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* जन्म *
(त्याग के सन्मुख ) भगवान् जब अट्ठाईस साल के थे तब माता-पिता का स्वर्ग होगया था, बारहवें देवलोक में पहुँच गये ; इस वक्त सारी प्रजाने मिलकर बृहद् भ्राता नन्दीवर्धन को तख्तनसीन कर नृपेन्द्र बनाये. पश्चात् शास्त्र-नीति और सुष्ठु व्यवहार के अनुसार प्रभुने बड़े भाई से दीक्षा के लिये इजाजत मांगी, पिता तुल्य भाई ने कहा-बंधो ! अभी माता-पिता का निधन हुवा ही है और तुम दीक्षा के लिए उद्यत होगए हो, यह तो 'क्षतः क्षार' जले पर नमक डालने जैसा है, वास्ते मैं अभी प्रव्रज्या की इजाजत नहीं देसकता, दो वर्ष ठहर जाने का मेरा आग्रह है. प्रभु ने प्रेमाङ्कित आग्रह को स्वीकार लिया. और साधु वृत्तिसे रहने लगे. भगवान के लिये तो घर और बन बराबर ही है
वनेऽपि दोषाः प्रभवन्ति रागीणां । गृहेऽपि पञ्चेन्द्रियनिग्रहस्तपः ॥ अकुत्सिते कर्मणि य: प्रवर्तते ।
निवृत्त रागस्य गृहे तपोवनम् ।। १॥
भावार्थ-रागी मनुष्यों को वन में बसने पर भी विकार उत्पन्न होता है, और पंवेन्द्रीय निग्रही घर में भी तपस्वी है; जो सत्कर्म में प्रवृत्त है , उस नीरागी के लिए
घर भी तपोवन है. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com