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* कैवल्य *
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पर सहज ही नष्ट हो जायगे. अध्यवसायों की निर्मलता से भगवन्त तेरहवें गुणस्थान में पहुंच गए- इस वक्त यह ज्ञान विच्छेद ( लुप्त ) है; मात्र मति-श्रुतिज्ञान विद्यमान है और अवधि ज्ञान को अवकाश है. मति-श्रुति ज्ञानवाले भी जीव बहुत कम हैं; कारण कि कलियुग है
और पापचर्या महा कलियुग है, वृत्तियाँ अत्यन्त अनिष्ट हैं; अतः तमाम उत्तम पदार्थ स्वयं लुप्त हैं . कहाँ भगवान् का आदर्श जीवन और कहाँ अपना तुच्छ जीवन ! क्या आप कुछ शिक्षाग्रहण कर अपनी आत्मा को कुपंथ से हटावेंगे और सुपंथ में गतिमान् ( Progressive ) होंगे? प्रयत्न से अवश्य ही सफलता मिलेगी.
(समवसरण की रचना )
भगवन्त को केवल ज्ञान उत्पन्न होने से भाव तीर्थकर हुए, इससे देवों ने समवसरण की रचना की- सबसे पहिले पवन से एक योजन ( चार कोस ) भूमि साफ हो जाती है, बाद जल बिन्दुओं की वृष्टि से जमीन पवित्र हो जाती हैं; एक योजन में चारों तरफ तीन गढ ( चान्दी का गढ सोने के कांगरे- सोने का गढ रत्नों के कांगरेरत्नों का गढ मणियों के कांगरे ) बनाये जाते हैं , ठीक
मध्य में स्वर्ण सिंहासन रचा जाता है, पूर्वाभिमुख भगShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com