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* दीक्षा *
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१२ - बारहवाँ चौमासा परमात्मा चम्पा नगरी में बाद षण्मानिक ग्राम के बाहर काउसग्ग-ध्यान में शय्या - पालक के जीव ने पूर्व वर्णित उपसर्ग किया था.
बिराजे
प्रकाश - जैन धर्म में चतुर्मास की अत्याधिक महिमा है- मुनिजन एक जगह स्थिरता करते हैं, शास्त्र श्रवण कराते हैं, संघमें तपस्या का प्रवाह जोरों से बहता है. पर्वों की आराधना होती है, क्रिया-काण्ड और धर्म ध्यान अच्छा बनता है, भ्रमण के प्रतिबंध के कारण मुनियों को स्वाध्याय - ध्यान का सुन्दर अवसर मिलता है, दान पुण्य और स्वधर्मियों की सेवा का सुअवसर प्राप्त होता है, मुनिजनों की सेवा - सुश्रुषा का स्वर्णावसर उपलब्ध होता है—- भगवान् महावीर सिर्फ पहिला चतुर्मास तापस के निवेदन से रहे थे, बाद तो स्वयं ही रहे, किसी की प्रार्थना या विज्ञप्ति की प्रतीक्षा न की, न वे ऐसा चाहते थे; उनके चौमासे बड़े आदर्श थे. आज कलके मुनिवरों और मुनिजनों के चतुर्मास बड़े विचित्र ढंग से होते हैंआग्रह पूर्ण विनति हो, सब तरह अनुकूलता हो, हांजतें जहाँ पूरी होसकती हों, उत्सवों की भरमार हो, धूमधाम हो, पैसे खूब खर्चे जासकते हों; चहल-पहल बनी रहती हो. मन माना सब काम पूरा होता हो; वहीं पर चौमासा किया जाता है, गांवों और गरीब लोगों की प्रार्थना प्रायः ठुकरा
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