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* दीक्षा *
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का परित्याग कर अमीरी से असंख्य गुण उच्च 'फकीरी' धारण की, यानी त्यागमूर्ति बनें- क्या आप भी चारित्र ग्रहण कर अपना कल्याण करेंगे? कि मौलिक मानव जीवन योंही भौगिक वितण्डावाद (लाफालोर ) में पूरा करेंगे ? समय चेतने का है, सावधान होना चाहिए- कल्पसूत्रादि में इन्द्रों ने और नन्दिवर्धन ने सम्मिलित दीक्षा महो त्सव किया ऐसा लिखा है, इधर आचारांगादि सूत्र में इन्द्रों के महोत्सव का ही उल्लेख है और यह न्याय सङ्गत भी है, क्योंकि तमाम तीर्थंकरों के सर्व कल्याणकों में इन्द्र और देवों ने ही महोत्सव किये हैं- भगवान् के खंभे पर कम्बल का स्थापन नीतियुक्त और शोभास्पद प्रतीत नहीं होता, भगवान् सर्वथा नग्न थे, फिर एक स्कन्धे पर मात्र कम्बल रहे, यह निरुपयोगिता न्याय सङ्गत मालूम नहीं होती; संभव है दिगम्बर श्वेताम्बर के मत भेदने यह कार्य प्रक्षेप किया हो- भगवान् ने जिस तरह मुख्यतः आत्म साधन के लिए और गौणतः परोपकार के लिए चारित्र लिया और उसको साङ्गोपाङ्ग निभाया, उसी तरह पालन करने का संयमियों को पूर्ण प्रयत्न करना चाहिये.
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