुरा किया कि भरत महाराज के मुख से मंगल समाचार सुनकर गर्वगर्त में गिर गए; ऐसा आप कभी न करें; मरीचि में आत्मधर्म न होते हुए भी कपिल को धर्म होने की कही, इससे दीर्धकालीन भववृद्धि की; मताग्रह के मोह के कारण आप ऐसा करके अपनी आत्मा को न डूबायं प्रत्युत ढोरों के रहने लायक बाड़ाबन्दी को तोड़ कर सत्य प्ररूपणा करें- सत्तावीस भव पहिले ही मावि तीर्थकर के कारण महावीर का जीव मरीचि वन्दनीक होगया, यह सारा ही पूर्व करणी का फल है। यह जानकर आपको शुद्ध करणी करनी चाहिए, चाहे अल्प ही हो- प्रभु का तीसरा भव बड़ा विचित्र रहा.
पच्चीसवें भव में भगवन्त ने तीर्थकर नाम का बंधन किया- इसही भरत क्षेत्रान्तरगत छत्रागा पुरी में नन्दन नाम का नरेन्द्र था, २४ चौवीस लक्ष वर्ष पर्यन्त गृहस्थावास में रहकर पोडीलाचार्य महाराज के पास त्यागदीक्षा ग्रहण की; एक लाख वर्ष तक महिने-महिने की
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* पूर्वकाल *
[११
तपस्या की, बीस स्थानक (तप का एक विशिष्ट अनुष्ठान ) का आराधन कर 'तीर्थकर नाम कर्म' उपार्जन किया.
प्रकाश-जैन शास्त्रों की यह मान्यता है कि बीस स्थानक तप आराधन से तीर्थंकर बनता है। यदि यह सत्य है तो मात्र इस भरत क्षेत्र में से लाखों तीर्थकर होंगे; इस तरह ५ भरत ५ ऐरवत और ५ महाविदेह; इन १५क्षेत्रों में से तो इतने तीर्थकर होना चाहिए कि तीन लोक में सर्वत्र उनके दर्शन होने लगें ४०० चार सौ उपवास और २० बीस बेले (एक साथ दो उपवास) करने से तीसरे भव में तीर्थंकर बन ही जायगा; यदि यह गारन्टी हो तो, हरएक नर-नारी अपनी पूरी ताकत लगा कर कोशिस कर सकता है। ऐसी शंका यहाँ हो सकती है। परन्तु यह बात इस तरह नहीं है, इसमें समझ फेर है, सिद्धान्तों का कहना तो सत्य ही है उस तपोविधान में ही यह स्पष्ट लिखा है कि "पहिला अरिहन्त पद आराधन करते हुए उत्कृष्ट रसायन (उग्र भावना) पैदा हो तो तीर्थंकर पद प्राप्त करे" इस तरह बीसों ही पद पर उल्लेख है बस यहाँ सारा ही महा 'उत्कृष्ट रसायन' पर है, यह सब को आता नहीं और समस्त तपस्वी तीर्थकर बनते नहीं-बीस स्थानक का आराधन कर नन्दन राज की तरह तीर्थकर पद प्राप्त करने की भरसक कोशिश करना चाहिए. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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१२]
* महावीर जीवन प्रभा *
'छव्वीसवें भव में भगवान् दसवें देवलोक के पुष्पोत्तर प्रवर पुण्डरीक विमान में बीस सागर की आयुष्य वाले देव हुए; वहाँ से सत्तावीसवें भवमें जगद्गुरु महावीर देव त्रिसला देवी के कूक्षि में अवतरे; जिन का जीवन अब क्रमशः बयान करते हैं
प्रकाश-श्वेताम्बर शास्त्रों का कथन है कि मरीचि के भव में नीच गौत्र का बन्धन किया था, इससे महावीर देवानन्दा ब्राह्मणी के कूक्षि में उत्पन्न हुए, यानी भिक्षुक कुल में अवतरे; पर विचारकों की यह मान्यताहै कि उस समय में जैनों और ब्राह्मणों के भारी मनोमालिन्य था, पारस्परिक द्वेषाग्नि की ज्वालाऐं प्रज्वलित हो रही थीं; अतः ब्राह्मणों को नीचा दिखाने के लिए गर्मापहार का प्रकरण दाखिल किया गया है; यद्यपि कर्मोदय के दायरे में यह गर्भापहार की घटना संभव हो सकती है। पर तीर्थकर जैसे महान् पद के लिए अशोभनिक है; अस्तु कुछ भी हो भगवान् दसम देवलोक से च्यवकर आषाढ शुदी षष्ठी के दिन उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में माता के गर्भ में अवतरे.
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* गर्भावस्था *
ॐ प्रकरण दूसरा [ गर्भावस्था ]
(ज्ञानत्रय) भगवान जब त्रिसला देवी के गर्भ में थे तब मति-श्रुति अवधि; इन तीन ज्ञानों से अभियुक्त थे- १. निर्मल बुद्धि और निर्मल विचार मति ज्ञान कहा जाता है २. शब्द ज्ञान शास्त्रीय बोध और श्रवण समझ श्रत ज्ञान वदा जाता है ३. रूपी पदार्थों के अवबोध को अवधि ज्ञान कहते हैं.
प्रकाश-पूर्वकृत तपस्या और त्याग का ही यह अतिशय प्रभाव है कि ज्ञानावरणीय के क्षयोपशम से गर्भ में ही तीन ज्ञान प्राप्त थे- यहाँ तो कइ भव व्यतीत होने पर भी मति-श्रुति ज्ञान की आप्ति कठिनतर समस्या है। अतः ज्ञान उपलब्धि के लिए ज्ञान का और ज्ञानी का सत्कारसम्मान बहुमान करिये, उनको बन्दन-नमस्कार करिये, उनका जाप और ध्यान से आराधन कर अभिष्ट फल प्राप्त करिये.
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* महावीर जीवन प्रभा *
( स्वप्न दर्शन )
जिस रात्रि को त्रिसला माता के गर्भ में भगवान् महावीर अवतरे, उस ही रात को मातेश्वरी ने चौदह महा स्वम देखे, तत्काल ही निद्रा टूट गई, सावधान होकर तमाम स्वप्नों को विचारे, शीघ्र ही पतिदेव सिद्धार्थ के स्थान पर पहुँचकर बड़ी नम्रता और आदर से उन को जागृत किये और मधुरी वाणी से प्राप्त स्वप्नों को इस प्रकार निवेदन किये.
१४ ]
१. मुक्ता फल के पुंज समान सपेत बलवान् सिंह देखा. २. रजत पर्वत समान श्वेत वर्ण का चार दान्त वाला हाथी देखा.
३. कमल पत्रों के समूह समान गौरवर्ण वाला सुडोल वृषभ देखा,
४. स्फार श्रृंगारों से सुसज्जित दिव्यरूप वाली लक्ष्मी देवी देखी.
५. पंच वर्णीय पुष्पों से गूँथी हुई सौगंधित मालायुगल देखा.
६. कर्पूर के पुंज समान अत्यन्त रमणीय पूर्ण चन्द्रमा देखा.
७. अशोक वृक्ष के समान जगच्चक्षु सहस्र किरण सूर्य
देखा.
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* गर्भावस्था
[१५ ८. स्वर्णमय दण्डवाली पवन से लहराती हुई पंचवर्णी
ध्वजा देखी. ९. कमल पर स्थापित जल से आपूरित मंगल सूचक
पूर्ण कलश देखा. १०. कमलों से विराजित सौगन्धित नीर से संभृत पब
सरोवर देखा. ११. लहरों से लहरायमान मच्छ-कच्छपादि से शोभित
क्षीर समुद्र देखा. १२. अनेक चित्रों से चित्रित अष्टोत्तर सहस्र स्तम्भों से
विराजित पुण्डरीक विमान देखा. १३. स्वर्ण स्थाल में नानाविध रत्नों से रचित रत्नराशी
देखा. १४. अनेक शिखाओं से युक्त धग् धग् शब्दायमान्
निर्धूम अग्नि देखा. उपर्युक्त चौदह महा स्वम का पतिदेव के सामने विस्तार पूर्वक बयान कर उनके फल की पृच्छा की; सिद्धार्थ नृपेन्द्र ने अत्यन्त हर्षित होकर इस प्रकार उत्तर दिया- हे देवि ! तुमने औदार्य-कल्याणकारी-सुधन्य-आरोग्यदाता-दीर्घायुकर्ता और मङ्गलस्वरूप महा स्वम देखे हैं। हे महामागे ! इन से अर्थलाभ-भोगलाम-पुत्रलाभ-सुखलाभ और राज्यलाभ होगा। इस तरह निश्चय पूर्वक नौ मास साढ़े सात Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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१६ ]
* महावीर जीवन प्रभा *
दिन व्यतीत होने पर अपने कुल में आश्रयभूत-दीपक समान - कुलशेखर - कुलतिलक-कुल दिनकर-कुलाधार - कुल कीर्तिकर - कुल वृद्धिकर - कुल निर्वाहकर - कुल यशस्कर और कुल तरुवर समान - सर्वांग सुन्दर - शशिसमान शान्त और सूर्य समान तेजस्वी पुत्ररत्न होगा - हे सुन्दरि ! बाल्य काल से मुक्त होने पर अतिशय कलावान् होगा, श्रवण मात्र से सर्व दर्शनों का ज्ञाता होगा; महा दानी, महा पराक्रमी, प्रतिज्ञा निर्वाहक और भूमण्डल पर विजय करने वाला होगा, हे महादेवि ! तुमने बड़े उत्तम स्वम देखे हैं.
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यह रुचिकर - अभिष्ट फल सुनकर त्रिसला महाराणी अत्यन्त प्रसन्न हुई, करबद्ध नतमस्तक होकर बोल उठीहे स्वामिन् ! आप का फरमान यथार्थ है निस्संदेह है, अपने परस्पर विचार मिलगये, दोनों को इच्छित और इष्ट है; पश्चात् आज्ञा प्राप्त कर राजहंसी की तरह अपने सुन्दर शयनगृह में वापस चली गईं - वहाँ जाकर सेविकाओं और सखियों को जगा कर कहने लगीं- मैंने उत्तम प्रधान - मंगलकारी महा स्वम देखे हैं, अब मैं दुबारा नींद न लूँ, वर्ना कहीं बुरे स्वम इन स्वप्न का नाश करदेंगे; इस प्रकार त्रिसला माता धर्म- जागरण करने लगीं, धार्मिक वार्तालाप में रजनीव्यतीत की.
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* गर्भावस्था *
प्रातःकाल होते ही सिद्धार्थ राजा ने आदेशी पुरुषों को आदेश दिया कि सभा मण्डप को सज्जित करो, सुगंधित बनाओ और सिंहासन की स्थापना करो, हर्षित होकर सर्व
र्य सम्पन्न किया- महाराजा सिद्धार्थ शौचक्रिया से निपट कर व्यायामशाला में पहुँचे; वहां दण्ड निकालना, मुद्गर घुमाना, बैठक लगाना, मलयुद्ध करना; इत्यादि नाना विध कसरत करके विश्राम लिया, कुशल मर्दकों ने सहस्र पाकादि तैल से उनका शरीर मर्दन किया, वहाँ से स्नानगृह में जाकर सुगंधमय जल से स्नान कर गोशिर्ष चन्दन से विलेपन किया, दिव्य वस्त्राभूषण धारण किये, सोलह श्रृंगार सज कर निम्नाङ्कित लोगों के साथ सभा मण्डप में पधारेः
१ अनेक गण-नायक २ दण्ड-नायक ३ राजेश्वर ४ कोतवाल ५ मण्डपाधिपति ६ कुटुम्बाधिपति ७ श्रीगण ८ देवगण ९ यमगण १० सामन्त ११ महासामन्त १२ मण्डलिक १३ महा मण्डलिक १४ चौरासी चौहट्टिया १५ मुकुटबन्ध १६ संधिगाल १७ दतपाल १८ संधिविग्रही १९ राज-विग्रही २० मन्त्री २१ महामन्त्री २२ सेठ २३ साहूकार २४ सार्थवाह २५ अंगरक्षक २६ पुरोहित २७ वृत्तिनायक २८ वही-वाहक २९ थइ. यायत ३० पटुपडियायत ३१ टाटकमाली ३२ इन्द्रShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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१८]
* महावीर जीवन प्रभा *
जाली ३३ फूलमाली ३४ धनुर्वादी ३५ मंत्रवादी ३६ तन्त्रवादी ३७ ज्योतिर्वादी ३८ दण्डधर ३९ धनुष्यधर ४० खड्गधर ४१ छत्रधर ४२ चामरधर ४३ पताकाधर ४४ ध्वजाधर ४५ दीपधर ४६ पुस्तकधर ४७ झारीधर ४८ ताम्बूलधर ४९ प्रतिहार ५० शय्यापालक ५१ गज पालक ५२ अश्व पालक ५३ अंगमर्दक ५४ देहरक्षक ५५ थोड़ा बोला ५६ कथा बोला ५७ सत्य बोला ५८ गुण बोला ५९ समस्या बोला ६० पारसी बोला ६१ व्याकरण बोला ६२ तर्क बोला ६३ साहित्य बंधक ६४ लक्षण बंधक ६५ छन्द बंधक ६६ अलङ्कार बंधक; इत्यादि परिवारयुक्त धवल मेघ में निकलते हुए सूर्य समान महाराजा सिद्धार्थ आकर पूर्वाभिमुख सिंहासन पर विराजे, छत्र रक्खा गया, चामर दूलने लगे, चारों ओर से लोग जय-जय शब्द बोल रहे थे, शीघ्रही राजेन्द्र ने आदेशी पुरुषों को आज्ञा की
तुम लोग शीघ्र ही जाकर अष्टाङ्ग निमित्त के ज्ञाता स्वम पाठकों को बुलालाओ, वे प्रसन्नता से आदर पूर्वक उनको बुला लाये, उनने पार्श्वनाथ रक्षक-गर्भित आशिर्वाद दिया
और नरेन्द्र के संकेतानुसार स्थापित भद्रासनों पर बैठ गये, समीप में ही महारानी त्रिसलादेवी एक मौलिक भद्रासन पर बैठी थीं- महाराजा ने गत रात्री के स्वम दर्शन की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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* गर्भावस्था *
[१९
सारी हकीकत कही, उनने परस्पर परामर्श कर स्वमशास्त्र का आख्यान सुनाने के साथ चौदह महास्वमों के फल इस प्रकार प्रदर्शित किये
१
आपका पुत्र रत्न सिंह के दर्शन से अष्टकम रूपहाथी का विदारण करेगा.
२ चार दान्त वाला हाथी देखने से दान-शील-तप
भावना; चार प्रकार का धर्मोपदेशक होगा.
___ वृषभ के देखने से भरत क्षेत्र में सम्यक्त्व रूप बीज
का वपन करेगा. ४ लक्ष्मी देवी के दर्शन से सम्वत्सरी दान देकर
पृथ्वी को प्रमुदित करेगा और तीर्थकर लक्ष्मी का भोक्ता होगा.
५ पुष्पमाला के अवलोकन से तीन लोक के जीव उन ___ की आज्ञा मस्तक पर धारण करेंगे. ६ चन्द्र दर्शन से भूमण्डल में समस्त भव्यात्माओं
के नेत्र और हृदय आल्हाद करने वाला होगा. ७ सूर्य दर्शन से पीठ पर भामण्डल चमकता रहेगा.
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२०7
* महावीर जीवन प्रभा *
८ ध्वजा देखने से आगे आगे धर्म ध्वजचलेगा.
२ पूर्ण कलश देखने से ज्ञान-चारित्र धर्म सम्पूर्ण
होगा तथा भक्तों के मनोरथ पूर्ण करने वाला होगा.
१० पद्म सरोवर के अवलोकन से विहार के समय
देव चरणों के नीचे कमलों की रचना करेंगे. ११ क्षीर समुद्र नजर आने से ज्ञान-दर्शन-चारित्रादि
गुणरत्नों का आधार होगा तथा धर्म मर्यादा धारण करने वाला होगा.
१२ देव विमान के दर्शन से स्वर्गवासी देवों के
आराध्य और मान्य होगा.
१३ रत्नराशी देखने से समवसरण (व्याख्यान का
महामण्डप) की रचना होगी. १४ निधूप अग्नि के देखने से मिथ्यात्व शीत को
हरण कर भव्यात्माओं का कल्याण-कर्ता होगा. इनके अतिरिक्त आप का पुत्ररत्न चौदह राजलोक के शिरवर पर विराजमान होगा, बाकी वे बात भी कहीं जो कि राजा ने राणी को कही थीं- यह सुनकर भूपेन्द्र
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* गर्भावस्था *
[२१
और सभाजन अत्यन्त प्रमुदित हुए, महाराणी त्रिसला भी आनन्दित हुई- महाराजा सिद्धार्थ ने वरस्त्रा- भूषण देकर पाठकों का सत्कार किया, भोजन कराया और जमीन भेंट की.
प्रकाश-पुण्य का पुंज रूप पुत्ररत्न जब गर्भ में आता है तब जननी को ऐसे बढ़िया स्वप्न आते हैं- उस आदर्श दम्पति की सांसारिक चर्या सदाचार से अभियुक्त थी, जिसके शयन का कमरा तक अलग था, फिर शय्या की तो बात ही क्या ? कितनी पवित्रता और अनुकरणीय मर्यादा थी उनकी रति-क्रीड़ा अत्यन्त मर्यादित थी; आज के लोग जो विषय कीट बने रहते हैं, उनको इससे पाठ सीखना चाहिए - महारानी त्रिसला अपने पतिदेव के साथ कितने अदब से पेश आई और आज की सुन्दरियाँ कितनी बत्तमीज हैं, इसकी तुलना कर बोधग्रहण करो- एक महा पुरुष के गर्भ में अवतरते ही पुण्य प्रकाश फैलने लगता है, जनता हर्षित होजाती है; अतः दूमरों को सुखी बना कर पुण्य उपार्जन करना चाहिए.
( धन वृद्धि और धान्य वृष्टि )
जिस दिन से भगवान् त्रिसलादेवी की कूक्षि में अवतरे उस दिन से शक्रेन्द्र के आज्ञानुसार तियग्- जृम्भक देवोंने
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२२]
* महावीर जीवन प्रभा *
वैसे स्थानों से धन ला ला कर सिद्धार्थ नृपेन्द्र के भण्डार भरे हैं कि उनके स्थापक, उनका कुटुम्ब, गौत्रीय, नोकर, चाकर और सर्व वारिशदार नष्ट होगये हों, जिनका नामोनिशान तक मिट गया हो, इस तरह सोना-चान्दी-मोहरें रत्न-माणिक-मोति-हीरा-पन्नादि जवाहिरात और जेवर वगैरः द्रव्यों से अमाप धनराशी बढ़ा दी गई- इसही प्रकार गेहूँ-चावल-मृग-चना-पटरादि धान्यों की राजेन्द्र के घर पर वृष्टि की.
प्रकाश-"भाग्यवान् के भूत कमा" यह कहावत यहाँ चरितार्थ होगई, एक तो पहिले ही लक्ष्मी का आधिपत्य था और फिर बिना प्रयत्न पुण्य योग से देवों ने भण्डार भरदिये, आप को पता है ? ऐसा क्यों हुवा ? नहीं तो सुनियेभवान्तरों के दान कने लाभानराय को नष्ट करदिया, इसही से लक्ष्मी रेलमठेल होगई और भूखों को भोजन कराया, इससे अन्न की वृष्टि होगई, यह सब गर्भ में विराजमान् महावीरदेव का प्रभाव था. आप अपनी परिस्थिति को सोचिये, कैसी अन्ता वेदना हो रही है। आप इससे दान-धर्म का बोध पाठ सोखिये और यथाशक्य आचरणा करिये महा पुरुषों का कथन है कि अन्न-जल समान कोई दान नहीं है.
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* गर्भावस्था *
( करुणा - शोक - प्रतिज्ञा - हर्ष )
[२३.
१ करुणा - भगवान् ने गर्भ में रहे हुए एक वक्त ज्ञान द्वारा विचार किया कि गर्भ के हिलने से, चलने से - कम्पने से माता के उदर में महति व्यथा होती है, इससे मैं स्तब्ध रहूँ, यह निश्चय कर पेट के एक हिस्से में प्रभु निश्चल रहे.
२ शोक - गर्भ के न हिलने से त्रिसला माता एकदम घबड़ाकर बोलने लगीं- अहो ! मेरा गर्भ किसी दुष्ट देव ने हरलिया है, अथवा गर्भ च्यवगया है, मरगया है, गल गया है, गिरगया है या स्थानभ्रष्ट होगया है !!! पहिले मेरा गर्भ हिलता था, चलता था, स्फुरता था, अब कुछ नहीं होता है, मेरे गर्भ को कुशल नहीं है त्रिसलादेवी का दिल भँग होगया, भारी खेद हुआ, शोक समुद्र में डूब गई; मुंह नीचा कर, गाल पर हाथ धर, दृष्टि जमीन पर रख कर सोचने लगी- अगर सचमुच ही मेरा गर्भ सकुशल नहीं है तो पृथ्वी पर मेरे जैसी पापिनी - अभागिनी कोई नहीं है पण्डितजनों ने सत्य ही कहा है कि- अभागियों के घर चिन्तामणि रत्न नहीं ठहर सकता, दरिद्रियों के गृह में निधान प्रकट नहीं होता, मरुधर में कल्पवृक्ष नहीं उगता पुण्यहीनों को अमृतपान की इच्छा पूरी नहीं हो सकती; हा देव ! तुझे धिक्कार हो, तेने ऐसा क्या किया ? मेरा
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२४]
* महावीर जीवन प्रभा *
मनोरथ वृक्ष जड़मूल से उखेड़ दिया, नेत्र देकर फिर छीन लिये, निधान दिखा कर पीछा खींच लिया, इस देव ने मेरुपर्वत पर आरोहण कर पुनः मुझे पृथ्वी पर पटकदी, बोल तो सही! मैने तेरा क्या अपराध किया ? अर र र र ! अन्तर वेदना सही नहीं जाती ! क्या करूँ ? कहाँ जाऊं? किसके आगे पुकार करूं ? इस पापिष्ट देव ने जैसा किया है वैसा शायद कोई शत्रु भी कभी नहीं करेगा, इस अनुपम गर्भ के बिना राज्य सुख भी जहर समान है, चौदह समों से सूचित त्रैलोक्यपूजित गुणनिधि पुत्ररत्न के विना सर्व शून्य है फिर सोचती है इसमें देव का क्या दोष है ! मेरी अशुभ करणी का ही यह कटु फल है कर्म-विपाक में उल्लेख है कि- पशु-पक्षी और मनुष्य के बालकों का जो पापात्मा वियोग ( Separation ) कराता है वह सन्तान रहित होता है, कदाचित सन्तान हो तो जीवित नहीं रहती; तात्पर्य यह है कि पशुओं में गाय, भैंस, हिरनी, बकरी वगैरः के बच्चों का माता से वियोग कराया हो- पक्षियों में मोर, तीतर, कबूतर, सारस आदि के बच्चों का विरह कराया हो अथवा मनुष्यों के शिशुओं की जुदाई कराई हो तो वह प्राणी निःसन्तान होता है- शायद मुझ पापिनी ने पूर्व भव में शूक, तीतर, कबूतर आदि को पीजरे में डाले हों, ध के लोभ से बछड़ों को अन्तराय दी हो, मूषकों के दिलों में गरम पानी डलवाया हो-धुआँ दिया हो-पत्थरों से बिलों
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* गर्भावस्था *
[ २५
को बन्द कराने से चूहे मरगये हों, एवं चिटियों के, मकोड़े के छोटे छोटे बिल जलसे बहा दिये हों, तथा अन्य स्त्रियों पर या सौतों पर कड़कड़े मोड़े हों, कागादि के अंडे फुड़ाये हों, स्त्रियों के गर्भ गिरवाये हों, शील खण्डन किये होंकराये हों; उन दुष्ट कर्मों का यह दारूण फल है. फिर जरा झिझककर बोलती है-रे दैव ! निर्दय - पापिष्ट-दुष्ट-निष्ठुरनिकृष्ट कर्मकारक ! निरपराधी जनमारक - विश्वास घातक ! पापमूर्ते - अकार्य सज्ज - निर्लज्ज ! तू किस लिये निष्कारण वैरी बनगया है, तू प्रकट होकर कहतो सही, मैंने तेरा क्या गुनाह किया है ? इस प्रकार विलापात करती हुई त्रिसला देवी को सखियाँ पूछती हैं- हे सखि ! किस कारण तुम इतना दुःख करती हो? त्रिसला निश्वास डालती हुई बोलती है- बहिनों ! कहने योग्य कोई बात नहीं है- क्या कहूँ ! मैं मंद भागिनी हूँ, मेरा जीवन धूल में मिल गया, आगे न बोल सकी और मूर्छित होकर ज़मीन पर गिर गई, पासवालीं शीतलोपचार कर उसको होंस में लातीं हैं, फिर वह रोने लगती है और सखियों के बार बार पूछने पर गर्भ का दुःखद स्वरूप कहती हुई पुनः पुनः गस खाकर गिर जाती है; यह हकीकत जानने पर सारा राज्य परिवार चिन्तातुर बन गया, चारों तरफ हाहाकार मच गया- इस समय उलहना देती हुई कोइ सखी कहती है- हे कुलदेवि ! तुम जिन्दा हो कि मरगई, हमने सदा तुमारी भक्तिपूर्वक
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२६]
* महावीर जीवन प्रभा *
सेवा पूजा की है, इस वक्त काम न आओगी तो किस दिन प्रकट होगी; बाद कितनीक कुलकी वृद्धस्त्रियाँ यन्त्रमन्त्र-तन्त्र से शान्तिक-पौष्टिक कर्म करती हैं, कितनीक नैमित्तिकों को पूछताछ करती हैं- राज सभा में गीत-गानवाजिन्त्र-नृत्यादि कतइ बन्द करादिये गए, उंचे आवज़ तक से कोइ बोल नहीं सकता, महाराजा सिद्धार्थ शोक-सागर में डूब गये, राज कर्मचारी किंकर्त्तव्यमूढ होगए, राज महल सारा शुन्य होगया, राजधानी भर में चिन्ता उत्पन्न होगई है, खान-पान-दान-स्नान-बोलना-हँसना-सोना वगैरः मानो सब भूल गये हैं; कोई किसी को पूछता है तब निश्वास डाल कर उत्तर देते हैं, आँसुओं से सब के मुँह धुले नजर आते हैं, तमाम नागरिक शून्य-चित्त और दिग्मूढ बनगये हैं। इस तरह सारे नगर में सर्वत्र शोक ही शोक छागया.
३ प्रतिज्ञा-महावीर प्रभुने अपने ज्ञान द्वारा मातेश्वरी का दुःख जान कर विचार किया- क्या किया जाय? कैसे कहा जाय ? मोह की गति-विधि विचित्र है, मैंने तो माताजी के हित के लिये-सुख के लिये किया था, वह दुखःकर्ता होगया है, सच है ! नारियल के जल में शीतलता के लिये कपूर डाला जाता है वह जहर बन जाता है।
उस ही तरह मेरा किया हुवा हित जननी को अहितकर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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* गर्भावस्था *
हुआ; अहो! नहीं देखने पर भी मुझ पर इतना प्रेम है तो देखने पर कहना ही क्या ? अमाप प्रेम होगा, इसलिये "माता पिता के जीते हुए मैं दीक्षा ग्रहण नहीं करूंगा" चूँकि ऐसा करने पर वे मरण-शरण हो जायंगे; इसलिये ऐसी प्रतिज्ञा की; पश्चात् शरीर का एक देश हिलाया.
४ हर्ष-तब त्रिसला माता गर्भ को हिलते हुए, स्फुरते हुए, बढ़ते हुए जान कर अत्यन्त हर्षित हुई, सन्तुष्ट हुई, हृदय में आनन्दित होकर इस प्रकार पुलकित वदन से बोलने लगीं- अहो सखियों ! मेरा गर्भ किसी ने हरा नहीं, गर्भ मरा नहीं, गला नहीं, खिरा नहीं और नष्ट भी नहीं हुआ, पहिले हिलता-चलता बन्द होगया था, अब हिलता चलता है, मेरे गर्भ में कोई विघ्न नहीं है मैं भाग्यवती हूँ पुण्यात्मा हूँ-त्रिभुवनमान्या हूँ-मेरा जीवन प्रशंसनीय है, प्रभु पार्श्वनाथ मुझ पर प्रसन्न हैं। गुरुदेव भी खुश हैं ! आजन्म आराधित जैन धर्म मुझे फला है !!! गोत्र देव भी मेरे पर राजी है, इस प्रकार बोलती हुई महारानी त्रिसलादेवी की रोमराजि पुलकित हुई, नेत्र कमल विकसित हुए, मुख-चन्द्र दमकने लगा, महारानी को प्रसन्न वदन देखकर वृद्धस्त्रियाँ आशिर्वाद देने लगी, सधवाएं गीत गान करने लगी, गणिकाएँ नृत्य करने लगी स्थान-स्थान पर कुंकुम के छींटे डाले गये, शहर में जगह-जगह वजाएँ
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२८ ]
* महावीर जीवन प्रभा "
फहराने लगीं, द्वारों पर तोरण बांधे गए, मोतियों के साथिये रचे गये, पंचवर्णीय पुष्पों के ढेर लगाये गये, तमाम स्त्री-पुरुषों ने नवीन वस्त्र आभूषण पहिने, सधवा और कुमारिकाएँ अक्षत और फलों के थाल लेलेकर मंगल गीत गाती हुई त्रिसलादेवी के समीप आतीं हैं, भट्ट लोग विरुदावली बोलने लगे; इस तरह राज मार्ग चतुर्वर्ण-समूह से भरगया, श्रृंगारे हुए अनेक हाथी-घोड़े - रथादि विलसित हो रहे हैं, मंगल गीत गाये जारहे हैं वाजिन्त्र बज रहे हैं; दुंदुभी मेघ समान गर्जारव कर रही है; इस प्रकार के सम्मर्दन से राज्य स्थान विशाल होने पर भी संकीर्ण होगया है - जिन मंदिरों में स्नात्र पूजा कराई जारहीं हैं, बन्दी जनों को कारावास से मुक्त कर दिये गए हैं, मुनियों को बन्दन पूर्वक प्रतिलाभा जारहा है, स्वधर्मियों की भक्ति की जारही है; इस कदर समग्र शहर में आनन्द ही आनन्द छा रहा है.
प्रकाश - अब चारों ही बातों पर प्रकाश डालते हैं( १ ) कुदरत के नियम को मानो तत्रदील कर दिया, ऐसा गर्भस्थ भगवान् की निश्चलता का अर्थ लगता है, यह कहाँ तक ठीक माना जा सकता है, ऐसा सहज विचार उत्पन्न होगा; पर संसार में अपवाद ( Exception) एक ऐसा नियम है कि सशक्त और समर्थ उसकी आचरण कर
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* गर्भावस्था *
सकते हैं। बस इस ही तरह भगवन्त ने मातेश्वरी पर करुणा की; इस में विशिष्टता तो यह मिलती है कि भगवान् गर्भ काल से ही कितने दयालु थे जिसकी अग्रिम जीवनी से आप को सीखने मिलेगा (२) मातेश्वरी त्रिसलादेवी को पुत्र-प्रेम कितना अगाध था यह उनका दयनीय शोकमय दुःख-दर्द से पता चलता है, उनने नाना प्रकार के देव को उलहने दिए, पर आखिर अपनी करणी का चित्र सापने रखकर भारी पश्चाताप किया और संसार भर की माताओं की आँखें खोल कर शिष्ट सामग्री उन के सामने रखदी, एक इस पुण्यमूर्ति के पीछे संख्यातीत लोगों को दुःख उठाना पड़ा, यह मामूली बात नहीं है- क्या इससे संसार की माताएं पुत्रप्रेम का पाठ सीखेंगी? और क्या इस नैतिक जीवन में से आप भी कुछ खरीदेंगे? जरूर विचार करिये (३) अन्ततः मातृवात्सल्य का बदला भगवान् ने गर्भ में रहकर ही अपनी प्रतिज्ञा से पूण करदिया- स्वयं लेखक ने भी दीक्षा के पूर्व ऐसी प्रतिज्ञा की थी कि पिता श्री के जीवन-काल में संयम धारण नहीं करना; कारण कि उनको अत्यन्त दुःख होने का संभव था, माताजी तो ग्यारह साल की उम्र में ही गुजर चुकी थीं- सुपुत्रों के यह लक्षण हैं कि अपने माता-पिता को दुःखी कर गृहवास का त्यागन करें, वे आक्रन्द करते रहें, उनको कोइ आधार न हो, उनकी कोई व्यवस्थान हो और उनको रखड़ते
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३०]
* महावीर जीवन प्रभा *
छोड़ कर चारित्र लेलेना उचित नहीं है। इसही लिये भगवन्त ने आज्ञा का मार्ग प्रधान रक्खा. जनता इससे बोध लेकर अपना नैतिक और धार्मिक जीवन उन्नत बनावें (४) भगवान् ने अपने अंग का एक देश हिला कर मातेश्वरी को खुश खुश करदी माताजी के हर्षोद्गार न जाने किस अन्तर-पट से निकले जिसका पता नहीं चला, उनके मौलिक उद्गारों से शहर के समस्त लोगों के हृदय नौ नौ गज़ ऊँचे उछल रहे थे; इस वक्त स्वर्ग का आनन्द भी उनके सामने तुच्छ सा था. क्या ऐसे हर्ष प्रसङ्ग में आप भी शरीक होकर आनन्द लूटेंगे ? अवश्य भावना रखना चाहिये.
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(गर्भ रक्षा और पालन)
त्रिसला माता आनन्दमन बनकर भलि-भाँति गर्भ रक्षा और गर्भ-पालन करती थीं- अति शीत-आहार (बहुत ठंडा-बासी) अति उष्ण-आहार (गरम-गरम) झूठ-मिर्च आदि का तीक्ष्ण आहार, गुड़-शकर आदि का मिष्ट आहार, चने उड़दादि का रूक्ष आहार, फल-फूलादि कास्निग्ध आहार, घृत-तैलादि का चिकना आहार, घृतवर्जित लूखा आहार अतिशय रूप से नहीं करती थीं 'अतिसर्वत्र वर्जयेत्' इस सिद्धान्त का पालन करती थीं गर्भवती सुन्द
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* गर्भावस्था *
३१]
रियों के लिए जो जो आहार वैद्यक शास्त्र में निषेध हैं, उन का त्याग करती थीं निषेधात्मक आहार से गर्भ को इस प्रकार हानि होती है- .
वातलैश्व भवेद् गर्भः । कुब्जान्ध जड़वामनः ॥ पित्तलैः स्खलितः पिङ्गः। चित्रिपाण्डुकफात्मभिः ॥१॥ अतिलवणं नेत्रहरं । अतिशीतं मारुतं प्रकोपयति ।। अत्युष्णं हरतिबलं । अतिकामं जीवितं हरति ॥२॥
भावार्थ-चने, उड़द आदि वायुवाले आहार से गर्भ कुबड़ा-अँधा मूर्ख और बावनिया होता है, गेहूँ वगैरः पित्त वाले आहार से गर्भ गिर जाता है, दही आदि कफवाले आहार से गर्भ चित्री रोगवाला या पाण्डु रोगवाला होता है- यहाँ पर सर्व वस्तु अति खाने के साथ सम्बंध है- ॥१॥ गर्भवती स्त्री जो अति नमकीन आहार करे तो बालक के नेत्रों में हानि पहुँचती है, अति ठंडा आहार करे तो शरीर में कम्पवायु होता है, अति उष्ण आहार करे तो बलहीन होता है, और अति काम-क्रीड़ा करने से बालक मर जाता है. ॥२॥
वैद्यक शास्त्र ने यह भी बताया है कि- १ अधिक पानी पीने से २ उत्कटादि विषम आसन से ३ दिन में सोने से ४ रात्री में जागने से ५-६ लघुनीत-बड़ीनीत रोकने
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* महावीर जीवन प्रभा *
से इन छः प्रकार से रोगोत्पत्ति होती है; अतः गर्भवती को ये कार्य नहीं करने चाहिये.
इमही तरह गभ के छः मास के बाद विषय-सेवन गाड़ी-ऊँटादि सबारी पर बैठना, पैदल चलना, ऊँची-नीची ज़मीन पर विहरना, ऊँचे से कूदना, वज़न उठाना, झगड़ा करना, दास-दासी-पशु वगैरः को पीटना, ढीले पलंग पर सोना, शरीर प्रमाण से छोटी या अधिक बड़ी शय्या पर शयन करना, सकड़े आसन पर बठना, उपवासादि तप करना, लूखा-तीखा-कडवा-कषायला-मीठा-चीकना और खट्टा भोजन अधिक प्रमाण में करना, ज्यादा खाना, अति राग करना, अति शोक करना, इत्यादि करने से उत्तम गर्भ स्थान से भ्रष्ट हो जाता है। वास्ते गर्भवती को ऐसा नहीं करना चाहिए; इसलिये त्रिसला माता उपरोक्त कार्य नहीं करती थी. गर्भ काल में महादेवी त्रिसला को सखियाँ इस कदर हिदायतें देती थीं
मन्दं संचर मंदमेवनिगद, व्यामुच्च कोपक्रमम् । पत्थ्यं भुझ्व विधाननिविवपने, मा अट्टहास कृथाः॥ आकाशे न च शेव नैव शयन, नीचैर्बहिर्गच्छ मा। देवीगर्भभरालसा निजसखीवर्गेण सा शिष्यते ॥१॥ भावार्थ-हे सखि ! तुम धीरे धीरे चलो, आहिस्ता
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* गर्भावस्था *
[३३
आहिस्ता बोलो, किसी पर क्रोध मत करो, पथ्य भोजन करो, साड़ी की गांठ कड़ी मत बांधो, खिलखिलाट पत हँसो, खुल्ले में सोओ मत, सेज बिना जमीन पर मत सोओ, तलघर (Cell) प्रमुख में नीचे मत उतरो, बाहर मत घूमो; इस प्रकार गर्भ के भार से भरी हुई त्रिसलादेवी को सम्पूर्ण मास तक सखियाँ शिक्षा देती रहीं.
त्रिसला महाराणी निम्नाङ्कित हानि कारक कार्य नहीं करती थीं-दिन में सोने से गर्भ में रहा हुवा बालक प्रमादी होता है, बहुत अंजन (काजल-सुरमा) लगाने से बालक अंधा होता है, रोने से चक्षु-रोगी होता है, अधिक स्नान
और विलेपन से दुष्ट स्वभाव वाला और व्यभिचारी होता है, तैलादि के अधिक लगाने से कुष्ट रोगी होता है, बार बार नख काटने से कुनखी होता है, दौड़ने से चपल होता है, अति हँसने से काले दांत-काले होठ-काली जवान
और काले तालुए वाला होता है। अति बोलने से लबाड़ होता है, अति सुनने से बहरा होता है, अति खेलने से गतिभंग होता है और अति पवन लेने से बालक उनमत्त होता है; इसलिए त्रिसला माता इनमें से कुछ नहीं करती थीं.
त्रिसला महारानी ऋतु के और देश के अनुकूल भोजन करती थीं और वस्त्र पहनती थीं, गर्म को हितकर
पथ्य भोजन करती थीं, वह भी मित प्रमाण में; Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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३४]
* महावीर जीवन प्रभा * मनोरञ्जित विहारभूमि पर क्रीड़ा करती हुई महादेवी सुख पूर्वक रहती थीं.
प्रकाश-गर्भावस्था बड़ी नाजुक अवस्था है, गर्भ के रक्षण और पालन पर पूर्ण विवेक की जरूरत है, खानपान और तमाम इतर व्यवहारों पर पूरा कब्जा (CompleteControl) रखना चाहिए, सन्तान धीर-वीर और बुद्धिशाली बने तथा उसके अंगोपाङ्ग और प्रत्यङ्गों में तथा जीवन में कमियाँ न रहें, इस का समग्र बोधपाठ जगज्जननी त्रिसलादेवी के जीवन से सीख कर एक आदर्श माता बनना चाहिये भारत की और संसार की सन्नारियाँ इससे शिक्षा ग्रहण करें.
( दोहले) मातेश्वरी त्रिसलादेवी को गर्भ की वजह से इस प्रकार के दोहले उत्पन्न हुवे थेसत्पात्रपूजां किमहं करोमि । सत्तीर्थयात्रां किमहं तनोमि ।। सदर्शनानां चरणं नमामि । सद्देवताऽऽराधनामाचरामि ॥१॥ निष्कास्य कारागृहतोवराकान् । मलीमसान् किं स्नपयामि सद्य बुभुक्षितान् तानथ भोजयित्वा । विसर्जयामि स्वगृहेषु सुष्ठा २॥ पृथ्वीं समस्तामनृणां विधाय । पौरेषुकृत्वा परमं प्रमोदम् ॥
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* गर्भावस्था *
[३५
करिण्यधिस्कन्धमधिश्रिताऽहं । भ्रमामि दानानि मुदा ददामि ३ समुद्र-पाने मृतचन्द्रपाने । दाने तथा दैवत भोजने च ॥ इच्छा सुगन्धेषु विभूषणेषु । अभूच्च तस्या वरपुण्यकृत्यैः॥४॥
भावार्थ-सुपात्र का सत्कार मैं कैसे करूं ? शत्रुजयादि तीर्थों की यात्रा में किस तरह करूं? सद्दर्शनियों के यानी त्यागियों के (मुनिवरों के) चरित्र को नमस्कार करूँ और सम्यक्तर भूषित देवताओं का मैं आराधन करूं १ कारा वास से दीन बन्दीवानों को निकाल कर उनको स्नान कराऊँ और उन क्षुदातुरों को भोजन करा कर उन सन्तुष्ठों को अपने मकानों पर भेज दूं २ समस्त पृथ्वी को बेकर्ज बना कर तथा नागरिकों को आनन्दित करके हाथी के ऊपर सवार हो मैं भ्रमण करूँ और हर्ष पूर्वक दान , ३ समुद्र पान और चन्द्रामृत पान में तथा दान में और स्वधर्मी को भोजन कराने में; एवं सुगन्ध पदार्थों में और आभूषणों में महाराणी की इच्छा उत्पन्न हुई; इत्यादि श्रेष्ठ पुण्य कार्य करने की अभिलाषा हुई. ४ ।
उपर्युक्त और शेष अवर्णित दोहलों में जो जो महाराजा सिद्धार्थ कर सकते थे, वे पूर्ण करते और जो उनकी शक्ति से बाहिर थे उन सब को इन्द्र महाराज पूरे करते थे.
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* महावीर जीवन प्रभा *
प्रकाश-पुण्यशाली जीव जब गर्भ में आता है तब माता को अच्छे अच्छे दोहले ( इच्छाएँ) उत्पन्न होते हैं. माता त्रिसलादेवी को कितने बढ़िया दोहले प्रकट हुए, आज कल की माताओं को तो मात्र खाने-पीने-पहनने ओढने और हर तरह की मौज मजा करने की इच्छाएँ पैदा होती हैं, यह गर्भस्थ सामान्य जीवों के लक्षण हैं, किसी किसी को कुत्सित व्यवहारों की अभिलाषाएँ उद्भव होती हैं, ये निकृष्ट जीवों के लक्षण हैं; गरज कि माता के दोहलों पर से ही गर्भस्थ जीवों के पुण्य-पाप का प्रकाश होने लग जाता है.
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* जन्म *
[ ३७
प्रकरण तीसरा
जन्म
( समय की स्थिति )
जिस समय हिंसाकाण्डने प्रकाण्ड रूप धारण कर रक्खा था, वेद धर्म के अनुयायी ऐहिक और पारलोकिक सुख के लिए यज्ञ का उपदेश करते थे, यज्ञ रचाते थे और यज्ञ में असंख्य पशुओं का होम करते थे, यहाँ तक कि कभी नरमेध की भी योजना होती थी; इस तरह बेचारे निरपराधी जीव मौत के घाट उतार दिये जाते थे, सारे देश में हिंसा ( Violence ) का दौर दौरा था और जिस समय वर्णाश्रम के जुल्म से अन्त्यज लोग कुचले जारहे थे; एवं जिस समय बराबरी का हक़दार नारी- समाज पैरों की जूती गिना जाता था; उस समय इस भारत भूमि पर करीब २५३० पच्चीस सौ तीस वर्ष पहिले एक प्रौढ प्रतापी महा प्रभावशाली समान भावी “भगवान् महावीर " का जन्म हुआ था.
जिस वक्त सातों ही ग्रह उच्चस्थान में प्राप्त थे यानी मेष लग्न के दसांश में सूर्य था, वृष लग्न के तृतीयांश में
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३८]
* महावीर जीवन प्रभा *
चन्द्र था, कर्क लग्न के पंचमांश में वृहस्पति था, मीन लग्न के सत्तावीसवें अंश में शुक्र था और तुला लग्न के बीसवें अंश में शनि ग्रह था; अर्थात् सर्व उच्चस्थान पर थे और जिस समय समस्त दिशाएँ निर्मल थीं, तमाम शुकुन जयकारी थे, समग्र प्रदेश हर्षित थे, वसन्त अपनी युवा अवस्था में झूल रहा था, उस समय चैत्र शुदी तेरस सोमवार के दिन उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र में मगध देशान्तरगत क्षत्रीयकुण्ड नगर में सिद्धार्थ नृपेन्द्र के कुल में त्रिसला महारानी की रत्नकूक्षि से मध्यरात्री में विश्ववन्य-जगत्पूज्य भगवान् महावीर प्रभु का जन्म हुवा था.
प्रकाश-उत्तम पुरुषों के जन्म समय सहज ही ग्रह नक्षत्रादि उच्च बनजाते हैं, ज्योतिष शास्त्र भी केवल ज्ञान का एक अंश है, जन्म कुण्डली से जीवन काल का सारा पता चल जाता है और इससे पुण्य-पाप का नाप मालूम हो जाता है.
जिस जिस समय घोर हिंसा से या अत्याचारों से संसार में उपद्रव पचता है, उस उस समय एक संरक्षक पुरुषोत्तम का जन्म होता है- कितने ही धर्म शास्त्र वैसे टाइम में संहारक पुरुषोत्तम का जन्म मानते हैं; परन्तु यह न्याय संगत नहीं है , संहारक दुनिया का भला नहीं कर
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* जन्म *
[३९
सकता- बस इसी तरह उस विषम काल में परमात्मा महावीर का जन्म हुवा था.
( माता-पिताओं का परिचय )
दिगम्बर ग्रन्थ महावीरपुराणादि में भगवान् महावीर के पिता सिद्धार्थ को वैशाली और कुण्डग्राम का एक बहुत बड़ा राजा बताया है और श्वेताम्बर ग्रन्थों में विशेषतः क्षत्रीय शब्द से सम्बोधित किया है, क्वचित राजा शब्द का उल्लेख भी पाया जाता है. इधर मि० एम् . एस . रामा स्वामी ऐयंगर एम० ए० भी अपनी 'साउथ इन्डियन जैनिझम पुस्तक पृष्ट तेरहवें पर महावीर भगवान् को ज्ञातपुत्र जाहिर करते हुए लिखते हैं कि "महावीर-वर्धमान उच्च प्रजासत्तात्मक राजर्षी घराने में से उसही प्रकार थे जिस तरह गौतमबुद्ध" उनके पिता सिद्धार्थ वहाँ की क्षत्रीय जाति के नेता थे और वैशाली कुण्डग्राम और वाणीय ग्राम के संयुक्त गणराज्य के एक सत्ता सम्पन्न राजा थे: सारांश यह है कि सिद्धार्थ एक सा. मान्य आदमी नहीं थे, किन्तु एक गौरवान्वित राजा थे; उनके शाही ठाठ के विवरण से भी उनका भूपेन्द्र होना
ही सिद्ध होता है. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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* महावीर जीवन प्रभा *
माता त्रिसला देवी के सम्बन्ध में श्वेताम्बर ग्रन्थों का उल्लेख है कि वह वैशालिक के राजा चेटक की बहिन थी और दिगम्बर ग्रन्थ सिद्धपुर के राजा चेटक की पुत्री बताते हैं; ये दोनों ही चेटक राजा एक ही हैं; कि भिन्न, यह निश्चयात्मक कुछ भी नहीं कहा जासकता ; अस्तु कुछ भी हो त्रिसला महारानी एक बड़े खानदान घराने की और राजवंशीय सुन्दरी थी, यह निर्विवाद है- पिता-माता का क्रमशः काश्यप और वाशिष्ट गौत्र था.
४० ]
,
प्रकाश- भगवान् के मात-पिता का परिचय और जन्म नगरी का विषय विचारणीय होगया है भिन्न भिन्न उल्लेखों की उपलब्धि का ही यह कारण है, शास्त्रों में " खत्तिय कुण्डगाम नयरे - सिद्धत्ते राया सिद्धत्तेणं रण्णा" इससे भी यह स्पष्ट है कि उनकी जन्म भूमि एक नगरी थी और सिद्धार्थ राजा थे- कुछ भी हो जब कि यह निश्चित है कि भगवान् दरिद्रकुल - नीचकुलादि में जन्म नहीं लेते तो उनके माता-पिता का उच्च स्थान स्वतः सिद्ध है. वे भगवान् पार्श्वनाथ स्वामी के परम श्रावक ( गार्हस्थ्यव्रतधारी ) थे, इससे भी वे महान् उच्च थे.
( जन्म का प्रभाव )
:
जिस समय परमात्मा महावीर का जन्म हुवा उस समय तीन लोक में प्रकाश हुवा था, गगन मण्डल में
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* जन्म*
[४१
देव दुंदुभी बजने लगी, तमाम जीव उस वक्त सुखी बन गये थे, यहाँ तक कि निरन्तर वेदना- दुःख के भोक्ता नरक के नारकों को भी क्षण भर शान्ति मिली थी, भगवान् के जन्म समय समग्र मेदिनी उल्लसित होगई थी; यानी सर्वत्र आनन्द ही आनन्द छा रहा था.
प्रकाश- यह तो निर्विवाद है कि पुण्यशाली के अवतार से कौटुम्बिक जातीय , नागरिक और राष्ट्रीय लोगों में अमन चैन होजाता है , इस वक्त भी इसका कुछ अंश मौजूद है तो जगत्तारणहार का जब जन्म हो तब त्रिलोक में आनन्द वर्षे उसमें कोइ अतिशयोक्ति नहीं है; क्या आपभी ऐसी उत्तम करणी पर नज़रशानी करेंगे कि जिससे भावि जन्म योग्य बने.
( सौतिक कम) भगवन्त का जन्म होते ही सब से प्रथम छप्पन दिक्कुमारियों के आसन कम्पित हुएं, अवधिज्ञान से परमात्मा का जन्म जानकर इस प्रकार भक्तिपूर्ण कार्य करने लगीं
भोगंकरा आदि आठ दिककुमारियों ने अधोलोक से आकर भगवन्त और उनकी माता को नमस्कार कर
संवर्तक वायु द्वारा योजन प्रमाण भूमि शुद्ध करके एक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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४२]
* महावीर जीवन प्रभा *
पर्वत
पण लेकर
कलशारादि आठ
सूतिगृह ( Maternity-Home ) बनाया- मेषंकरा आदि आठ ने उर्ध्व लोक से आकर वन्दन कर सौगंधित पुष्प वृष्टि की- नन्दोत्तरादि आठ ने पूर्व दिशा के रुचक पर्वत से आकर मुखावलोकन के लिए दर्पण लेकर सन्मुख खड़ी रहीं- समाहारादि आठ दक्षिण रुचक प्रदेश से आकर मंगल कलश से भगवन्त और उनकी माता को स्नान कराती हैं- इलादेवी आदि आठ पश्चिम रुचक पर्वत से आकर पवन डालने के लिये पंखा लेकर सामने खड़ी रहती हैंअलम्बुसादि आठ उत्तर रुचक पर्वत से आकर चामर ढालतीं हैं- विचित्रादि चार कुमारियाँ दीपक धारण कर सन्मुख खड़ी रहती हैं- एवं रूपा आदि चार दिक्कुमारियाँ रुचक द्वीप के मध्य दिशा से आकर गर्म-नाडी को छेद कर एक गर्त में रखती हैं। ऊपर रत्नमय चौतरा बनाकर उस पर दोप बोतीं हैं ,
पश्चात् सूतिगृह से दक्षिण-पूर्व और उत्तर दिशा में क्रमशः तीन कदली-गह बनाती हैं, उनके अन्दर सिंहासन स्थापन करती हैं, पहिले में माता और पुत्र को सिंहासन पर बिठा कर दोनों के शरीर पर सुगंधित तैल का मर्दन करती हैं- दुसरे में दोनों को स्नान कराती हैं , चन्दन का लेप करती है और सुन्दर वस्त्र पहनाती हैं- तीसरे में अरणी की लकड़ी से अनि उत्पन्न कर चन्दन से शान्तिक
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[ ४३
पौष्टिक होम कर रक्षा पोटलियाँ दोनों हाथों पर बांध देतीं हैं, अन्त में " पर्वत समान आयुष्य हो " ऐसे हर्षोद्गार व्यक्त करतीं हैं. मणिमय दो गोलों को ( चट्टा-पट्टा को ) भगवान् के क्रीड़ा के लिए पालने में बांधकर गीत-गान करती हुईं भगवन्त और उनकी मातेश्वरी को जन्म स्थान में स्थापन कर छप्पन दिकुकुमारियाँ अपने अपने स्थान पर आनन्द पूर्वक वापिस चली जाती हैं.
* जन्म *
प्रकाश - शायद आप सोचते होंगे कि आसन कम्पित कैसे हो गये ? पर पुण्य का प्रभाव तो वह अद्भुत शक्ति है कि विश्व को हिला सकती है, फिर आसन की तो गणना ही क्या है ? भगवान् का कितना प्रबल पुण्य है कि विना आमन्त्रण ही महाशुचि में रहने वाली देवियों ने आकर सारा ' सौतिक कर्म ' बड़े हर्ष से सम्पन्न किया. क्या आप भी इस प्रकार का पुण्य संचय करने का सोचेंगे ? अवश्य विचारना चाहिये.
( जन्माभिषेक )
सौतिक कर्म पूर्ण होते ही चौंसठ इन्द्रों के आसन कम्पायमान हुएं, अवधि ज्ञान से सब को भगवान् के जन्म का ज्ञात हुवा - सबसे पहिले सौधर्मेन्द्र ने सुघोषा घण्टा बजाने की हरिणगमेषी देव को आज्ञा की ; बारह
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४४]
* महावीर जीवन प्रभा *
योजन विस्तार वाला, आठ योजन ऊंचा और एक योजन लोलक वाला सुघोषा घण्ट ५०० पाँच सौ देवों ने मिल कर बजाया, उसके आवाज़ से ३२ लाख विमानों के तमाम छोटे बड़े घण्ट बजने लगे, इससे सर्व देव सावधान होगए; इसही तरह तमाम इन्द्रों ने अपने अपने घण्ट बजवाये; जिससे तमाम देव इन्द्र के पास हाजिर होगए, इन्द्र महाराज ने भगवन्त के जन्माभिषेक की घोषणा की, समग्र देव तत्पर होगए।
हरिणगमेषी देव द्वारा तैयार किये हुए एक लक्ष योजन प्रमाण पालक नामक विमान में सौधर्मेन्द्र विराजे , सन्मुख इन्द्राणियाँ नाटक करने लगीं, बाई तरफ सामानिक देव बैठे, दाहिनी ओर तीन पर्षदा बैठीं, पीछे सात सेनाओं ने स्थान लिया; इसही प्रकार अन्य इन्द्र भी अपने अपने वाहनों में सवार होकर नन्दीश्वर द्वीप पहुचे
कितने ही देव अपने भावों से, कितने ही इन्द्र के आदेश से, कितनेक मित्र के कहने से , कतिपय प्रिया के आग्रह से , कितने ही कौतुक से और बहुत से आश्चर्यवश रवाना हुए- जुदे जुदे प्रकार के वहानों पर बैठे हुए इस कदर सत्तावाही वचनों से बोलते हैं- सिंह वाला देव हाथी वाले देव को ललकार कर कहता है- तेरे हाथी को दूर हटा, नहीं तो मेरा सिंह मार डालेगा; इस तरह गरुढ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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*जन्म *
[४५
वाला सर्पवाले को और चीत्तावाला छागवाले को ललकारता है; इस प्रकार नानाविध वाहनों पर सवार हुए कोटानुकोटी देव चले; उस वक्त विस्तीर्ण आकाश भी संकीर्ण नजर आने लगा- कितने ही देव अपने मित्रों को छोड़ छोड़कर आगे बढ़ने लगे, तब पीछे रहने वाले देव कहने लगे- अहो मित्रो! क्षणवार ठहरो, हम भी तुमारे साथ चलते हैं , आगे वाले बोलते हैं- मित्रो ! यह समय ठहरने का नहीं है, जो कोई पहिले जाकर भगवन्त के दर्शन कर वन्दन-नमस्कार करेगा वही भाग्यशाली समझा जायगा, ऐसा कहते हुवे आगे बढ़ते जाते हैं ; परन्तु मित्रों के लिये कतई नहीं ठहरते , जिसके बलवत्तर वाहन हैं वे आगे निकल जाते हैं और निर्बल देव हेरान होकर चिल्लाते हैंअहो ! क्या करें? आज तो आकाश-मार्ग भी छोटा होगया है ! तब दूसरे देव कहते हैं-बोलो मत 'संकीर्णा : पर्ववासराः' पर्व के दिन सकड़े होते हैं। इस तरह आते हुए इन्द्रदि नन्दीश्वर द्वीप में अपने विमानों को संक्षेप करते हैं तथा दक्षिण रतिकर पर्वत पर विश्राम लेते हैं ; एक सौधर्मेन्द्र विना ६३ इन्द्र और तमाम देव सीधे मेरुपर्वत पर चले जाते हैं.
सौधर्मेन्द्र भगवान के जन्मस्थान पर आकर उनको और उनकी माताजी को नमस्कार कर निवेदन करता हैShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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* महावीर जीवन प्रभा *
हे मात ! मैं पहिले देवलोक का इन्द्र हूँ, चौवीसवें तीर्थकर आपके पुत्र-रत्न का जन्माभिषेक करने आया हूँ; हे रत्नकूक्षिधारिके ! आपको नमस्कार हो, ऐसा कहकर अवस्वापिनी निन्द्रा (नियत कालीन निद्रा) देकर माता के पास मंगलार्थ भगवान का प्रतिबिंब रखकर अपने पाँच रूप बनाता है- १ एक रूप से परमात्मा को दोनों हाथों से उठाता है- २-३ दो रूपों से दोनों तरफ चामर ढा. लता है-४ एक रूप से प्रभु पर छत्र करता है-५ और पाँचवें रूप से आगे वज्र उछालता हुआ चलता है। इस प्रकार सोधर्मेन्द्र मेरुगिरी पर पाण्डुक बन में मेरु शिखर से दक्षिण दिशा में अति पाण्डुक कम्बल नामक शिला पर रहे हुए सिंहासन पर भगवन्त को गोद में लेकर पूर्वाभिः मुख बैठता है.
वहाँ पर रहे हुए सर्व इन्द्र अपने अपने देवों को आज्ञा करते हैं- अहो देवो! १००८ स्वर्ण कलश १००८ रजत कलश १००८ रत्नों के १००८ सोना चान्दी के १००८ सुवर्ण रत्नों के १००८ रजत रत्नों के १००८ सुवर्ण रजत रत्नों के और १००८ मिट्टी के कलश पवित्र जल से भर के लाओ; सर्व ८०६४ आठ हजार चौसठ कलश हुए-वे नाप में२५ योजन ऊँचे २५ योजन विस्तार
वाले और एक योजन नाली वाले होते हैं- वे तमाम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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[ ४७
कलश गंगा, सिन्धु, पद्मद्रहादि तीर्थजलों से भरे हुए लेकर समग्र देव प्रभु पर ढालने के उत्साह से खड़े हुए और इन्द्र के आदेश की प्रतीक्षा करते हैं .
हैं
* जन्म *
44
इस वक्त सौधर्मेन्द्र को संशय पैदा होता है किभगवान् का शरीर बहुत छोटा है, इतने कलशों की जल धारा शरीर पर गिरने से मेरी गोद में से कहीं बह जायगे " ? ऐसा सोचकर इन्द्र ने अभिषेक का आदेश नहीं दिया. प्रभुने इस बात को ज्ञान द्वारा जानकर इन्द्र की शंका दूर करने के लिये अथवा तीर्थंकर का अनन्त बल मानो ज्ञापन करने के लिए बायें पैर के अंगूठे से सिंहासन जरा दबा दिया कि तत्काल ही सारी शिला - मेरुचूला और लक्ष योजन प्रमाण मेरु पर्वत काँपने लगा, इससे सारी पृथ्वी चल-विचल होगई, तमाम देव भयभीत बन गये, चारों ओर क्षोभ से सब उपासक क्षुब्द होगये; ऐसी विकट स्थिति देखकर इन्द्र चिन्तातुर बनकर सोचने लगा- “ इस शान्तिकरण समय में किस देव ने यह उत्पात मचाया तुरन्त ही अवधि - ज्ञान लगाकर देखा तो मालूम हुवा कि यह तो भगवन्त का विनोद मात्र है, मैंने प्रभु का अनन्त बल नहीं पहिचाना- इन्द्र ने भगवान् से विनय पूर्वक क्षमा माँगी और स्नात्राभिषेक के लिये सब को आदेश दिया.
99
तमाम इन्द्रों ने और देवों ने क्रमशः विधिपूर्वक स्नात्रजल से भगवन्त पर जल धाराएं छोडीं ; अर्थात् अ
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४८]
* महावीर जीवन प्रभा *
भिषेक किया, चन्दन से विलेपन कर , अष्ट प्रकारी पूजा कर अष्ट मंगल की रचना की; पीछे आर्ति उतारी, गीतगान और नृत्य किया, वाजिन्त्र बजाये एवं श्रद्धा पूर्ण भावना भाई ; इस प्रकार जन्माभिषेक कर भगवन्त को मातेश्वरी के पास पधरादिये , अवस्वापिनी निद्रा और प्रतिबिंब का अपहरण कर लिया , देवदुष्य वस्त्र और रत्नजड़ित कुण्डल माताजी को भेंट किये तथा भगवान् के क्रीड़ा के लिए सुवर्ण-जटित गेंद रक्खा, अंगुष्ठ में अमृत की स्थापना की बाद ३२००००००० बत्तीस करोड़ सोनया की वर्षा कर इन्द्र ने तमाम देवों के बीच इस प्रकार घोषणा की- भो भो देवाः ! सावधान होकर सुनो-जो कोई देव, दानव या असुर भगवन्त या उनकी माता पर द्वेष करेगा उसका मस्तक इस वज्र से चूर-चूर कर दिया जायगा; इस प्रकार चौसठ इन्द्र और असंख्य देव-देवियाँ भगवान् महावीर देवका जन्माभिषेक कर नन्दीश्वर द्वीप में अट्ठाई महोत्सव करके अपने अपने स्थान पर वापस चले गये. बाद इन्द्र के आदेश से तिर्यग् जम्भक देव ने ३२ करोड़ रुपये ३२ करोड़ सोनये ३२ करोड़ रत्न और नाना प्रकार के वस्त्र प्रमुख पदार्थों की वर्षा की.
प्रकाश- चमकते हुए पुण्य का यह प्रत्यक्ष उदाहरण है, संसार के कल्याण के लिए ही जिसका जन्म हुवा है ,
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*जन्म:
[४९ उसके लिए जितना किया जाय उतना ही कम है, क्या आपने ऐसा जन्माभिषेक किसी अवतारी पुरुषोत्तम का या सम्राट् का हुवा कहीं सुना है या पुस्तक पन्नों में बाँचा है ? अद्वितीय महा पुरुषों के मुकाबिले में कौन खड़ा रह सकता है- अहा ! इन्द्रों की और देव-देवियों की कैसी उत्कट भावना, किस कदर आनन्द लहरों का लहराना, तमाम दैविक सुखों को छोड़कर भाग्यवन्त ही ऐसे अनुपम अभिषेक में शरीक हो सके थे; आज तो अभिषेक के पुण्य कार्य का विरोध करने वाला दल उत्साह और भावना तत्व से अज्ञात है, उसको निष्पक्ष बुद्धि से विचारना चाहिए. अंगुष्ठ का दाव भगवान् के अनन्त बल का परिचायक है, जन्मते ही उनमें इतना बल था कि हजारों चक्रवर्ती जिसकी तुलना नहीं कर सकते, आगे आप जान सकेंगे कि इस अतुल बल का आक्रमण या रक्षण में उनने उपयोग नहीं किया, किन्तु आत्मोनति में ही अपना पराक्रम काम में लाये, इस आदरणीय पुण्यकृत्य के अनुमोदन से ही आप पुण्योपार्जन कर सकते हैं.
( जन्म महोत्सव )
अब महाराजा सिद्धार्थ कृत जन्म महोत्सव का बयान करते हैं
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५०]
* महावीर जीवन प्रभा *
इस अवसर पर मंजुल-भाषिणी दासी ने महाराजा सिद्धार्थ को पुत्ररत्न की बधाई दी, हर्षित होकर नृपेन्द्र ने उसे भारी इनाम दिया और अन्तःपुर में उसे दासी मण्डल की महत्तरा बनाई .
प्रातःकाल होते ही महाराजा ने आदेशी पुरुषों को इस प्रकार आदेश दिया- शीघ्र ही अपने नगर के तमाम रास्ते स्वच्छ कराओ, कारागृहों में से कैदियों को मुक्त, कराओ, रस कस और धान्य के माप तथा शेर-मन आदि का तौल तथा वस्त्रों के नापने के गजों का नाप बढाओ, नगर के बाहिर और अन्दर सुगन्धित जल का छिटकाव कराओ, बाजारों को अच्छी तरह सजाओ, नाटक देखने को मंच तैयार कराओ, पुष्पों को विस्तिर्ण करो, कुंकुम चन्दनादि के भीतों पर हस्त-छा लगाओ, घरों के चौक में मंगल घटों की स्थापना कराओ, दरवाजों पर तोरण बंधाओ, स्थान-स्थान पर पुष्पमालाओं लटकाओ और सारे नगर को दशांगधूप से सुगन्धित कर दो.
एवं नट , नर्तक, नटवे , मल्ल, विदुषक, भाण्ड, कथक्कड़, रासलीलावाले, ऊँट-हाथी पर से कूदने वाले, तैरने वाले, भाट, कवि, निमित्तिये, चित्रपटदर्शक, बाँसुरी और वीणा बजाने वाले ; इन सब को बुलाकर स्थान स्थान पर स्थापन करो- गीत, गान, नृत्य , वाजिन्त्र,
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* जन्म *
[५१
तमाशादि शुरू कराओ और मंगल के लिये हजार यज्ञस्तम्भखड़े कराओ- हर्षित होकर आदेशी पुरुषों ने आदेशानुसार तमाम कार्य सम्पन्न किये-कराये और महाराजा को आकर नमन पूर्वक निवेदन किया.
पश्चात सिद्धार्थ राजेन्द्र अपने दैहिक तमाम कार्यों से निवृत होकर दस दिन तक अपनी ऋद्धि-समृद्धि से अभूतपूर्व जन्म महोत्सव करता है , महोत्सव में तमाम सुख पूर्वक भाग ले सकें इसलिये यह घोषणा करदी गई कि-दस दिन तक तमाम दान शालाएँ बन्द कराकर राज्य की दान-शाला से सब तरह का दान दिया जाय , हर किस्म का महसूल (राज्य कर) माफ किया जाय, नगर में कोई आवश्यकीय वस्तु नहीं खरीदे, चाहिये वह बिना मूल्य राज्य दुकान से ले ले, कर्ज मांगने वाला धरणा नहीं दे सकेगा और दस दिन तक कोई भी सुभट किसी पर दबाव नहीं डाल सकेगा. इस घोषणा से नागरिक लोग हर्षित होकर महोत्सव में उत्साहपूर्ण उमंग से सम्मिलित हुएं.
दस दिन तक कुल मर्यादा के अनुसार पाठ, पूजन, विधि विधानादि किये गये- महाराजा ने लाखों रुपया, देव पूजन में , दान , इनाम में व्यय किये और लाखों
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५२ ]
* महावीर जीवन प्रभा *
रुपये भेंट स्वरूप आये हुए स्वीकार किये- ग्यारहवें दिन दसोटन का जबरदस्त प्रीतिभोज दिया. अपने मित्रों को, ज्ञातिजनों को, गोत्रीय बंधुओं को, सम्बंधियो को दास-दासियों को, राज कर्मचारियों को और नागरिकों को निमन्त्रण दिया. आप उसमें शरीक तो न हुए पर जरा भोजन की बाहर सुनकर मन तो खुश करिये.
भोजन के लिये एक भारी सुन्दर मण्डप बनाया गया था, उसमें बैठने को आसन बिछाये गये, सामने चौकी पट्टे रखे गये, उन पर स्वर्ण-रजतादि के थाल पिरुसे गये. जीमने वाले कई फून्दाले, दून्दाले, झाक झमाले, गुबियाले, सुहाले, केशपास काले, मुंछाले, कइ जवांई कई शाले थे - वहाँ परोसने वाली हंसगति चालती, गजगति म्हालती, सोलह अँगार सज्जित, चन्द्रवदनी, देवाङ्गना समान सुन्दरियाँ थीं.
•
भोजन में सीरा, लापसी, नानाविध लड्डु, घेवर, फीणी, दहिथरा, सक्करपारादि मिठाईयाँ थीं- खाजा, पुरी, अनेक तरह के चावल, सेव, भुजिया और मूँग, कैर, करमदा, नीला चणा, नीली मिर्च, सांगरी, काचरी, कारेलादि अनेक प्रकार के साग थे; कढी और रायता भी था - गरमागरम गाय का दूध, दही था
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* जन्म *
[५३
पिस्ता, दाख, नेजा, अखरोटादि मेवा था. हरे नारियल, केले , अनार, सन्तरे आदि फल थे; इत्यादि अगणित द्रव्यों का भोजन कराया; बाद पान सुपारी देकर भारी सत्कार किया.
प्रकाश- जन्म महोत्सव का विवरण तो कल्पसूत्र के टीकाकारों ने साङ्गोपाङ्ग किया है. एक नृपेन्द्र की हैसियत से पुत्र का जन्म महोत्सव करना चाहिए उससे भी महाराजा सिद्धार्थ ने अधिक किया. विशिष्ट बात तो यह है कि दस दिन तक प्रजाजन निश्चिन्त रहे और आनन्द पूर्वक लीला लहर से समय व्यतीत किया, अनेक कर माफ कर दिये गये , तौल-नाप और माप बढा दिया, देव-गुरु-धर्म की महति सेवा की, दान-मान-सन्मान की भारी वृद्धि हुई . अपराधियों को कारावास से मुक्त कर सुखी बना दिये और लाखों रुपया सुकृत में लगाया गया भगवान् महावीर का ही यह पुण्य प्रकाश है कि इस तरह जन्म महोत्सव हुवा- नरेन्द्रों इससे पाठ शीखें और सामान्य वर्ग ऐसे समय पर शक्ति-भर पारमार्थिक कार्य करें; यह ऐच्छनीय है.
(नाम करण) भोजन कर लेने के पश्चात् तमाम लोग महाराजा सिद्धार्थ के सामने बैठ गये, तमामों ने हार्दिक हर्ष व्यक्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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* महावीर जीवन प्रभा*
किया, उस वक्त भूपेन्द्र ने यह घोषणा की- अहो सर्व सभ्यो ! जब से यह पुत्र-रत्न गर्भ में था, तब से हम धन से, धान्य से, राज्य से, मान से, सम्मान से , बहुमान से, और इजत-आवरू से हर तरह अतिशय बढे हैं; इसलिये हमारा पूर्व निर्णित इस पुत्र का नाम "वर्धमानकुमार" स्थापन करते हैं, आप सब लोग इसमें सहमत हों; समस्त लोगों ने जयनाद के साथ अपनी सम्मति प्रकट की.
प्रकाश- माता-पिता ने गुणनिपन्न कितना बढिया नाम रक्खा है, जिसके स्मरण से प्रत्येक आदमी वृद्धि को प्राप्त होता है. यों तो रागद्वेष रहित होने से और घोर तपस्या करने से भगवान् श्रमण' नाम से भी पुकारे जाते थे; इधर भय-भैरव से निर्भय तथा परिसह और उपसर्गों को सहन. करने में समर्थ, एवं सर्वतो भद्र प्रतिमा (तपश्चर्यापूर्ण एक कठिन अनुष्ठान ) के पालक होने से देवों ने आपका मुबारिक नाम "महावीर" जाहिर किया. यही नाम संसार में विशेष प्रख्यात है- भिखारी का नाम धनपाल , कण्डे बीनती का नाम लक्ष्मी, मूर्खा का नाम सरस्वती और रोगी का नाम तनसुख जैसा निरर्थक है, वैसा नाम कभी न रखना चाहिये, नाम में कुछ गुण
अवश्य होना चाहिए, सामान्यों को तो छोटा नाम रखकर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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* जम्म*
[५५ बड़ा काम करने में शोभा है; इसलिए नाम करण समय विवेक पूर्वक नाम,स्थापन करना चाहिए.
(शैशवकाल) अब भगवान महावीर बडे होने लगे. काले बालसुन्दर नेत्र-रक्त ओष्ठ और धवल दन्त पंक्ति से शोभित , देवों और इन्द्रों से भी अधिक गौरवर्ण वाले ; एवं विकशित कमल सुगंध के मानिन्द श्वासोच्छ्वास वाले बड़े सुन्दर नजर आते थे- भगवान् जब आठ वर्ष की उम्र के थे तब समवयष्कों के साथ अनेक खेल-कूद करते थे. एक समय अनेक हमउम्र वालों के साथ आम्ल क्रीड़ा करने को चले गये. इस वक्त शकेन्द्र ने अपनी इन्द्र सभा में भगवान् के अलौकिक पराक्रम का बयान किया, एक श्रद्धाहीन देव ने परीक्षार्थ इस आम्ल क्रीड़ा में शरीक होकर सादिके भय से डराने का प्रयत्न किया , आखिर हारकर वर्धमान कुमार को नियमानुसार कन्धे पर चढाये
और भयभीत करने के लिये सात ताड़ प्रमाण लम्बा शरीर बनाया; ताहम भी भगवान् क्षुब्ध न हुए; प्रत्युत बल पूर्वक उस देव के मस्तक पर मुष्ठी प्रहार किया जिससे आक्रन्दकारी शब्द करता हुवा धराशायी होगया, इससे बड़ा लजित हुवा, यहाँ इस देव को सम्यक्त्व उपार्जन हुवा ;
ऐसी भयभीत अवस्था में साथी बालक सब रफ़्फूचकर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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* महावीर जीवन प्रभा *
होगये और माता त्रिसला को सब हकीकत कही. देवीजी अत्यन्त चिन्तातुर हुई और अपने प्यारे पुत्र की प्रतीक्षा करने लगीं; वर्धमान कुमार के आते ही उनको प्रेमपूर्वक हृदय से लगाये , गोदमें खिलाये, न्हिलाये और वस्त्राभूषण से अलंकृत किये.
श्वेताम्बर शास्त्रों में ऐसा उल्लेख है कि मोहवश माता-पिता ने आठ वर्ष की उम्र में वर्ध मान कुमार को पढ़ने के लिए पण्डित के पास भेजे, यह अनुचित कार्य नापसन्द होने से इन्द्र ने आकर पण्डित को वैयाकरणीय प्रश्न किये, उनके उत्तर भगवान् ने दिये, तब सब लोग चकित हो गये और उनको भगवान् के स्वयंबुद्ध का बोध हुवा. 'जैनेन्द्र व्याकरण' की उस वक्त रचना हुई बताई जाती है. परमात्मा तो स्वयं इस प्रकार होते हैं'अनध्ययनविद्वांसो। निर्दव्यपरमेश्वराः॥ अनलङ्कारसुभगाः। पान्तुयुष्मान् जिनेश्वराः॥१॥
'भावार्थ-तीर्थकर देव विना पढ़े विद्वान होते हैं, द्रव्य विना परमेश्वर होते हैं, आभूषणं विना शोभा युक्त होते हैं ; ऐसे जिनेश्वर तुम्हारा रक्षण करो.
प्रकाश- भगवान् के नैसर्गिक बल ने बालपन में ही देव को खूब स्वाद चखाया. शायद पाठकों को यह
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* जन्म *
[ ५७
आश्चर्य होगा कि मौष्ठिक प्रहार से सम्यक्त्व उपार्जन हो गया, जैनोंका सम्यक्त्व कहाँ कहाँ रहता है यह पता नहीं. शंका तो सहज ही होसकती है, पर इसमें जरा विचार करने से यह मामला समझ में आजायगा ; पहिले भगवान् के अतुल्य पराक्रम पर उस देव को विश्वास नहीं था और फिर प्रत्यक्ष अनुभव से श्रद्धा होगई; बस श्रद्धा का नाम ही सम्यक्त्व है - भगवान् को लेखशाला में भेजने का इरादा होना भी न्याय संगत नहीं है, संभवत: चरित्र की पूर्ति के लिये ऐसा लिखा गया होगा तो आश्चर्य नहीं - अभय दान से निर्भयता प्राप्त होती है और विद्या दान से विद्वता मिलती है; आप इन दोनों शुभ कार्यों को अपनाकर कुछ कृतार्थ होईये.
( विवाह )
अत्यधिक भोग सामग्री होने पर भी वर्धमान कुमार उससे उदासीन थे, सांसारिक प्रवृत्ति उनको जरा भी न रुचती थी, फिर भी योग्य प्रवृत्ति से वे बच नहीं सकते थे, जब बाल्य काल से मुक्त होकर भगवान् ने युवावस्था में पदार्पण किया तब अत्यन्त प्रेम पूर्वक पालन-पोषण करने वाली मातेश्वरी बोली- अहो मेरे प्यारे नन्दन ! तुम जैसे पुत्र पाकर ही मैं नर और नरेन्द्रों से, देव और देवेन्द्रों से पूज्य वन्द्य और स्तुत्य बनी हूँ, मेरा भारी सौभाग्य है
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५८]
* महावीर जीवन प्रभा *
कि तुम जैसा पुत्र रत्न मुझे मिला है; यद्यपि तुम मोहमाया से उन्मुख हो, काम-कषायों के विजेता हो, भौगिक सुख तुमको रुचिकर नहीं है, फिर भी हमारी इच्छा पूर्ण करने के लिये एक विनीत कन्या से शादी कर हमें प्रसन्न करो. भगवान उनके स्नेहमय आग्रह का उलंघन नहीं कर सकते थे; इसलिये मौन रहे. "मौनं सम्मति लक्षणं इस सत्र के अनुसार माता-पिता ने भारी तैयारी के साथ समरवीर सामन्त राजा की पुत्री ' यशोदा कुँवरी' के साथ विवाह कर दिया. उससे एक पुत्री का जन्म हुवा, नाम ' प्रियदर्शना' रक्खा गया, इसे भगवान् के भानजे जमाली के साथ लग्न ग्रन्थी से ग्रन्थित कर दिया गया.
प्रकाश- दिगम्बर शास्त्र भगवान् महावीर को अविवाहित मानते हैं और श्वेताम्बर शास्त्र विवाहित मानते हैं. कहा नहीं जासकता कि दरअसल क्या है ? फिर भी अन्य तीर्थंकरों के समान विवाह का होना जीवन पर कोई कालिपा नहीं है, अनेक तीर्थंकरों ने शादी की और फिर सदा के लिये संसार से मुक्त भी होगये तो यह कोई नवीन बात नहीं है, भगवान् ने शादी की तो भी अन्तर से अ. नासक्त रहे . आप भी इससे यह बोध लीजिये कि शादीयाफ्ता होने पर भी उसमें आसक्त न बने; पशुतुल्य
व्यवहार से सदा बचकर मर्यादित जीवन बनावें. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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* जन्म *
(त्याग के सन्मुख ) भगवान् जब अट्ठाईस साल के थे तब माता-पिता का स्वर्ग होगया था, बारहवें देवलोक में पहुँच गये ; इस वक्त सारी प्रजाने मिलकर बृहद् भ्राता नन्दीवर्धन को तख्तनसीन कर नृपेन्द्र बनाये. पश्चात् शास्त्र-नीति और सुष्ठु व्यवहार के अनुसार प्रभुने बड़े भाई से दीक्षा के लिये इजाजत मांगी, पिता तुल्य भाई ने कहा-बंधो ! अभी माता-पिता का निधन हुवा ही है और तुम दीक्षा के लिए उद्यत होगए हो, यह तो 'क्षतः क्षार' जले पर नमक डालने जैसा है, वास्ते मैं अभी प्रव्रज्या की इजाजत नहीं देसकता, दो वर्ष ठहर जाने का मेरा आग्रह है. प्रभु ने प्रेमाङ्कित आग्रह को स्वीकार लिया. और साधु वृत्तिसे रहने लगे. भगवान के लिये तो घर और बन बराबर ही है
वनेऽपि दोषाः प्रभवन्ति रागीणां । गृहेऽपि पञ्चेन्द्रियनिग्रहस्तपः ॥ अकुत्सिते कर्मणि य: प्रवर्तते ।
निवृत्त रागस्य गृहे तपोवनम् ।। १॥
भावार्थ-रागी मनुष्यों को वन में बसने पर भी विकार उत्पन्न होता है, और पंवेन्द्रीय निग्रही घर में भी तपस्वी है; जो सत्कर्म में प्रवृत्त है , उस नीरागी के लिए
घर भी तपोवन है. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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६० ]
* महावीर जीवन प्रभा *
भगवान् दक्ष थे, प्रतिज्ञा निर्वाहक थे, दर्पण के समान जिनके सर्व गुण स्पष्ट दिखाई देते थे, प्रकृतिभद्र, सर्व गुण सम्पन्न, ज्ञातनन्दन, कुलचन्द्र, त्रिसला देवी के प्यारे पुत्र थे, दीक्षा के पूर्णाभिलाषी थे
एक वर्ष पूरा होने पर भगवान् ने वर्षीदान देना प्रारम्भ किया- प्रति दिन पौन प्रहर में एक करोड़ आठ लाख १०८००००० सोनयों का दान करते थे- यहाँ सौलह मासों का एक सौनया समझना- वर्ष में कुल ३ अर्ब ८८ कोड ८० लाख सोनयों का दान दिया; अतिरिक्त इसके अन्य भी घोड़ा, हाथी, वस्त्र , पात्र , रत्नादि का संख्यातीत दान देकर लोगों को सुखी बनाये ,
इस वक्त " जय जय नन्दा-जय जय भद्रा" आदि शब्दों से लोकान्तिक देवों ने भगवान् को दीक्षा का अवसर ज्ञापन किया; यद्यपि प्रभु स्वयं जानते हैं, तदपि लोकान्तिकों का यह कर्तव्य है कि समय पर तीथकर देव को अत्यन्त मधुरीवाणी से दीक्षा का टाइम ज्ञापन करें; परमात्मा तो पहिले ही विरक्त हो चुके थे, देवों के वचनों को सुनकर अवधि ज्ञान द्वारा मालूम किया और सर्वत्याग कर प्रत्रज्या के लिये तत्पर होगये.
प्रकाश-भगवान् मात-पिता के लिए तो विनीत थे ही; पर बड़े भाई का वचन भी बड़े आदर से स्वीकार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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*जन्म *
किया- भाईयों के परस्पर प्रेम के लिए तो 'राम-लक्षमण' जगत में मशहूर हैं हीं; परन्तु भगवान महावीर का नैतिक व्यवहार एक आदर्श गुण था, आज कल के स्वार्थ परायण भाईयों का बड़ा अटपटा सम्बंध है, उन पैसों के गुलामों को सच्चा भाई का नाता निभाना नहीं आता, असली तत्व तो यह है कि तमाम सम्बंध, समग्र व्यवहार और समस्त कार्य स्वार्थ के त्याग बिना निभ नहीं सकते, प्रतिज्ञा पूर्ण होते ही गृहस्थावास में भी भगवान् ने साधुवृत्ति का पालन किया, इससे यह स्पष्ट है कि इन्सान चाहे तो घर बैठे ही गंगा-स्नान कर सकता है, यानी गृहवास में 'ही त्याग मार्ग का आराधन कर सकता है; तो जो खङ्गधारा समान चारित्र को अङ्गीकार करे उसका तो कहना ही क्या ? वह तो वन्ध और स्तुत्य है- भगवान् ने वर्षीदान देकर संसार को दान धर्म समझाया; गृहस्थों के लिए सचमुच ही दान धर्म मोह-ममता को कम करने वाला है तथा परस्पर प्रेम सम्बंध को जोड़ता है और बढ़ाता हैपेटार्थी लोग तो मात्र “सुपात्र दान दो यानी हमको दो बाकी सब को देने में पाप है" यही उपदेश करते हैं और संसार भर के दान मार्ग को रोक कर भारी अन्तराय कर्म का बंधन करते हैं. वहारे स्वार्थी संसार वहा ! तेने भी पेट पालने के लिये खूब गजब ढाया है- क्या आप भी इससे भ्रातृप्रेम-त्यागमार्ग और दान-धर्म का बोध लेने की ख्वाइश रक्खेंगे ? जीवन को सुखी बनाना हो तो अवश्य
बोध पाठ ग्रहण करें. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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६२]
* महावीर जीवन प्रभा *
के प्रकरण चौथा
दीक्षा
( महोत्सव )
भगवान् का निष्क्रमण काल जानकर तमाम इन्द्रों ने बड़ा भारी महोत्सव किया- स्नान, विलेपन कराकर वस्त्राभूषण धारण कराये, एक रत्नजड़ित पालखी में परमात्मा । को पूर्वाभिमुख विराजमान किये, इस सुखासन को सुरेन्द्रों ने बड़े उत्साह से और हर्ष से उठाया, छत्र-चामर - मुकुटादि राजचिन्हों से प्रभु को अलंकृत किये, आगे १००० एक हजार योजन इन्द्रध्वज चलता था, देवों पंचवर्ण के पुष्पों की वृष्टि करते चलरहे थे, कितनेक देव दुंदुभी बजाते थे और कितनेक नृत्य करते जाते थे, वाजिन्त्रों का मंगल- घोष गगन को गूंजा रहा था- सिन्दूर से पूजित कुम्भस्थल वाले मातंग घण्टियों का आवाज़ करते चलते थे, १०८ रथ और १०८ घोड़े पर सवार सशस्त्र-वीर सुभट चलते थे, पीछे शंखधर, चक्रधर, गदाधर, और जयनाद करने वाले बड़े आनन्द से चलते थे, संख्या-तीत नर
नारियाँ इस जलूस में साथ चलती थीं, पीछे पीछे हाथी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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* दीक्षा *
[ ६३
पर बैठे हुए नन्दिवर्धन नरेश चल रहे थे; इस तरह समारोह के साथ दान देते हुए वर्धमान बड़े उमंग से पधार रहे थे, लाखों नेत्र जिसको देख रहे थे, लाखों मुख स्तुति करते थे और लाखों हृदय जिसका चिन्तन करते थे तमाम लोग इस प्रकार बोलने लगे
अहो क्षत्रियकुल- दिवाकर ! आप जयवन्त रहो, आप का कल्याण हो, अखण्ड ज्ञान-दर्शन और चारित्र से अजेय इन्द्रियों पर और मन पर विजय करो, तमाम कष्टों को बड़ी वीरता से सहन करो, निर्भयता पूर्वक संयय धर्म का पालन करो, उत्कट तप द्वारा राग-द्वेष शत्रुओं से संग्राम कर अष्ट कर्मों का मर्दन करो और शुक्ल - ध्यान से त्रैलोक्य मण्डप में विजय पताका फहराओ, अन्त में केवल ज्ञान प्राप्त कर परमपद मोक्ष पधारो. जय हो ! आप की विजय हो !
लाखों उंगुलियों से बताये जाने वाले परमात्मा नरनारियों का नमस्कार स्वीकार करते हुए, सर्व ऋद्धि और कान्ति से शोभित, चतुरंगी सेना सहित, इन्द्र - महेन्द्र-देवदेवाङ्गना - नर-नारियाँ और अन्य विभूतियाँ सहित ज्ञातवनखण्ड में पधारे, वहाँ पर अशोक वृक्षके नीचे शीबिका रक्खी, उसमें से वर्धमान कुमार ने उतर कर तमाम आभूपण वैश्रवण देव को दिये, उसने गोदुग्धासन से श्वेत वस्त्र में ले लिये.
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६४]
* महावीर जीवन प्रभा*
भगवान ने 'नमः सिद्धेभ्यः' कह कर चारित्र व्रत उच्चरा. यह मार्गशिर्ष कृष्ण दसमी का अन्तिम प्रहर बड़ा सुहावना था, हस्तोत्तर नक्षत्र और चन्द्रयोग बड़ा सुन्दर था, परमात्मा लोच (केश उखेड़ना) सेवाय मुण्डित और कषायत्याग से आभ्यन्तर मुण्डित हुए; गृहस्थावास छोड़ कर अनगार बन गये; उस वक्त शक्रेन्द्र ने सवा लक्ष मूल्य वाला देव दुष्य वस्त्र प्रभु के बायें कन्धे पर स्थापन किया, इस वक्त चौथा मनःपर्यव ज्ञान (मन के भावों का जानने वाला ज्ञान) उत्पन्न हुवा.
इस प्रकार दीक्षा कार्य सम्पन्न होने के बाद इन्द्रादि नमस्कार कर नन्दीश्वर द्वीप पर गये, वहाँ अष्टान्हिक उत्सव कर वापिस देवलोक में चले गये नृपेन्द्र नन्दीवर्धन भी दिलगीर होकर अपने स्थान पर चले आये, अन्य सब नागरिक अपने अपने घर पहुँच गये.
प्रकाश- उत्तम पुरुष गृहस्थाश्रम में चाहे जितना काल रहें; पर उनका लक्ष्यविन्दु तो प्रव्रज्या ही रहता है, जहाँ जन्मे वहीं मरना वे निकष्ट समझते हैं, भोग में ही जन्मे और भोग में ही मरना असमर्थ और बुद्धिहीनों का काम है, आखिर त्याग जीवन बनाना ही चाहिए; इस आप्त मान्यता के अनुसार भगवान् ने तमाम सुख साधनों
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* दीक्षा *
[६५
का परित्याग कर अमीरी से असंख्य गुण उच्च 'फकीरी' धारण की, यानी त्यागमूर्ति बनें- क्या आप भी चारित्र ग्रहण कर अपना कल्याण करेंगे? कि मौलिक मानव जीवन योंही भौगिक वितण्डावाद (लाफालोर ) में पूरा करेंगे ? समय चेतने का है, सावधान होना चाहिए- कल्पसूत्रादि में इन्द्रों ने और नन्दिवर्धन ने सम्मिलित दीक्षा महो त्सव किया ऐसा लिखा है, इधर आचारांगादि सूत्र में इन्द्रों के महोत्सव का ही उल्लेख है और यह न्याय सङ्गत भी है, क्योंकि तमाम तीर्थंकरों के सर्व कल्याणकों में इन्द्र और देवों ने ही महोत्सव किये हैं- भगवान् के खंभे पर कम्बल का स्थापन नीतियुक्त और शोभास्पद प्रतीत नहीं होता, भगवान् सर्वथा नग्न थे, फिर एक स्कन्धे पर मात्र कम्बल रहे, यह निरुपयोगिता न्याय सङ्गत मालूम नहीं होती; संभव है दिगम्बर श्वेताम्बर के मत भेदने यह कार्य प्रक्षेप किया हो- भगवान् ने जिस तरह मुख्यतः आत्म साधन के लिए और गौणतः परोपकार के लिए चारित्र लिया और उसको साङ्गोपाङ्ग निभाया, उसी तरह पालन करने का संयमियों को पूर्ण प्रयत्न करना चाहिये.
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६६ ]
* महावीर जीवन प्रभा *
( प्रवासक्रम )
( इन्द्र की प्रार्थना अस्वीकार )
प्रथम विहार में ही गवालिया का उपसर्ग होने पर शक्रेन्द्र ने आकर अत्यन्त भक्ति पूर्वक भगवान् महावीर से प्रार्थना की कि हे भगवन् ! बारह वर्ष पर्यन्त छद्मस्थावस्था (कैवल्य का पूर्व काल ) में आप को अनेक उपसर्ग (कष्ट) होंगे, उनको निवारण करने में आप की सेवा में रहना चाहता हूँ, आप कृपाकर आज्ञा बक्षो ! भगवन्त ने फ़रमाया हे इन्द्र ! ऐसा कभी हुवा नहीं, होता नहीं और होगा नहीं कि तीर्थंकर इन्द्रादि की सहायता से अपना कार्य करें, वे तो स्वयं ही अपने उत्थान - बलवीर्य - परुषार्थ और पराक्रम से केवल ज्ञान उपार्जन करके मोक्ष जाते हैं, इसलिये वे मन से भी कभी किसी की सहायता नहीं इच्छते; इतना कहने पर भी उपसर्ग निवारणार्थ भक्तिवश सिद्धार्थ देव को उन की सेवा में रखदिया और इन्द्र अपने
स्थान पर वापस चला गया.
प्रकाश - यह सोलह आना सत्य है कि पुरुषार्थ वादी कभी किसी की सहायता नहीं चाहता और कोई स्वतः देने की प्रार्थना करे तो उसे ठुकरा देता है, बलहीन ही
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* दीक्षा *
६७]
दूसरे की मदद चाहते हैं, अन्य का मुंह ताकते हैं और दूसरों की दया पर जीते हैं; भगवान् महावीर ने इससे संसार को यह समझाया कि अपने पैरों पर खड़े रहो, यानी स्वावलम्बी(Self-supporting)बनो, किसी से दया की भिक्षा मत मांगो, रोती शक्ल से अपना जीवन मत विताओ-हां ! सामान्य लोगों के लिये इतना विशेष हो सकता है कि जहाँ तक शक्तिसम्पन्न न हो, वहाँ तक किसी महात्मा का सहारा लेकर योग्यता प्राप्त करो और फिर स्वयं कार्यकुशल बनकर मंजिल तय करो- यह कहा जासकता है कि इन्द्र ने यह महज़ गलती की कि भगवान की रुचि न होने पर भी व्यन्तर देव सिद्धार्थ को भगवान के पास छोड़ दिया; श्वेताम्बर शास्त्र इस को मानते हैं और हेमचन्द्राचार्य म० ने भी यह उल्लेख किया है। मान लिया जाय कि इन्द्र अपनी भक्ति को न रोक सका, तथापि कहना होगा कि सिद्धार्थ ने भगवान् के उपसर्गों के समय जरा भी रक्षा नहीं की; प्रत्युत स्थान-स्थान पर उपद्रव किया और अनैतिक व्यवहार कर भगवान् के जीवन को अनादर्श बनाया; अतः मानना होगा कि सिद्धार्थ का प्रकरण भी प्रक्षिप्त होना चाहिये- आचाराङ्गादि सूत्रों में इस का उल्लेख नहीं है.
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६८]
* महावीर जीवन प्रभा *
(प्रथम पारणा )
भगवान् ने दीक्षा ग्रहण की उस दिन आपके छ?भत्त (दो उपवास) की तपस्या थी. उस दिन मात्र दो घड़ी दिन शेष था, तब भी वहाँ से विहार कर गये , कुमार ग्राम के पास आकर काउसग्ग ध्यान में खड़े रहे ; यहाँ से प्रातःकाल विहार कर ' कोल्लासक सन्निवेश' पधारे , वहाँ बहुल नामक ब्राह्मण के घर पर परमान (क्षीर) का पारणा हुवा , देवों ने प्रसन्न होकर वहाँ साड़ा बारह करोड़ १२५०००००० सोनयों की वर्षाकर उसे सुखी बना दिया.
प्रकाश- अहा ! मुनी-दान का प्रत्यक्ष प्रभाव संसार के सम्मुख उपस्थित होगया, सच्चे दिल से और उदार भाव से दान देने का ही यह परिणिाम था, अनभिज्ञ और रागान्ध इससे यह सबक (Lesson) सीखें कि त्यागी महात्माओं की हार्दिक सेवा करें, पक्षपात के अन्धकार से बचें और खाउ-उड़ाउ लूटेरे साधुओं से बचकर रहें , सच्चे दान मार्ग को अपना कर अपना हित साधे- भगवान् ने थोड़ा वक्त रहने पर भी विहार करके साधु समाज को यह बताया कि दीक्षा लेकर उस स्थान पर नहीं रह सकते हैं, उसका वर्तमान में किञ्चित पालन होता है, पूरा नहीं; मुनि समाज को इस पर ध्यान देना चाहिये. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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* दीक्षा *
( अभिग्रह) विचरते हुए भगवान् 'मोग्क सनिवेश' पधारे, वहाँ सिद्धार्थ नृपेन्द्र का मित्र ‘दुइजन्त ' तापस के आश्रम में पधारे, ज्ञात होते ही तापस सन्मानार्थ सामने आया पूर्व परिचय के कारण उससे प्रेम पूर्वक मिले, वर्षाकाल में अपने ही आश्रम में ठहरने की तापस ने प्रार्थना की, इससे परमात्मा ने वहीं चतुर्मास किया; देवयोग से वर्षा न होने के कारण पशुजन झोंपड़ी का घाम खाने लगे, पर भगवान् उनको नहीं हकालते , तब तापस कठोर उलहना देता- अहो आर्य ! तुम बडे प्रमादी हो जिस कुटि में रहते हो उसका भी रक्षण नहीं कर सकते तो और क्या कर सकोगे ! यह सुन प्रभु वहाँ से विहार कर गये ; कारण कि जहाँ अप्रीति हो वहाँ मुनी नहीं ठहरते . इस वक्त महावीर देव ने पाँच अभिग्रह ( प्रतिज्ञाएँ) धारण किये१-अप्रीति के स्थान पर ठहरना नहीं . २-छद्मस्थावस्था तक मौन से काउसग्ग ध्यान में रहना. ३-सदा खड़ा रहना-बैठना और सोना नहीं. ४-गृहस्थ का सम्मान सत्कार नहीं करना.
५-करपात्र में आहार करना . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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* महावीर जीवन प्रभा *
उपर्युक्त अभिग्रह लेकर चतुर्मास के १५ दिन शेष रहने पर प्रभु ने वहाँ से विहार कर दिया.
७० ]
प्रकाश - दृढ़ प्रतिज्ञा का नाम ही ' अभिग्रह ' है . अप्रीति के स्थान पर ठहरने से क्लेश की जड़ गहरी होती जाती है और कषायों की अभिवृद्धि होती है, इसलिये मुनि को भी यही आदेश है कि अप्रीति-दुर्भाव जहाँ हो वहाँ कतई न ठहरे, संसार भर के लिये यह कर्तव्य उपयुक्त है, चूंकि स्थान छोड़ देने से क्लेश शमन होकर शान्ति निकट आती है; इसलिये यह नियम हर खास व आम को फायदे मन्द है— इन अभिग्रहों में सबसे तगड़ा ' मौनव्रत - मौनशक्ति' ( Silent - force ) है. अत्यन्त आवश्यकता पर भगवान् किसी समय बोले हैं; पर छद्मस्थ अवस्था में अधिकतर मौन ही रक्खा है. मौन से आर्त्त - रौद्रध्यान ( संकल्प विकल्प - आहट्ट दोहट्ट विचार ) और क्रोधादि कषायों का उत्थान रुकता हैं, इससे असहिष्णुता का पराजय होता है ओर सहन शक्ति का आविर्भाव होता है, इससे प्रपंच सर्वथा हट जाते हैं और जीवन उन्नति के मार्ग पर गतिमान होता है; इसके अतिरिक्त इससे, स्वाध्याय ध्यान-समाधि आदि सफल होते हैं और आत्म-विकाश होने लग जाता है; अतः मुमुक्षु इसे अवश्य अपनावें .
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* दीक्षा *
[७१
( विविध उपसर्ग ) भगवान् महावीर को अकैवल्य काल में मानव कृत आसुरिक-दैविक और पाशविक अनेक छोटे-बड़े उपसर्ग हुए हैं ; उनमें से कतिपय यहाँ उध्दृत किये जाते हैं
(१) गवालिया का उपसर्ग-दीक्षा लेकर भगवान् तुरन्त ही विहार करते हुए ‘कुमार ग्राम' के पास आकर कायोत्सर्ग ध्यान में खड़े रहे, उस वक्त एक गवालिया ऐसा कहकर कि 'मेरे बैलों की निगाह रखना' अपने घर चला गया, वापिस आने पर बेल न मिलने से भगवान् को पूछा , ध्यानस्थ होने से उनने कुछ भी उत्तर नहीं दिया, तब क्रोधातुर होकर रस्सी से मारने को परमात्मा के नजीक आया, उसी वक्त ज्ञान द्वारा मालूम होने से शक्रेन्द्र वहाँ पहुच गया और गोपाल को भृत्सना करके भगवान् का परिचय कराया.
(२) शूलपाणी का उपसर्ग-प्रयाण करते हुए भगवान एक दिन वर्धमान गांव (अस्थिग्राम) के बाहार शूलपाणी यक्ष के स्थान में कायोत्सर्ग ध्यान से ध्यानस्थ खडे रहे, संध्या समय वहाँ के ब्राह्मण इन्द्र शर्मा पूजारी ने कहा- हे आय ! यहाँ मत ठहरो, यह यक्ष बड़ा क्रुर है, आपको यहाँ कष्ट होगा, भगवान् मौन (Silent ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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७२]
* महावीर जीवन प्रभा *
रहे. रात्री के समय यक्ष प्रकट होकर खड़खड़ाट हँसने लगा; हाथी के रूप से भगवान् को उछाले, राक्षस रूप से छूरा निकाल कर डराये गये और सर्प रूप से दंसेतथापि प्रभु चलायमान न हुए; तब उस दुष्ट ने परमात्मा के १ मस्तक में २ कानों में ३ नाक में ४ दान्तों में ५ नखों में ६ नेत्रों में और ७ पीठ में; इन मात स्थानों में महति वेदना उत्पन्न की, इतना करने पर भी अपने ध्यान से लेशमात्र भी न हिले, तब नाचार होकर भगवान् से अपने अपराध की माफी मांगी और गीत, गान, नाटकादि से भक्ति कर चला गया- यहाँ यक्षराज को 'सम्यक्तव' प्राप्त हुवा पिछली रात में भगवान् को दो घटिका मात्र निद्रा आई, इसमें आपने भावि लाभप्रद दस स्वप्न देख; जिसका विवरण कल्प सूत्र से जाना जासकता है.
(३) चण्डकौशिक का उपसर्ग-एक दफा भगवान् श्वेताम्बी नगरी की ओर पधार रहे थे कि रास्ते में एक मुसाफिर ने कहा- भगवन् ! आप इस रास्ते होकर मत जाईये, रास्ते में दृष्टिविष सर्प रहता है, उधर पक्षी तक भी नहीं उड़ सकते हैं; प्रभु ने उस कठिनतर रास्ते जाना ही पसन्द किया, क्रमशः सर्प के बिल के सामने जाकर ध्यानस्थ खड़े रहगये, द्विजिव्हा को मालूम होते ही सूर्य के सामने दृष्टि कर भगवन्त पर फैंकी, पर कुछ भी असर न होने से
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* दीक्षा *
७३]
गुस्से होकर भगवान् को काटा, तब दुग्ध समान श्वेत रुधिर निकलने लगा, उपकार दृष्टि स भगवान् ने फरमाया "बुज्झ बुज्झ चण्डकोसिय !" यानी चेत-चेत चण्डकौशिक ! बस इतना सुनते ही उसे जातिस्मरण ज्ञान (पूर्व भव ज्ञापक ज्ञान) उत्पन्न होगया, उससे अपने पूर्व भव और करणी को जानकर पश्चाताप ( Repentance ) किया- सर्प के पूर्व भव ग्रन्थान्तर से जानना- और भगवान् को प्रार्थना की-प्रभो ! आपने मुझे दुर्गति से उद्धृत किया, यह कहकर उसने अनशन ग्रहण कर एक पक्ष पर्यन्त बिल में मुख रखकर शान्त पड़ा रहा, उस वक्त घी-दुध बेचने वाले उसपर घी-दूध चढ़ा जाते, उसकी गन्ध से असंख्य चिटियों आ-आकर उसके शरीर को फोल फोल कर खाने लगी, अत्यन्त पीड़ा सहन करता हुवा प्रभु की दृष्टिरूप सुधावृष्टि से भीजा हुआ समता भाव से मर कर आठवें स्वर्ग में उत्पन्न हुवा.
(४) सुदुष्ट देव का उपसर्ग-श्वेताम्बिका होकर विश्ववन्द्य सुरभि पुरी नगरी के निकट पधारे, रास्ते में नौका से गंगा नदी उतरे, त्रिपृष्ट वासुदेव के भव में माग हुवा सिंह का जीव जो सुदुष्ट (सुदाढ) नाम का नागकुमारदेव था, उसने पूर्व वैरवश नौका को डूबाने का भरसक प्रयत्न किया; पर जिनदास श्रावक के संबल-कम्बल बेलों
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७४] * महावीर जीवन प्रभा * के जीव देवों ने पूर्ण रक्षा की और भगवान् सकुशल किनारे पहुँचगये:
(५) लोगों का उपमर्ग-क्रमशः परमात्मा चोरा गांव पधारे, वहाँ लोगों ने हेरक ( उठाइगिरा) समझ कर कुए में ओंधे लटका दिये, पार्श्वनाथ के शासन को सोमा जयन्ति आर्याओं (मुक्त वेशवाली) ने मुक्त कराये.
(६) चोरों का उपसर्ग- अतिकर्म निर्जरा के हेतु एक वक्त स्वामी ताड़ देश पधारे, बीच में दो चोर भ्रमवश तलवार लेकर भगवान् को मारने दौड़े, इन्द्र ने कष्ट निवारण किया.
(७) लोहकार का उपसर्ग- भगवान् एक मर्तबा विशाला नगरी पधारे, वहाँ लोहकार की शाला में ठहरे, बहुत दिनों बाद लुहार वहाँ आया, देखते ही कोद्धातुर होकर 'यह मुंड अमंगल है' ऐसा कहकर लोहे के घन से मारने को तत्पर हुवा, वहाँ भी इन्द्र ने रक्षा की.
(८) कटपूतनी का उपसर्ग- एकदा माघ मास में शालिवान उद्यान में जगन्नाथ काउसग्ग ध्यान रहे, वहाँ त्रिपृष्ट वासुदेव के भव में अपमानित स्त्री कटपूतना नाम की व्यन्तग्णी हुई थी, उसने तापसिन का रूप
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* दीक्षा *
[७५
धारण कर जटा में ठण्डा जल भर कर प्रभु पर छींटा; इस शीतोपसर्ग को जगत्पूज्य ने निश्वलता से सहन किया, व्यन्तरणी ने पराजय होकर भगवन्त की स्तुति की.
(९) म्लेच्छ देश में उपसर्ग- एक वक्त भगवान् म्लेच्छ देश में कर्मक्षय करने के विचार से पधारगये, वहाँ कुत्ते के पिल्लों के बहुत उपसर्ग सहे.
(१०) संगम देव का उपसर्ग- एक वक्त दृढभूमि का पर पेढाल गांव के उद्यान में पोलास नामक देव मन्दिर में भगवन्त ध्यानस्थ रहे, उस वक्त इन्द्र ने अपनी इन्द्रसभा में देवों के सम्मुख भगवान् के धैर्य की प्रशंसा की, सबने श्रद्धा पूर्वक श्रवण किया, पर मिथ्यात्व वासित संगम नामक देव ने अविश्वास किया और परीक्षा के लिये वहाँ पहुँच गया. उस दुष्टातिदुष्ट ने एक रात्री में क्रमशः बीस उपसर्ग किये.
(a) धूल की वृष्टि की.
(b-c) वज्र मुखी चिटियों और डांसों से शरीर चुंटवाया.
(d) घीमेलिका ने शरीर फोला. (e-f) सर्प और विच्छुओं ने डंक मारे.
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७६]
* महावीर जीवन प्रभा *
(g) नोलियों ने नखों से शरीर उधेड़ा. (b) चूहों ने शरीर काटा. (i-j) हाथी-हथनियों ने आकाश में उछाले और
पैरों से रोंदे.
(k) पिशाचरूप से डराये गये. (1) व्याघ्रों ने फाल मार कर भय भय भीत किये.
(m) माता के रूप में आकर कहा- पुत्र ! क्यों दुःखी होता है, मेरे साथ चल, तुझे सुखी बनाउंगी.
(n) कानों पर चूमते हुवे तीक्ष्ण पींजरे बांधे.
() जंगली चाण्डालों ने आकर दुर्वचनों से तिरस्कार किया.
(p) दोनों पैरों बीच आग जला कर हंडी में खीर पकाई.
(q) अत्यन्त कठोर पवन चलाया.
( ) उर्ध्व वायु से शरीर उठा उठा कर नीचे पटका और माण्ड लिक वायु से चक्र जैसा घुमाया.
(8) एक हजार १००० भार प्रमाण लोहे का गोला भगवन्त पर डाला- यह तीर्थकर का अनन्त बलवान् शरीर था, नहीं तो अन्य की तरह चूर चूर हो जाता.
(1) रात्रि शेष रहने पर भी बहकाने के लिए किसी ने आकर कहा- हे आर्य !प्रभात होगया है, विहार करो, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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* दीक्षा *
[७७
अब तक क्यों ठहरे हो ? ज्ञान द्वारा छल जानकर विश्वमान्य मौन रहे.
जब संगम सब तरह थक गया तब भगवान् को ललचाने की कोशीस की- देव ने अपनी ऋद्धि दिखाते हुए कहा- हे मुने! तुमको जो चाहिए सो मांगलो, स्वर्ग चहाता हो तो स्वर्ग दं, देवाङ्गना चाहती हो तो सुन्दर देवाङ्गना दें: बोलो ! क्या चाहते हो ? भगवान ने इस तुच्छ कथन पर जरा भी ध्यान न दिया- उपयुक्त बीस उपसर्गों से रंचमात्र भी स्तवनीय प्रभु चलायमान न हुवे; उस निर्लज्ज देव ने अन्तिम एक और धृष्टता की- घर घर पर आहार-पानी अशुद्ध कर दिया, शिष्य बनकर कुशिष्य की तरह घर-घर कहता फिरा- मेरे गुरु रात को चौरी करने आवेंगे, इससे मैं तलाश करता फिरता हूँ; यह सुन लोग भगान्त को मार पीट करते, यहाँ परमात्मा ने यह प्रतिज्ञा की कि जब तक उपसर्ग उपशमन न होंगे आहार ग्रहण न करूँगा; इस तरह उस दुष्ट-धृष्ट-निकृष्ट-निर्लज संगम देव ने अपनी पैशाचिक वृत्ति से जगत के तारणहार को छः महिने तक कष्ट दिया-पापात्मा संगम खिन्न होकर वापस देवलोक में चलागया, इन्द्र महाराज ने भारी तिरस्कार कर देवाङ्गना सहित उसे देवलोक से निकाल दिया. यह अभव्य ( मोक्ष कभी जा नहीं सकता) का जीव था, इस
ही से अमाप जुल्म गुजारे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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७८]
* महावीर जीवन प्रभा*
(११) शय्या-पालक का जीव गोपालक का उपसर्ग वासुदेव के भव में आज्ञा भंग के कारण कान में सीसा डलवाया था, वह शय्यापालक मर कर गोपालक हुवा, पूर्व भव के वैर से यहाँ भगवान् के कानों में शर्करावृक्ष की लकड़ी के कीले ठोक दिये, और उपर से काट दिये ताकि एकायक दिख न सके- पापा नगरी में सिद्धार्थ वणिक के यहाँ मालूम होने से खरक वैद्य ने सण्डासी द्वारा कीले निकाले; इस वक्त भगवन्त को शारीरिक इतनी वेदना हुई के सहसा चीख निकल गई, संरोहणी ओषध से प्रभु के कानों को निरामय किये. वैद्य काल कर पाँचवें देवलोक में गया और गवालिया सातवीं नरक में गया.
___ उपर्युक्त उपसर्गों में से कटपूतना कृत जघन्योपसर्ग हुवा, हज़ार भार गोले का मध्यम उपसर्ग हुवा और कानों में कीलों का उत्कृष्ट उपसर्ग हुवा; शेष सर्व सामान्य उपसर्ग हुवे- खास खास उपसर्गों का यहाँ उल्लेख किया गया है, बाकी छोटे छोटे तो अनेक उपसर्ग हुवे होंगे.
प्रकाश- भगवान महावीर के उपसर्गों का विवरण तो आपने ऊपर बाँचा ही है. कष्ट की भी आखिर सीमा होती है, शान्ति का भी मौका मिलता है। पर जगत्पूज्य के सीमातीत दुःखों का प्रकरण अजोड़ है, आपसे पूर्व
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* दीक्षा *
[७६ तेवीस तीर्थकर होगये; मगर उनको इतने कष्ट सहना न पड़े, यह अतिशयोक्ति नहीं है कि तमाम तीर्थंकरों के सम्मिलित उपसर्गों से भी आपके उपसर्गों की मात्रा बढ़ जाती है- देवों ने, मनुष्यों ने और पशुओं ने आपको तकलीफ देने में कोई कसर नहीं रक्खी, प्राणान्त-कष्ट पहुँचाने की भरसक चेष्टा की, संगम देव जैसे अभव्य जीव ने एक ही रात्री में वीस २० उपसर्ग करके अपने विवेक का दिवाला निकाला , इस तरह छः मास तक कष्ट पहुँचा कर अपनी नीचता का प्रदर्शन करया, शेष उपसर्ग कर्ताओं ने भी अपनी दुष्टता का संसार को परिचय करया , अपनी बुद्धि और कर्तव्यों को अस्ताचल पर भेज दिये, पराकाष्टा पर पहुँची हुई उनकी क्षुद्रता दिगन्त व्यापी है। इनके ये दुर्व्यवहार निन्दा करने योग्य-तिरस्कार योग्य और घृणा करने योग्य हैं, इनके जुल्मी अपराध अक्षम्य हैं, पर वाहरे वीर ! तू ही एक "महावीर" हुवा कि परम क्षमा से तमाम दुःखों को सहन किये , रंच मात्र भी हृदय न हिला, जरा भी उन पर दुर्भाव न हुवा, उनसे बदला लेने की किञ्चित् मात्र भी इच्छा न हुई, प्रत्युत उनका कल्याण चाहा, उनको सम्मति हो ऐसे विचार पैदा हुए; समता रस में झीलने लगे; कृतकों का कर्ज बड़े हर्ष से चुकाया- संसार को क्षमा ( Forbearance )
का पाठ पढ़ाया और यह बतलाया कि "मरना सीखोShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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८० ]
* महावीर जीवन प्रभा *
मारना मत सीखो" पाशविक बलवाले कातर जन दूसरों का नाश करते हैं और आत्मिक-बल (Soul-force) वाले सूरवीर अन्य की रक्षा करते हैं और आत्म-समर्पण में सतत तत्पर रहते हैं- इस घोषणा को गाँधीवाद ने स्वीकारा है, कार्यान्वित किया है और सफलता प्राप्त की है- अ. हिंसा का सच्चा मार्ग यही आज्ञा करता है ‘मा हण' मत मारो, परोपकार के लिए और आत्म रक्षण (Self-protection) के खातिर प्राणों का बलिदान ( Sacrifice ) करदो. जगत् में करीब करीब तमाम ईश्वरों ने शत्रु का बदला लेकर अपनी कातरता का दिग्दर्शन कराया है और दबी हुई हिंसा की नींव पर भारी महलात खड़ी करदी हैं जो आत्म कल्याण से परे रखती हैं; किन्तु हे परम देव महावीर ! तू ही एक संसार में ऐसा अवतरा कि बदला लेना पाप बताया, इतना ही नहीं करके दिखाया. आपने यह एक भारी विशिष्टता जताई कि जितने ही आपके सम्पर्क में आये उन सबको चन्दन कि तरह सुगंधित किये, चन्दन की लकड़ी पर कुल्हाड़ा मारो, या मस्तक घीसो वा पेर रगडो, चाहे उंगुली घीसो सबको सुगन्ध देता है, भगवान् ने अपने पूजक और निन्दकों को तथा कष्टदाता
और भक्तिकर्ता को सुखी बनाये ; उनने परम शत्रुओं पर प्रेम रखकर समता गुण को चरितार्थ किया है- धन्य हो ! वीर प्रभो! आप धन्य हो !!
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* दीक्षा *
[८१
क्या आप कष्ट के समय और आराम की वक्त ममता को छोड़कर 'समता' का पाठ सीखेंगे ? कि अन्यों की तरह समता का उलटा ' तामस' पाठ पढ़ेंगे. स्वार्थ में गुल्तान बन क्या जिन्दगी भर जीवों को सताया करेंगे ! उनको हानि पहुँचाया करेंगे और क्या उनको 'तिमिंगल न्यायवत् ' निगला ही करेंगे ? इस आनार्थिक पंथ प्रवास से जरा ठहरो ! और महावीर जीवन से कुछ शिक्षा लो, उनकी तरह शत्रुओं के साथ मित्रवत् व्यवहार करो. वे महापुरुष थे उनकी बराबरी हम कहाँ से करसकें। ऐसा ना हिम्मती विचार कभी मत करो नर से ही नारायण बनता है' इस सिद्धान्त को अपनाओ. क्षमा का उज्ज्वल सबक किसी महात्मा से सीखो, उनकी सत्संग करो, खाली खोखले एशो-आराम में मौलिक मानव जीवन नष्ट मत करो. करो जो कुछ भी कर सकते हो, हिम्मत से करो, अवश्य सफलता मिलेगी.
( सामुद्रिक पण्डित का प्रसंग )
एक मर्तवा भगवान् गंगा के किनारे पर विहार कर रहे थे, वहाँ की कोमल बालु पर चरण कमल में अदित चन्द्र-ध्यज-अंकुशादि चिन्ह स्पष्ट दिखाई देते थे. उस वक्त पुष्प नामक सामुद्रिक शास्त्री उधर आनिकला,
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८२]
* महावीर जीवन प्रभा *.
उसने रेति पर उत्तम चिन्हों को देखकर सोचा 'इधर से कोई एका की वक्रवर्ती गया है, उसकी सेवा से मुझे अपूर्व लाभ होगा, उनके कदम बकदम वह उनके निकट गया, देखता क्या है कि एक अवधूत नग्न फकीर जा रहा है, उसके गात्र ढीले पड़ गए, अपनी विद्या पर भारी घृणा पैदा हुई, अपने ग्रन्थो को नदी में फैंक देने की तैयारी में था कि इन्द्र एकदम वहाँ पहुँच गया, प्रभु को वन्दन कर पुष्प शास्त्री को कहा-खेद मत करो, तुमारी विद्या सत्य है, ये सुरासुर और इन्द्र नरेन्द्र से पूजित तीन लोक के नाथ तीर्थंकर देव हैं, इनकी सेवा तो ऐहिक और पारलौकिक सुख देने वाली है , ऐसा कहते हुए इन्द्र ने उसे काफी धन देकर सन्तुष्ठ किया, इन्द्र और पुष्प दोनों ही प्रसनता पूर्वक अपने स्थान पर चले गये.
प्रकाश- यह लोकोक्ति है कि 'जमात करामात' यानी समुदाय का प्रभाव पड़ता है, पर महावीर देव ने इस पराश्रित और सम्मिलित कर्म प्रभाव को अप्रमाणित ठहराया और यह सिद्ध कर दिखाया कि अपनी ही शक्ति अपने प्रभाव को बढाती है, इसलिए पारकीय शक्तियो से न फुल कर स्वयं शक्तिशाली बनो, व्यक्तित्व प्रभाव एक दिव्य प्रकाश है और समाजिक प्रभाव एक सामान्य
प्रकाश है और असक्तों के लिए ही उसकी रचना हैShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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* दीक्षा
८३] वर्तमान में महात्मा गान्धी का उदाहरण पर्याप्त हैएकाकी महावीर के लिये इन्द्र म• आये सब वर्तमान समुदाय के लिए एक सामान्य देव भी नहीं आता; इससे संसार को यह बोध लेना चाहिए कि स्वयं सशक्त बनें; परन्तु पर विभूति से अपने को भूषितन समझ ; तात्पर्य यह है कि महावीर की तरह स्वयं शक्ति उत्पन्न करो और यह कर्तव्य-परायणता और कार्यान्वितता से होसकती है.
(गौशाला का संयोग) बौद्ध धर्म तो छः मत प्रवर्तकों में से मंखली गोशालक दूसरा मत प्रवर्तक था, ऐसा स्वीकारता है ; पर जैन धर्म इसको भगवान् महावीर का स्वयं बना हुवा शिष्य मानता है.
राजगृही नगरी के नालन्दे पाड़े में भगवान् महावीर का द्वितीय चतुर्मास था; मास क्षमण की तपस्या थी, गोशालक मिक्षावृत्ति करता करता वहाँ पहुँच गया, पारणे की महिमा देखकर खाने के लोभ से स्वयं दीक्षा लेकर भगवान् का शिष्य बन गया और उनके साथ फिरने लगा.
एक वक्त जगत्पूज्य सुवर्णखल ग्राम में पधारते थे, मार्ग में गोपालक क्षीर पका रहे थे, गोशाला ने पूछा ये
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* महावीर जीवन प्रभा *
लोग खीर खासकेंगे ? सिद्धार्थ देव ने कहा- हंडी फूट जायगी, खीर न खा सकेंगे, यत्न कर ने पर भी वैसा ही हुवा, प्रत्यक्ष अनुभव करने से 'यद्राव्यं तद्भवत्येव' जो होनहार होता है वही होता है, यह मत अंगीकार कियाएक वक्त परमात्मा कालाय सनिवेश के उद्यान में पधारे वहाँ एक शून्यगृह में एक जार पुरुष को एक दासी के साथ रति क्रीड़ा करता हुवा देखकर हँसा, उसने उसको पीटा तब प्रभु को कहा- मुझे छुड़ाते क्यों नहीं हो ? सिद्धार्थ ने कहा- ऐसा बेजा बर्ताव मत किया कर- एकदा स्वामी कुमारक सन्निवेश पधारे, वहाँ पार्श्वनाथ के सन्तानिये मुनिश्चन्द्र म०, थे उनके शिष्यों को गोशालक ने पूछा- तुम कौन हो ? उनने कहा- हम निर्ग्रन्थ हैं, गोशाला बोला कहाँ मेरे धर्माचार्य ओर कहाँ तुम ? मेरुगिरी- सरसों जितना फर्क है। मुनियों ने कहा- तू है जैसे तेरे धर्माचार्य भी होंगे; गोशाला ने कहा- मेरे धर्माचार्य के प्रभाव से तुमारा उपासरा जल जाओ; मगर जला नहीं, तब भगवान् को कहा- आज कल आप की तपश्चर्या का प्रभाव घट गया है ! सिद्धार्थ ने उत्तर दिया- धर्म स्थान और साधु महात्मा जल नहीं सकते, गोशालक निराश होगयाएक समय चौरा गाम में लोगों ने उठाईगिरा समझ कर भगवान् के साथ गौशाला को भी कुए में ओंधा लटकादिया, वहाँ साधुवेश मुक्त सोमा-जयन्ती आर्याओं छुड़ाया. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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* दीक्षा *
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भगवान कयंगला पधारे, माघ मास में गरीब वृद्ध लोग गायन कर रहे थे, गोशाला हँसा, लोगों ने मेथी पाक जिमाया (पीटा ) साधु का चेला जानकर छोड़ दिया- गचवें चौमासे के बाद कूपसंनिवेश से गोशालक भगवान् से जुदा. होकर स्वतन्त्र फिरने लगा, प्रकृति के दोष से जहाँ-तहाँ मार पड़ने लगी, घबड़ाकर भगवान् की शोध करने लगा, छः महिने बाद गोशाला पुनः परमात्मा के शामिल हुवा-- सातवें चौमासे में अलंमिका नगरी के देवकुल में बलदेव की मूर्ति के साथ गोशाला कुचेष्टा करने लगा, लोगों ने अच्छी तरह पूजा की (खूब पीटा) एक दफा दन्तासुर स्त्री-पुरुष को देखकर गोशालक ने मजाक की- अहा ! विधाता ने कैसा सुन्दर जोड़ा मिलाया है (?) उन्होंने उसको चौदहवाँ रत्न दिखाया (पीटा) एक वक्त सिद्धार्थपुर से स्वामी ने कुर्मग्राम विहार किया, मार्ग में तिल के एक अंकूर को देखकर गोशाला ने भगवान् को पूछा- यह तिल उगेगा ? स्वामी ने कहा- इस एक अंकुर में सात जीव तिल रूप होंगे, भगवान् का वचन मिथ्या करने को गोशालक ने उस पौधे को उखेड दिया; मगर वृष्टिके योग से मिट्टी गीली होजाने पर तिल का पौधा पुनः पनप गया, वापस लौटते गोशाला ने पूछा वह तिल कहाँ है ? स्वामी ने उत्पन्न तिल का दरख्त दिखाया, गोशाला को यह ठोस विश्वास Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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८६]
* महावीर जीवन प्रभा*
होगया कि ' होनहार हो वही होता है' यह गोशालक मत यहाँ कायम हुवा- एक वक्त कुर्मग्राम में वैश्यायन ऋषी नीचा मुख और उँचे पैर कर आतापना लेरहा था, मानों आग में झंपापात कर रहा हो, इस तरह धुम्रपान करता हुवा अपनी जटा में से जूएं चुन चुन कर पुनः जटा में डाल रहा था, यह देख हँसता हुवा कहने लगाअहा ! यह युकों की शय्या है- जूओं की जाल है ; तब उस तपस्वी ने क्रोधाक्रान्त होकर उस पर तेजो-लेश्या छोड़ी , स्वामी ने शीतलेश्या से उसकी रक्षा की.
गोशालक ने सिद्धार्थ को पूछा- यह तेजोलेश्या कैसे सिद्ध होती है ! उसने उपाय बताया उस माफक गोशालक ने छः मास पर्यन्त एक मुट्ठी उड़द के बाकुले और तीन चल्लु पानी निरन्तर पीकर सूर्य के सामने आतापना ली; इससे तेजोलेस्या ( जला देने की एक शक्ति) सिद्ध की. कुछ अष्टाङ्ग निमित्त भी शीख गया; अब तो मस्तिष्क फटने लगा, अहंकार में चकनाचूर होकर लोगों को कहने लगा- मैं जिन भगवान् हूँ, यहाँ से गोशाला अलग विचर ने लगा; भगवान् के छद्मस्थ काल में गोशाला यहाँ तक साथ रहा.
प्रकाश- गोशाला मात्र मिक्षा के दुःख से भगवान् का शिष्य बन गया था, स्थान-स्थान पर उपद्रव करता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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* दीक्षा
[८७
रहा और मेथीपाक जीमता रहा, तंग होजाने पर भगवान् की शरण लेता, एक भी भला काम नहीं किया, न किसी को फायदा पहुचाया, साधुओं के गुणों में से शायद ही कोई गुण इसका सहचारी होगा- भगवन्त तो मौन व्रत में थे, बहुत कम बोले, सिद्धार्थ देव ही इसके साथ शिरपच्ची किया करता . इसने दाहक-शक्ति रूप तेजोलेश्या और अष्टाङ्ग निमित्त शीख कर तो मानो जमीन पर बैठकर आ. समान के तारे गिनने लगा था, इसका विशिष्ट वर्णन तो भगवती सूत्र के पन्द्रहवें शतक में पढिये, महावीर का शिष्य होकर इसने 'नियतिवाद' मत की अलग स्थापना कर ग्यारह लाख मनुष्यों को अपनी जाल में फँसाये और सर्वज्ञ-तीर्थकर-जिन भगवान् आदि उपाधियों का ढोंग रचकर जनता को मारी धोके में डाले और भगवान् महावीर के विरुद्ध प्रचार किया, पेटभर निन्दा की, कष्ट पहुँचाये; जिसका दिग् दर्शन आगे समय पर करावेंगेइतना होने पर भी भगवान ने तो उसे जलता और मरता बगया 'रक्षण करना पाप है' इस कूट सिद्धान्त को मानने वाले इससे बोध ग्रहण करें और वाडावन्दी के मोह को छोड़ कर आत्म कल्याण के लिए सत्य को स्वीकार करें- पाठकजन ! क्या आप भी गोशालक के विचारों से मुक्त होकर उसके बद कार्य को घृणा की दृष्टि से
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८]
* महावीर जीवन प्रभा *
देख महावीर के चरणानुयायी बनेंगे ? अवश्य ही सशिक्षा ग्रहण करें.
( तपश्चरण )
परमात्मा महावीर का १२ वर्ष ६ महिने १५ दिन छद्मस्थ काल रहा, इतने टाइम में आपने निम्नाङ्कित तपस्या कर घनघाती कर्मों का विध्वंस किया -
१ छः मासी एक
३ चातुर्मासिक नौ
५ ढाई मासिक दो
७ डेढ़ मासिक दो
९ पक्ष क्षपण बहत्तर
२ पाँच दिन कम छः मासी एक
४ त्रिमासिक दो
६ दो मासिक छः
८ मास क्षपण बारह
१० अङ्कुम तप बारह
११ छट्ठ तप दो सौ उनतीस.
इनके अतिरिक्त भद्र - प्रतिसा २ दिन - महा भद्र प्रतिमा ४ दिन और सर्व तो भद्र प्रतिमा १० दिन लगातार वहन की.
इस तरह बारह वर्ष और साढ़े छ: मास में ११ वर्ष ६ मास २५ दिन तपश्वरण किया; केवल ११ महिने २० दिन आहार लिया.
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* दीक्षा *
प्रकाश-संसार में खाने का त्याग सबसे कड़ा है, बुद्धिमान और संयमियों के भी हाथ-पैर यहाँ ठंडे पड़ जाते हैं, लालचु आदमी तो खाने के लिये दीर्घ-जीवन की माला फिराया करता है, अच्छा खाना और अधिक खाना, यह उसकी भागवती मान्यता ( १ ) होती है, ऐसे लोगों को नफा नुकशान का जरा भी भान नहीं रहता, पशु की तरह खाये जाना ही सार समझते हैं ; इधर सभ्य और समझदार मनुष्य अपने मौलिक जीवन निर्वाह के लिये भोजन करते हैं, यह भी प्रायः सादा और मित प्रमाण में होता है, वे भोजन के गुण-दोषों के ज्ञाता होते हैं ; पर इन दोनों दजों से परे रहने वाले तपस्वी कहलाते हैं , हाम दाम-ठाप सब कुछ होने पर भी या सुलभ भिक्षा की उपलब्धि होते भी भोजन का त्याग कर तपस्या करने वाले विरल व्यक्ति होते हैं.
करीब करीब सब धर्मों ने तपश्चर्या को आदर्श वस्तु मानी है, हिन्दुओं में महर्षियों ने भारी तपस्या की, मुसलमान लोग रोजा का पालन बड़ी खूबी से करते हैं, महात्मा गांधी ने भी तपस्या का महात्म्य समझा है और उसकी आचरणा कर सफलता प्राप्त की है- जैन धर्म ने तो तपश्चर्या को प्रधान स्थान दिया है, आज भी जैनियों की तपस्या के मुकाबले दुनिया में कोई खड़ा नहीं रह सकता,
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९०]
* महावीर जीवन प्रभा *
यह स्पष्ट है . तपस्या दो दृष्टि से की जाती है- स्वास्थ्य रक्षा के लिए और आत्मोनति-आत्मशुद्धि(Self-purification) के लिए.
तप से जठराग्नि तेज होती है, उससे पाचन अच्छा होकर सप्त धातुएँ (१ हड्डी २ मांस ३ रुधिर ४ वीर्य ५ त्वचा ६ मजा ७ नसें ) पुष्ट होती हैं. सुव्यवस्थित रहती हैं और निरामय बनती हैं- वैद्यक शास्त्रों नेभी लिखा है कि " लङ्घनं खलु औषधं " यानी अस्वस्थ अवस्था में लंघन करना औषध है, इधर यह भी कह दिया कि 'जिणे भोजनं' पानी आगे का पच जाने पर नया भोजन करना चाहिए; इन सब बातों से यह साफ है कि स्वास्थ्य के लिए तपस्या एक कीमिया चीज़ है . इस हृद्द तक तो सब लोग मानने को तैयार हैं; पर आत्मोन्नति में साधक नहीं हो सकती बजाय इसके घातक है और इसमें कई एक विचारणीय दलिलें पेश भी करते हैं ; मगर मुझे स्पष्ट कह देना चाहिए कि वे उस तेह तक नहीं पहुँच सके हैं, इसही लिए उनका ऐसा मानना है. देखिये
___ तपस्या करने का मूल आशय सिद्ध भगवन्तवत् 'निराहारी' बनने का है, आत्मा का असली स्वरूप यही है, आहार. सबसे पक्की उपाधि है, संसार की
सारी घटमाल इसके पीछे है, ज्यों ज्यों इसका प्रसंग कम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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* दीक्षा *
[९१ होता जाता है त्यों त्यों आत्म किरण प्रकाश फैंकता जाता है, मानस-दशा निर्मल होजाती है, इन्द्रियाँ पराजित होती हैं, उन्माद कम होकर प्रभु भजन में जी जमता है, ध्यान और समाधि की तरफ मन दौड़ता है, मन के तूफान क्रमशः कम होजाते हैं, जगद् व्यवहार उज्ज्वल बनता है, नैतिक जीवन का पालन होता है . आपको शायद अनुभव होगा कि कुछएक वस्तुएँ छोड़ने पर भी मन पर कितना कब्जा होता है, त्याग के प्रति किस कदर भावनाएँ जागतीं हैं, तो भला तमाम खान-पान के त्याग से उन्नत दशा हो इसमें क्या आश्चर्य है ? आप स्वयं कार्यान्वित करके अनुभव करिये . हाँ ! इतना जरूर मानना होगा कि शरीर वरदाश्त कर सके उतनी ही तपस्या होना चाहिए. अवधूत और देह-मूर्छा के त्यागी को तो सब तरह कष्टों का सामना करके तपश्चर्या करना अभिष्ट है .
भगवान् महावीर ने समर्थ होने पर भी कर्म विध्वंस के लिये तप का आचरण किया, यहाँ तक कि बहुत कम दिन आहार ग्रहण किया, भगवन्त की भावना अत्युच्च थी, तथापि तपश्चरण किया, इससे जनता की उस मान्यता का प्रतिकार होजाता है कि "भूखे मरने से क्या होता है ! भावना होना चाहिए, जिसको खाने को न मिले, वह तपस्या करे; इत्यादि " लोभी-लालचु और भूख के
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९२]
* महावीर जीवन प्रभा *
कायरों का यह मत हो सकता है, पर त्यागी- महात्मा
और गहरे समझदारों की यह मान्यता नहीं हो सकतीक्या आपभी तपस्या करने में कुछ हाथ बटावेंगे ? कि 'परोपदेशे पाण्डित्यं' में ही खुश रहेंगे; यह निश्चित है कि शरीर पर दबाव डाले विना और भोजन का मोह छोडे विना शान्ति वरमाला नहीं डाल सकती- उपवासादि व्रत यदि न बन सके तो नाना प्रकार की तपस्या का उल्लेख है, उसमें से जी चाहे सो करिये, और हिम्मत पूर्वक आगे कदम बढाईये ; इससे अत्यन्त हित होगा.
( विलक्षण अभिग्रह)
भगवन्त ने एक वक्त बड़ा कठिन अभिग्रह (तपका अंग) किया- राजा की पुत्री हो, बन्दिखाने रही हो, पैरों में जंजीर हो, मस्तक मंडाया हवा हो, तीन दिन की भूखी हो, आँखों में आंसू बहते हों, दोनों पैरों के बीच देली करके खड़ी हो, इस स्थिति में रही हुई राज कन्या दो पहर के बाद उड़द के बाकुले यदि बहरावे तो पारणा करना; वर्ना तपस्या करना.
इस अमिग्रह को चार मास हो गये थे, उस वक्त कोशाम्बी नगरी के राजा शतानीक ने चम्पा नगरी पर
आक्रमण ( Attack ) कर दिया, वहाँ का दधिवाहन राजा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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* दीक्षा *
९३]
भाग गया, उसकी पत्नी धारणी रानी शीलरक्षा के लिये अपनी जीभ किचर कर मर गई और पुत्री चन्दनवाला को पकड़ कर एक सुभट ने धन्य सेठ को बेंच दी, उसकी मूला स्त्री को यह शक हो गया कि में बूढी हूँ, सेठ मुझे छोड़कर इस युवती को पत्नी बनावेगा, इसही लिये ले आया है. सेठ के बाहार जाने पर मूला सेठानी ने चन्दनबाला का मस्तक मूंड दिया, पैरों में जंजीर पहना दी, तलघर में डालदी और ताला बन्द कर अपने पीहर चली गई, चौथे दिन सेठ आया, तलाश कर चन्दना को बाहर निकाली, उक्त स्थिति में देख कर सेठ ने कहा- जब तक मलुहार को ले आता हूँ तब तक तू मुंह धोकर सुपड़े में रहे हुवे उड़द के बाकुले खाना; यह कह कर सेठ चलागया.
इस वक्त चन्दना ने विचार किया कि "आज मेरे अष्टम तप (तीन उपवास) का पारणा है, कोई महात्मा पधार जायें तो उनको दान देकर खाउं" ऐसी भावना ही कर रही थी कि मिक्षा के लिये भ्रमण करते हुवे महावीर भगवान् पधारे, अभिग्रह के मुताबिक सब बातें मिल गई, सिर्फ आंख में आंसू नहीं थे, बस भगवान् तुरन्त वापस लौटने लगे, चन्दना रोने लगी- अहो ! मुझ मन्द भागिनी के हाथ से भुमरे वाकुले नहीं बहरे; ऐसा सुनकर भगवन्त पीछे फिरे, आँसू देख कर सहर्ष वाकुले बहर लिये,
चन्दना अत्यन्त प्रसन्न होगई. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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९४] * महावीर जीवन प्रभा *
देवों ने इस वक्त पंच दिव्य प्रकट किये, साड़ा बारह करोड़ सोनयों की वर्षा की, चन्दना के मस्तक पर नूतन वेणी रचदी और पैरों की सांकल झांझर बनगये, पीछे सेठ आया, मालूम होने पर राजा भी आया, प्रजाजन भी इकट्ठे होगये, सब के समक्ष इन्द्र म० ने आकर कहा- जिस वक्त भगवान् को कैवल्य उत्पन्न होगा, उस वक्त यह सब द्रव्य चन्दनबाला के दीक्षा में लगेगा, अपनी रानी की भांजी मालूम होने से राजा अपने रणवास में ले गया। इस तरह ५ दिन कम ६ महीने में भगवन्त का पारणा हुवा.
प्रकाश-जिस तरह खाने के शौकीन के दिलमें खाने की ही तरंगे उठा करती हैं , वाणी और वर्तन में मी यही प्रवाह चला करता है, यानी भोजन प्रकरण का घोत बहा करता है । उस तरह , अनासक्त और तपस्वियों के हृदय में त्याग की लहरें उठा करती हैं, हर तरह और हर रास्ते से आसक्ति और परिमोगों का परिहार हो, इसकी गवेषणा किया करते हैं, अभिग्रहादि तपस्या से आत्म-दमन ( Self-control ) का उपाय किया करते हैं. यद्यपि आज भी मनिराज अभिग्रह धारण करते हैं और दिगम्बर मनि में इसका विशेष प्रचार है; तदपि अभिग्रह धारियों को
मनमें प्रायः यह रहता होगा कि किसी तरह लोग जान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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* दीक्षा *
[ ९५
जांय और हमरा अभिग्रह फल जाय तो अच्छा है, अगर ऐसा हो तो यह विकृत - अभिग्रह है. सच्चे अभिग्रहवादी अभिग्रह फलने पर या वे फलने पर समभावी रहता है; बल्कि नहीं फलने पर विशेष प्रसन्न रहता है, वह सोचता है कि मुझे तपश्चर्या उदय आगई- भगवन्त को अभिग्रह तो बड़े विकट और विलक्षण थे, क्या ही अच्छा हो कि हम भी वे दिव्य दिन अपने जीवन में देखें- अहो त्यागी नाम धारण करने वालो ! आप भी इससे कुछ पाठ शीखेंगे ? कि खाने-पीने में ही अलमस्त बने रहेंगे ? नहीं नहीं ऐसा नहीं होगा ; आशा है आप जरूर विचारेंगे और आचरणा भी करेंगे. धर्मीजन का भी मन इधर आकृष्ट होगा ; ऐसा विश्वास है.
( रहन सहन )
भगवान् महावीर देव दीक्षा लेकर कैवल्य पर्यन्त बड़े उत्तम रहन सहन से रहे सिंह की तरह एकाकी देश - नगर - ग्राम - जंगल-पहाड़ादि क्षेत्रों में निर्भय विचरते रहे. नग्नावस्था में अलमस्त फकीर की तरह आप भ्रमण करते रहे, इष्ट और अनिष्ट संयोग के सुख - दुःख को समता तराजु से तौलते रहे, खान-पान की तो उनने जरा भी परवाह नहीं की, समय पर लूखा-सूखा जो भी मिल जाता उसमें संतुष्ठ रहते, चिन्ता डाकिन का उन पर लेस मात्र भी प्रभाव नहीं था, इससे वे आर्त्त- रौद्र ध्यान से विमुक्त थे, सदा धर्म ध्यान में विचरण करते थे .
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९६]
* महावीर जीवन प्रभा *
परमात्मा अष्ट प्रवचन माता का उत्कृष्ट रूप से पालन करते थे, इन्द्रिय-विषयों पर विजय प्राप्त कर लिया था, नौ बाड़ से ब्रह्मचर्य की पूर्णतः रक्षा करते थे, क्रोधादि कषायों के परिहार से परमात्मा सदा शान्त-उपशान्त और प्रशान्त थे, प्रत्येक पौद्गलिक पदार्थों की आसक्ति से अनासक्त थे; संसार संयोगों से 'शंख रंगवत् ' निर्लेप थे और 'कमल जलवत' निराले थे. उनका विहार जीवगति के समान और पवन वेग की तरह स्वतन्त्र था, आकाश के मुवाफिक स्वाश्रित थे, किसी आधार-सहायता आदि को स्वम में भी नहीं इच्छते थे, पक्के स्वावलम्बी थे. बाइस परिसहों को सिंह की तरह सहन करते थे, जगदाधार भगवान् सूर्य समान तेजस्वी, चन्द्र समान सौम्य , कछुए जैसे गुप्तेन्द्रिय , भारण्ड पक्षी सदृश अप्रमत्त हस्ति तुल्य पराक्रमी, वृषभ समान संयम भार निर्वाहक, मेरुपर्वतवत् अकम्प, पृथ्वी समान सहनशील और शरत् कालीन जल के सदृश निर्मल हृदयी थे.
देवाधिदेव वर्षाकाल के सिवा आठ मास पर्यन्त गांव में एक दिन, नगर में पांच दिन विराजते थे, तृण-मणि, स्वर्ण-पाषाण और पजक-निन्दक को समान गिनते थे, ऐहिक और पारलौकिक सुख दुःख को अमिन मानते थे, जीवन-मरण को बराबर समझते थे, सर्वोत्कृष्ट चार ज्ञान
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*दीक्षा*
[९७ शायक-सम्यक्त्व और यथा ख्यातादि चरित्र भूषणों से भूषित थे, कर्म-शत्रु नाश करने में पूर्ण सावधान थे. स्वकल्याण और परोपकार में आपकी पूरी धगश थी.
प्रकाश-परमात्मा महावीर देव का रहन-सहन तो संसार से जुदा था, उनकी आत्मा शान्ति-सन्तोष को चहाने वाली थी इतना ही नहीं किन्तु सतत प्रयास कर उन्हें प्राप्त कर लिया था, आधि-व्याधि और उपाधि से प्रायः मुक्त थे. जन्म-जरा और मृत्यु पर भारी विजय प्राप्त किया था, संयमी के तमाम गुणों का दृढता पूर्वक निवोह करते थे, सदा प्रसन्न वदन रहते थे, दर्शकों के कषाय शान्त हो जाते थे, उन्होंने अपने जीवन में आचार और गुणों का पालन कर संसार को पाठ पढाया, घोषणा की
और आदेश दिया है- पाठकवर ! आप अपनी जीवन नन्ज पर उंगुलियाँ रखिए, क्या दशा है ? कितना अन्तर है ? शायद दिग्मूढ की तरह दिशा ही तब्दील होगई है, कोई अच्छा उपदेश या बाँचन मात्र कान तक ही पहुँचता है, हृदयंगम तो होता ही नहीं तो प्रवृत्ति की आशा ही क्या ? यो तो यह पुण्य हीनता का ही परिचायक है; पर भावना और प्रयत्न में तो डबल जीरो (दो विन्दियाँ) लगा हुवा है, अब काम बने कैसे ? जरा अपने प्रवाह से
रुको और महावीर के चरणे चलने का निर्णय करो, वर्तन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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९८]
* महावीर जीवन प्रभा *
करो और आत्महित साधो; यह हमारा खास सुझाव ( Suggestion ) है.
( छद्मस्थ कालीन चतुर्मास )
केवल ज्ञान के पूर्व भगवन्त ने बारह चतुर्मास किये; उनका संक्षिप्त विवरण यहाँ बता दिया जाता है
१- पहिला चौमासा भगवन्त ने दुइजन्त तापस के आश्रम में किया, वहाँ वस्ती-मालिक की अप्रीति के कारण पन्द्रह दिन शेष रहने पर ही विहार करगये.
वहाँ से विहार कर मोराक सनिवेष पधारे, उद्यान में कायोत्सर्ग ध्यान रहे, यहाँ भगवान् की महिमा बढाने के लिये सिद्धार्थ देव भगवन्त के शरीर में प्रवेश कर भूतभविष्य की बातें बताने लगा, इससे लोग स्वामी की सेवा में मशगूल हुए, वहाँ के निवासी अच्छन्दक नामक निमित्तिया ने इर्ष्यावश एक घास की सलाका लेकर पूछाअहो आर्य ! यह तृण टूटेगा कि नहीं, देव ने इन्कार किया, वह तोड़ने लगा कि उसकी उंगुलिये स्तम्भित हो गई, तब सिद्धार्थ ने जाहिर किया कि यह अच्छन्दक चौर है , हत्यारा है और भगनी-मोगी है ; इत्यादि . यह नग्न सत्य सुन कर निमित्तिया घबड़ाया, भगवान् को प्रा
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* दीक्षा *
९९]
र्थना की- आपके तो बहुत स्थान हैं , मैं कहाँ जाऊं? अप्रीति जानकर भगवन्त अन्यत्र विहार कर गये.
२-दसरा चतुर्मास भगवन्त ने राजगृह नगरी के नालन्दे पाड़े में तूणकार की शाला में किया. यहाँ गौशाला भगवान् की सेवा में आया.
३-तीसरा वर्षाकाल परमात्मा चम्पा नगरी में विगजे. गौशालक ने पूर्व वार्णित तूफान किया.
४-चौथा चौमासा महावीर देव पृष्टचम्पा में विराजे, वहाँ जिर्ण सेठ के प्रतिदिन भावपूर्ण निमन्त्रण करने पर भी प्रभु ने पूर्ण सेठ के यहाँ पारणा किया.
५- पांचवाँ चतुर्मास भद्रिका नगरी में विराजे.
६-छट्ठा चतुर्मास अलंभिका नगरी के देवकुल में निवास किया, यहाँ भी गौशालक ने पूर्ववर्णित उपद्रव मचाया.
७- सातवाँ वर्षाकाल प्रभु भद्रिका नगरी में विराजे. आठ महिने तक स्वामी को कोई उपसर्ग नहीं हुवा.
भगवन्त का एक वक्त पुरिमताल नगर पधारना हुवा, एक उद्यान और. नगर के बीच में ध्यानस्थ रहे.
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१००]
* महावीर जीवन प्रभा *
वहाँ वग्गुरी सेठ और उसकी भार्या ने पुत्र के लिये कीहुई मन्नत के अनुसार मल्लीनाथ स्वामी का एक नूतन जिन मन्दिर बनवाया था, वहाँ नित्य पूजा करते थे, एक दफा वे पूजन करने जारहे थे उस वक्त भगवान् बीच में ही कायोत्सर्ग में खड़े थे; भगवन्त की महिमा बढ़ाने इन्द्र ने आकर सेठयुगल को कहा- जिनकी पूजा करने तुम जा रहे हो, वे प्रत्यक्ष ही यहाँ उपस्थित हैं, सुनते ही युगल उनके चरणों में झुक गया और भगवन्त की शुद्ध भाव से पूजा की ; बाद मल्लीनाथ के बिंब का पूजन किया. - ८-आठवाँ चौमासा पूज्यप्रवर राजगृही नगरी में विराजे.
९- नवाँ चतुर्मास जगन्नाथ अनार्य देश में स्थिरता की, वहाँ अनेक कष्ट सहनं किये .
१०-दसवाँ वर्षाकाल प्रभु सावत्थी नगरी में विराजे यहाँ गोशालक ने तेजोलेश्या सिद्ध की.
११- ग्यारहवाँ चतुर्मास महावीर देव विशाला नगरी में विराजे, उसके बाद चमरेन्द्र का सुसुमार पुर में उत्पात हुवा, जिसका वर्णन कल्पसूत्र में अंकित है- इन्ही दिनों में पौष कृष्णा प्रतिपदा के दिन भगवन्त ने पूर्व
लिखित विलक्षण अभिग्रह धारण किया था. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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* दीक्षा *
[ १०१
१२ - बारहवाँ चौमासा परमात्मा चम्पा नगरी में बाद षण्मानिक ग्राम के बाहर काउसग्ग-ध्यान में शय्या - पालक के जीव ने पूर्व वर्णित उपसर्ग किया था.
बिराजे
प्रकाश - जैन धर्म में चतुर्मास की अत्याधिक महिमा है- मुनिजन एक जगह स्थिरता करते हैं, शास्त्र श्रवण कराते हैं, संघमें तपस्या का प्रवाह जोरों से बहता है. पर्वों की आराधना होती है, क्रिया-काण्ड और धर्म ध्यान अच्छा बनता है, भ्रमण के प्रतिबंध के कारण मुनियों को स्वाध्याय - ध्यान का सुन्दर अवसर मिलता है, दान पुण्य और स्वधर्मियों की सेवा का सुअवसर प्राप्त होता है, मुनिजनों की सेवा - सुश्रुषा का स्वर्णावसर उपलब्ध होता है—- भगवान् महावीर सिर्फ पहिला चतुर्मास तापस के निवेदन से रहे थे, बाद तो स्वयं ही रहे, किसी की प्रार्थना या विज्ञप्ति की प्रतीक्षा न की, न वे ऐसा चाहते थे; उनके चौमासे बड़े आदर्श थे. आज कलके मुनिवरों और मुनिजनों के चतुर्मास बड़े विचित्र ढंग से होते हैंआग्रह पूर्ण विनति हो, सब तरह अनुकूलता हो, हांजतें जहाँ पूरी होसकती हों, उत्सवों की भरमार हो, धूमधाम हो, पैसे खूब खर्चे जासकते हों; चहल-पहल बनी रहती हो. मन माना सब काम पूरा होता हो; वहीं पर चौमासा किया जाता है, गांवों और गरीब लोगों की प्रार्थना प्रायः ठुकरा
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१०२]
* महावीर जीवन प्रभा *
दी जाती है, सुखशीलता का यह परिणाम है कि अमुक देशों को और प्रदेशों को छोड़ते नहीं, खान-पान और रहन-सहन की घबड़ाहट से अपने सर्कल को नहीं छोड़ते, यह अमाप कमजोरी है और अनासक्ति का अनादर है . पहिले के मुनिजन स्वयं ही विना विनंति चौमासा कर लेते थे और वहाँ का संघ बड़े आदर से उनकी भक्ति करता था
और यथाशक्ति जिन शासन की उन्नति करता था. आज ऐसा क्यों नहीं बनता ? तो इसके लिए यह स्पष्ट ही है कि विना विनंति के रहने से कोई पूछता नहीं, कोई जिम्मेवार नहीं; कारण कि संघ व्यवस्था नहीं. अगर किसी को कुछ कहा जाय तो रोकड़ा जबाब तैयार रहता है कि आपको किसने विनंति की थी-मुंह फट हो तो यह भी कह दे कि किसने पीले चांवल भेजे थे- आप अपने गर्ज से रहे हो, इसलिए विनंति विना रहना यह तो कठिन है, यहाँ तक तो जमाने के लिहाज से ठीक है कि विनंति से रहना; पर यह रहना कहाँ तक उचित है कि इतने . हजार आदि रू. खर्चों तो हम चोमासा करें, तुमारी आमदनी के तमाम रू. हम ज्ञानादि फण्ड में लेलेंगे; जनता इसको तुच्छता और पामरता कहती है। इससे बचने की जरूरत है. पूज्य मुनिजनों को तो हृदय में यह भावना रखना चाहिए कि कष्ट उठाकर भी उपकार करना संयम
की सार्थकता है। जिसमें भी मुमुक्षों की तरफ ज्यादा ध्यान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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* कैवल्य *
[१०३
रखना चाहिए, चाहे वे गरीब ही हों; इस बात से इन्कार नहीं किया जासकता कि महावीर के पदानुसार चलने वाले नहीं हैं या प्रयत्नशील नहीं है, पर अत्यधिक संख्या सोचनीय है। अतः मेरी नम्र प्रार्थना है कि मुनिजन उदार चरित बने; जिससे स्व-पर का कल्याण आसानी से होसके; इस विषय में साधुजनों को और श्रावक संघ को अपने अपने कर्तव्यों को अपनाना चाहिए, इससे शासन की अमूल्य सेवा होगी.
* प्रकरण फाँचवाँ *
कैवल्य
जब परमात्मा महावीर देव के दीक्षा का तेरहवाँ वर्ष चल रहा था तब वैशाख शुक्ला १० के दिन पिछली प्रहर में, विजय नामक मुहूर्त में, ऋजुबाला नदी के किनारे, व्यावर्तक नाम के जीर्णोद्यान में, विजयावर्त व्यन्तर के मन्दिर से अतिदूर और अतिनिकट नहीं, ऐसे श्यामक कुटुम्बी के खेत में, शाली-वृक्ष के नीचे, गोदुग्धासन से आतापना लेते हुए, दो उपवास की तपस्या में उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के साथ, चन्द्रयोग प्राप्त होने पर शुक्ल
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१०४]
* महावीर जीवन प्रभा *
ध्यान ध्याते हुवे भगवान् को "केवल ज्ञान-केवल दर्शन" उत्पन्न हुए- यह दिव्य ज्ञान और दर्शन अनन्त पदार्थ दर्शक, तमाम ज्ञान-दर्शनों से विशिष्ट , समस्त व्याघातों से मुक्त, आच्छादन रहित , अप्रतिपाति , सकल द्रव्य-पर्याय ग्राहक, पूर्ण शशिमण्डल समान , असहायक होता है .
जगद्वन्ध महावीर देव अर्हत् पद को धारण कर अष्ट महाप्रातिहार्य युक्त हुए, रागद्वेष रहित सर्वज्ञ-सर्वदर्शी हुए लोक की सर्व पर्यायों को, उत्पत्ति-स्थिति , गति
आगति , च्यवन- उत्पात को, तर्क-विचार को, मानसिक शुभाशुभ भावों को, चोरी-व्यभिचरादि प्रकट
और गुप्त सर्व को जानते हैं- ब्रह्म-ज्ञान उत्पन्न होने पर देवों ने समवसरण रचा.
- प्रकाश- परमात्मा महावीर को एक ऐसा दिव्य ज्ञान प्रकट हुवा कि एक कालावच्छन्न में लोकालोक की त्रिकाल-वस्तु 'हस्तरेखावत' जान सकते हैं और देख सकते हैं, तमाम क्षायोपशमिक ज्ञान से इसका प्रभुत्व बहुत ज्यादा है; इससे सम्पूर्ण आत्म-शक्ति विकसित होगईचार घनघाति कर्म (संसारमें परिभ्रमण कराने वाले) सर्वथा विनष्ट होगए, मात्र चार अघातक कर्म जो जली
हुई रस्सी के समान निःसत्व है, शेष रह गये, वे समय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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* कैवल्य *
[१०५
पर सहज ही नष्ट हो जायगे. अध्यवसायों की निर्मलता से भगवन्त तेरहवें गुणस्थान में पहुंच गए- इस वक्त यह ज्ञान विच्छेद ( लुप्त ) है; मात्र मति-श्रुतिज्ञान विद्यमान है और अवधि ज्ञान को अवकाश है. मति-श्रुति ज्ञानवाले भी जीव बहुत कम हैं; कारण कि कलियुग है
और पापचर्या महा कलियुग है, वृत्तियाँ अत्यन्त अनिष्ट हैं; अतः तमाम उत्तम पदार्थ स्वयं लुप्त हैं . कहाँ भगवान् का आदर्श जीवन और कहाँ अपना तुच्छ जीवन ! क्या आप कुछ शिक्षाग्रहण कर अपनी आत्मा को कुपंथ से हटावेंगे और सुपंथ में गतिमान् ( Progressive ) होंगे? प्रयत्न से अवश्य ही सफलता मिलेगी.
(समवसरण की रचना )
भगवन्त को केवल ज्ञान उत्पन्न होने से भाव तीर्थकर हुए, इससे देवों ने समवसरण की रचना की- सबसे पहिले पवन से एक योजन ( चार कोस ) भूमि साफ हो जाती है, बाद जल बिन्दुओं की वृष्टि से जमीन पवित्र हो जाती हैं; एक योजन में चारों तरफ तीन गढ ( चान्दी का गढ सोने के कांगरे- सोने का गढ रत्नों के कांगरेरत्नों का गढ मणियों के कांगरे ) बनाये जाते हैं , ठीक
मध्य में स्वर्ण सिंहासन रचा जाता है, पूर्वाभिमुख भगShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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१०६ ]
* महावीर जीवन प्रभा *
"
वन्त विराजते हैं, तीनों तरफ तदाकार जिन-बिंब रक्खे जाते हैं, छत्रत्रय मस्तक पर शोभते हैं, पीठ पीछे भामण्डल रहता है, चामर युगल दोनों तरफ बींजे जाते हैं, अष्ट मांगलिक रचे जाते हैं, अशोक वृक्ष की शाया रहती है, एक हज़ार योजन उंचा रत्न जड़ित इन्द्रध्वज फहराता गढ़ के दरवाजों पर तोरण लगे रहते हैं, ध्वजाएँ लहरातीं हैं, द्वादश पर्षदा ( चार प्रकार के देव - चार प्रकार की देवियाँ, पुरुष - स्त्रियाँ, तिर्यंच - तिर्यंचनियाँ ) धर्मदेशना श्रवण करने आतीं हैं, देव-देवियाँ गीतगान, नृत्यादि से प्रभु भक्ति करती हैं- राज दरबार के माफिक सब की बैठकों के वर्ग बने रहते हैं, कई खडे और कई बैठे सुनते हैं; समवसरण की रचना तो देखने से ही आनन्द आता है, मुख से पूरा वर्णन नहीं होसकता और कलम से आलेखा नहीं जाता.
प्रकाश - अनन्त पुण्य की राशी जब उदय होती है, तब उसके लिए समवसरण रचा जाता है, सामान्य केवलियों के लिये भी समय पर मात्र स्वर्ण कमल रचा जाता है. अनुष्ठान करके आदमी थक जाता है, माला फिराफिरा कर उंगुलियाँ घिस जातीं हैं तो भी एक देव प्रकट होना कठिन है तो असंख्य देव देवियों का आना कितनी तीव्र - पुण्याई का कारण है, तीन लोक में तीर्थंकर देव
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* कैवल्य *
[१०७ समान कोई पुण्यात्मा नहीं होता- संसार में और है ही क्या ? पुण्य-पाप का ही खेल है, एक सुखी और एक दुःखी, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है. क्या आप भी पुण्य संचय करने की प्रवृत्ति करेंगे? कि वासी खाकर ही जीवन बसर करेंगे ! आराम की इच्छा हो तो सद्बुद्धि से शुभ प्रवृत्तियों की आचरण कर सुखी बनना चाहिए.
___(प्रथम देशना ) ___महावीर देव " नमोतित्थस्स" कहकर समवसरण में पूर्वाभिमुख बिराजे , व्यन्तर देवों ने शेष तीन दिशाओं में वीर भगवान् की तदाकार मूर्तियाँ स्थापन करदी, जिससे तमाम श्रोता दर्शन कर सकें और श्रवण का समान लाभ लेसकें- यह परमात्मा का प्रभाव था कि चारों
ओर बोलते नज़र आते- भगवन्त की वाणी एक योजन तक 'मेघ-गर्जनावत' सुनाई देती थी, भारी आश्चर्य तो यह था कि वे एक ही प्रकार से बोलते थे, पर सारी पर्षदा अपनी अपनी भाषा में समझ जाती थी। जिस तरह वर्षा का जल हर एक वस्तु के साथ तद्रस होजाता है- तिर्थकर देव की वैराग्य-वाहिनी सुखप्रदा प्रथम देशना असफल हुई; यानी किसी ने व्रत-नियम अंगीकार नहीं किये.
प्रकाश- जैन शास्त्रों ने देशना खाली जाने को 'अच्छेरक ' यानी आश्चर्य माना है , कारण कि प्रभु की
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* महावीर जीवन प्रभा * देशना कभी खाली नहीं जासकती; पर इसका मुख्य कारण यह था कि मात्र देवों की आठ पर्षदा ही उपस्थित थी और वे अवती होने से व्रत-नियम ग्रहण करने में असमर्थ रहते हैं- आज कल की धर्म देशना तो खाली है कि भरी है इसकी कोई पर्वाह नहीं करता, कर्तव्य अदा करना ही मानो उद्देश्य होगया है और कइयक लोकेषणा के पूजकों ने तो केवल लोक-रंजन ही देशना का ध्येय बना लिया है; उसही के पीछे दौड़ लगाते रहते हैं और जीवन की सार्थकता मानते हैं : पर ऐसा होना युक्त नहीं, महावीर के आदश तत्वों को समझाकर दुनिया पर उपकार करना चाहिये ; ऐसा मेरा नम्र अभिप्राय (Opinion ) है.
( सुन्दर प्रसंग)
असंख्य देवों से सेवित भगवान महावीर देव वहाँ से विहार कर उपकारार्थ ' अपापा ' नगरी में पधारे, महासेन नामक वन में पूर्ववत् देवों ने समवसरण की रचना की; भगवन्त पूर्व द्वार से प्रवेश कर ' तीथायनमः ' कह कर सुवर्ण सिंहासन पर पूर्वाभिमुख विराजे, असंख्य देवदेवी, पुरुष-स्त्रियाँ और पशुओं का भारी तादद में आगमन हुवा ; परमात्मा ने भवदुःख हारिणी, परमसुख कारिणी,
ज्ञानसरिता वैराग्य-वाहिनी सजल मेघ-गर्जारव तुल्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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* कैवल्य *
[१०९
धर्म देशना दी, श्रोताजन मग्न होगये, बहुतेरों ने व्रतनियम ग्रहण किये.
उन दिनों में उस ही नगरी में सोमिल ब्राह्मण ने यज्ञ के लिये इन्द्र-भूति प्रमुख ग्यारह उपाध्यायों को बुलाये थे; इन सबको वेद पदों में इस प्रकार संदेह थाः
१. इन्द्रभूति-जीव है या नहीं? २. अग्निभूति-कर्म है या नहीं ?
वायुभूति-जीव और शरीर एक है या अलग
अलग ? ४. व्यक्त-पंच भूत है या नहीं ? ५. सुधर्मा-वर्तमान स्थिति भगन्तर में भी वैसी
ही रहती है या नहीं ? ६. मण्डित-जीव को बंध, मोक्ष है या नहीं ? ७. मौर्यपुत्र- देव है या नहीं ? ८. अकम्पित-नारक है या नहीं ? ९. अचलभ्राता-पुण्य, पाप है या नहीं ? १०. मेतार्य-परलोक है या नहीं ? ११. प्रभास-मोक्ष है या नहीं ?
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११०]
* महावीर जीवन प्रभा *
इन उपाध्यायों में पांच को ५००-५०० का परिवार था, छट्टे-सातवें को ३५०-३५० का परिवार था, शेष चार को ३००-३०० का परिवार था; कुल ४४०० विद्यार्थी जन इनके पास अध्ययन करते थे; शेष कइएक आचार्य-उपाध्याय-याज्ञिक-त्रिवाड़ी- व्यास-पण्डितजोशी-द्विवेदी-त्रिवेदी-चतुर्वेदी; इत्यादि जाति के ब्राह्मण उपस्थित थे, ये सब स्वर्ग की इच्छा से यज्ञ करते थे. इनमें सबसे बड़ा याज्ञिक इन्द्रभूति था.
इधर भगवान के समवरण में संख्यातीत देव-देवाङ्गनाएँ यज्ञ का वाड़ा छोड़कर “चलो सर्वज्ञ देव को वन्दन करने शीघ्र चलो" ऐसा बोलते हुए वर्धमान स्वामी के निकट पहुँच गये.
प्रकाश- भगवान् महावीर की दूसरी देशना ने चहल-पहल करदी, लाखोंजन धर्म मार्ग में प्रवृत्त हुए, दर्शान्तरियों के पेट में खलबली मचादी, अहिंसा का ध्वज ( Non-violent flag ) फहराने लगा, सत्यका शीतल समीर बहने लगा, तमाम पाखण्डियों के पेट का पानी जोरों से हिल गया, धर्ममूर्ति भगवान् की ज्योति जगमगाने लगी, भावि गणधरों की अवस्था उथल-पुथल होने लगी, बाहयाडम्बर की अन्तिम घड़ियाँ भागने लगी,
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* कैवल्य *
१११] मिथ्या-अंधकार पलायन होने लगा, सर्वत्र आनन्द की लहरें उठने लगी, स्वर्ण युगका आरंभ होगया; महावीर देव प्रभाकर की तरह विश्वमें प्रकाश फैंकने लगे, जनता आनन्द मग्न बन गई ; एक तारणहार के दिव्य दर्शन ने संसार को शान्ति प्रदान की- क्या अपने लिये भी ऐसा सौभाग्य प्राप्त होसकता है ? जबाब में नकार सुनाई देगा; परन्तु हताश न होईये ! ऐसी पवित्र करणी करिये कि आगामी भव में महाविदेह में अपनी सब मुरादें पूरी हो सकें, प्रमाद को छोड़िये सब आशा लताएँ विकशित होंगी.
( गौतम ऋषि का गर्व ) देवों की वाणी सुनकर गौतम ऋषी ( इन्द्रभूति ) को अपार इर्ष्या उत्पन्न हुई, मनही मनमें गुनगुनाने लगेसर्वज्ञ तो मैं हूँ, मेरे सिवा दूसरा सर्वज्ञ कौन है ? लोग सर्वदा मूढ बने रहते हैं, पर देव भी आज दिग्मूढ बन गये हैं , जो मुझ सर्वज्ञ को छोड़कर अन्यत्र भटकते फिरते हैं. फिर सोचा- यह कोइ इन्द्र जाली होना चाहिए , इन्द्र जाल से सब देव और मनुष्य मोहित होजाते हैं, मैं इसका गर्व उतारूँगा (?) मेरे बिना इसकी पराजय ( Defeat ) करने में कोई समर्थ नहीं है; ऐसा विचार कर ५०० वि. द्यार्थियों को साथ लेकर समवसरण के प्रति प्रस्थान किया.
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११२]
* महावीर जीवन प्रभा *
छात्रों से आडम्बरपूर्ण इस प्रकार विरुदावली बोली जा रही थी
सरस्वती कण्ठाभरण, पण्डितश्रेणि शिरोमणि, ज्ञात सर्वपुराण, शब्द-लहरी तरङ्ग, चतुर्दशविद्याभार, षट्रदर्शन गोपाल, रंजितो अनेक भूपाल, सखीकृतवृहस्पति, निर्जित शुक्रमति, प्रत्यक्षभारती, कुमतान्धकारनभोमणि, वादी कदलीकृपाण, जितवादिवृन्द, वादी-गरुड़गोविन्द , वादीघण्ट मुद्गर, वादीगोधूक भास्कर, वादीसमुद्रअगस्ति, वादी-वृक्षहस्ति, वादीसिंह शार्दूल, वादीवाद मस्तक शूल, वादीगोधूम घरट्ट, मर्दितवादी मद, वादीकन्द कुद्दाल, वादीलोक भूमिपाल, वादीमौन शास्त्रागार वादीअन्नदुर्मिक्षकार, वादीगजसिंह , वादीह्रदय साल , वादीयुद्धभाल, वादीवाद खण्डक, वादीमुख भंजक, जितानेक वाद , सरस्वतिलब्ध प्रसाद; इत्यादि गर्वपूर्ण विरुदावली को सुनता हुवा इन्द्रभूति समवसरण के निकट पहुँचा.
भगवन्त की योजन गामिनी वाणी सुनकर गौतम ऋषि मन में सोचने लगा- "क्या समुद्र गजेता है या गंगा नदी प्रबल प्रवाहपूर्ण बहती है, अथवा ब्राह्मण वेद
यनि कर रहे है ! यह है क्या ?" इस तरह गुनगुनाते हुए समवसरण के प्रथम सोपान पर पैर रक्खा, परमात्मा
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* कैवल्य *
[११३ को देखकर विचार करने लगा- “ सुवर्ण-रजत-रत्नों से निर्मित गढ में विराजमान, छत्रत्रय से शोभित, सिंहासनारूढ , देवेन्द्रों से स्तूयमान, देवाङ्गनाओं से गीयमान; ऐसा वादी आज तक कभी नहीं देखा ? क्या यह ब्रह्मा है- विष्णु है- या महादेव है ? क्या यह सूर्य है- चन्द्र है वा गणपति है ?" ऐसा सोचता हुवा अन्य देवों में संदेह करता हुवा, सल्लक्षण युक्त , विमल स्वभावी, वीतराग देव को देखकर उसका हृदय बोल उठा- यह तो कोई अद्भुत देव है-- सर्वज्ञ देव मालूम होता है, इसके साथ वाद करने को आना अच्छा नहीं हुवा, इतने दिनों का उपार्जित यशः सब स्वाहा होजायगा, मैं जानता हुवा भी आज अजान होगया हूँ, यहाँ तक पहुँच कर यदि वापस लौटं जाउँ तो लोगों में मेरी निन्दा होगी, हँसी होगी, आगे वाद-विवाद का मामला भी टेढा-मेढा है , अब क्या करना चाहिए 'इतो व्याघ्र इतस्तटिः' यानी इधर सिंह खड़ा है और इधर नदी बह रही है ; अर्थात् दोनों रास्ते बंद हैं" ऐसा संकल्प-विकल्प करता हुवा साहस पूर्वक सिढियों पर चढने लगा; उसही वक्त प्रभु ने फरमाया
अहो इन्द्रभूते ! कुशल है ? अपना नाम सुनकर तआजुब हुवा, मेरा नाम कैसे मालूम हुवा ? पर हाँ ! मेरा नाम तो जगत्प्रसिद्ध है, सब जानते हैं, कुछ होश में
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१९४]
* महावीर जीवन प्रभा *
आकर फिर गुनगुना ने लगा- " इसके मीठे वचनों से मैं खुश नहीं होसकता, वाद से छिटक जाने का यह प्रयोग है , मगर मैं हरगीज छोडगा नहीं, अगर यह सर्वज्ञ होगा तो मेरा संदेह दूर कर देगा, तब मैं इसका शिष्य बन जाऊँगा. बस भगवान् तुरन्त ही बोले
हे इन्द्रभूते ! तेरे दिल में यह संदेह है कि 'जीव है या नहीं' कारण कि “ विज्ञानधन एव एतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय पुनः तान्येवाऽनुविनश्यति, न प्रेत संज्ञाऽस्ति; इति जीवस्याऽभावः " यानी विज्ञान-पिण्ड का नाम ही आत्मा है, वह इन भूतों से उत्पन्न होकर पीछी इन्ही में विलय होजाती है, मृत्यु कोई चीज नहीं है, इसलिये जीव का अस्तित्व नहीं है ; परन्तु देख ! जीव के अस्तित्व का यह वेद वाक्य है- “सर्वेऽयं जीवात्मा ज्ञानमयः, ब्रह्मज्ञानमयः, मनोमयः, वाग्मयः, कायमयः, चक्षुर्मयः, श्रोतमयः, आकाशमयः, वायुमया, तेजोमयः, अप्पयः, पृथ्वीमयः, हर्षपयः, धर्ममयः, अधर्ममयः, दददमयश्च" मतलब कि यह आत्मा ज्ञान-ब्रह्मज्ञान-मन-वचन-कायाचक्षु-कर्ण-आकाश-वायु-तेजस्-जल और पृथ्वी पय है , यह हर्ष-धर्म-अधर्म युक्त है, दया-दान और दमन वाला है ; इससे आत्मा की स्पष्ट सिद्धि है; आत्मा ही कर्ता-मोक्ता और हर्ता है, पापी पाप करता है और पुण्या
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* कैवल्य *
[११५
स्मा पुण्य करता है । यह अजुर्वेद के उपनिषद की ऋचा आत्मा का अस्तित्व बताती है-हे इन्द्रभूते ! तू वेद-वाक्य पढ़ा है , पर उसका पूरा अर्थ नहीं जानता, यह आत्मा सारे शरीर में व्याप्त है और जुदा भी है . जैसे दूध में घी, तिलों में तैल, काष्ट में अग्नि, पुष्प में सुगन्ध और चन्द्रकान्त में अमृत है , वैसा ही शरीर-आत्मा का संयोग सम्बंध है, इसमें किञ्चित भी संदेह का अवकाश नहीं है। दान-दया-दमन, इन तीन दकारों को जानने वाला जीव है- इतनी स्पष्ट प्रमाणित व्याख्या सुनकर अपनी प्रतिज्ञानुसार ५०० छात्रों सहित गौतम-ऋषी परमात्मा के शिष्य बन गये.
प्रकाश- अहंकार भी एक बड़ा विचित्र दुर्गुण है, इससे छोटे बड़े से बाथै भीड़ता है निर्बल बलवान के सामने होजाता है, असक्त ससक्त के मुकाबिले में खड़ा रहता है, अल्पज्ञ विशेषज्ञ से वाद विवाद करने लग जाता है ,
छोटे मुँह बड़े डींग हांकने लगता है , अहंकार से सभ्यता- शिष्टता-गुणग्राहकता और नम्रता का दिवाला निकल जाता
है: यह दीपक की तरह स्पष्ट है- बाहुबली, राजा रावण कंस, गौशालका आदि अहंकारियों की क्या दशा हुई, वह उनके इतिहासों से व्यक्त है, वर्तमान में जर्मनी-जापान-इटली आदि अभिमानी देशों की युद्धकालीन कैसी
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११६ ]
* महावीर जीवन प्रभा *
दुर्दशा है; यह तो चस्मदीदसा है कि चर्चिल - एमरी आदि के निरकुंश शासन ने अपने गर्व में मस्त बनकर भारत को अनहद्द नुकशान पहुँचाया है, यह जनता से अज्ञात नहीं है. काँग्रेस और मुस्लीम लीग का परस्पर टकराना भी अहंभाव का प्रदर्शन है. हिन्दु महासभा अपना अलग ही आलाप करती है, धर्म का, शासन का, समाज का और देश का विध्वंसक कारण अहंकार ही है; यह अनुभूत है. इसी तरह गौतम ऋषि जैसे सामान्य व्यक्ति को महावीर जैसे सर्वज्ञ देव से वाद-विवाद करने की कामना उत्पन्न होने का कारण उन पर अभिमान का भूत सवार होगया था, मानान्धता जीवन पर छा गई थी, पर दूसरे अभिमानियों से आपमें यह विशिष्टता थी कि समझ जाने बाद फौरन फलाकीर्ण वृक्ष की तरह नीचे झुक जाते थे और आपने किया भी वैसा ही समाधान होते ही भगवान् के शिष्य बन गये, अहंकार को देश निकाला देकर एक अत्यन्त नम्र विभूति बन गये- महानुभावो ! क्या आप भी अंहकार के लकवे ( Paralysis) का इलाज करावेंगे ? कि इसी हालत में जीवन खत्म करदेंगे, जानते हुवे ज़हर मत पीजिये, विनय-नम्रता-गुण का थोड़ा स्वाद (Taste ) तो लीजिये ! देखो आपका जीवन कितना उन्नत बन जाता है, यशः - कीर्ति किस तरह आपके गले में वरमाला डालती है, शान्ति का साम्राज्य
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* कैवल्य *
कितना बढ़िया मिलता है और आपका मानव भव कितना आनन्दित बन जाता है; सुनिये ! भूलना मत, इससे जरूर शिक्षा ग्रहण कर उसका अमल करिये .
(संघ स्थापना) चौदह विद्या निधान गौतम स्वामी (गौतम ऋषी) ने दीक्षा लेकर परमात्मा से पूछा- भगवन् ! 'किंतत्वं' ? यानी वत्व क्या है ? प्रभु ने फरमाया-'उपन्नेह वा' यानी वस्तु की उत्पत्ति होती है, यह सुनकर विचार किया कि यदि सदा उत्पत्ति होती रहेगी तो इस परमित क्षेत्र में कैसे समावेश होगा ! तब फिर पूछा- स्वामिन् ! 'पुनः किंतत्वं ?' और क्या तत्व है ? उत्तर मिला- 'विगमेह वा' वस्तु का नाश होता है. फिर संदेह हुवा कि यदि नाश होता रहेगा तो जगत म्वाली होजायगा और उत्पत्ति किसी मसरफ की न रहेगी; अतः फिर पूछा- देव ! ' पुनः किं तत्वं' और क्या तत्व है ? जबाब मिला- 'किंचिय धूएइ वा' यानी कितनेक काल तक वस्तु स्थिर रहती है- सदा उत्पत्ति विनाश तो पुद्गल धर्म है और सिथिर त्व जीव धर्म है. यह जगत् शास्वत है १ जीव २ पुद्गल ३धर्म ४ अधर्म ५ आकाश; इन द्रव्यों के आवर्तन-परावर्तन से लोक व्यवहार होता है. इस त्रिपदी से इन्द्रभूति ने जगत् का स्वरूप जान लिया, एक मुहूर्त मात्र (४८ मिनिट)
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११८]
* महावीर जीवन प्रभा *
में द्वादशाङ्ग सूत्रों की रचना करली. भगवन्त ने "गौतम " नाम स्थापन किया और आपको प्रथम गणधर बनायेइन्द्रभूति की दीक्षा सुनकर अग्निभूति आदि दस उपाध्याय गर्वान्वित होकर परमात्मा के पास क्रमशः आये ; सबके शंसय मिटा दिये, सर्व भगवान के शिष्य बन गये इस तरह यहाँ ग्यारह गणधरों की स्थापना की गई , इनका पूर्व परिवार इन्हीं के नाम से शिष्य रूप कायम किया गया.
पश्चात् चन्दनबाला ने भगवद् वाणी श्रवण कर वैराग्यपूर्ण प्रव्रज्या अंगीकार की, पूर्व वर्षित द्रव्य से दीक्षा महोत्सव मनाया गया , इनके साथ मृगावती आदि अनेकों ने दीक्षा अंगीकार की- शंख , शतकादि श्रावक हुए, सुलसा रेवती आदि श्राविकाएँ हुई; इस प्रकार चतुर्विध संघ की स्थापना कर भव्य जीवों को प्रतिबोध देते हुवे भूमण्डल पर प्रभु विचरने लगे.
प्रकाश- जैन सिद्धान्त का फरमान है कि हर एक तीर्थकर के शासन में संघ स्थापना होती है, पूर्व तीर्थकर शासन का संघ वर्तमान तीर्थकर की आज्ञा में आजाता है , पर नायक की विद्यमानी में अलग खीचड़ी नहीं पकाई जासकती; पार्श्वनाथ के तमाम सन्तानिये क्रमशः महावीर देव के शासन में सम्मिलित होगये- इसही निय
मानुसार महावीर भगवान् ने भी संघ-स्थापना की. संघ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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* कैवल्य *
क्या है ? एक शासन रक्षा के लिये धर्मराजा की सैना है, इसके सैनिक बड़े कुशल होते हैं। उनका पराक्रम और कर्तव्य परायणता अन्य ग्रन्थों से जान सकेंगे, ग्रन्थ गौरव से यहाँ उल्लेख नहीं कर सके. क्या आप भी कोई देशतः या सर्वतः व्रत लेकर संघमें सामिल होगे? या योंही उजड़ मार्ग पर चला करेंगे. वीतराग देव का धर्म ही सर्व श्रेष्ठ साधन है और उसही के पालन से आत्म-कल्याण हो सकेगा.
वर्तमान संघ की स्थिति बड़ी गंभीर हैं, निर्नायकता के कारण इत-स्ततः बिखर गया है, मत-मतान्तरों के ढकोसले ने तो शासन को छिन्न-भिन्न कर दिया है, महावीर के नाम को तो ताले में बन्द कर अपने अपने नामों के गीत गाये जाते हैं, 'कुए भांग पड़ी' के दृष्टान्त से विद्वान् और मूर्ख , त्यागी और भोगी सब एक रास्ते प्रयाण कर रहे हैं; अहं-भाव और मम-भाव से मुक्त संघ के दर्शन की प्रतीक्षा है. इन्द्रभूति-अग्निभूति आदि ने अहंकार पर भारी विजय ( Victory) किया, उससे बोध लेकर आप भी सरल भाव से तत्वों की गवेषणा कर धर्म का आराधन करिये; इससे अनुपम वस्तु की प्राप्ति होगी.
(मेघ कुमार का उद्धार ) मगध देशाधिपति महाराजा श्रेणिक के पुत्र ‘मेघकुमार' ने भगवान् महावीर देव की सार-गर्मित देशना
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* महावीर जीवन प्रभा *
सुन कर तमाम ऐशोआराम का त्याग किया, मात-पिता की सम्मति लेकर भागवती दीक्षा अंगीकार करली; प्रथम रात्री में ही संयम से भाव गिर गये- बनाव ऐसा बना कि छोटे होने के लिहाज से सब से आखिर संथारा (विस्तर) उनका लगा, अन्तिम किनारे पर होने के कारण मुनियों के आवागमन से संथारा मिट्टी से भरगया और ठोकरों का कष्ट भी हुवा; इससे उनने सोचा "पहिले दिन ही ऐसा वर्ताव है तो जिन्दगी कैसे तेर होगी, सवेरे भगवान् को पूछ कर वापस घर चला जाऊँगा" दर्शनार्थ भगवान् के पास पहुंचते ही रात्री की बात और उनके विचार प्रभु ने बिना पूछे व्यक्त करदिये और उनको उपदेश किया
हे मुने ! गत भव में तू विंध्याचल पर्वत पर 'मेरुपम' नाम का चार दान्तवाला सुन्दर हाथी था; वहाँ दावानल लगने से अपनी रक्षा के लिए एक मण्डल बनाया, पर तेरे पहुँचने के पहिले ही भयाक्रान्त जीवों से वह भरगया था, तेरे लिए आराम से बैठने जितनी भी जगह नहीं थी, एक तरफ थोड़ी सी खाली जगह थी, वहाँ तू पैरों के बल खड़ा रहा, उस समय तेरे खुजली चलने से एक पैर ऊंचा उठाया कि शीघ्र ही एक खरगोस आकर बैठ गया, उसे देखकर तुझे बड़ी करुणा उत्पन्न हुई इससे तीन पैरों पर खड़ा रहा, चौथे दिन दावानल खत्म होने पर सब जीव
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* कैवल्य *
[१२१
चले गए, तब तेने पैर नीचे रक्खा पर्वत शिखर के माफिक टूट कर तू जमीन पर गिर गया, भारी वेदना सहन कर तीन दिन के बाद तू मर कर जीवदया के प्रभाव से यहाँ 'मेघकुमार' हुवा हे महानुभाव ! पशुभव में भी तूने इतना कष्ट सहन किया तथापि तुझे दुःख उत्पन्न न हुवा तो इस वक्त साधुओं की ठोकरों से चारित्र से चलायमान होगया, इतनी ऋद्धि छोड़ कर चारित्र लिया और अब शिथिल बनगया, यह शोभास्पद नहीं है। भाग्यशालियों को ही चारित्र उदय आता है.
___ वीर प्रभु की मधुरी वाणी सुन कर मेघकुमार को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न होगया, अपना पूर्व भव( Previousbirth) जानकर चारित्र में स्थिर हुवा; मुनिवर ने अब ऐसा उग्र अभिग्रह धारण किया कि 'नेत्रों की परिचर्या, के सिवा शरीर की कतई हिफाजत नहीं करना; ऐसा निश्चय कर तपस्या करना प्रारम्भ कर दिया, द्वादश वर्ष पर्यन्त निर्दोष चारित्र पालन कर अनुत्तर नामक देवलोक में उत्पन्न हुए, वहाँ से महाविदेह में जन्म लेंगे और चारित्र लेकर मोक्ष पधार जायंगे.
प्रकाश- भगवान् की पतितपावन उपमा यहाँ सार्थक हुई आपने सार्थवाह की तरह भूले को मार्ग दिखाया
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१२२]
* महावीर जीवन प्रभा *
शिथिलता से सुदृढ बनाकर सामयिक महदुपकार किया, समर्थ दया सागर से ही ऐसे कार्य बनते हैं, मेघकुमार भी उत्तम जीव था सो शीघ्र ही स्थानापन्न होगया और अपनी पूरी ताकत लगा कर मोक्ष के नजीक पहुँच गया- क्या आप लोग भी अपने पतित जीवन को मेघकुमार की तरह निर्मल करेंगे ? कि अलल खाते में ही जमा रक्खेंगे? यदि कुछ सुधार नहीं किया तो शोकाभि में जलना पड़ेगा; अत: विलास भाव से जरा विरमित होकर अपना श्रेय साधे.
(कौणिक की श्रद्धापूर्ण भक्ति)
महाराजा श्रेणिक का पुत्र 'कौणिक' चम्पा नगरी के राज्य शासन का अधिपति नृपेन्द्र था, वह भगवान् महावीर का अनन्य भक्त था, उसके यह प्रतिज्ञा थी कि जहाँ तक परमात्मा के सुख शान्ति के समचार उपलब्ध न हो तहाँ तक भोजन नहीं करना, इस काम के लिये अनेक नौकर रक्खे हुए थे, प्रायः शाम तक खबर मिल ही जाती थी, इसके लिए बड़ी सुचारु व्यवस्था की हुई थी- एक वक्त भगवन्त चम्पा नगरी के उद्यान में पधारे, कौणिक का हृदय हर्ष से नौ नौ गज उछलने लगा, चतुरंगी सेना ( हाथी-घोड़े-रथ-पैदल ) सजा कर, जनाने
सहित दर्शनार्थ आया, साथ में सेठ-साहकार-सेनापतिShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.cor
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* कैवल्य *
[१२३
कर्मचारी-नौकर-चाकर आदि सब लोग थे, भारी दबदबे के साथ भगवान् को वन्दनार्थ गया, अत्यन्त उत्साह और भक्ति से भगवन्त को अभिवन्दन किया, स्तुति की, देशना सुनी, चित्त प्रसन्न होगया, धर्मलाभ प्राप्त कर वापस चला गया.
• प्रसङ्ग वश यह भी बता देना जरूरी है कि भगवन्त के साथ कैसे कैसे साधु थे- घर में अढलग द्रव्यवान् , बहु-कुटुम्बी, इज्जत-आबरू ( Credit-Position ) वाले पारस्परिक प्रेम वाले, शरीर-सम्पत्ति के स्वामी थे, यहाँ पर परम वैराग्यवान्-क्षमावान-महात्यागी-दीर्घ तपस्वी
और महा संयमी थे- कौणिक का और मुनियों का विशेष विवरण औत्पातिक ( उववाई ) सूत्र धर्मशास्त्र से जान लेना.
प्रकाश-अहा! कितनी बढिया गुरु भक्ति, कितनी सुन्दर श्रद्धा और कितना उत्साह . और उमंग, कितनी गुणप्राहकता और किस कदर धर्म में लयलीन, कितनी निस्वार्थ भक्ति और परम सेवा की अभिलाषा, गुरुदेव के स्वास्थ्य का कितना खयाल रखता था, जिसके मुकाबिले में कोई सेम्पल नहीं है- आज की गुरु भक्ति और श्रद्धा तो दिखाव मात्र है, जहाँ तक स्वार्थ पहुँचता है वहीं तक
श्रद्धा-भक्ति और आज्ञा का पालन है, बाहारी और अन्तShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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१२४]
* महावीर जीवन प्रभा *
रंग के रंग में बड़ा अन्तर है, सच्चाई कम और ढोंग ज्यादा है टाप टीप करके अपना मतलब निकालने का प्रयत्न होता है; ऐसी श्रद्धा और भक्ति वाले नितान्त धूर्त और ठग हैं, विश्वास के काबिल नहीं रहते; इसलिए पाठकों को निवेदन है कि यदि आप भी इस श्रेणि में हो तो फौरन स्तिफा ( Resign ) देदेना और सरल-सत्यमार्ग का अत्रलम्बन कर कौणिक भूपेन्द्र की तरह निःस्वार्थ श्रद्धावन्त
और भक्तिवन्त बनना, इससे दुनिया में कुछ योग्य बन सकेंगे और विश्वास पात्र की कोटि में पहुँच सकेंगे.
( गोशालक का उपद्रव )
स्वतः बना हुवा भगवान् का शिष्य गौशालक तीर्थकर-सर्वज्ञादि का डौल करता हुवा भ्रमण कर रहा था, लाखों जनों को मिथ्यात्व-गर्त में पटक रहा था, महावीर देव का कट्टर द्रोही था, एक वक्त वह सावत्थी नगरी में आया था, इधर भगवन्त भी विचरते हुए वहाँ पधार गए, इससे यह जाहिर हुवा कि इस नगरी में दो तीर्थकर हैं, आश्चर्य चकित होकर गौतम स्वामी ने परमात्मा को पूछाभगवन् ! दूसरा तीर्थकर कौन है ? उत्तर मिलायह तीर्थकर नहीं है। यह शरवण ग्राम का मखलीसुभद्रा का पुत्र गोबहुल ब्राह्मण है, गायों की शाला में
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* कैवल्य *
[१२५
जन्म ने से 'गोशालक' नाम से प्रसिद्ध है, पहिले मेरा शिष्य हुवा था, किञ्चित् श्रुत ज्ञान होने से तीर्थकर बन बैठा है। प्रभु का खुलासा बिजली वेग की तरह शहर में फैल गया; यह जान गोशालक अत्यन्त क्रुद्ध हुवा, गौचरी के वास्ते भ्रमण करते 'आनन्द' नामक साधु को इस प्रकार कहा
उन बेपरियों के माफिक (यहाँ एक कथा कही थी) तेरा धर्माचार्य अपनी ऋद्धि में सन्तुष्ट न रहकर जहाँ-तहाँ मेरे विरुद्ध बोलता है; अतः मैं अपने तप तेज से उसको भस्म कर दूँगा, तू शीघ्र जाकर उसे बोल देना. उनने तुरन्त ही प्रभु को खबर दी, शान्ति के लिए भगवान् ने सबको मौन रहने की सूचना दी: इतने में ही गोशालक आकर जगत्पूज्य के प्रति तुच्छता से बोला- अहो काश्यप ! तू क्या बोलता है ? क्या मंखलीपुत्र गोशालक मैं हूँ, अरे ! तेरा शिष्य गोशाला तो मर गया, मैं तो अन्य हूँ, परिसहादि सहन कर साधु-धर्म का पालन करता हूँ; इस कदर भगवन्त के लिये कृत-तिरस्कार को बरदास्त नहीं करते हुए सुनक्षत्र और सर्वानुभूति अनगार उसे मुंह तोड़ उत्तर देने लगे, इससे गोशालक ने तेजोलेश्या से उन्हे जला दिये. तब भगवन्त ने फरमाया- हे गोशालक ! तू वही गोशाला है, छिपाने से छिप नहीं सकता। इस
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१२६]
* महावीर जीवन प्रभा*
यथार्थ कथन से वह कुपित होगया-" उपदेशोहि मूर्खाणां। प्रकोपाय न शान्तये" यानी मूखों को उपदेश देना कोप का कारण होता है , पर शान्ति उत्पन्न नहीं होती- और तुरन्त ही भगवान पर तेजोलेश्या फैंकी, उसकी ज्वाला से भगवन्त को छः महिने तक रक्तातिसार की व्याधि रही. यह अघटित घटना आश्चर्य (अच्छेरक) में शुमार है . इस का पूर्ण वर्णन भगवती सूत्र के १५ वें शतक में है .
प्रकाश-क्षुद्रता की भी हद्द होती है , गोशालक की अभद्रता जगनिंदनीय है ; तीर्थकर पद का ढोंग करने वाला कैसे अवाँच्छनीय काम करता है, किसी को तक. लिफ देना भी हिंसा है तो दो साधुओं को भस्म कर देना, परमात्मा को कष्ट पहुँचौना क्या कम नीचता है ? ऐसे छोटे-बड़े गोशालक आज भी संसार में मौजूद हैं, संयमी होकर भी अक्षम्य जुल्म गुजारते हैं. धन्य तो है उन मुनि वरों को, जिसने गुरु महाराज के लिए अपना बलिदान दे. दिया, आज के भक्त तो मुंह ताकते ही रहें और अन्दर से सुकुड़ते ही रहें , पर अलिफ से वे ( क से ख ) बोल नहीं सकते; यह चूर्णित-बुद्धि का प्रभाव है. क्या आप उन दो महा विभूति मुनिवरों के कर्तव्य से कुछ ग्रहण करंगे ? कि अपने ही में मस्त बने रहेंगे ? जरा कर्तव्य लाइन को सुधार कर योग्यता प्राप्त करिये .
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* कैवल्य *
[१२७
(समस्त चतुर्मास) भगवान् महावीर देव के कुल ४२ चतुर्मास हुएदुइजन्त तापस के आश्रम में १- चम्पा और पृष्ट चम्पामें ३-विशाला और वाणिज्य ग्राम में १२-राजगृही नगरी के नालिन्दे पाड़े में १४-मिथिला नगरी में ६-भद्रि का नगरी में २-आलंभिका नगरी में १-सावत्थी नगरी में १-अनार्य देशमें १-मध्यपावापुरी में हस्तिपाल राजा की जीर्ण दानशाला में अन्तिम चौमासा १; इस तरह समस्त ४२ बयालीस चतुर्मास हुवे.
प्रकाश-- महावीर भगवन्त छद्मस्थ अवस्था में तो प्रायः मौन ही रहे, इससे संसार का विशेष उपकार न हो सका; पर कैवल्य के बाद ३० चतुर्मास में जनता पर अत्युपकार हुवा, स्थानिक लोगों ने अपार लाभ लिया, कई लोग व्रत-नियम अंगीकार कर कृतार्थ हुए , तपस्या कर जीवन पवित्र बनाया- आप भी अपने क्षेत्र में विराजित मुनिवरों से कुछ लाभ उठाते हैं या नहीं ? कि वही गुल्ली
और वही डंडा, बारह ही मास समान भाव , खाया , कमाया और गुमाया में ही अलमस्त बन कर जीवन यात्रा को पूरी करते हैं; अगर ऐसा होता हो तो दिशा बदलनी चाहिए और प्रयत्नशील बनकर आत्म हित के लिए पूर्ण शक्ति ( Full-force) द्वारा शिष्ट प्रवृत्ति आचरनी चाहिए.
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* महावीर जीवन प्रभा *
भगवन्त की देशनाएँ )
भगवन्त ने बयालीस वर्ष में अनेक धर्म देशनाएँ देकर जगत् का कल्याण किया- आपने देव रचित समयसरण में विराज कर और पृथ्वी पट पर बैठकर जनता को धर्मोपदेश सुनाया - देशना के समय हर जगह समवसरण नहीं रचा जाता ; सिर्फ प्रथम देशना के समय, पाखण्डियों की जहाँ बहुतायत हो और जब जब देवों की भक्ति जाग उठती हो तब तब समवसरण ( सभा मण्डप ) की रचना होती थी.
१२८]
आपका धर्म प्रवचन समवायङ्ग सूत्रानुसार ३५ गुणों से शोभित था, श्रोताजन लट्टू होजाते थे, आपका व्याख्यान नौ रसों से पूरित था; पर खास कर वैराग्य-शांत कारुण्य और वीर रस से लबालब भरा रहता था; आपकी वैराग्य-वाहिनी देशना से जनता का सन्ताप मिट जाता था, परस्पर वैरभाव भूल जाते थे, राजा महाराजा धनाढ्य वर्ग और सामान्य समाज सब ही आत्मोन्नति ( Soul-progress) की तरफ झुक जाते थे,, आधि-व्याधि और उपाधि से मुक्ति पाने के लिए प्रयत्नशील बनते थे, आपकी परोपकारिणी वाणी से तमाम अन्य देवों को भूल जाते थे, आपकी पदार्थ प्रकाशिका मधुरी देशना ने हजारों साधु
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* कैवल्य *
[१२९
साध्धियाँ और लाखों श्रावक-श्राविकाएँ बनाकर धर्म-पथ में प्रवृत्त किये. आपकी इसही ओजस्विनी धर्म-देशना ने ४०००००००० चालीस करोड़ जैन बनाये यानी अहिंसा धर्म के अनुगामी बनाये और सत्य-धर्म के तरुवर की शीतल छाया में उन्हे आनन्द से बैठा दिये.
प्रकाश-संसार में सबसे बड़ा उपकार धर्म-प्रवचन से ही हो सकता है ; तप-जप, क्रियाकाण्ड, सेवा-पूजा व्रत-नियम और समस्त हितैषी कार्य शास्त्र-श्रवण से ही चरितार्थ और फलितार्थ होते हैं; अतः यह सर्व शिरोमणि है और प्रथम ग्राह्य है. आज कल के त्यागी महात्मा की देशना भी निवृत्ति के सन्मुख कर देती है, शान्ति-संतोष की चाहना उत्पन्न करती है। यहाँ तक कि काया पलट की तरह जीवन बदला देती है, तो भगवन्त की देशना का तो कहना ही क्या ? उस में तो अलौकिक प्रकाश है, शीतलता है, विश्राम है और आनन्द है- परमात्मा व्रतनियम या दीक्षा-शिक्षा के लिए किसी को अनुरोध नहीं करते थे, फरमाते तक नहीं थे- वे तो अपने उपदेश में वस्तुस्थिति ऐसे ढंग से समझाते कि श्रोताजन स्वयं तैयार होकर व्रतादि की याचना कर लेते और उसे ग्रहण कर जीवन पर्यन्त निर्दोष पालन करते थे; यह उत्तम तरीका
था- आज कल तो कहन-सुन कर, दबान कर, बहका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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१३०]
* महावीर जीवन प्रभा *
कर, भड़का कर, ललचा कर, भगा कर, छिपा कर, झगडा कर व्रत यावत् दीक्षा देदेते हैं; यह अनिष्ट मार्ग है, जनता को इस भ्रम जाल में नहीं फंसना चाहिए और धर्मोपदेशकों को ऐसा अहित कर मार्ग नहीं आचरना चाहिए: इससे स्व-पर का अकल्याण होता है, जनता और मुनिवरों को सावधान होकर महावीर के पदानुसार चलना चाहिए। जिससे श्रेय प्राप्त हो. वाँचको! यह विषय जरा सूक्ष्मदृष्टि से विचारणीय है- धर्म-रुचि पैदा करना, सब से श्रेष्ठ उपदेश है.
(भगवान का परिवार)
महावीर देव के हस्तदीक्षित साधुजन १४००० थे, आर्याएँ ३६००० थीं, श्रावक १५९००० थे, श्राविकाएँ ३१८००० थीं; यह चतुर्विध संघ भगवान् का हस्तदीक्षित और शिक्षित था- यों तो आप के शासन में अधिक प्रमाण में संघ विद्यमान था- इनमें से ३०० चौदह पूर्वधारी हुए, १३०० अवधि ज्ञानी, ७०० केवली भगवान् , ७०० वैक्रीय-लब्धिवन्त, ५०० मन:पर्यव ज्ञानी ४०० अजित वादी हुवे; जिनसे वाद में इन्द्र भी नहीं जीत सकता था इनके अतिरिक्त आप के उपासक ४०००००००० चालीस करोड़ जैन थे.
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* कैवल्य *
[ १३१
प्रकाश - परिवार का होना भी एक किस्म का पुण्य है, अनुकूल और अच्छे परिवार का होना विशेष पुण्य का प्रभाव है, और त्यागी परिवार का होना आदर्श पुण्य का प्रकाश है; इस ही लिये साधुजन भी शासनोन्नत्ति के लिये, और दीक्षितों के कल्याण के लिए अपना समाज बढ़ाते हैं- अपनी ख्याति के लिए, सेवा के लिए या मात्र वृद्धि की बुद्धि से जो अपने समुदाय को बढ़ाता है या चेष्टा करता है, वह उसका अनुत्तम मार्ग है- भगवान् का परिवार तो चुनन्दा था, एक एक से बढ़िया मुक्ताफल था, मोतियों की माला समान संघ था- वर्तमान के उद्धत लोग तो संघ को हाड़कों का माला बोलते हैं- महातपस्वी - परमत्यागी और क्रियावन्त आदर्श संघ था- आज के संघ की अस्तो - व्यस्त दशा है, यह सब निर्नायकता का प्रताप है अब सुन्दर जमाना आरहा है, संघ का संगठन कर महावीर - शासन का विस्तार बढ़ाना चाहिये -- संघ कायम रहे, वृद्धिगत हो, इस पर पूरा लक्ष होना चाहिए, इस ही से शासन का अस्तित्व और जाहोजलाली कायम रहेगी- पाठको ! आप भी इसमें सहायक बन कर अपना कर्तव्य अदा करें.
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१३२]
* महावीर जीवन प्रभा *
ॐ प्रकरण छड्डकाँ
मोक्ष
( इन्द्र की प्रार्थना)
परमात्मा के मोक्ष पधारने के समय इन्द्र ने प्रार्थना की- हे प्रभो ! आप की जन्मराशी पर २००० दो हजार वर्ष का भस्म ग्रह लगने वाला है, इसलिए आप सिर्फ दो घड़ी आयुष्य बढ़ाओ, जिससे वह दुष्ट ग्रह आप की तेजोमय दृष्टि से निर्बल हो जायगा- जहाँ तक भस्मग्रह रहता है वहाँ तक धर्म की उन्नति नहीं हो सकती और साधुसाध्वी का सत्कार--सम्मान नहीं होता- प्रभु ने प्रतिवचन में फरमाया "इन्दा ! नेयं भूयं-नेयं भवइ-नेयं भविस्सइ" हे इन्द्र ! ऐसा हुवा नहीं, होता नहीं और होगा नहीं; अर्थात् तीर्थकर अत्यन्त विशिष्ट कारण की उपस्थिति में भी आयुष्य घटाना-बढ़ाना नहीं चाहते; इसलिए ऐसा नहीं किया जासकता; बनने योग्य बनता ही रहता है. भगवान् ने यहाँ फरमाया
घड़ी न लब्भइ अग्गली । इंदइ अक्खई वीर ॥ इम जाणी जिउ धम्म करी । जालग वहइ सरीर ॥१॥
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* मोक्ष *
[१३३
भावार्थ- वीर भगवान् इन्द्र को फरमाते हैं- आगे की एक घड़ी भी प्राप्त नहीं हो सकती; ऐसा समझ कर शरीर रहे वहाँ तक मनुष्य को धर्म करना चाहिये.
प्रकाश-जो संसार व्यवहार से परे होगये हैं, जिन को अपना और पर का कुछ नहीं है, जिनने लोकेषणा को जलाञ्जली देदी है। ऐसे ब्रह्मज्ञानी भगवान महावीर शासन और अन्य की क्यों फिक्र करने लगे? उनका नसीब उन के साथ; हमें अपना करना चाहिए; उत्सर्ग मार्गी ऐसा ही करते हैं और वह उन के लिए सर्वथा योग्य और इष्ट है अपन को भी उसही रास्ते चलना होगा तब ही तो मोक्ष निकट आवेगा- अशुभ व्यवहार से शुभ व्यवहार और फिर शुद्ध व्यवहार पालन कर आत्मिक दशा में पहूँचा जाता है। इसलिये इस क्रम से अपन सब को चलना चाहिएपाप कर्म अशुभ व्यवहार, पुण्य कर्म शुभ व्यवहार, निर्जरा कर्म शुद्ध व्यवहार और फिर प्रकाशपिण्ड में मन, आत्मिक दशा कही जाती है.
(निर्वाण)
भगवान महावीर ३० वर्ष गृहस्थाश्रम में रहे, कुछ अधिक १२ वर्ष छद्मस्था वस्था में रहे और कुछ कम ३० वर्ष कैवल्य पर्याय में विराजित रहे . कुल ७२ वर्ष की उम्र Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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१३४]
* महावीर जीवन प्रभा *
पूरी कर नामादि अघातिक कर्म नाश कर, मध्य पावापुरी नगरी के अन्दर हस्तिपाल राजा की राज सभा में पीछली रात्री के समय पद्मासन से विराज कर उत्तराध्ययनादि का अधिकार अन्तिम देशना में फरमाया, बाद तत्काल ही चन्द्र नाम के दूसरे सम्वत्सर में, प्रीतिवर्धन मास में, नन्दीवर्धन पक्ष में, अग्निवेष दिवस में, देवानन्दा रात्री में, अर्घ्य लव में, प्राण मुहूर्त में, सिद्ध स्तोक में, नाग करण में, सर्वार्थ सिद्ध मुहूर्त में, स्वाति नक्षत्र के चन्द्र योग का संयोग होने पर कार्तिक कृष्णा अमावश्या की रात्री में परमात्मा महावीर देव भव स्थिति-कायस्थिति छोड़ कर मोक्ष पधार गये, संसार में अब वापस नहीं आयेंगे; जन्मजरा-मृत्यु; आधि-व्याधि-उपाधि से सर्वथा मुक्त होकर अनन्त सुखों में लीन होगये- सुरेन्द्रों ने और असंख्य देवदेवियों ने भगवन्त के पवित्र शरीर का चन्दनादि सौगधिक काष्ट से अग्नि संस्कार किया, उसकी रक्षा और अस्थियाँ क्षीर समुद्र में बहादी-इन्द्रादि को भारी दुःख हुवा नन्दीश्वर पर अष्टान्हिक महोत्सव कर सर्व वापस चलेगए, इसही दिन से संसार में दीपावली' पर्व प्रवृत्त हुवा, जो आज तक झगमगाट करता है.
प्रकाश-जगत् के उद्धारक. विश्वतारणहार, जगच्छरण, दिव्यज्ञानी, जगदाधार, जगदीश्वर के मोक्ष पधार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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* मोक्ष *
[ १३५
जाने से संसार में अंधेरा होगया, सूर्य के चले जाने पर उल्लुओं के राज्य सी दुनिया होगई, अहिंसा के अवतार, सत्यकी मूर्ति के लुप्त होजाने पर सृष्टि शून्य होगई. अहा ! कितना उत्तम स्थान उनने प्राप्त किया है, जिस का वर्णन करने में लेखनी असमर्थ है, इस पूर्ण पवित्र निर्वाण प्रासाद का शास्त्रों में पर्याप्त बयान किया है- भगवन्त के धैर्य ने ही उस अनुपम स्थान पर पहुँचा दिया है महानुभावो ! अपनी चिट्ठी कब निकलेगी ? संख्य, असंख्य और अनन्त मुक्ति गये जीवों में भी अपना नम्बर नहीं आया ! अब कहाँ तक आशा रखी जायगी ? लगाईये शक्ति, करिये परिश्रम, दौड़िये दौड़ और क्षय करिये कर्म; बस निर्वाण पद हाथ - बेंत जितन सा रह जायगा; समय बड़ा बढ़िया नजीक आरहा है, नहीं करेगा वह पछताय गा, अब आप कुंभकरणी निद्रा से जागृत होकर आत्मोन्नति में लगजाईये; फिर देखिये कितना आनन्द आता है.
दिगम्बर सम्प्रदाय ने परमात्मा का कार्तिक विदी चौदस का निर्वाण माना है, इस ही लिए अमावश्या के प्रातः पावापुरी में लड्डू चढ़ाते हैं; इधर श्वेताम्बर समाज अमावश्या का निर्वाण मान कर प्रतिपदा के प्रभात समय लड्डू चढ़ाते हैं; तथ्यांस क्या है, यह नहीं कहा जासकता ; है यह व्यर्थसी दुविधा; इस में मत-मतान्तर का भी
पर
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१३६]
* महावीर जीवन प्रभा *
सम्बंध नहीं है। फिर भी क्योंकर ऐसा माना जाता है. भारत में दीपावली पर्व अमावस्या को ही मनाया जाता है . यदि चौदस को पर्व हो तो अमावस्या की घड़ियाँ होने पर ही अतः यह अमुमन ठीक प्रतीत होता है कि भगवन्त का विर्वाण अमावश्या को ही हुवा था.
(मुनियों का मोक्ष) भगवान् महावीर के हस्त-दीक्षित ७०० साधु महात्मा और १४०० साध्वियाँ मोक्ष पधारी और ८०० साधु एकावतारी हुवे जो अनुत्तर विमान की स्थिति पूरी कर मोक्ष पधारेंगे- शासन के समस्त साधु-साधियों में से तो अनेक मुक्ति पद को प्राप्त हुवे, जिन की संख्या का उल्लेख नहीं किया गया है.
प्रकाश-जो कठिनतर तपस्या करते हैं, परम त्याग मार्ग को वहन करते हैं, परम उदासीनता धारण करते हैं, उन्ही को मोक्ष होता है, खाउ-पचाउ और मोज-शोख मारने वाले प्रपंची मोक्ष के अधिकारी नहीं हो सकते. आप भी मुनियों के कदम-बकदम (Step by step) चल कर अपना निस्तरण करिये.
दिगम्बर धर्म स्त्रीमुक्ति नहीं मानते, उनका कहना है मुक्ति के योग्य स्त्री बन ही नहीं सकती। इसमें अनेक पराShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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* मोक्ष *
[ १३७
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मर्शयोग्य दलीलें ( Arguments ) पेश की जाती हैं, उनका प्रत्युत्तर भी काफी हो चुका है; अत: पिष्टपेषण कर ग्रन्थ गौरव करने का हमारा इरादा नहीं; पर इतना अवश्य कहेंगे कि मोक्ष लिङ्गानुसार नहीं होता, पर आत्मा के गुणों के आविर्भाव पर ही मुक्ति का अवलम्बन है और उसे प्राप्त करने में स्त्री सब सामग्री संचय कर सकती है। महावीर देव का समानाधिकार हमें यही आदेश करता है और निष्पक्ष बुद्धि भी यही समझाती है। अतः स्त्री का मोक्ष होना नितान्त न्याय युक्त है.
Mun
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१३८]
* महावीर जीवन प्रभा *
* प्रकरण सातवाँ ई
अवशेष
भगवान् महावीर के जीवन चरित्र के साथ सम्बंध रखने वाली कितनीक अवशेष हकीकतों का यहाँ दिगदर्शन कराते हैं
(गौतम गणधर) गौतम गणधर का कुछ वृतान्त तो जीवनी में आचुका है; शेष महत्वपूर्ण विषयों का संक्षिप्त बयान करते हैं:
१. दीक्षा कौशल्य-गौतम स्वामी दीक्षा देने में भारी कुशल थे, छः वर्ष के अतिमुक्त कुमार को दीक्षा देदी
और आठ वर्ष की उम्र में आलोचना (जीव विगधना का पश्चाताप) करते करते उनको केवल-ज्ञान उत्पन्न होगया.
२. निरभिमानता-चालीस कोड (४००००००००) जैनों के संरक्षक महावीर शासन के प्रधान मन्त्री ( Prime
minister ) होते हुवे भी अभिमान ( Arrogance) की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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* अवशेष *
[१३९
कहीं रेखा भी नजर नहीं आती थी, समय पर भगवान् से निर्णय करके अवधि-ज्ञान सम्बंधि अपनी भूल का आनन्द श्रावक के घर पर जाकर 'मिछामि दुक्कड' मिथ्या दुष्कृत दे आये- इसका विवरण उपासक दशाङ्ग सूत्र में है.
३. कैवल्य दान- गौतम स्वामी जिन जिन को दीक्षा देते थे उन सब को केवल ज्ञान उत्पन्न हो जाता था.
४. गुरु भक्ति- भगवान् को एक मर्तवा यह पूछाप्रभो ! इन नूतन दीक्षितों को कैवल्य उत्पन्न हो जाता है
और मुझे क्यों नहीं होता ? उत्तर मिला- तुम मुझ से मोह छोड़ दो तो अभी कैवल्य प्रकट होजाय गौतम ने कहाभगवन् ! मुझे केवल नहीं चाहिये, मेरे तो आप के चरणों की भक्ति बनी रहो, इस ही में मेरा परम कल्याण है.
५. प्रशस्त राग-महावीर देव मोक्ष पधारे उस दिन गौतम स्वामी को निकटवर्ती एक गांव में देव शम्मा ब्राह्मण को बोध देने भेज दिये थे, उस ही रात को प्रभु मोक्ष पधार गये, देवों के आगमन से उन्हें पता चला, ज्ञात होते ही वज्रघात की तरह दुःखी हुवे, उनके हृदय में विरहामि सिलग गई, भारी विलापात करने लगे, भगवान्
को काफी उलहने दिए और एकतास रुदन करने लगे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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१४०]
* महावीर जीवन प्रभा *
६. कैवल्यप्राप्ति- अन्त में अनित्य और अशरणादि भावना से वस्तु-पृथक्करण का बोध हुवा, तत्काल ही "केवल ज्ञान-केवल दर्शन" उत्पन्न होगये.
७. शासन सेवा-महावीर शासन की बयालीस वर्ष तक गौतम गणधर ने अभूतपूर्व सेवा की- जनता पर भारी उपकार किया और अन्त में मोक्ष पधारे.
प्रकाश-सब बातों पर क्रमशः प्रकाश डालते हैं:
१. प्रभावशाली महापुरुष में ही यह शक्ति होती है कि शरणागत व्यक्तियों को परम सुखी बनादें; अपना भी नम्बर यदि गौतम स्वामी के हाथ में आया होता तो भव-भ्रमण मिट जाता; अब भी परोक्ष में उनका आराधन करिये; सर्व मनोरथ सिद्ध होंगे.
२. अहा! इतने बड़े आदमी होकर अभिमान का लेश भी नहीं था, यह लोकेषणा ( यशः कीर्ति की लालसा) के त्याग का प्रभाव है, आज तो ज्यों ज्यों दर्जा बढ़ता जाता है, त्यों त्यों गर्व से गर्जते रहते हैं, छोटे और बड़े एक ही घाट पानी पीते नजर आते हैं; नम्रभावी बनकर देखिये तो सही कितना आनन्द आता है.
३. यों तो गौतम स्वामी अनेक लब्धियों के निधि थे; पर उनकी यह कैवल्य-प्रदान लब्धि तो वे नजीर थी,
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* अवशेष *
[१४१
पूर्व की भारी कमाई का यह प्रभाव था- कुछ कमाई आप भी करिये कि क्रमशः वे दिन नजदीक आवे.
४. गौतम में क्या अनन्य गुरु भक्ति थी कि उसके लिये कैवल्य को भी ठुकरा दिया और चरण सेवा की इच्छा प्रकट की- आज के गुरुभक्त तो बड़े विचित्र हैंस्वार्थ सधा तो मस्तक नीचा नहीं तो बद्दलों से बातें करें, दम्भमय भक्ति निकृष्ट और अनाचरणीय होती है . गुरु भक्तो ! गौतम स्वामी के जीवन से बोध लेकर सच्चे भक्त बनो.
५. देव-गुरु-धर्म पर जो निस्वार्थ प्रेम होता है उसे 'प्रशस्तराग' कहते हैं गौतम इस ही गग से रंजित होकर विरहावस्था में कल्पान्त करने लगे थे; इस तरह वर्तमान में मुनिजन भी उपकारी के विरह में क्लामित हो जाते हैं; यह एक छानस्थिक भुक्तामन है.
६. गौतम भगवान ने अन्त में जीवन को बदल कर नैश्वयिक तत्व में प्रवेश किया और आखिर कैवल्य प्राप्त कर लिया- आप भी इस तरह निष्कर्ष ग्रहण कर केवल ज्ञान को समीप करिये.
७. शासन सेवा करके गौतम गणधर ने अपना अमर नाम किया, इस तरह आप भी करिये- कमाने,
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१५२]
* महावीर जीवन प्रभा *
खाने में और मौज मजा उड़ाने में किसी का नाम रहा न रहेगा, सेवा धर्म एक प्रधान धर्म है, सेवक ही स्वामी बनता है। इसके लिए प्राचीन और अर्वाचीन (Ancient and Modern) बहुतरे उदाहरण विद्यमान हैं, आप भी सेवा कर उस आदर्श लिस्ट में अपना नाम दर्ज करवाईये.
( गौशालक का आत्म पश्चाताप )
चरित्र में आप को गौशालक का परिचय हो चुका है, उसने जिन्दगी भर भगवान् महावीर का विरोध किया
और पेट भर निन्दा की तथा कष्ट पहुँचाये, उसने अपनी समझ में कोई कसर नहीं रक्खी, परन्तु भगवान् रूप पार्श्वमणि के सम्पर्क का असर नहीं जा सकता, अन्त में गौशाला लोहे से स्वर्ण बनगया
एकदा गौशालक बीमार पड़ा, जीवन काल की आशा न रही, अपने जीवन को मनन पूर्वक विचारा, आत्मा के साथ खूब परामर्श किया, भगवान् का धर्म सत्य मालूम हुवा, अपनी त्रुटि का भान हुवा, संघर्ष प्रयत्न का खेद हुवा, आत्म-पश्चाताप (Soul-repentance ) में लीन होकर कर्मों से हलका हुवा, महावीर प्रभु पर अकाट्य श्रद्धा उत्पन्न हुई, "जीवन रहे तो उनसे माफी माँग कर मेरा सारा
समाज उनके पदार्विन्दों में समर्पण करूँ" ऐसी उत्तम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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* अवशेष *
[१४३
भावना जागृत हुई; जब देखा कि मृत्यु से अब बचने की जरा भी आशा नहीं है तब बीमारी के कारण आये हुवे अपने शिष्यों को इस प्रकार अन्तिम आदेश किया
महानुभावो! अब मेरा जीवन काल खत्म हो रहा है, मेरी एक अन्तिम इच्छा तुम पूरी करो! सब ने नतमस्तक होकर स्वीकृति दी, धर्म गुरु ने कहा- मेरी मृत्यु के पीछे तुम मेरी दोनों टंगडियों में रस्सी बाँध कर खींचते हुए तमाम चोहट्टों में घुमाना और यह घोषणा करते जाना कि "भगवान महावीर के निन्दक गोशाला ने झूठा धर्म फैलाया, इसलिए सब लोग महावीर के शासन में चले जाओ, तुम भी सब संघ भगवान् के शरण में चले जाना."
यह सुन कर शिष्य मण्डल चकित होगया, सब ने प्रार्थना की कि आप तीर्थकर देव हैं- सर्वज्ञ हैं-जिन भगवान् हैं ! आप यह क्या फरमाते हैं ? गौशालक ने कहा- मैं तो एक सामान्य धर्माचार्य हूँ, यह सब ढोंग था, जनता को बहकाने का एक मायामय मार्ग था, मुझ से अब ज्यादा बोला नहीं जाता, मेरी आज्ञा का पालन करना; सबने उन को शान्ति पहुँचाने के लिये स्वीकार करलिया. गौशालक का देहावसान होगया, लज्जा के खातिर उपाश्रय में ही शहर की कल्पना कर उनकी आज्ञा का पालन किया
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१४४]
*महावीर जीवन प्रभा *
गया-बहुत अधिक मुनि महावीर देव की शरण में चले गए और कितनेक कुरचट्ट वाड़ाबन्दी के गुलाम और यशःकीर्ति के पिपासु उस ही मिथ्या-शासन में रहे; गृहस्थों में से भी अधिकतरों ने भगवान् का शरण लेलिया था.
प्रकाश-गौशालक जैसे अफन्डी और अहंभावी का इस ऊच्चश्रेणि में पहुँचना, महावीर मलयागिरी चन्दन के संसर्ग का ही प्रताप है, पर यह मानना होगा कि जीव उत्तम था, विगधक भाव से आराधक भाव में आकर यह साबित करदिया कि अहंकारी भी नम्रभावी होसकता है और निन्दक प्रशंसक बन सकता है ! क्या आप भी हाथी पर से उतर कर प्राकुत सुखमय पैर पेदल मुगाफिरी करना सीखेंगे ? कि मदमस्त ही बने रहकर अन्धाधुंधी चलाय करेंगे ? नहीं नहीं ! ऐसा कभी न करें ! इनसानियत ( Humanity ) रख कर सोचेंगे तो प्रकाश नजर आने लगेगा; इससे आप अपना हित कर सकेंगे.
(महत्व पूर्ण दीक्षाएँ) भगवान् महावीर के विद्यमानी में अनेक महत्त्वपूर्ण दीक्षाएँ हुई, जिन की पवित्र जीवनी लिखने की यहाँ आवश्यकता नहीं है; पर बहुत थोड़े लोगों का संक्षिप्त परिचय करा देने की हमारी भावना है. वह इस प्रकार है:
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* अवशेष *
[१४५ १. अभयकुमार-महाराजी श्रेणिक के ज्येष्ठ पुत्र, चतुर्बुद्धिनिधि, व्यवहार विदग्ध, प्रधान मन्त्रि अभय कुमार ने बड़ी तरकीब से पिताजी की आज्ञा लेकर दीक्षा ली: ____२. नन्दीषण-अभय कुमार के भ्राता नन्दीषेण नै बड़े वैराग्य से दीक्षा ली, चारित्र से पतित होकर वैश्या के चुंगल में फंस गये, लेकिन दस जनों को दीक्षा दिला कर भोजन करने की प्रतिज्ञा से बहुतेरों का उद्धार किया एक दिन बहुत कोशीश करने पर भी नौ से अधिक दीक्षित न हुवे, तब तुरन्त ही आप ने दीक्षा ग्रहण करली. ___३. शालीभद्र-राजगृही निवासी अढलग द्रव्यराशी के स्वामी, एशोआराम में गुल्तान, नवनीत सदृश कोमलाङ्गी, बत्तीस ललनाओं के पतिदेव , शालीभद्रजी ने 'नाथ' का कारण पाकर अपने बहनोई धन्नाजी के साथ दीक्षा ग्रहण करली.
४. हरिकेषी-चाण्डाल कुल में उत्पन्न हरिकेपी ने वैराग्यपूर्ण दीक्षा ग्रहण की, उत्तराध्ययन सूत्र में जिमका बढ़िया विवरण है.
५. जम्बू कुमार- अतिशय सुख- सम्पत्ति और कुटुम्ब परिवार को छोड़ कर जम्बू कुमार ने दीक्षा ली; महावीर स्वामी के द्वितीय पट धर हुवे.
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१४६ ]
* महावीर जीवन प्रभा *
उपरोक्त वर्णित सब के पीछे बढ़िया इतिहास है, जो अन्य स्थल से जानना चाहिए; इनके अतिरिक्त अनेक महा पुरुषों की महत्वपूर्ण दीक्षाएँ हुई हैं; जिनका बयान स्थल संकोच के कारण नहीं किया गया.
प्रकाश - उपर्युक्त महापुरुषों की दीक्षाएँ विवरण योग्य ( Remarkable ) हुई हैं; प्रत्येक में कुछ न कुछ विशेषता है - भगवान् महावीर की और उनके शासन की यह विशिष्टता है कि धर्म के दायरे में हर एक कौम रह सकती है, जाति बंधन और समाज- बंधन से धर्म मुक्त रहता है; जैसे सरीता के तीर पर सब जातियाँ एक साथ जल पान करसकती हैं, वैसे ही एक साथ धर्माचरण भी करसकतीं हैं. हिन्दु धर्म ने अन्त्यज जातियों के साथ इतना घोर अन्याय किया है कि उनका यह काला कलंक मिट नहीं सकता, जैन लोग भी अपने मन्तव्य को छोड़ कर उनमें शामिल होगए हैं, इनशानियत की महत्ता का जिस को पता नहीं है और मोक्ष तत्व का जिस को ज्ञान नहीं है, वही समता भाव से वञ्चित रह कर अपना अहित करता है. आप जरा आँखें मूँद कर शान्ति से विचार करेंगे तो यह जात-पान्त का ढकोसला आप के हृदय से हट जायग और मनुष्यत्व प्राप्त हो जायगा.
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* श्रवशेष *
[ १४७
( भावना का प्राधान्य )
तमाम धर्मों में भाव धर्म प्रधान है, और तमाम कर्मों में भावकर्म प्रधान है, अध्यवसायों से ही निकाचित कर्म बंधते हैं और इन ही से आत्म धर्म प्रकट होता है ' परिणामे बन्ध' यह सूत्र इसको प्रमाणित करता है; मुख्यत्वेन इरादा ही प्रधान वस्तु है, शेष सर्व कर्म सामान्य हैं, जिन पर जनता विशेष बल देती है; परन्तु गुण-श्रेणी तो भावना से ही तआलुक रखती है और उसही से सब कुछ होता है, इसके लिये पोतनपुर नगर के राजा ' प्रश्नचन्द्र राजर्षि का उदाहरण पर्याप्त है
एक मर्तबा राजर्षि तपोवन में कायोत्सर्गमय ध्यानस्थ थे, अपने राज्य पर आपत्ति का स्मरण हो आया; बस मन ही मन में युद्ध करने लगे, कुछ ख़याल होने से युद्ध हलका पड़ा, साधुत्व का विचार आने से उच्च भावनाएँ प्रकटीं; क्रमशः बढ़ती गई, आत्म मंथन से केवल - ज्ञान उत्पन्न होगया - प्रारंभ में सातवीं नरक के कर्माणु और क्रमशः यावत् पहिली के पापमय कर्माणु संचय हुए, बाद पुण्य प्रवृत्ति द्वारा प्रथम देवलोक से क्रमबद्ध सर्वार्थसिद्धतक के कर्म प्राप्त हुवे; अन्ततः उग्र भावना से पुण्य-पाप को हटा कर दिव्यज्ञान प्राप्त किया.
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१४८] ........ * महावीर जीवन प्रभा *
प्रकाश-संचमुच ही भावना-भवनाशनी' का सिद्धान्त प्रश्नचन्द्र राजर्षि ने अक्षरशः चरितार्थ किया. नियत साफ रहने से बरकत होती है यह उक्ति तो चस्मदीद ही है, इस लिये बाह्य विषयों पर तूल न कर अन्तर विषयों पर लक्ष्य दीजिए, उच्च भावना अहिंसा और सत्य से उत्पन्न होती है। इन दोनों से आत्म गुण प्रकटाने की तालीम ( Training ) लेना चाहिए.
(श्रावकोत्तम ) .
भगवान् महावीर के करोड़ों उपासक थे उनमें एक लक्ष उनसाठ हजार व्रतधारी श्रावक थे, उनमें रत्न समान दस प्रतिमाधारी (तपयुक्त अनुष्ठान विशेष के धारक) आनन्द- कामदेवादि श्रावक हुए. करोडों रुपयों का द्रव्य जिसके घर में था. उन सब ने भगवन्त के पास गार्हस्थ्य धर्म अङ्गीकार किया था, विशिष्टता यह थी कि उनके घर पर ४०००० गोप्रमुख पशुधन विद्यमान था, श्रद्धामेंतपश्चरणमें और भक्तिमें पूर्ण थे, आनन्द-महाशतक को अवधि ज्ञान उत्पन्न होगया था, दसों ही वैमानिक देवलोक में उत्पन्न हुए, वहाँ से महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर मुक्तिपद प्राप्त करेंगे; समस्त एकावतारी हुए. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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* अवशेष *
[ १४९
प्रकाश- इन दस श्रावको के लिए 'उपासक दसाङ्ग' नाम का सूत्र बना हुवा है, उनकी मर्यादा अनुकरणीय है, उनमें खास ज्ञातव्य बात यह थी कि व्रत समय जितनी ऋद्धि थी उससे अधिक नहीं रक्खी बल्कि उसको घटाने की कोशिस की. आज के व्रतधारियों का त्याग तो नाम मात्र (Nominal ) है, सौ रु० पास में हो तो हज़ार रक्खें, और हज़ार हो तो लाख रक्खें; मतलब कि वे तृष्णा से मुक्त नहीं होते; इसके अलावा वे व्रतों में भी भारी छूटछाट रखते हैं. आनन्दादि अनेक कष्टों की उपस्थिति में भी बड़े चुस्त रहते थे उनने “ सम्यग् दर्शन-ज्ञान- चारित्राणि मोक्षमार्गः " ( Right belief, right Knowledge, and right conduct- this is the path of final emancipation ) इसे पूरा समझा था और इसका पूर्णतः पालन करते थे- एक एक श्रावक के पास हज़ारों की तादाद में मवेशी रहते थे, जिसमें दूधालू अधिक प्रमाण में थे. माय को पूजनीक माता मानने वाले हिन्दु किस शताब्दि में जिन्दगी बसर कर रहे हैं ? एक जमाना ऐसा था कि १ प्रत्येक हिन्दु के घर में कम से कम एक गाय अवश्य पाती थी, आज तो गो विना के घर शून्य अरण्य के मानिन्द नज़र आते हैं, यदि हिन्दुओं ने गायों का पालन
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किया होता तो आज कत्ल खाने में गायें कटती नज़र
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१५० ]
* महावीर जीवन प्रभा *
नहीं आतीं, और बच्चों को दूध-दही- घी - छास आराम से अच्छी मात्रा में मिलती; आज कहाँ गए वे गोपाल श्री कृष्ण के उपासक, जिनके घर में नित्य गायों के दर्शन होते थे. अनुभवियों का कथन है कि सर्व धनों में पशु धन प्रधान है. वांचको ! क्या आप आनन्द श्रावक के जीवन से बोध ग्रहण करके गृहस्थ - धर्मका यथावत् पालन करेंगे ? व्रत नियम से अपना हित साधेंगे और बाल बच्चों को आराम पहुँचायेंगे ? कि वही एक पैसे का दूध, धेले का दही और भीख की छास में ही मस्त रहेंगे ! संभव है नैतिक विचार करके अपनी जीवन यात्रा सुचारु रूप से पूरी करेंगे.
( शासन रत्न )
महावीर के शासन में अनेक नर रत्न- मुनिरत्न और श्रावकरत्न होगये हैं, उनमें से कितनेक मुनिवरों के नाम उल्लेख करते हैं:
१. सौधर्म गणधर - भगवान् महावीर के प्रथम पट्टधर, शासन के हाइकमान्डर.
२. जम्बूस्वामी - भगवान् के द्वीतीय पटधर अन्तिम केवली.
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* अवशेष *
[१५१
३. प्रभव स्वामी- तृतीय पटोधर, अवनत दशा से उन्नत अवस्था में पहुँचे. ____४. शयंभव सूरि-दशवकालिक के कर्ता, मनक के पिता, चौदह पूर्वधारी, चौथे पटोधर. ___५. यशो भद्रसूरि-पाँचवें पटधर बड़े ज्ञानी-ध्यानीत्यागी.
. ६. भद्रबाहु स्वामी-अन्तिम श्रुतकेवली, चौदह पूर्वधर.
७. स्थूलिभद्र स्वामी-कामदेव के पूर्ण विजेता, कोशा वेश्या के प्रतिबोधक, दसपूर्वधारी.
८. सिद्धसेन दिवाकर-प्रकाण्ड नैयायिक, तीर्थोद्धारक, अनेक ग्रन्थ प्रणेता.
९. देवर्द्धि क्षमाक्षमण-लिपिबद्ध आगम के कर्ता, एक पूर्वधारी, महाज्ञानी, शासन के स्तम्भ.
१०. हरिभद्रसूरि-बुद्ध धर्म के दान्त खट्टे करने वाले, १४४४ प्रकरणों के रचयिता, याकनी पुत्र, प्रकाण्ड विद्वान.
११. रत्न प्रभसूरि-ओसवंश के आध स्थापक, बहुकाय लधिधारक.
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१५२]
* महावीर जीवन प्रभा *
१२. उद्योतन सरि-चौरासी गच्छ के संस्थापक, विद्यादान में अतिकुशल.
१३. वर्धमान मूरि-आचारदिनकरादि ग्रन्थों के कर्ता, शासन सेवा में समर्थ.
१४. जिनेश्वर सूरि-खरतर गच्छ के संस्थापक, अभयदेव सूरि के गुरुवर्य, चारित्र चूड़ामणि.
१५. गंधहस्ति और शिलाङ्काचार्य-ग्यारह अंग सूत्र के समर्थ टीकाकार.
१६. अभयदेवसूरि-नवाङ्गी टीकाकार, तीर्थोदारक और अनेक संस्कृत-प्राकृत ग्रन्थ के रचयिता.
१७. मलयगिरी महाराज-नन्दीसूत्रादि के विस्तृत टीकाकार.
१८. जिनवल्लभसरि-शास्त्रों के पूर्ण विद्वान् , चैत्यवासियों को परास्त करने वाले, शासन के परम मान्य.
१९. युगप्रधान जिनदत्तसूरीश्वर-अनेक विद्याओं के ज्ञाता, १३०००० जन बनाने वाले, एकावतारी दादा गुरुदेव, चार नरेन्द्रों के प्रतिबोधक, संदेह दोहलावली आदि अनेक ग्रन्थों के निर्माता शासन सम्राट्.
२०. हेमचन्द्राचार्य-तीन करोड़ श्लोक के रचयिता, प्रायः हरएक विषय के ग्रन्थ कर्ता, अठारह देशों के
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* अवशेष *
[ १५३
अधिपति कुमार पाल नृपेन्द्र के प्रतिबोधक, कलिकाल सर्वज्ञ पद धारक.
२१. जिनचन्द्रसूरि - जिनदत्त सूरीश्वर के पटधर, मणिधारी, दिल्ली आदि पूर्व देश में विख्यात.
२२. आर्य रक्षितसूरि - परम वैराग्य रंगित, विधिपक्ष गच्छ ( आंचल गच्छ ) के संस्थापक.
२३. जगच्चन्द्रसूरि-महातपस्वी तपागच्छ संस्थापक. २४. जिनकुशलसूरि- प्रत्यक्ष - प्रभावी, लाखों के उपास्य, बारह सौ साधु और चौवीस सौ साध्वियों के नायक, सिद्धाचल पर ' खरतरवसी के प्रतिष्ठा कर्ता, ५०००० नूतन जैन बनाने वाले दादा गुरुदेव .
"
२५. पार्श्व चन्द्रसूरि - अच्छे विद्वान, पायचंद गच्छ ( नागपुरी तपागच्छ ) के संस्थापक, आत्मार्थी.
२६. जिनचन्द्रस्वरि- अखबर बादशाह प्रतिबोधक. जीव दया के पट्टे - परवाने कराने वाले, समर्थ युगप्रधान २७. राजेन्द्रसूरि - नामाङ्कित विद्वान्, उत्कर्ष क्रियावान्, राजेन्द्राभिधान कोषादि के कर्ता, त्रिस्तुति उद्धारक या संस्थापक.
इनके अतिरिक्त बहुत शासन रत्न हुए, जिनका ज़िक्र स्थल संकोच से नहीं किया गया. आज भी बहुत
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१५५]
* महावीर जीवन प्रभा *
से शासन रत्न विधमान हैं, पर संगठन न होने से शासन को लाभ नहीं पहुँचता; प्रत्युत हानि है, इस पर जिम्मेवार आचार्यों को विचार करना चाहिए.
प्रकाश-शासन रत्नों का एक छोटासा लिस्ट यहाँ पेश किया गया है, कैसे कैसे नररत्न संसार में अवतरे थे ! वे अपना नाम अमर कर गये हैं. आचार्य-उपाध्याय और मुनिवरों से यह प्रार्थना है कि गृह युद्ध से दूर रहकर पूर्वाचार्यों की तरह शासन सेवा करें- पाठको! वैसे रत्नों के आप उपासक बनकर अपना कल्याण करें.
( भक्त नृपेन्द्रों)
वैशाली नगरी के चेटक महाराजा, मगधाधिपति श्रेणिक नृपेन्द्र, अंगदेशाधिपति कोणिक भूपति, चण्डप्रद्योतन महिपति, उदायन राजा, काशी देश के अधिपति मल्लकी गौत्र के नौ राजा तथा कौशल देश के अधीश्वर लेच्छकीय गौत्र के नौ राजा; इत्यादि अनेक भूपेन्द्र भगवान् महावीर के भक्त थे, जैन धर्म के उपासक थे और परम श्रद्धावन्त थे.
प्रकाश-राजा जैसे विलासियों भी अपना विलास कमकर धर्म में प्रवृत होगए और परमात्मा के परम भक्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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* अवशेष *
१५५
बन गए तो सामान्य वर्ग के लिये क्या कठिनता है; पर " नाचना नहीं तो आंगन बांका " वाला तमासा है, उनके तमाम बचाव मिथ्या हैं, रुचि नहीं होने का परिणाम है; इसलिए महात्माओ की सत्संग करिए; मार्ग सुन्दर मिल
जायगा.
( भावी तीर्थंकर )
भगवान् महावीर देव की विद्यमानी में निम्नलिखित जीवों ने तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जन किया. वे यह हैं(१) श्रेणिक नृपेन्द्र का जीव पहिला 'पद्मनाभ ' तीर्थकर होगा.
( २ ) महावीर देव के चाचा सुपार्श्व का जीव दूसरा ' सूरदेव ' तीर्थंकर होगा.
( ३ ) कोणिक नृप का पुत्र उदायिन राजा तीसरा ' सुपार्श्व ' तीर्थंकर होगा.
( ४ ) पोट्टिल अनगार का जीव चौथा 'स्वयंप्रभ' तीर्थंकर होगा.
' (५) दृढायु श्रावक का जीव पाँचवाँ ' सर्वानुभूतितीर्थकर होगा.
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* महावीर जीवन प्रभा *
(६) शंख श्रावक का जीव सातवाँ 'उदय'
तीर्थकर होगा. आनन्द श्रावक का जीव आठवाँ पेढाल' तीर्थकर होगा. शतक श्रावक का जीव दसवाँ 'शतकीर्ति' तीर्थकर होगा. सुलसा श्राविका का जीव सोलहवाँ चित्रगुप्त' तीर्थकर होगा. रेवती श्राविका का जीव सतरवाँ ' समाधि'
तीर्थकर होगा. (११) सद्दाल श्रावक का जीव अठारवाँ 'सम्बर'
तीर्थकर होगा. (१२) अम्बड़ का जीव बावीसवाँ - देव ' तीर्थंकर
होगा. कुल तीर्थंकर तो चौवीस होंगे, लेकिन यहाँ उनही के नाम उल्लेख किये गये हैं, जो महावीर शासन से होने वाले हैं.
प्रकाश- भगवान महावीर के आराधन से उपरोक्त जीवों ने तीर्थकर नाम कर्म उपार्जन किया, जो भाविकाल
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* अवशेष *
[ १५७
में सर्वोच्चपद पर पहुँचेंगे, आत्म निस्तरण के साथ संसार का कल्याण करेंगे. महानुभावो ! आप भी ऐसी दृढतया उपासना करिये कि वह उच्चतम पढ़ समीप आवे और आत्मा पूर्णानन्दी बने.
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( शासनकाल )
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भगवन्त महावीर देव का शासन २१ हजार ३ वर्ष ८ महिने और १५ दिन तक बराबर चलता रहेगा ; यानी पंचम आरक के अन्त तक प्रचलित रहेगा; इस टाइम में जैन धर्म का तेवीस वार उदय और तेवीस वार अस्त होगा; अर्थात् शासन की उन्नति - अवनति होगी - सामान्य लोगों का यह खयाल गलत है कि सदा हानि होती रहेगी, चाहे घोर कलयुग भी हो जैसे सूर्यका उदयास्त दोनों ही होता रहेगा वैसे ही उक्तकाल तक धर्म रहेगा; अतः जनता को सम्यग् मार्ग में अपना प्रयत्न बराबर करते रहना चाहिए, जिससे शासन सेवा का अपूर्व लाभ प्राप्त होसके और अपना आत्मकल्याण का कार्य भी सिद्ध होजाय.
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१५८]
* महावीर जीवन प्रभा*
परिशिष्ट
भगवान महावीर देव का संक्षिप्त जीवन चरित्र हम पाठकों के सम्मुख उपस्थित कर चुके हैं, इस चरित्र को पढ़ने के बाद हर एक निष्पक्ष जन यह कह सकेगा कि भगवान् के जीवन का प्रत्येक अंग कितना महत्वपूर्ण और शिक्षाप्रद है; चाहे फिर वह जैन हो या अजैन हो, उनके जीवन की प्रत्येक घटना कितना अर्थ रखती है, यह दीपक की तरह स्पष्ट दिखाई देता है, जो मुमुक्षु अपनी आत्मा को उन्नत बनाने के इच्छुक हैं, जो अपने जीवन की उलझी हुई गुत्थी ( Problem ) को सुलझाना चाहते हैं और जो अज्ञात तत्वों को जानने के अभिलाषी हैं, उनको महावीर जीवन से पर्याप्त सामग्री उपलब्ध हो सकती है.
संसार के साहित्य ( Literature ) में जिन जिन महान् आत्माओं ने जगत् कल्याण की वेदी पर आत्म बलिदान ( Self-sacrifice ) दिया है, उनमें, महावीर को बहुत उच्च स्थान प्राप्त है, वे मात्र अपना हित साध कर ही खामोस नहीं रहे हैं, बल्कि विश्व को दिव्य तत्वों का सन्देश ( Message) दिया है और अपने धर्मोपदेश
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* परिशिष्ट *
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से सद्मार्ग दिखया है, जिससे हीनातिहीन आत्मा भी अपना कल्याण कर सकती है और जिससे चिरस्थायी शान्ति स्थापन की जा सकती है.
मगर अगर आज हम महावीर के अनुयायियों पर दृष्टिपात करें तो वैपरित्य नज़र आता है, पारस्परिक क्लेश ने घर कर लिया है, मत भेदों के छोटे छोटे कारणों में बड़े बड़े पिसे जारहे हैं, असली तत्ववाद को दूर रखकर सामान्य क्रियावाद में सैनिकों की तरह झुंझ रहे हैं, प्रेम पर कुठारघात कर द्वेषाग्नि में जल रहे हैं, सर्वभक्षी अहंभाव की ज्वाला में भुन रहे हैं, उनके दिमाग को दिमक लग गई मालूम होती है, उसही का यह घोर परिणाम है, मतमतान्तरों ने तो इतना गज़ब ढाया है कि शान्ति और त्याग पाताल में जा पहुँचे हैं- कहाँ महावीर का तारणहार उपदेश आकाश से भी अधिक उदार और सागर से भी विशेष गंभीर और कहाँ आज जैन समाज संकीर्णता के दल-दल में फँस रहा है, उन्ही को सन्तान परस्पर लड़ झगड़ कर दुनिया की सपाटी पर से अपना अस्तित्व ( Existence ) उठाने की तैयारी कर रही है.
दीर्घतपस्वी भगवान् महावीर और महात्मा बुद्ध दोनों ही समकालीन थे और दोनों ही महा पुरुष निर्वाणवादी थे, दोनों एक ही लक्ष्य के अनुगामी थे, पर मार्ग
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१६० ]
* महावीर जीवन प्रभा *
उनके भिन्न भिन्न थे, तरीके जुदे जुदे थे, महावीर तीव्र पथ के पथिक थे और बुद्ध मध्यम मार्गानुयाई थे, बुद्ध ने अपने धर्म की व्यवस्था में लोक- रुचि को अग्रस्थान दिया, महावीर ने इसकी पर्वाह न कर सौ टच स्वर्ण की तरह निर्दोष ठोंस मार्ग संसार के सम्मुख रक्खा, इसके योग्य जन इसको अपना कर निर्वाण पद प्राप्त कर सकेंगे.
जैन दर्शन नित्यानित्य वस्तुवाद का प्रतिपादक हर एक वस्तु का स्वगत धर्म में सदा अस्तित्व मानता है, मात्र पर्यायें ( आकृतियाँ ) संयोग वश बदला करती हैं, समय-समय पर परिवर्तन प्राकृतिक नियम का निर्वाहक और उपयुक्त है; यह सिद्धान्त सर्व व्यापी होने से इसका नाम ' अनेकान्तवाद' भी है और 'स्याद्वाद धर्म भी इसे कहते हैं. स्वाभाविक ही घन समान कठिन वस्तु मोम जैसी मुलायम होजाती है और मुलायम कठिन बन जाती है. अनेकान्त धर्म की वैचित्र्य गति बड़ी गहन है, पूर्ण अभ्यासी ही उसको समझ सकता है.
चुस्त रुढीवादियों को यह स्मरण रहना चाहिए कि वे सदा एकसा स्वप्न न देखें, जैन धर्म में समय पाकर परिवर्तन होता रहा है, तीर्थंकरों के शासन में, गणधरों के जमाने में और पूर्वाचार्यों के वक्त साधनों का परिवर्तन हुवा है, आज भी मूल वस्तु की रक्षा के लिए परिवर्तन
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* परिशिष्ट *
[१६१ की भारी आवश्यकता महसूस होती है, यह गंभीर विषय शीघ्र विचारणीय है, शासन रक्षकों को सतर्क बनकर शुद्धि-संगठन को कार्यान्वित करना चाहिए; जिससे जनं धमे का ध्वज पुनः सर्वत्र फहराने लगे. ___जैन धर्म के इतिहास से यह सब स्पष्ट नजर आता है कि प्रारम्भ में ब्राह्मणों के अत्याचारों का प्रतिकार जैन धर्म ने किया, भगवान महावीर ने इसके विरुद्ध बुलन्द आवाज़ उठाकर शान्ति स्थापन की. यह भी व्यक्त है कि मध्य भारत में उच्च कोम जो मांस-मदिरा से परे है, वह जैनों के सम्पर्क का परिणाम है और जैन धर्म का ही प्रभाव है, ऐसी एक बात भारत के हाइ कमान्डर लोकमान्य तिलक म० ने ता. ३० नवम्बर १९०४ को बड़ोदा शहर में दिये गये भाषण में कहा था; एवं अनेक निष्पक्ष विद्वान् लोग भी इसे स्वीकारते हैं और अपने व्याख्यानों में जाहिर करते हैं.
___ महात्मा गौतम बुद्ध का महावीर के मार्ग पर बड़ा भारी आदर था, उनने अपने 'मज्झिम निकाय' नामक ग्रन्थ में कहा है- हे महानाम ! मैं एक समय राजगृही नगर में गृद्धकूट नामक पर्वत पर विहार कर रहा था, उस समय ऋषीगिरी के समीप कालशीला पर बहुत से निर्ग्रन्थ मुनी आसन छोड़कर उपक्रम कर रहे थे, वे लोग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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१६२]
* महावीर जीवन प्रभा *
तीव्र तपस्या में प्रवृत्त थे, मैं शायंकाल को उनके पास गया और कहा- अहो निग्रन्थो ! तुम क्यों ऐसी घोर वेदना को सहन करते हो ? तब वे चोले- अहो निर्ग्रन्थ ! ज्ञातपुत्र ( भगवान् महावीर ) सर्वज्ञ और सर्वदेशी हैं, वे अशेष ज्ञान और दर्शन के ज्ञाता हैं, हमें चलते-फिरतेसोते-बैठते हमेशा उनका ध्यान रहता है . उनका उपदेश है कि- "हे निर्ग्रन्थो! तुमने पूर्व जन्म में जो पाप किये हैं, इस जन्म में छिपकर तपस्या द्वारा निर्जरा कर डालो, मन-वचन-काया की संवृति से नवीन पापों का आगमन रुक जाता है और तपस्या से पुराने कर्मों का नाश हो जाता है. कर्म के क्षय से दुःखों का क्षय होता है , दुःख क्षय से वेदना क्षय और वेदना क्षय से सब दुःखों की निर्जरा होजाती है."
___ महात्मा बुद्ध कहते हैं- निर्ग्रन्थों का यह कहना हमें रुचिकर हुवा और हमारे मन को अच्छा मालूम होता है . इससे यह स्पष्ट है कि भगवान् महावीर का उपदेश उनको हृदयगंम हुवा.
[धर्म] धर्म शब्द सर्वत्र व्याप्त होने से व्यापक रूप है, पहिले यह समझ लिया जाय कि धर्म किसे कहते हैंShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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* परिशिष्ट *
[१६३
धृ-धारणे धातु से धर्म शन्द बनता है- धारयति इतिधर्म:- कान् ? जीवान् , कथंभूतान् ? पततान् , कस्मिन् स्थाने ? दुर्गतौ-दुर्गती पततान् जीवान् धारयति इति 'धर्मः' यह व्याकरण के नियम से व्युत्पत्यर्थ होगया.
___ सदाचार और सद् विचार के अतिरिक्त संसार में कोई धर्म नहीं है, बाकी सब ढकोसले हैं . "ज्ञान-क्रियाभ्यां मोक्षः " यह सिद्धान्त इसको प्रमाणित करता है। इसके अनुयायी क्रमशः 'विश्व-प्रेम' ( Universal love) सम्पादन कर सकते हैं.
धर्म व्यक्तिगत ( Personal) होना चाहिए, समाज पर उसका जबरदस्ती बोझा लाद दिया गया है और क्रियावाद का भारी दवाव ( Pressing ) किया गया है ; इससे परस्पर मनोमालिन्य बढ़कर झगड़ा पैदा होगया है , जो अब किसी कदर समेटा नहीं जाता, समाजों का आपुस में टकराना मनुष्यत्व-इनशानियत को खोना है, एकशा मान्यता वालों का एक दल बन जाय, उसमें कोई आपत्ति नहीं है, पर उनके सन्तानों पर, सम्बंधियों पर और ज्ञाति पर दबाव डालकर अपना धर्म पालन कराना एक तरह का उन पर आक्रमण (Attack ) है, उसका परिणाम बहुत बुरा होता है ; हर एक को यह कुदरती आजादी ( Natural-freedom) है कि अपने रुचि के
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१६.]
* महावीर जीवन प्रभा *
मुआफिक धर्म का आराधन करे; पर सदाचार और सद् विचार रूप धर्म हो.
जनता का यह कहना किसी अंश में सत्य है कि प्रतिबंधक धर्म प्रायः अधर्म की उपासना कराता है, इन्तिदामें बंधन की आवश्यकता तो प्रतीत होती है , पर वह भी अपने लिये स्वयं बंधन लगाले , यह विशेष इष्ट है. सजनों को यह समझ लेना चाहिए कि जिस तरह पैसा कमाने के अनेक रास्ते हैं, उसी तरह मोक्ष प्राप्ति के भी अनेक मार्ग हैं; अतः लोगों को अपनी रुचि के अनुसार धर्माराधन करने देना चाहिए, जिससे विश्व-शान्ति ( Universal-calm) प्राप्त होकर आत्म कल्याण हो; ऐसा मेरा नम्र आभिप्राय है .
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* निवेदन *
पर निवेदन
इस “महावीर जीवन प्रभा " ग्रन्थ की पूर्णाहूति करते हुए आप से निवेदन करता हूँ कि इसको एक बार नहीं अनेक बार मनन पूर्वक पढ़ें, विचारें, परामर्श करें, उत्पन्न शंकाएँ महात्माओं से निवारण करें; और निष्पक्ष बुद्धि से छानबीन कर हंस की तरह मुक्ताफल का भोजन करें. Veerputra Anandsagar.
Kotah-Rajputana
1-3-1943.
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________________ [101 . . . When . VO . Bila . . . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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________________ पुस्तक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragvanbhandar.com