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कलश गंगा, सिन्धु, पद्मद्रहादि तीर्थजलों से भरे हुए लेकर समग्र देव प्रभु पर ढालने के उत्साह से खड़े हुए और इन्द्र के आदेश की प्रतीक्षा करते हैं .
हैं
* जन्म *
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इस वक्त सौधर्मेन्द्र को संशय पैदा होता है किभगवान् का शरीर बहुत छोटा है, इतने कलशों की जल धारा शरीर पर गिरने से मेरी गोद में से कहीं बह जायगे " ? ऐसा सोचकर इन्द्र ने अभिषेक का आदेश नहीं दिया. प्रभुने इस बात को ज्ञान द्वारा जानकर इन्द्र की शंका दूर करने के लिये अथवा तीर्थंकर का अनन्त बल मानो ज्ञापन करने के लिए बायें पैर के अंगूठे से सिंहासन जरा दबा दिया कि तत्काल ही सारी शिला - मेरुचूला और लक्ष योजन प्रमाण मेरु पर्वत काँपने लगा, इससे सारी पृथ्वी चल-विचल होगई, तमाम देव भयभीत बन गये, चारों ओर क्षोभ से सब उपासक क्षुब्द होगये; ऐसी विकट स्थिति देखकर इन्द्र चिन्तातुर बनकर सोचने लगा- “ इस शान्तिकरण समय में किस देव ने यह उत्पात मचाया तुरन्त ही अवधि - ज्ञान लगाकर देखा तो मालूम हुवा कि यह तो भगवन्त का विनोद मात्र है, मैंने प्रभु का अनन्त बल नहीं पहिचाना- इन्द्र ने भगवान् से विनय पूर्वक क्षमा माँगी और स्नात्राभिषेक के लिये सब को आदेश दिया.
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तमाम इन्द्रों ने और देवों ने क्रमशः विधिपूर्वक स्नात्रजल से भगवन्त पर जल धाराएं छोडीं ; अर्थात् अ
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