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* कैवल्य *
१११] मिथ्या-अंधकार पलायन होने लगा, सर्वत्र आनन्द की लहरें उठने लगी, स्वर्ण युगका आरंभ होगया; महावीर देव प्रभाकर की तरह विश्वमें प्रकाश फैंकने लगे, जनता आनन्द मग्न बन गई ; एक तारणहार के दिव्य दर्शन ने संसार को शान्ति प्रदान की- क्या अपने लिये भी ऐसा सौभाग्य प्राप्त होसकता है ? जबाब में नकार सुनाई देगा; परन्तु हताश न होईये ! ऐसी पवित्र करणी करिये कि आगामी भव में महाविदेह में अपनी सब मुरादें पूरी हो सकें, प्रमाद को छोड़िये सब आशा लताएँ विकशित होंगी.
( गौतम ऋषि का गर्व ) देवों की वाणी सुनकर गौतम ऋषी ( इन्द्रभूति ) को अपार इर्ष्या उत्पन्न हुई, मनही मनमें गुनगुनाने लगेसर्वज्ञ तो मैं हूँ, मेरे सिवा दूसरा सर्वज्ञ कौन है ? लोग सर्वदा मूढ बने रहते हैं, पर देव भी आज दिग्मूढ बन गये हैं , जो मुझ सर्वज्ञ को छोड़कर अन्यत्र भटकते फिरते हैं. फिर सोचा- यह कोइ इन्द्र जाली होना चाहिए , इन्द्र जाल से सब देव और मनुष्य मोहित होजाते हैं, मैं इसका गर्व उतारूँगा (?) मेरे बिना इसकी पराजय ( Defeat ) करने में कोई समर्थ नहीं है; ऐसा विचार कर ५०० वि. द्यार्थियों को साथ लेकर समवसरण के प्रति प्रस्थान किया.
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