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* श्रवशेष *
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( भावना का प्राधान्य )
तमाम धर्मों में भाव धर्म प्रधान है, और तमाम कर्मों में भावकर्म प्रधान है, अध्यवसायों से ही निकाचित कर्म बंधते हैं और इन ही से आत्म धर्म प्रकट होता है ' परिणामे बन्ध' यह सूत्र इसको प्रमाणित करता है; मुख्यत्वेन इरादा ही प्रधान वस्तु है, शेष सर्व कर्म सामान्य हैं, जिन पर जनता विशेष बल देती है; परन्तु गुण-श्रेणी तो भावना से ही तआलुक रखती है और उसही से सब कुछ होता है, इसके लिये पोतनपुर नगर के राजा ' प्रश्नचन्द्र राजर्षि का उदाहरण पर्याप्त है
एक मर्तबा राजर्षि तपोवन में कायोत्सर्गमय ध्यानस्थ थे, अपने राज्य पर आपत्ति का स्मरण हो आया; बस मन ही मन में युद्ध करने लगे, कुछ ख़याल होने से युद्ध हलका पड़ा, साधुत्व का विचार आने से उच्च भावनाएँ प्रकटीं; क्रमशः बढ़ती गई, आत्म मंथन से केवल - ज्ञान उत्पन्न होगया - प्रारंभ में सातवीं नरक के कर्माणु और क्रमशः यावत् पहिली के पापमय कर्माणु संचय हुए, बाद पुण्य प्रवृत्ति द्वारा प्रथम देवलोक से क्रमबद्ध सर्वार्थसिद्धतक के कर्म प्राप्त हुवे; अन्ततः उग्र भावना से पुण्य-पाप को हटा कर दिव्यज्ञान प्राप्त किया.
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