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* दीक्षा *
प्रकाश-संसार में खाने का त्याग सबसे कड़ा है, बुद्धिमान और संयमियों के भी हाथ-पैर यहाँ ठंडे पड़ जाते हैं, लालचु आदमी तो खाने के लिये दीर्घ-जीवन की माला फिराया करता है, अच्छा खाना और अधिक खाना, यह उसकी भागवती मान्यता ( १ ) होती है, ऐसे लोगों को नफा नुकशान का जरा भी भान नहीं रहता, पशु की तरह खाये जाना ही सार समझते हैं ; इधर सभ्य और समझदार मनुष्य अपने मौलिक जीवन निर्वाह के लिये भोजन करते हैं, यह भी प्रायः सादा और मित प्रमाण में होता है, वे भोजन के गुण-दोषों के ज्ञाता होते हैं ; पर इन दोनों दजों से परे रहने वाले तपस्वी कहलाते हैं , हाम दाम-ठाप सब कुछ होने पर भी या सुलभ भिक्षा की उपलब्धि होते भी भोजन का त्याग कर तपस्या करने वाले विरल व्यक्ति होते हैं.
करीब करीब सब धर्मों ने तपश्चर्या को आदर्श वस्तु मानी है, हिन्दुओं में महर्षियों ने भारी तपस्या की, मुसलमान लोग रोजा का पालन बड़ी खूबी से करते हैं, महात्मा गांधी ने भी तपस्या का महात्म्य समझा है और उसकी आचरणा कर सफलता प्राप्त की है- जैन धर्म ने तो तपश्चर्या को प्रधान स्थान दिया है, आज भी जैनियों की तपस्या के मुकाबले दुनिया में कोई खड़ा नहीं रह सकता,
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