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* जन्म *
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आश्चर्य होगा कि मौष्ठिक प्रहार से सम्यक्त्व उपार्जन हो गया, जैनोंका सम्यक्त्व कहाँ कहाँ रहता है यह पता नहीं. शंका तो सहज ही होसकती है, पर इसमें जरा विचार करने से यह मामला समझ में आजायगा ; पहिले भगवान् के अतुल्य पराक्रम पर उस देव को विश्वास नहीं था और फिर प्रत्यक्ष अनुभव से श्रद्धा होगई; बस श्रद्धा का नाम ही सम्यक्त्व है - भगवान् को लेखशाला में भेजने का इरादा होना भी न्याय संगत नहीं है, संभवत: चरित्र की पूर्ति के लिये ऐसा लिखा गया होगा तो आश्चर्य नहीं - अभय दान से निर्भयता प्राप्त होती है और विद्या दान से विद्वता मिलती है; आप इन दोनों शुभ कार्यों को अपनाकर कुछ कृतार्थ होईये.
( विवाह )
अत्यधिक भोग सामग्री होने पर भी वर्धमान कुमार उससे उदासीन थे, सांसारिक प्रवृत्ति उनको जरा भी न रुचती थी, फिर भी योग्य प्रवृत्ति से वे बच नहीं सकते थे, जब बाल्य काल से मुक्त होकर भगवान् ने युवावस्था में पदार्पण किया तब अत्यन्त प्रेम पूर्वक पालन-पोषण करने वाली मातेश्वरी बोली- अहो मेरे प्यारे नन्दन ! तुम जैसे पुत्र पाकर ही मैं नर और नरेन्द्रों से, देव और देवेन्द्रों से पूज्य वन्द्य और स्तुत्य बनी हूँ, मेरा भारी सौभाग्य है
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