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* परिशिष्ट *
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से सद्मार्ग दिखया है, जिससे हीनातिहीन आत्मा भी अपना कल्याण कर सकती है और जिससे चिरस्थायी शान्ति स्थापन की जा सकती है.
मगर अगर आज हम महावीर के अनुयायियों पर दृष्टिपात करें तो वैपरित्य नज़र आता है, पारस्परिक क्लेश ने घर कर लिया है, मत भेदों के छोटे छोटे कारणों में बड़े बड़े पिसे जारहे हैं, असली तत्ववाद को दूर रखकर सामान्य क्रियावाद में सैनिकों की तरह झुंझ रहे हैं, प्रेम पर कुठारघात कर द्वेषाग्नि में जल रहे हैं, सर्वभक्षी अहंभाव की ज्वाला में भुन रहे हैं, उनके दिमाग को दिमक लग गई मालूम होती है, उसही का यह घोर परिणाम है, मतमतान्तरों ने तो इतना गज़ब ढाया है कि शान्ति और त्याग पाताल में जा पहुँचे हैं- कहाँ महावीर का तारणहार उपदेश आकाश से भी अधिक उदार और सागर से भी विशेष गंभीर और कहाँ आज जैन समाज संकीर्णता के दल-दल में फँस रहा है, उन्ही को सन्तान परस्पर लड़ झगड़ कर दुनिया की सपाटी पर से अपना अस्तित्व ( Existence ) उठाने की तैयारी कर रही है.
दीर्घतपस्वी भगवान् महावीर और महात्मा बुद्ध दोनों ही समकालीन थे और दोनों ही महा पुरुष निर्वाणवादी थे, दोनों एक ही लक्ष्य के अनुगामी थे, पर मार्ग
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