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* दीक्षा *
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दूसरे की मदद चाहते हैं, अन्य का मुंह ताकते हैं और दूसरों की दया पर जीते हैं; भगवान् महावीर ने इससे संसार को यह समझाया कि अपने पैरों पर खड़े रहो, यानी स्वावलम्बी(Self-supporting)बनो, किसी से दया की भिक्षा मत मांगो, रोती शक्ल से अपना जीवन मत विताओ-हां ! सामान्य लोगों के लिये इतना विशेष हो सकता है कि जहाँ तक शक्तिसम्पन्न न हो, वहाँ तक किसी महात्मा का सहारा लेकर योग्यता प्राप्त करो और फिर स्वयं कार्यकुशल बनकर मंजिल तय करो- यह कहा जासकता है कि इन्द्र ने यह महज़ गलती की कि भगवान की रुचि न होने पर भी व्यन्तर देव सिद्धार्थ को भगवान के पास छोड़ दिया; श्वेताम्बर शास्त्र इस को मानते हैं और हेमचन्द्राचार्य म० ने भी यह उल्लेख किया है। मान लिया जाय कि इन्द्र अपनी भक्ति को न रोक सका, तथापि कहना होगा कि सिद्धार्थ ने भगवान् के उपसर्गों के समय जरा भी रक्षा नहीं की; प्रत्युत स्थान-स्थान पर उपद्रव किया और अनैतिक व्यवहार कर भगवान् के जीवन को अनादर्श बनाया; अतः मानना होगा कि सिद्धार्थ का प्रकरण भी प्रक्षिप्त होना चाहिये- आचाराङ्गादि सूत्रों में इस का उल्लेख नहीं है.
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