Book Title: Dharmopadesh Shloka
Author(s): Sushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वमुनिपतिविरचित धर्मोपदेश-श्लोकाः AMERRIES SAGARMATER DA on2020RRO 00AS 100000000 0000 0000 100.00 ००००० 00 0000000 0000000000000000 0000000000 0000000000 २००० ०००००० ०० 00000 ७७ ००००००10000,000 000 गरिस अनुवादकर्ता : आचार्य श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वर जी म. सा. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 श्रीनेमि-लावण्य-दक्ष-सुशीलग्रन्थमाला रत्न ८५ वा 卐a 95595555555555555555555555555999999 5步步步 पूर्वमुनिपतिविरचित * धर्मोपदेश-श्लोकाः * 55555 94545555555555555555555555555559) तस्योपरि संस्कृत-हिन्दीभाषायां अनुवाद-कर्ता पंन्यासश्रीसुशीलविजयोगणी वर्तमानाचार्यदेवश्रीमद्विजयसुशीलसूरिः * सम्पादक: * पंन्यासश्रीजिनोत्तमविजयो गणी * प्रकाशिका * 'श्रीसुशील-साहित्य-प्रकाशन-समितिः' जोधपुर (राजस्थान) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वीर सं. २५१६ विक्रम सं. २०४६ नेमि सं. ४४ 5 प्रतियाँ 1 ५०० प्रथमावृत्ति मूल्य ११) रुपये * प्राप्ति-स्थान x [ १ ] श्राचार्यश्री सुशील सूरि जैन ज्ञान मन्दिर शान्तिनगर, सिरोही ( राजस्थान ) [ २ ] श्री नेमिनाथ जैन श्वेताम्बर तीर्थ अम्बाजीनगर, फालना ( राजस्थान ) [ ३ ] श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ जैन ट्रस्ट अगासीतीर्थ, विरार (महाराष्ट्र ) * मुद्रक *. ताज प्रिन्टर्स, जोधपुर ( राजस्थान Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स...म...पं.ण... - ' • जैनधर्मदिवाकर • जिनशासनशणगार • शासनरत्न • तीर्थप्रभावक ___ • राजस्थानदीपक • मरुधरदेशोद्धारक • शास्त्रविशारद • साहित्यरत्न • कविभूषण • श्रुत - संयम - वय स्थविर • सुगीतार्थ - महापुरुष • सक्रियापात्र • सुगृहीतनामधेय • प्रातःस्मरणीय • नित्यवन्दनीय • परमपूज्य - परमोपकारी • प्राचार्य गुरुदेव श्रीमद् विजयसुशीलसूरीश्वरजी महाराज साहब केकर-कमलों में यह कृति सादर समर्पित -पंन्यास जिनोत्तमविजयगणी Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पुरोवचन भगवद् कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने मुनिधर्म में ध्यान और अध्ययन करना मुख्य बताया है । इनके बिना मुनिधर्म का पालन करना व्यर्थ है भाणाज्भयणं मुक्खं जइ धम्मे तं विणा तहा सो वि ॥१०॥ - रयरणसार प्राचीन ऋषि-मुनि ध्यान और स्वाध्याय में ही अपना उपयोग स्थिर करते थे और अपने गहन अध्ययन के फलस्वरूप स्व-पर उपकार के निमित्त अपने ज्ञान को सूत्रबद्ध या काव्यबद्ध कर शुभोपयोग में रत रहते थे । मूलतः ऐसी रचनायें स्वान्तः सुखाय हुआ करती थीं तभी तो उनमें से अधिकांश के रचनाकार, रचनाकाल आदि के सम्बन्ध में आज हमें कोई जानकारी नहीं मिलती। जैन रचनाकारों की संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश में ऐसी अनेकानेक रचनाएँ हस्तलिखित ग्रन्थभण्डारों में आज भी उपलब्ध हैं । सम्यक् सम्पादन सहित उनके प्रकाशन की प्राज महती आवश्यकता है । T ( ४ ) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसन्नता का विषय है कि ऐसी ही एक रम्यरचना का प्रकाशन सुशील साहित्य प्रकाशन समिति, जोधपुर 'धर्मोपदेशश्लोकाः' शीर्षक से कर रही है जो 'पूर्वमुनिपति' विरचित है। आज इन रचनाकार के सम्बन्ध में और इस रचना के लेखनकाल के विषय में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है, अन्यथा सम्पादक मुनिश्री इस सन्दर्भ में अवश्य कलम चलाते, अस्तु । १२६ श्लोकों की इस रचना को सर्वजनोपयोगी बनाने के लिए पूज्य आचार्यश्री विजय सुशील सूरि जी ने पर्याप्त श्रम किया है। वे स्वयं संस्कृत के सिद्धहस्त कवि और गद्यकार हैं। उन्होंने प्रत्येक श्लोक का पदच्छेद, अन्वय, शब्दार्थ, श्लोकार्थ (हिन्दी) और संस्कृत गद्य में अनुवाद लिखकर रचना को सर्वजनग्राह्य बना दिया है। रुचिशील जिज्ञासु इसका स्वाध्याय कर बहुत लाभान्वित होंगे। प्रवचनकारों व उपदेशकों के लिए तो यह कृति बहुत उपयोगी है, एक श्लोक को माधार बनाकर गुणविशिष्ट महापुरुष के चरित्र का आख्यान कर प्रवचनकार अपनी बात को श्रोताओं के हृदय में आसानी से प्रवेश करा सकता है। रचनाकार ने प्रत्येक श्लोक में एक गुण/भाव को विषय बनाया है और उसमें प्रसिद्ध विशिष्ट जन का उल्लेख भी किया है। अच्छा होता, सम्पादक मुनिश्री थोड़ा श्रम Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर इन विशिष्ट व्यक्तियों की कथाएँ भी संक्षेप में परिशिष्ट में सम्मिलित कर लेते तब यह कृति और अधिक उपयोगी हो जाती। रचनाकार ने अनुष्टुप् छन्द में दान, शील, तप, भक्ति, क्षमा, क्रोध, तृष्णा, अहंकार आदि अनेक गुणावगुणों पर काव्य-रचना कर आत्मविकास की प्रेरणा की है। यह छोटा छन्द याद करने में भी आसान है । मैं इस रम्य रचना को सुन्दर रीति से प्रकाशित करने हेतु 'प्रकाशन समिति' को हार्दिक बधाई देता हूँ तथा इसको सर्वजनग्राह्य बनाने वाले प्राचार्यदेवेश श्रीमद् विजय सुशोल सूरि जी के प्रति अपना आभार व्यक्त करता हूँ। प्राचार्यश्री अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी हैं और इस वृद्धावस्था में भी साहित्यसृजन में उनकी रुचि और तल्लीनता सर्वजनस्तुत्य है। मैं प्राचार्यश्री के स्वस्थ और दीर्घजीवन की कामना करता हूँ और अपेक्षा करता हूँ कि वे इसी तरह माँ सरस्वती के भण्डार को समृद्ध करते रहें । जोधपुर २ जून, १९६३ विनीत डॉ. चेतनप्रकाश पाटनी Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ प. पू. प्राचार्य भगवन्त श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वर जी म. सा. ॥ RNASI N 555 जज ॥ ....:.. पू. पंन्यास श्री जिनोत्तम विजय जी गणिवर्य म.卐पू. मुनि श्री रविचन्द्र विजय जी म. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मप्रभावक-कविदिवाकर देशनादक्ष पू. प्राचार्यदेव श्रीमद् विजय दक्ष सूरीश्वर जी म. सा. के वयोवद्ध शिष्यरत्न-सरलस्वभावी H - पू. मुनि श्री अरिहन्त विजय जी म. सा. आपश्री ने श्री वीशस्थानक तप की विधिपूर्वक आराधना की है। 卐 धन्य मुनिराज 卐 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ प्रकाशकीय - निवेदन है पूर्वमुनिपतिविरचित 'धर्मोपदेशश्लोकाः' इस नाम से समलंकृत यह लघु ग्रन्थ संस्कृत और हिन्दी भाषा युक्त प्रकाशित करते हुए हमें अति हर्ष-आनन्द हो रहा है। ___ यह ग्रन्थ प्राचीन है और संस्कृत भाषा में १२६ श्लोकों की रचना विविध महापुरुषों के नाम निर्देशपूर्वक सुन्दर की गई है। __इस ग्रन्थ के १२६ श्लोकों पर शास्त्रविशारद-साहित्यरत्न-कविभूषण परमपूज्य आचार्य गुरुदेव श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वर जी महाराज साहब ने अपने संयमजीवन की पूर्व अवस्था में पंन्यास पदवी प्राप्त करने के पश्चाद् पंन्यास पदवी में रहकर ही अपने अन्तेवासि (शिष्य) पूज्य मुनिराजश्री विबुध विजय जी म. की प्रार्थना-प्रेरणा से इस ग्रन्थ के प्रत्येक श्लोक का पदच्छेद, अन्वय, शब्दार्थ, श्लोकार्थ एवं संस्कृतानुवाद वि. सं. २०१७ की साल में गुजरात-अहमदाबाद-मांडवी की पोल के जैनउपाश्रय में Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने परम पूज्य प्रगुरुदेव प्राचार्यप्रवर श्रीमद्विजयलावण्यसूरीश्वर जी महाराज साहब के साथ में रहकर और चातुर्मास में ही लिख कर सुन्दर तैयार किया था। इसी लघुग्रन्थ को आज हमारी समिति ने २०४६ की साल में प्रकाशित किया है। यह कण्ठस्थ करने योग्य और व्याख्यान में अति उपयोगी है। इसका सम्पादन कार्य पूज्यपाद प्राचार्य महाराजश्री के विद्वान् शिष्यरत्न पूज्य पंन्यास श्री जिनोत्तम विजय जी गणिवर्य ने सुन्दर किया है। इस ग्रन्थ का पुरोवचन लिखने वाले डॉ. चेतनप्रकाश जी पाटनी ने ग्रन्थ के स्वच्छ, शुद्ध एवं निर्दोष प्रकाशन का कार्य अपनी देख-रेख में सुसम्पन्न किया है। पूज्यपाद प्राचार्य महाराज साहब की आज्ञानुसार हमारे प्रेस सम्बन्धी कार्य में पूर्ण सहकार देने वाले जोधपुर निवासी श्री सुखपाल चन्दजी भंडारी आदि हैं । इन सभी का हम हार्दिक आभार मानते हैं। -प्रकाशक ( ८ ) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम 8 * विषय * श्लोक संख्या पृष्ठ-संख्या १-६ । १०-१२ १३-१५ मङ्गलाचरणम् दानम् शीलम् तप १५-१६ २०-२१ २२ * २४ २५-२६ * ه भावः साधुसंसर्गः प्रतिमा प्रागमः देहफलम् वैयावृत्यम् भक्तिः धर्मरागः अन्तरायः समता क्रोधः पठनोद्यमः नियमः क्षमा क्रोधः पुण्यम् () * * २६ ३० ३१-३२ ३३-३५ * * ३७-३६ ४० Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ संख्या * * श्लोक संख्या ४१ ४२-४३ ४५ ४७-४८ ५० ५२-५३ ५४ * विषय * दुष्टात्मा धर्मोपदेशः . धर्मप्रभावः गुरुः द्रव्यवन्दनम् प्रभव्यः विषयाः अज्ञानतपः धर्ममनोरथः धर्मास्था भोग्यकर्म उत्सूत्रम् प्रव्रज्या (दीक्षा) सन्तोषः अलोभता तृष्णा लोभः साधुदर्शनम् धर्मधीः विषयाऽऽसक्तः धर्माऽऽचरणम् धर्मस्त्राता विषयः ५६-५७ ६१-६४ * ६७ * ७० Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ संख्या * * श्लोक संख्या ७१ ७२ * विषय 8 भोगाः धर्मः दुष्कृतनिन्दा अहङ्कारः गुरणश्रवणम् निकाचितकर्म ७४-७५ हिंसा ७७ ७८-७६ ८०-८१ ८२ परद्रोहः परनिन्दा कपटी श्राद्धः लोभी मतिः व्रतम् ८४ ८५ ८७ स्त्री orm or ur 9०० एमस ८६ भोगलालसा स्मयः (मानः) प्राज्ञा धर्मः जरत्वम् दानम् पुण्यहीनता प्रभावना विषयः अनित्यत्वम् ६१ ६२-६३ ६४ ( ११ ) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक संख्या E पृष्ठ संख्या १०० * ६६ * १०० * १०१ * १०२ * १०३-१०४ * १०५ * १०६ * १०७ * १०८ * १०६ * ११२ के विषय * मर्मभेदः विश्वासः प्रास्था सत्यम् असत्यम् नमस्कारः प्रबुद्धः सेवा धर्मः जिनस्तुतिः अभव्यः सौजन्यम् विनयी धर्मसमयः मन्मथः कर्मवैषम्यम् शान्तात्मा जिनाज्ञा वधः स्तेयम् चरमदेही लज्जा धर्मः दोषगुणाः सम्यक्त्वम् प्रशस्तिः ० ० ० ० ० ० ० ० or or or or or or now on Mom on our or or or w ० room o or in mx w 9 is woon in mx o wa morrow ma worrrrr or wom ११४ ११४ ११५ १२२ * ११६-१२० * १२१ * १२२ * १२३ * १२४ * १२५-१२६ * १-५ १२४ १२५ १२६ १२८ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ # ॐ ह्री अर्ह नमः ॥ ॥ विश्ववन्ध-विश्वविभु - श्रीमहावीरस्वामिने नमः ।। ॥ अनन्तलब्धिनिधान - श्रीगौतमस्वामिने नमः ॥ ॥ शासनसम्राट - श्रीमद्विजयनेमिसूरीश्वराय नमः । ।। साहित्यसम्राट्-श्रीमद्विजयलावण्यसूरीश्वराय नमः ।। 455555555559999655555555555555555555 $$$$$$$$$$$$$$ पूर्वमुनिपतिविरचित धर्मोपदेशश्लोकाः २ $$$$$$$$$$$$$$ 555555555555555555595555555555555 तस्योपरि संस्कृत-हिन्दीभाषायां अनुवादकर्तापंन्यासश्रीसुशीलविजयो गणी मङ्गलाचरणम् नत्वा जिनं महावीरं, गौतमस्वामिनं गुरुम् । सुधर्मस्वामिनं पूज्यं, पूर्वमुनिपति शुभम् ।। १ ।। स्मृत्वा श्रीनेमिसूरीशं, लावण्यसूरिशेखरम् । वाचकं गुरुदक्षाख्यं, भारतीमाहतीं तथा ॥ २ ॥ जिनधर्मोपदेशस्य, श्लोकानां क्रियते मया । पंन्यास - श्रीसुशीलेन, भाषायामनुवादकः ।। ३ ।। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दानम् * [१] धर्मरङ्गद्वारभूतं, सम्यक्त्वं लभते गृही। धनसार्थेशवद् दानात् , तीर्थकृत्कर्म चार्जयेत् ॥ १॥ पदच्छेदः-धर्मरङ्गद्वारभूतम् सम्यक्त्वम् लभते गृही धनसार्थेशवत् दानात् तीर्थकृत्कर्म च अर्जयेत् । अन्वयः-गृही धर्मरङ्गद्वारभूतम् सम्यक्त्वं लभते (तदा) दानात् धनसार्थेशवद् तीर्थकृत्कर्म च अर्जयेत् । ___ शब्दार्थः-गृही=गृहस्थ, धर्मरङ्गद्वारभूतं धर्मरूप रङ्गमञ्च का प्रवेश मार्ग, सम्यक्त्वम् = सम्यक्त्वपना, लभते = प्राप्त करता है। दानात्=दान से, धनसार्थेशवद=धनसार्थवाह की तरह, तीर्थकृतां कर्म तीर्थकृत्कर्म तीर्थङ्कर कर्म को, अर्जयेत् उत्पन्न करे। ____ श्लोकार्थः-जब गृहस्थ धर्म रूप रङ्गमञ्च के प्रवेशमार्ग रूप सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, तब दान देने से धनसार्थवाह की तरह तीर्थङ्कर कर्म का उपार्जन करता है । संस्कृतानुवादः-यदा गृहस्थः धर्मरूपरङ्गस्थलस्य प्रवेशमार्गरूपं सम्यक्त्वं प्राप्नोति तदा दानात् हेतोः धनसार्थवाहः इव तीर्थङ्करकर्म उत्पादयेत् ॥ १ ।। ( २ ) Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] दत्तं दानं सुपात्रेषु, बहुमानपुरस्सरम् । भवेदनन्तफलदं, निर्णयाच्छालिभद्रवत् ॥ २॥ पदच्छेदः-दत्तं दानम् सुपात्रेषु बहुमानपुरस्सरम् भवेत् अनन्तफलदम् निर्णयात् शालिभद्रवत् । __ अन्वयः-सुपात्रेषु बहुमानपुरस्सरम् दत्तं दानम् निर्णयात् शालिभद्रवत् अनन्तफलदम् भवेत् । शब्दार्थः-शोभनानि पात्राणि सुपात्राणि तेषु सुपात्रेषु = सत्पात्र में, बहुमानेन पुरस्सरं बहुमानपुरस्सरं = बहुमानपूर्वक, दत्तं दिया गया, दानम् = दान, निर्णयात् = निर्णय करने से, शालिभद्रवत् = शालिभद्र की तरह, अनन्तं च तत् फलं ददातीति अनन्तफलदम् अनन्तफल को देने वाला, भवेत् =होवे । ___ श्लोकार्थः-सत् पात्र में बहुमानपूर्वक दिया गया दान निर्णय करने से शालिभद्र की तरह अनन्त (अपरिमित) फल को देने वाला होता है। संस्कृतानुवादः-सत्पात्रेषु जनेषु बहुमानपूर्वकं प्रदत्तं दानम् निर्णयात् शालिभद्र इव अनन्तफलप्रदं भवति ॥ २ ॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - [३] पात्रदानमसमानहर्षतो यद्वितीर्णमपरत्र लभ्यते । तन्न चित्रकरमत्र यल्ललौ मूलदेवनृपतिश्च तत् फलम् ॥३॥ पदच्छेदः-पात्रदानम् असमानहर्षतः यद् वितीर्णम् अपरत्र लभ्यते तत् न चित्रकरम् अत्र यत् ललौ मलदेवनृपतिः च तत् फलम् । अन्वयः-असमानहर्षतः यत् वितीर्णम् पात्रदानम् , अपरत्र लभ्यते तत् न चित्रकरम् । मूलदेवनृपतिः तत् फलम् अत्र यत् ललौ। ___शब्दार्थः-असमानश्चासौ हर्षः तस्मात् असमानहर्षतः अद्वितीय प्रसन्नता से, यत् =जो, वितीर्णम् =दिया गया, पात्रदानम् - सुपात्रदान, अपरत्रपरलोक में, लभ्यते = प्राप्त किया जाता है, तत् वह, न = नहीं, चित्रकरम् =आश्चर्य कराने वाला, मूलदेवनृपतिः राजामूलदेव, तत् फलम् =उस फल को, अत्र=इस लोक में, यत् =जो, ललौ=प्राप्त किया । श्लोकार्थः-अद्वितीय हर्षपूर्वक इस लोक में दिये गये पात्रदान का फल परलोक में प्राप्त किया जाता है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है । मूलदेव राजा ने तो पात्रदान का फल इस लोक में ही प्राप्त किया था । संस्कृतानुवादः-असमानहर्षतः यत् पात्रे दत्तं दानं परलोके प्राप्यते तन्नास्माकं कृते चित्रकरमस्ति । परं च मूलदेवः नृपतिस्तु अत्रैव पात्रदानस्य फलं प्राप्तवान् इति ।। ३ ।। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समये सत्यपि प्राणी, सुपात्रं पोषयन् सुखी । अपोषयंश्च दुःखी स्यात् , यथा तद्धन-निर्धनौ ॥ ४ ॥ पदच्छेदः-समये सति अपि प्राणी सुपात्रं पोषयन् सुखी अपोषयन् च दुःखी स्यात् यथा तथा तत् धन-निर्धनौ । अन्वयः-समये सति अपि सुपात्रं पोषयन् प्राणी सुखी (भवेत्), अपोषयन् च दुःखी स्यात् यथा तत् धन-निर्धनौ। शब्दार्थः-समये सति अपि समय के होने पर, सुपात्रं= सत् पात्र को, पोषयन्=पोषण करता हुआ, प्रारणी प्राणधारण करने वाले जीव, सुखी (भवेत्) = सुखी होवें । च=ौर, अपोषयन्=पोषण नहीं करता हुआ जीव, दुःखी स्यात् दुःखी होवे। यथा=जैसे, धन-निर्धनौ=धन और निर्धन । श्लोकार्थः-समय-समय पर सुपात्र का अनुमोदन करते हुए प्राणी सुखी होता है और सत्पात्र का अनुमोदन नहीं करने वाला प्राणी दुःखी होता है। जैसे धन और निर्धन दुःखी हुए। ___संस्कृतानुवादः-काले सत्यपि सत्पात्रं जनमनुमोदमानः प्राणी सुखी भवेत् । सुपात्रञ्च अपोषयन् जनः दुःखी भवेत् । यथा धन-निर्धनौ अभवताम् ॥ ४ ।। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५] नेयो व्ययाद्यैः सार्थक्यमर्थोऽनर्थकरो यतः । तनयानामिव क्ष्मापामात्यश्रेष्ठिपुरोधसाम् ॥५॥ पदच्छेदः-नेयः व्ययाद्यः सार्थक्यम् अर्थः अनर्थकरः यतः तनयानाम् इव क्ष्मापामात्यश्रेष्ठिपुरोधसाम् । अन्वयः-अर्थः व्ययाद्यैः सार्थक्यम् नेयः यतः (सः) अनर्थकरः । क्ष्मापामात्यश्रेष्ठिपुरोधसाम् तनयानाम् इव । शब्दार्थः-अर्थः द्रव्य, धन। व्ययाद्यैः खर्च के द्वारा, सार्थक्यम् सफलता को, नेयः ले जाना चाहिए । यतः = क्योंकि, अनर्थकरः अनर्थ करने वाला, क्षमापामात्यश्रेष्ठिपुरोधसाम् राजा, मन्त्री, सेठ और पुरोहित के, तनयानामिव पुत्रों की तरह । श्लोकार्थः-मनुष्य को चाहिए कि वह द्रव्य को खर्च कर सफल बनावे। क्योंकि वैसा न करने पर द्रव्य अनर्थ करने वाला होता है। जैसे राजा, मन्त्री, सेठ और पुरोहित के पुत्रों के लिए वह धन अनर्थकारी हुआ। संस्कृतानुवादः-कुशलेन मानवेनार्थः व्ययं कृत्वा साफल्यं नेयः । यतो हि सः संचितोऽर्थः अनर्थकरो भवति । यथा क्षमापामात्यवेष्ठिपुरोहितानां पुत्राणां कृतेऽनर्थकरोऽभूत् ।। ५ ।। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६] दानं दद्याद् यथाशक्ति निः श्रेयसनिबन्धनम् । .. सुपात्रेषु गृही श्रीमान् , श्रेयांस इव सिद्धये ॥ ६ ॥ पदच्छेदः-दानं दद्यात् यथाशक्ति निःश्रेयसनिबन्धनम् , सुपात्रेषु गृही श्रीमान् श्रेयांसः इव सिद्धये । ...अन्वयः-गृही सुपात्रेषु यथाशक्ति निःश्रेयसनिबन्धनम् दानं दद्यात् सिद्धये श्रीमान् श्रेयांसः इव । शब्दार्थः-गृही=गृहस्थजन, सुपात्रेषु सत्पात्र में, यथाशक्ति शक्तिमनतिक्रम्य यथाशक्ति शक्ति के अनुसार, निःश्रेयसस्य निबन्धनं, निःश्रेयसनिबन्धनम् मुक्ति का मुख्य कारण, दानं त्याग, दद्यात् देना चाहिए। यथा जैसे, सिद्धये मुक्ति के लिए, श्रीमान् ऐश्वर्यशाली, श्रेयांसः इव-श्रेयांस राजा की तरह। श्लोकार्थः-गृहस्थ को सुपात्र में यथाशक्ति मुक्तिकल्याण का कारण दान देना चाहिए, जैसे कि सिद्धि के लिए राजा श्रेयांस ने दिया। ... संस्कृतानुवादः-धीमता गृहस्थेन सुपात्रेषु यथाशक्ति मुक्तिकारणभूतं दानं दातव्यम् । यथा नृपतिना श्रेयांसेन सिद्धये दानं दत्तमिति ।। ६ ।। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७ ] लक्ष्म्याः सारमसारायाः सुधीर्दानं समुद्धरेत् । कृपणत्वं परित्यज्याऽन्यथा सङ्कलवद् भवेत् ॥ ७ ॥ पदच्छेदः - लक्ष्म्या : सारम् असारायाः सुधीः दानं समुद्धरेत्, कृपणत्वं परित्यज्य अन्यथा सङ्कलवद् भवेत् । अन्वयः - सुधीः कृपणत्वं परित्यज्य प्रसारायाः लक्ष्म्याः सारम् दानं समुद्धरेत् अन्यथा सङ्कलवद् भवेत् । शब्दार्थः - लक्ष्म्याः लक्ष्मी का, सारम्=साररूप, असारायाः = निस्सार, सुधी = बुद्धिमान, दानं = दान, त्याग, समुद्धरेत् = करावें, कृपरणत्वं कंजूसीपने को, परित्यज्य = छोड़कर, अन्यथा = नहीं तो, सङ्कलवद् = सङ्कल की तरह, भवेत् = होवे | श्लोकार्थ :- बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह कंजूसी छोड़कर असारभूत लक्ष्मी का सार रूप दान करे । अन्यथा, दान न करने से मानव की गति सङ्कल की तरह होगी । संस्कृतानुवादः - बुद्धिमता जनेन कृपणत्वं त्यक्त्वा प्रसारायाः लक्ष्म्याः सारभूतं दानं करणीयम् । अन्यथा दानकरणाऽभावे तु तस्य सङ्कलवद् गतिः भवेत् ॥ ७ ॥ ( 5 ) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८] वल्लभं सर्वदानेभ्योऽभयदानं शरीरिणाम् । चौरस्येव ततस्तस्मिन् यतनीयं हितैषिभिः ॥८॥ पदच्छेदः-वल्लभं सर्वदानेभ्यः अभयदानं शरीरिणाम् चौरस्य इव ततः तस्मिन् यतनीयम् हितैषिभिः । अन्वयः-शरीरिणाम् सर्वदानेभ्यः अभयदानम् वल्लभम् ततः तस्मिन् हितैषिभिः चौरस्य इव यतनीयम् । शब्दार्थः-शरीरिणाम प्राणियों के, सर्वदानेभ्यः सब दानों से, अभयदानम् =अभयदान, वल्लभम् = प्रिय । ततः= इस कारण से, तस्मिन् = उसमें, हितैषिभिः=हित चाहने वालों के द्वारा, चौरस्य इव चोर की तरह, यतनीयम्=प्रयत्न करना चाहिए। श्लोकार्थः-देहधारियों के लिए सब दानों में अभयदान अत्यन्त प्रिय होता है। इस कारण उसमें अपने हित की कामना करने वाले मानवों को चौर की तरह प्रयत्नशील रहना चाहिए । ___ संस्कृतानुवादः-प्राणिनां कृते सर्वदानेभ्योऽपि अभयदानं प्रीतिकरं भवति । ततः अभयदाने स्वस्य कल्याणकांक्षिभिः सुतरां प्रयत्नो विधेयश्चौरस्येव ।। ८ ।। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६] प्रशस्यः स्यात् सुरेन्द्राणां, प्रारणी भूताभयप्रदः । इव पारावतत्राता, श्रीशान्तिः पूर्वजन्मनि ॥ ६ ॥ पदच्छेदः-प्रशस्यः स्यात् सुरेन्द्राणां प्राणी भूताभयप्रदः इव पारावतत्राता श्रीशान्तिः पूर्वजन्मनि । अन्वयः-भूताभयप्रदः प्राणी सुरेन्द्राणां प्रशस्यः स्यात् पूर्वजन्मनि पारावतत्राता श्रीशान्तिः इव । शब्दार्थः-भूतानां अभयप्रदः भूताभयप्रदः प्राणियों को अभय देने वाला, प्राणी मानव, सुराणां इन्द्राः तेषां सुरेन्द्राणां देवेन्द्रों का, प्रशस्यः प्रशंसनीय, स्यात् =होवे, पूर्वजन्मनि पूर्व जन्म में, पारावतस्य त्राता पारावतत्राता= कबूतर की रक्षा करने वाले, श्रीशान्तिः इव=श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्र की तरह। श्लोकार्थः-सब प्राणियों को अभय देने वाला प्राणी देवेन्द्रों की भी प्रशंसा का पात्र बनता है। जैसे पूर्व जन्म में कबूतर की रक्षा करने वाले श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र प्रशंसा के पात्र हुए। संस्कृतानुवादः-सर्वभूतानां अभयप्रदः मानवः देवेन्द्राणां अपि प्रशस्यो भवति । यथा पूर्वजन्मनि पारावतस्य रक्षां कृत्वा श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्रः सर्वेषां प्रशस्यतरः संजातः ।। ६ ।। ( १० ) Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * शीलम् [ १० ] परदारपरित्याग-ब्रह्मचर्यं य प्राचरेत् । स कष्टान्मुच्यते तत्र, सुदर्शननिदर्शनम् ॥ १० ॥ पदच्छेदः - परदारपरित्याग ब्रह्मचर्यं यः श्राचरेत् सः कष्टात् मुच्यते तत्र सुदर्शननिदर्शनम् । अन्वयः - यः परदारपरित्याग ब्रह्मचर्यं आचरेत् सः कष्टान् मुच्यते तत्र सुदर्शननिदर्शनम् । शब्दार्थः - परदाराणां परित्यागस्तेन ब्रह्मचर्यम् परदारपरित्यागब्रह्मचर्यम् = परायी स्त्री के परित्याग से ब्रह्मचर्य, यः = जो मनुष्य, प्राचरेत् = पालन करे । सः—वह मनुष्य, कष्टात् = दुःख से, मुच्यते = मुक्त होता है । तत्र = उसमें सुदर्शननिदर्शनम् = सुदर्शन श्रेष्ठी उदाहरण है । , श्लोकार्थ :- जो मनुष्य परदारा अर्थात् परायी स्त्री के परित्याग से ब्रह्मचर्य को श्राचरता है, वह मनुष्य दुःख से मुक्त होता है । उसमें सुदर्शन श्रेष्ठी उदाहरण है, अर्थात् सुदर्शन श्रेष्ठी का दृष्टान्त विद्यमान है । संस्कृतानुवादः - यो मनुष्यः परदारापरित्यागरूपं ब्रह्मचर्यं पालयति सः कष्टेभ्यः मुच्यते, यथा तत्र सुदर्शन - श्रेष्ठ्याः उदाहरणमस्ति ।। १० ।। ( ११ ) Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११] स्युः पारिणपल्लवस्थानि, सर्वसौख्यानि देहिनाम् । कष्टानि च क्षयं यान्ति, सीताया इव शीलतः ॥ ११ ॥ पदच्छेदः-स्युः पाणिपल्लवस्थानि सर्वसौख्यानि देहिनाम्, कष्टानि च क्षयं यान्ति सीतायाः इव शीलतः । . अन्वयः-शीलतः देहिनाम् सर्वसौख्यानि पाणिपल्लवस्थानि स्युः, सीतायाः इव कष्टानि च क्षयं यान्ति । शब्दार्थः-शीलतः पवित्र आचरण से, देहिनाम् = प्राणियों के, सर्वाणि च तानि सौख्यानि, सर्वसौख्यानि= सब प्रकार के सुख, पाणिपल्लवे तिष्ठमिति, पाणिपल्लवस्थानि=हाथ में रहने वाले, स्युः=होवें। सीतायाः इव सीता की तरह, कष्टानि दुःख, क्षयं नाश को, यान्ति प्राप्त होते हैं । __ श्लोकार्थः-शीलधर्म का पालन करने से प्राणियों के सब प्रकार के सुख हाथ में रहे हुए होते हैं। शीलधर्म का पालन करने से सीता की तरह सब दुःख नष्ट-नाश हो जाते हैं। संस्कृतानुवादः-शीलधर्मस्य पालनेन प्राणिनां सर्वसुखानि हस्तामलकवत् भान्ति । शीलधर्मस्य पालनात् सीताया इव प्राणिनो सर्वकष्टानि विनाशं गच्छन्तीति ॥ ११ ॥ ( १२ ) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२ ] अतिघोरतपःकर्माऽनुष्ठानेभ्योऽपि दुष्करम् । पालयन् ब्रह्मचर्य स्यात् प्रशस्यः स्थूलभद्रवत् ।। १२ ॥ पदच्छेदः-अतिघोरतपःकर्मानुष्ठानेभ्यः अपि दुष्करम्, पालयन् ब्रह्मचर्यं स्यात् प्रशस्यः स्थूलभद्रवत् । अन्वयः-अतिघोरतपःकर्मानुष्ठानेभ्यः अपि दुष्करं ब्रह्मचर्य पालयन् प्रशस्यः स्यात् स्थूलभद्रवत् । शब्दार्थः-तपश्च कर्म च अनुष्ठानं च तपःकर्मानुष्ठानानि अतिघोराणि च तानि तपःकर्मानुष्ठानानि तेभ्यः अतिघोरतपःकर्मानुष्ठानेभ्यः अति भयंकर तपकर्म और अनुष्ठानों से, अपि=भी। दुष्करं कठिन, ब्रह्मचर्य = ब्रह्मचर्यव्रत, पालयन्=पालन करते हुए, प्रशस्यः प्रशंसनीय, स्यात् होवे । स्थूलभद्रवत् स्थूलभद्र की तरह । श्लोकार्थः-अत्यन्त घोर तप और अनुष्ठानों से भी अत्यन्त कठिन ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए मानव स्थूलभद्र की तरह प्रशंसा का पात्र बनता है । ___ संस्कृतानुवादः-अतिघोरतपःकर्मानुष्ठानेभ्योऽपि अतिकठिनं ब्रह्मचर्य पालयन् मानवः प्रशंसापात्रं भवति । यथा स्थूलभद्रः प्रशंसापात्रम भवत् ।। १२ ।। . Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * तप के [ १३ ] कार्य विवेकिनाऽवश्यं, निजसामर्थ्यतस्तपः । वन्द्यः स्याद्धरिकेशीव निष्कुलोऽपि हि नाकिनाम् ॥ १३ ॥ पदच्छेदः-कार्यम्, विवेकिना अवश्यं निजसामर्थ्यतः तपः वन्द्यः स्यात् हरिकेशी इव निष्कुलः अपि हि नाकिनाम् । * अन्वयः-विवेकिना निजसामर्थ्यतः तपः अवश्यम् कार्यम् सः निष्कुलः अपि हरिकेशी इव नाकिनाम् वन्द्यः स्यात् । .... शब्दार्थः-विवेकिना=विचारशील मानव, निजसामर्थ्यतः अपनी शक्ति के अनुसार, तपः तपस्या को, अवश्यम्=जरूर, कार्यम् = करनी चाहिए। सः वह, निष्कुलः निन्दनीय कुलवाला, अपि = भी, हरिकेशी इव= हरिकेशी की तरह, नाकिनाम् = देवों का, वन्द्यः वन्दनीय, स्यात् होवे। श्लोकार्थः-विवेकशील मानव को चाहिए कि वह अपनी शक्ति के अनुसार तप अवश्य करे। वह निन्दनीय कुल वाला होने पर भी हरिकेशी की भाँति देवताओं को भी वन्दनीय हो जाता है । _ संस्कृतानुवादः-विवेकिना विमृश्यकारिणा मानवेन निजशक्त्यनुसारम् तपः अवश्यमेव कार्यम् । यतो हि सः निष्कुलोऽपि हरिकेशीव देवानां वन्दनीयो भवति ।। १३ ।। ( १४ ) Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४ ] दुःख-दारिद्रय-दौर्भाग्यः - दारुपुञ्जदवानलम् । तप्तं तपो मनोऽभीष्टं, साधयेन् नन्दिषेणवत् ॥ १४ ॥ ६. पदच्छेदः-दुःख-दारिद्रय-दौर्भाग्य-दारुपुञ्ज - दवानलम् तप्तं तपः मन: अभीष्टम् साधयेत् नन्दिषेणवत् । - अन्वयः-दुःख-दारिद्रय - दौर्भाग्य - दारुपुञ्जदवानलम् तप्तं तपः मनोऽभीष्टम् नन्दिषेणवत् साधयेत् । शब्दार्थः-दुःखं च दारिद्रयं च दौर्भाग्यं च तानि एव दारुपुञ्जस्तस्मै दवस्य अनलम् दवानलम् =दुःख, दरिद्रता और दुर्भाग्य रूप काष्ठ-समूह के लिए दवाग्नि-दावानल के सदृश, तप्तं तपा गया, तपः तपस्या, मनोऽभीष्टम् = मनोरथ को, नन्दिषेणवत्=नन्दिषेण की तरह । श्लोकार्थः-दुःख, दरिद्रता और दुर्भाग्य रूपी काष्ठसमूह के लिए दवाग्नि-दावानल के सदृश तपी गयी तपस्या मानव के मनोरथ को नन्दिषेण की तरह सफल करे । संस्कृतानुवादः-दुःख-दारिद्रय-दौर्भाग्यरूप-काष्ठसमूहस्य कृते दवानलस्य सदृर्श तप्तं तपः मानवस्य मनोरथान् नन्दिषेण इव साधयेत् ।। १४ ।। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५ ] पञ्चेन्द्रियवधाधुग्र-क्रूरकर्मकरोऽपि सन् । तपः प्रभावात् सुदृढ-प्रहारीव शिवं व्रजेत् ॥ १५ ॥ पदच्छेदः-पञ्चेन्द्रियवधाधुग्र-क्रूरकर्मकरः अपि सन् तपः प्रभावात् सुदृढ-प्रहारी इव शिवं व्रजेत् । अन्वयः-पञ्चेन्द्रियवधाधुग्र - क्रूरकर्मकरः अपि सन् (मानवः) तपः प्रभावात् सुदृढ-प्रहारी इव शिवं व्रजेत् । ___ शब्दार्थः-पञ्चेन्द्रियाणां वधः आदि अस्येति पञ्चेन्द्रियवधादि यत् उग्रं क्रूरं च कर्म करोतीति पञ्चेन्द्रियवधाधुग्रक्रूरकर्मकरः पञ्चेन्द्रियादि जीवों का वधादि उग्र और क्रूर कर्म करने वाला भी (मानव) तपसां प्रभावस्तस्मात्, तपःप्रभावात्=तप के प्रभाव से, सुदृढप्रहारीरिव=सुदृढ़प्रहारी की तरह, शिवं मोक्ष को, व्रजेत् =जावे। श्लोकार्थः-पंचेन्द्रिय जीवों के वधादि रूप उग्र और क्रूर कर्म करने वाला प्राणी भी तप के प्रभाव से सुदृढ़प्रहारी की तरह मोक्ष को साधे । ___ संस्कृतानुवादः-पञ्चेन्द्रियजीवानां वधादिउग्रक्रूरकर्मकरोऽपि सन् मानवः तपसां प्रभावात् सुदृढप्रहारीव मोक्षं गच्छेत् ।। १५ ।। ( १६ ) Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * भावः * [ १६ ] भव्यो लभेत भावेन, शिवशर्माणि निर्णयात् । इलाचीनन्दन इव, परिग्रहधरोऽपि सन् ॥ १६ ॥ पदच्छेदः-भव्यः लभेत भावेन शिवशर्माणि निर्णयात् इलाचीनन्दन इव परिग्रहधरः अपि सन् । . अन्वयः-परिग्रहधरः अपि सन् भव्यः निर्णयात् इलाचीनन्दन इव भावेन शिवशर्माणि लभेत । शब्दार्थः-परिग्रहं धरतीति परिग्रहधरः परिग्रह रखने वाला, अपि=भी, सन् होता हुआ, भव्यः= भविकजन, निर्णयात्=निर्णय करने से, इलाचीनन्दन इव इलाचीपुत्र की तरह, भावेन = शुद्ध भावना से, शिवशर्माणि मोक्ष के सुखों को, लभेत = प्राप्त करे । श्लोकार्थः-परिग्रह को धारण करते हुए भी भव्यजन शुद्ध निर्णय करने से इलाचीपुत्र की तरह शुद्ध भाव से मोक्ष के सुखों को प्राप्त करे। संस्कृतानुवादः-परिग्रहधरोऽपि सन् भव्यो जनः निर्णयात् इलाचीपुत्र इव शुद्धभावेन मोक्षस्य सुखानि प्राप्नुयात् ॥ १६ ॥ धर्मो-२ ( १७ ) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७ ] मुक्तिपद्धतिपाथेयं, शुभभावं दधत् सुधीः । मरुदेवास्वामिनीव, श्रीयते निर्वृतिश्रिया ॥ १७ ॥ पदच्छेदः-मुक्तिपद्धतिपाथेयं शुभभावं दधत् सुधीः मरुदेवास्वामिनी इव श्रीयते निर्वृतिश्रिया ।। अन्वयः-सुधीः मुक्तिपद्धतिपाथेयम् शुभभावं दधत् मरुदेवा स्वामिनी इव निर्वतिश्रिया श्रीयते । शब्दार्थः-शोभना धीर्यस्य सः सुधीः बुद्धिमान्, मुक्तेः पद्धतिः तस्याः पाथेयम् (पथि हितं पाथेयम्), मुक्तिपद्धतिपाथेयम् =मुक्तिमार्ग का पाथेय । शुभभावम् शुभभाव को, दधत् धारण करते हुए, मरुदेवास्वामिनी इव= मरुदेवास्वामिनी की तरह। निर्वतेः श्रीः तया निर्वृतिश्रिया=मोक्ष के सुख से, श्रीयते आश्रय किया जाता है । श्लोकार्थः-बुद्धिमान् मनुष्य मोक्षमार्ग के पाथेय रूप शुभ भाव को धारण करते हुए मरुदेवास्वामिनी की तरह मुक्तिलक्ष्मी द्वारा आश्रय किया जाता है । संस्कृतानुवादः-धीमान् मानवः मोक्षमार्गस्य पाथेयरूपं शुभभावं धारयन् मरुदेवास्वामिनीव मुक्तिलक्ष्म्या आश्रीयते ।। १७ ॥ ( १८ ) Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * साधुसंसर्गः * [ १८ ] देहिनः साधुसंसर्गात, क्षणमात्रं कृतादपि । सद्धर्मसम्मुखीनाः, स्युर्यथा सेचनकद्विपः ॥ १८ ॥ पदच्छेदः-देहिनः साधुसंसर्गात् क्षणमात्रम् कृतात् अपि सद्धर्मसम्मुखीनाः स्युः यथा सेचनकद्विपः । अन्वयः-क्षणमात्रम् अपि कृतात् साधुसंसर्गात् देहिनः सद्धर्मसम्मुखीनाः स्युः यथा सेचनकद्विपः । शब्दार्थः-क्षणमात्रम् अल्पसमय, अपि भी, कृतात्= किये गये। साधोः संसर्गस्तस्मात् साधुसंसर्गात् सज्जनों की सङ्गति से, देहिनः प्राणी या जीव, सद्धर्मे सम्मुखीन: सद्धर्मसम्मुखीनाः सद्धर्म में उन्मुख । स्युः होवे, यथा= जैसे, सेचनकद्विपः सेचनकनाम वाला हाथी । श्लोकार्थः-सज्जनों की क्षण मात्र भी की गई संगति से प्राणी सद्धर्म की तरफ अग्रसर होते हैं। जैसे सेचनक नाम का हाथी सद्धर्म के उन्मुख हुआ । संस्कृतानुवादः-क्षणमात्रमपि विहितात् शिष्टसंसर्गात् प्राणिनः सद्धर्मोन्मुखाः भवेयुः । यथा सेचनकनामा द्विपः सद्धर्मोन्मुखो जातः ।। १८ ॥ ( १६ ) Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - [ १६ ] सुधीमिष्ठसंसर्ग धर्मार्थी विदधीत यः । स भवेद् धर्मलाभाय, श्रीमदाकुमारवत् ॥ ११ ॥ पदच्छेदः-सुधीः धर्मिष्ठसंसर्गम् धर्मार्थी विदधीत यः सः भवेत् धर्मलाभाय श्रीमदाकुमारवत् । अन्वयः-धर्मार्थी यः सुधीः धर्मिष्ठसंसर्गम् विदधीत सः श्रीमदार्द्रकुमारवत् धर्मलाभाय भवेत् । शब्दार्थः-धर्म अर्थयतेऽसौ धर्मार्थी=धर्म में रुचि रखने वाला, यः=जो, सुधीः= बुद्धिमान, मिष्ठानां संसर्गस्तं धर्मिष्ठसंसर्गम् धर्मिष्ठ को सङ्गति, विदधीत=करे, सः= वह, श्रीमदाकुमारवत् श्रीमान् आर्द्रकुमार की तरह, धर्मस्य लाभस्तस्मै धर्मलाभाय धर्मप्राप्ति के लिए, भवेत् =होवे । ___ श्लोकार्थः-धर्म में रुचि रखने वाला जो बुद्धिमान् मनुष्य मिष्ठ लोगों की संगति करता है, वह श्रीमान् प्रार्द्रकुमार की तरह धर्मलाभ के लिए होती है । ___संस्कृतानुवादः-धर्मकाङ्क्षी यो धीमान् जनः मिष्ठः सह सङ्गतिं कुर्यात् सः श्रीमदार्द्रकुमार इव धर्मलाभाय भवेत् ॥ १६ ॥ ( २० ) Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रतिमा * [ २० ] भवेद् भावनया हीन-महदर्शनमङ्गिनाम् । भवान्तरेऽपि बोधाय, कमलश्रेष्ठिपुत्रवत् ॥ २० ॥ पदच्छेदः-भवेद् भावनया हीनम् अर्हत् दर्शनम् अङ्गिनाम् भवान्तरे अपि बोधाय कमलश्रेष्ठिपुत्रवत् । अन्वयः-अङ्गिनाम् भावनया हीनम् अर्हद्-दर्शनम् भवान्तरे अपि कमलश्रेष्ठिपुत्रवत् बोधाय भवेत् । शब्दार्थः-अङ्ग अस्ति येषान्ते तेषाम् अङ्गिनाम्= प्राणियों के, भावनया भावना से, हीनम् रहित, अर्हतः दर्शनम् अर्हद्दर्शनम् =अर्हन्त भगवन्त का दर्शन, भवान्तरे= दूसरे जन्म में, अपि भी, कमलश्रेष्ठिपुत्रवत् कमल सेठ के पुत्र की तरह, भवेत् होवे । श्लोकार्थः-प्राणिमात्र के लिए भावना से रहित श्री अरिहन्त परमात्मा का दर्शन दूसरे जन्म में भी कमल सेठ के पुत्र की तरह प्रतिबोध के लिए होता है । संस्कृतानुवादः-प्राणिनां भावनया हीनं-रहितमपि भगवतः अर्हतः दर्शनं भवान्तरेऽपि कमलश्रेष्ठिपुत्र इव बोधाय जायेत ।। २० ॥ ( २१ ) Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - [२१] अर्हतः प्रतिमामाँ , पूजयन् परमार्हतः । कुमारपालक्ष्मापाल इव सम्पदमश्नुते ॥ २१ ॥ पदच्छेदः-अर्हतः प्रतिमाम् अाम् पूजयन् परमार्हतः कुमारपालक्ष्मापालः इव सम्पदम् प्रश्नुते । अन्वयः-परमार्हतः अाम् अर्हतः प्रतिमां पूजयन् कुमारपालक्ष्मापालः इव सम्पदम् अश्नुते । शब्दार्थः-परमश्चासौ अर्हतः परमार्हतः श्री जिनेश्वर भगवान में अत्यन्त श्रद्धा रखने वाला, पर्चयितुं योग्या तां अाम्=पूजने के योग्य, अर्हतः श्री जिनेश्वर भगवान की, प्रतिमां मूर्ति को, पूजयन्=पूजा करता हुआ, कुमारपालक्ष्मापालः इव कुमारपाल राजा की तरह, सम्पदम् सम्पत्ति को, अश्नुते भोगता है। __ श्लोकार्थः-श्री जिनेश्वर भगवान में परम श्रद्धा रखने वाला भक्त पूजनीय श्री जिनेश्वर भगवान की प्रतिमा-मूर्ति को पूजता हुमा कुमारपाल राजा की तरह सब तरह की सम्पत्तियों को भोगता है । संस्कृतानुवादः-अर्हद्धर्मानुयायी पूज्यां श्रीमतः अर्हतः मूत्ति पूजयन् परमार्हतः कुमारपालभूपालरिव सम्पदं भुङ्क्ते ।। २१ ॥ ( २२ ) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रागमः * [२२] स्वल्पादप्यागमवचः, श्रवणात् क्षणमात्रतः । चिलातीनन्दनस्येव, भवेद् बोधः सुमेधसाम् ॥ २२ ॥ पदच्छेदः-स्वल्पात् अपि आगमवचः श्रवणात् क्षणमात्रतः चिलातीनन्दनस्य इव भवेद् बोधः सुमेधसाम् । अन्वयः-सुमेधसाम् स्वल्पात् अपि पागमवचः श्रवणात् क्षणमात्रतः चिलातीनन्दनस्य इव बोधः भवेत् । ___ शब्दार्थः-शोभना मेधा येषान्तेषाम् सुमेधसाम्बुद्धिमानों का, स्वल्पात्=अल्प से, अपि=भी, आगमस्य वचस्तस्य श्रवणं तस्मात् प्रागमवचः श्रवरणात् आगम के वचन सुनने मात्र से, क्षरणमात्रतः क्षण मात्र में, चिलातीनन्दनस्य इव=चिलातीपुत्र की तरह, बोध=ज्ञान, भवेत् होवे । श्लोकार्थः सुन्दर बुद्धि वालों को थोड़े से भी आगमवचन सुनने मात्र से क्षण मात्र में ही चिलातीपुत्र की तरह बोध हो जाता है। ___ संस्कृतानुवादः-प्रज्ञावतां जनानां स्वल्पादपि आगमवचनश्रवणात् क्षणमात्रतः चिलातीनन्दनस्य इव बोधो भवति ॥ २२ ॥ ( २३ ) - Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . * देहफलम् * . [ २३ ] विनश्वरौदारिकस्या-सारस्य वपुषः फलम् । तपः परोपकारादि गृह्णीयात् तुर्यचक्रिवत् ॥ २३ ॥ पदच्छेदः-विनश्वरौदारिकस्य असारस्य वपुषः फलम्, तपः परोपकारादि गृह्णीयात् तुर्यचक्रिवत् । अन्वयः-मानवः विनश्वरौदारिकस्य असारस्य वपुषः तपः परोपकारादि तुर्यचक्रिवत् गृह्णीयात् । शब्दार्थः-विनश्वरं च तत् औदारिकञ्च तस्य विनश्वरौदारिकस्य = विनाशशील और औदारिक, असारस्य सारहीन, वपुषः=शरीर का, तपश्च परोपकारश्च आदिर्यस्य तत् तपः परोपकारादि तप और परोपकार वाला, फलम् = फल, तुर्यचक्रिवत् चतुर्थ सनत्कुमार चक्री की तरह, गृह्णीयात् ग्रहण करे । श्लोकार्थः-मानव विनाशशील और औदारिक निस्सारभूत शरीर के तप और परोपकारादि फल को चतुर्थ सनत्कुमार चक्री की तरह ग्रहण करे । संस्कृतानुवादः- मानवः विनाशशीलौदारिकस्य निस्सारभूतस्य शरीरस्य तपःपरोपकारादिफलं चतुर्थचक्री इव गृह्णीयात् ।। २३ ।। ( २४ ) Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * वैयावृत्यम् * [ २४ ] यथाशक्ति ग्लानसाधु-वैयावृत्त्यादिभक्तितः । श्रमरणी पुष्पचूलेव, लभते परमं पदम् ॥ २४ ॥ पदच्छेदः-यथाशक्ति ग्लानसाधुवैयावृत्त्यादि भक्तितः श्रमणी पुष्पचूला इव परमं पदं लभते । अन्वयः-मानवः भक्तितः यथाशक्ति ग्लानसाधुवैयावृत्त्यादि श्रमणी पुष्पचूला इव परमं पदं लभते । शब्दार्थः-मानवः मनुष्य, भक्तितः भक्ति से, यथाशक्ति शक्ति के अनुसार, ग्लानाश्च ते साधवस्तेषां वैयावृत्त्यं आदिर्यस्य तत् ग्लानसाधुवैयावृत्त्यादि पीड़ित साधुओं की सेवा करने से, श्रमरणी=साध्वी, पुष्पचूला इव पुष्पचूला की तरह, परमं पदं मुक्ति को, लभते पाता है । श्लोकार्थः-मानव भक्तिपूर्वक दुःख से पीड़ित साधुओं की शक्ति के अनुसार सेवा करने से साध्वी पुष्पचूला की तरह परम पद (मोक्ष) को प्राप्त करता है । संस्कृतानुवादः-मानवो भक्तितः यथाशक्ति ग्लानसाधुसेवादिकरणेन श्रमणो पुष्पचूलेव परमं पदं (मोक्षं) प्राप्नोति ।। २४ ॥ ( २५ ) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * भक्तिः * [ २५ ] अर्हच्चत्यादिभक्त्यर्थं, जीवः कष्टान्यपि क्षमेत् । अष्टापदार्थ सगरचक्रिणस्तनया इव ॥२५॥ पदच्छेदः-अर्हत् चैत्यादि भक्त्यर्थम् जीवः कष्टानि अपि क्षमेत् सगरचक्रिणः तनयाः अष्टापदार्थ इव। अन्वयः-जीवः अर्हच्चैत्यादिभक्त्यर्थम् कष्टानि अपि क्षमेत् सगरचक्रिणः तनयाः अष्टापदार्थम् इव ।। __शब्दार्थः-अर्हच्चैत्यादि भक्त्यर्थम् =जिनेन्द्र भगवान के मन्दिरादि बनवाने की भक्ति के लिए, जीवः प्राणी, कष्टानि दुःखों को, क्षमेत् सहन करे, सगरचक्रिणः= सगरचक्रो के, तनयाः पुत्र, अष्टापदार्थम् =अष्टापदतीर्थ के लिए, इव तरह । श्लोकार्थः-प्राणी जिनेन्द्र भगवान के चैत्यादि-निर्माण हेतु अनेक दुःखों को भी सहन करे। जैसे सगरचक्री के पुत्रों ने अष्टापदतीर्थ के लिए कष्ट सहन किये थे। संस्कृतानुवादः-देहधारी जीवः अर्हच्चैत्यादिनिर्माणस्य भक्त्यर्थं दुःखानि अपि क्षमेत् । यथा सगरचक्रिणः पुत्राः अष्टापदार्थ कष्टानि से हिरे ॥ २५ ।। ( . २६ ) Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६ ] दद्याद् भागवती-भक्तिः, पदवीं परमेष्ठिनः । एकाऽपि भावतः क्लुप्ता, कूणिक्षोणिपतेरिव ॥ २६ ॥ पदच्छेदः-दद्याद् भागवती भक्तिः पदवीं परमेष्ठिनः एका अपि भावतः क्लुप्ता कूरिणक्षोणिपतेः इव । अन्वयः-कूणिक्षोणिपतेः इव एका अपि भावतः भागवती भक्तिः परमेष्ठिनः पदवीं दद्यात् ।। शब्दार्थः-कूरिपक्षोरिणपतेः इव कूणिराजा की तरह, एका अपि=एक भी, भावतः=भाव से, क्लुप्ता की गयी, भागवती भगवान सम्बन्धी, भक्तिः पूज्यों के प्रति अनुराग, परमेष्ठिनः=परमेष्ठी की, पदवी-पदवी को, दद्यात् =देवे । श्लोकार्थः-कूणिराजा की तरह भाव से की गयी एक भी भागवती-भक्ति परमेष्ठिपद प्रदान करे । संस्कृतानुवादः-कूणिक्षोणिपतेरिव एकापि भावतः रचिता भागवती-भक्तिः परमेष्ठिनः पदं दद्यात् ॥२६ ॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * धर्मरागः * . [ २७ ] आर्यः कुर्याद् धर्मराग-मस्थिमज्जाधिवासितम् । अभेद्यं तस्करक्लृप्त-नारी-कार्मणवद् दृढम् ॥२७॥ पदच्छेदः-आर्यः कुर्याद् धर्मरागम् अस्थिमज्जाधिवासितम् अभेद्यं तस्क रक्लुप्त-नारीकार्मणवद् दृढम् । अन्वयः-आर्यः अस्थि-मज्जाधिवासितम् अभेद्यं दृढं धर्मानुरागम् तस्करक्लुप्तनारीकार्मणवद् दृढम् । शब्दार्थः-आर्यः सज्जन मानव, अस्थि-मज्जाधिवासितम्=हड्डी और मज्जा की गहराई तक, दृढं मजबूत, अभेद्यं नहीं भेदने योग्य, धर्मानुरागम् धर्म के प्रति प्रेम, तस्कर-क्लुप्तनारीकार्मरणवद्=तस्कर से रचित नारीकार्मण की तरह, कुर्यात् करे । श्लोकार्थः-आर्य को चाहिए कि हड्डी और मज्जा की गहराई तक पहुँचे हुए दृढ़ और अभेद्य धर्मराग को तस्कर रचित नारीकार्मण की तरह करे । संस्कृतानुवादः-आर्यः अस्थि-मज्जाधिवासितं दृढमभेद्यञ्च धर्मानुरागं तस्करक्लुप्तनारीकार्मणवद् कुर्यात् ।।२७।। ( २८ ) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अन्तरायः * . [ २८ ] सुखाभिलाषी कस्यापि, न कुर्यादन्तरायकम् । दुर्विपाकस्तदुदयो, ढण्ढणाङ्गजवद् भवेत् ॥ २८ ॥ पदच्छेदः-सुखाभिलाषी कस्य अपि न कुर्यात् अन्तरायकम् दुर्विपाकः तदुदयः ढण्ढणाङ्गजवद् भवेत् । अन्वयः-सुखाभिलाषी कस्य अपि अन्तरायकम् न कुर्यात् दुर्विपाकः तदुदयः ढण्ढणाङ्गजवद् भवेत् । ___शब्दार्थः-सुखाभिलाषी=सुख चाहने वाला, कस्य= किसी को, अपि = भी, अन्तरायकम् - अन्तराय, विघ्न, न नहीं, कुर्यात् करे। दुर्विपाकः दुष्टपरिणामवाला, तदुदयः=उसका उदय, ढण्ढरणाङ्गजवद्... ढण्ढरणपुत्र की तरह, भवेत् =होवे । श्लोकार्थः-सुख चाहने वाला मानव किसी को भी अन्तराय (विघ्न) न करे। दुष्टपरिणाम और उसका उदय ढण्ढणपुत्र की तरह होवे । संस्कृतानुवादः-सुखाभिलाषी मानवः कस्यापि अन्तरायकार्य न कुर्यात् । यतो हि दुर्विपाकस्तदुदयः ढण्ढणपुत्र इव भवेत् ।। २८ । ( २६ ) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * समता * [ २६ ] श्रामण्यसारभूतायाः, समतायाः प्रभावतः । संसारपारगामीस्याच्छरीरी कूरगट्ट (ड्डु)वत् ॥२६॥ पदच्छेदः-श्रामण्यसारभूतायाः समतायाः प्रभावतः संसारपारगामी स्यात् शरीरी कूरगट्ट (ड्डु) वत् । अन्वयः-शरीरी कूरगट्टवत् श्रामण्यसारभूतायाः समतायाः प्रभावतः संसारपारगामी स्यात् । शब्दार्थः-शरीरी देहधारी मानव, कूरगट्ट (ड्डु) वत्=कूरगट्ट (ड्डु) की तरह, श्रामण्यसारभूतायाः= साधुओं के लिए सारभूत, समतायाः समता के, प्रभावतः प्रभाव से, संसारस्य पारं गच्छतीति संसारपारगामी संसार के पार पहुंचने वाला, स्यात् होवे । श्लोकार्थः देहधारी मानव कूरगट्ट (ड्डु) की तरह साधुओं के लिए सारभूत समता के प्रभाव से संसार रूपी समुद्र के पार पहुँचने वाला होवे । संस्कृतानुवादः-देहधारी मानवः कूरगट्ट (ड्डु) वत् श्रामण्यसारभूतायाः समतायाः प्रभावतः संसारपारगामी भवेत् ॥ २६ ॥ ( ३० ) Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * क्रोधः * [ ३० ] ज्वालाजिह्व जलेनेव, क्रोधं शमयता तथा । निर्वापयेत् परस्यापि, चण्डरुद्रस्य शिष्य वत् ॥ ३० ॥ पदच्छेदः-ज्वालाजि जलेन इव क्रोधं शमयता तथा निर्वापयेत् परस्यापि चण्डरुद्रस्य शिष्यवत् । अन्वयः-ज्वालाजि शमयता जलेन इव तथा चण्डरुद्रस्य शिष्यवत् परस्यापि क्रोधं निर्वापयेत् । शब्दार्थः-ज्वाला एव जिह्वा यस्य सः तं ज्वालाजिह्व=अग्नि को, शमयता=बुझाते हुए, जलेनेव= जल की तरह, तथा वैसे ही, चण्डरुद्रस्य चण्डरुद्र के, शिष्यवत् = शिष्य की तरह, परस्यापि दूसरे के भी, क्रोधं क्रोध को, निर्वापयेत् शान्त करे। श्लोकार्थः-अग्नि को शान्त करने वाले जल की भाँति चण्डरुद्र के शिष्य की तरह दूसरों के क्रोध को भी शान्त करे। ____ संस्कृतानुवादः-जातवेदसं शमयता नीरेणेव चण्डरुद्रस्यान्तेवासिवद् अन्येषामपि क्रोधं मानवः निर्वापयेत् ।। ३० ।। ( ३१ ) Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - * पठनोद्यमः * वार्द्धक्येऽपि विधातव्यो, धीमताऽध्ययनोद्यमः । यत् प्रसादं ददौ ब्राह्मी सूरेः श्रीवृद्धवादिनः ॥ ३१ ॥ पदच्छेदः-वार्द्धक्ये अपि विधातव्यः धीमता अध्ययनोद्यमः यत् प्रसादं ददौ ब्राह्मी सूरेः श्रीवृद्धवादिनः । अन्वयः-धीमता वार्द्धक्ये अपि अध्ययनोद्यमः विधातव्यः । ब्राह्मी सूरेः श्रीवृद्धवादिनः यद् प्रासादं ददौ । ___ शब्दार्थः=धीरस्ति अस्येति तेन धीमता=बुद्धिमान् द्वारा, वार्धक्येऽपि वृद्धावस्था में भी, अध्ययनस्य उद्यमः अध्ययनोद्यमः=पढ़ने का उद्यम, विधातव्यः=करना चाहिए, ब्राह्मी सरस्वती, श्रीवृद्धवादिनः सूरेः प्राचार्य श्री वृद्धवादी को, यत् प्रसादं जिस प्रसन्नता को, ददौ-- दिया। श्लोकार्थः-बुद्धिमान् मनुष्य को वृद्धावस्था में भी अध्ययन का उद्यम करना चाहिए। सरस्वतीदेवी ने श्रीवृद्धवादी प्राचार्य को जिसकी प्रसन्नता प्रदान की। संस्कृतानुवादः-बुद्धिमता जनेन वृद्धावस्थायामपि पठनस्योद्यमः कर्त्तव्यः । श्रीभगवती भारती श्रीवृद्धवादिनः सूरेः यत् प्रसादं दत्तवती ।। ३१ ।। ( ३२ ) Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३२ ] पठनायोद्यमः कार्यो, धर्मतः स्खलितोऽपि यत् । पठितः स्थानमागच्छे-च्छेच्छीरत्नाकरसूरिवत् ॥ ३२ ॥ पदच्छेदः-पठनाय उद्यमः कार्यः धर्मतः स्खलितः अपि यत् पठितः स्थानम् आगच्छेत् श्रीरत्नाकरसूरिवत् । अन्वयः-मानवेन पठनाय उद्यमः कार्यः, धर्मतः स्खलितः अपि जनः पठितः सन् श्रीरत्नाकरसूरिवत् स्थानम् प्रागच्छेत् । शब्दार्थः-मानवेन= मनुष्य के द्वारा, पठनाय =पढ़ने के लिए, उद्यमः परिश्रम, कार्यः करना चाहिए, धर्मतः= धर्म से, स्खलितोऽपि स्खलना को प्राप्त हुआ, पठितः सन् = पढ़ा हुआ, श्री रत्नाकरसूरिवत् श्री रत्नाकरसूरि की तरह, स्थानम् = अपनी पूर्व जगह पर, प्रागच्छेत् आवे । ___ श्लोकार्थः-मनुष्यमात्र को पढ़ने के लिए परिश्रम करना चाहिए। धर्म से स्खलना को प्राप्त हुआ भी मानव पढ़ता हुआ श्री रत्नाकरसूरि की तरह अपनी पूर्व की जगह पर आ जावे । संस्कृतानुवादः-मानवमात्रेण पठनार्थं उद्यमः कर्त्तव्यः । धर्मतः स्खलनां प्राप्तोऽपि पुनः पठितः सन् श्रीरत्नाकरसूरिवत् पूर्वस्थानमागच्छेत् ।। ३२ ।। धर्मो-३ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नियमः * [ ३३ ] निर्मितः फलदोऽल्पोऽपि, नियमः स्थिरचेतसाम् । ग्रन्थिमात्रकृतप्रत्या - ख्याने यक्षकर्पाद्दवत् ॥ ३३ ॥ पदच्छेदः - निर्मितः फलद: अल्पः अपि नियमः स्थिरचेतसाम् । ग्रन्थिमात्रकृतप्रत्याख्याने यक्षकपद्दिवत् फलदः भवति । । अन्वयः - स्थिरचेतसाम् अल्पः अपि निर्मितः नियमः ग्रन्थिमात्र कृतप्रत्याख्याने यक्षकपर्द्दिवत् फलदः भवति । शब्दार्थः- स्थिरचेतसाम् - स्थिर बुद्धि वालों का, निर्मितः = किया गया, अल्पः अपि = थोड़ा भी, नियमः = नियम, ग्रन्थिमात्रकृतप्रत्याख्याने = ग्रन्थिमात्र के लिए किये गये प्रत्याख्यान के विषय में, यक्षकर्पाद्दवत् = यक्षकपद्द की तरह, फलदः = फल प्रदान करने वाला, भवति = होता है । श्लोकार्थ :- स्थिर बुद्धि वाले मनुष्यों के लिए किया गया छोटा भी नियम, ग्रन्थिमात्र के लिए किये गये प्रत्याख्यान ( पच्चक्खारण- नियम ) के विषय में यक्षकर्पाद्द की तरह फलप्रद होता है । संस्कृतानुवादः - दृढधीमतां श्रल्पोऽपि कृतः नियम: ग्रन्थिमात्रकृत प्रत्याख्याने यक्षकपद्दिवद् फलप्रदो भवति ।। ३३ ।। ( ३४ ) Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३४ ] इहापि फलदायी स्या-नियमो वङ्कचूलवत् । निजसामर्थ्यतस्तस्माद्, गृह्णीयात्तं महामतिः ॥३४॥ पदच्छेदः-इह अपि फलदायी स्यात् नियमः वङ्कचूलवद् निजसामर्थ्यतः तस्मात् गृह्णीयात् तं महामतिः । अन्वयः-नियमः इहापि वङ्कचूलवत् फलदायी स्यात् तस्मात् महामतिः निजसामर्थ्यतः तं गृह्णीयात् । शब्दार्थः=नियमः नियम, व्रत, इहापि इस लोक में भी, वङ्कचूलवत् वङ्कचूल की तरह, फलदायी फल देने वाला, स्यात् होवे । तस्मात् इसलिए, महामतिः= बुद्धिमान्, निजसामर्थ्यतः-अपनी शक्ति से, तं=उस नियम को, गृह्णीयात् ग्रहण करे । श्लोकार्थः-ग्रहण किया गया नियम इस लोक में भी वङ्कचूल की तरह फल देने वाला होता है। अतः बुद्धिमान् अपनी शक्ति से उस नियम को ग्रहण करे । संस्कृतानुवादः-इह लोकेऽपि नियमः वङ्कचूल इव फलप्रदो भवति । अतः हेतोः महामतिः मानवः निजशक्त्यनुसारं तं नियमं गृह्णीयात् ।। ३४ ॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३५ ] यः कश्चिदपि कर्तव्यो, नियमो धर्ममिच्छुना । यदिहापि फलप्राप्त्य, कमलश्रेष्ठिवद् भवेत् ॥३५॥ पदच्छेदः-यः कश्चित् अपि कर्त्तव्यः नियमः, धर्मम् इच्छुना यत् इह अपि फलप्राप्त्यै कमलश्रेष्ठिवद् । . अन्वयः-धर्मम् इच्छुना यः कश्चिद् अपि नियमः कर्तव्यः यत् कमलश्रेष्ठिवद् इहापि फलप्राप्त्यै भवेत् । शब्दार्थः-धर्मम् =धर्म को, इच्छुना=चाहने वाले, यः जो, कश्चिद्=कोई, अपि = भी, नियमः=नियम, कर्तव्यः करना चाहिए। यत्-जो कि, कमलश्रेष्ठिवद= कमलसेठ की तरह, इहापि=इस लोक में भी, फलप्राप्त्यै = फल प्राप्ति के लिए, भवेत् होवे । श्लोकार्थः-धर्म को चाहने वाले मनुष्य को जो कोई भी नियम अवश्य ग्रहण करना चाहिए। वह नियम कमल सेठ की तरह इस लोक में भी फलप्राप्ति के लिए होता है। संस्कृतानुवादः-धर्ममभिलषता जनेन यः कश्चिदपि नियमः करणीयः । यत् कमलश्रेष्ठिवद् अस्मिन् लोकेऽपि फलप्राप्त्यै भवेदिति ।। ३५ ।। ( ३६ ) Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * क्षमा * [ ३६ ] असह्यान्यपि कष्टानि, शरीरी क्षमतेतराम् । क्षमाकवचसंनद्धः, सुकोशलमुनिर्यथा ॥३६ ॥ पदच्छेदः-असह्यानि अपि कष्टानि शरीरी क्षमतेतराम् । क्षमाकवचसंनद्धः सुकोशलमुनिः यथा । अन्वयः-क्षमाकवचसन्नद्धः शरीरी असह्यानि अपि । कष्टानि क्षमतेतराम्, यथा सुकोशलमुनिः । शब्दार्थ:-क्षमायाः कवचेन सन्नद्धः क्षमाकवचसन्नद्धः= क्षमारूपी कवच से ढका हुआ, शरीरी देहधारी मानव, असह्यानि नहीं सहन करने योग्य, कष्टानि दुःखों को, क्षमतेतराम् = सहन करें। यथा=जैसे, सुकोशलमुनिः= सुकोशल नामक मुनि। श्लोकार्थः-क्षमा रूपी कवच से ढका हुआ मानव असह्य कष्टों को भी सहन करे। जैसे सुकोशल मुनि ने कष्टों को सहन किया था । संस्कृतानुवादः-क्षमाकवचमिताङ्गः मानवः असह्यानि अपि कष्टानि क्षमतेतराम् । यथा सुकोशलमुनिना कष्टानि सोढानि ।। ३६ ॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * क्रोधः * [ ३७ ] कोपं न कुर्यानिर्वाण-मार्गलुण्टाकपोषकम् । कुणालानगरी - कायो - त्सर्गिक्षपकयोर्यतः ॥ ३७ ॥ . पदच्छेदः-कोपं न कुर्यात् निर्वाणमार्गलुण्टाकपोषकम्, कुरणालानगरी-कायोत्सगिक्षपकयो: यतः । अन्वयः-निर्वाणमार्गलुण्टाकपोषकम्, कोपं यतः कुणालानगरीकायोत्सर्गिक्षपकयोः इव न कुर्यात् । शब्दार्थः-निर्वाणस्य मार्गस्तस्य ये लुण्टाकास्तेषां पोषकस्तं मार्गलुण्टाकपोषकम मोक्षमार्ग के लुटेरों को पोषण देने वाला, कोपं क्रोध को, यतः क्योंकि कुणालानगरीषु कायोत्सर्गिनी यो क्षपको तयोः कुणालनगरीकायोत्सर्गिक्षपकयोः इव कुणालनगरी में कायोत्सर्ग करने वाले मुनियों की तरह, न कुर्यात् नहीं करना चाहिए। श्लोकार्थः-मोक्षमार्ग के लुटेरों का पोषण करने वाले क्रोध को कुणालानगरी में काउसग्ग करने वाले मुनियों की तरह नहीं करना चाहिए। संस्कृतानुवादः-मोक्षमार्गस्य तस्कराणां पोषकं क्रोधं कुणालानगरी कायोत्सर्गिक्षपकयोरिव न कुर्यात् ॥ ३७ ।। ( ३८ ) Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३८ ] क्रोधोद्धता मत्सरियो, मत्स्या इव परस्परम् । नरकं यान्ति निघ्नन्तः, सत्त्वान् रामसुभूम वत् ॥३८॥ पदच्छेदः-क्रोधोद्धताः मत्सरिणः मत्स्या इव परस्परम् नरकं यान्ति निघ्नन्तः सत्त्वान् रामसुभूमवत् । अन्वयः-क्रोधोद्धताः मत्सरिणः मत्स्या इव परस्परं सत्त्वान् निघ्नन्तः रामसुभूमवत् नरकं यान्ति । शब्दार्थ:-क्रोधेन उद्धताः क्रोधोद्धताः क्रोध से उद्धत, मत्सरिणः=ईर्ष्यालुजन, मत्स्या इव मछलियों की तरह, परस्परम् =अन्योन्य, एक-दूसरे को, सत्त्वान् = जीवों को, निघ्नन्तः=मारते हुए, रामसुभूमवत् रामसुभूम की तरह, नरकं नरक को, यान्ति जाते हैं । श्लोकार्थः-अत्यन्त क्रोधी और ईर्ष्यालुजन मछलियों की तरह परस्पर जीवों को मारते हुए रामसुभूम की तरह नरक में जाते हैं। . संस्कृतानुवादः-कोपोद्धताः मत्सरिणो जनाः मत्स्या इव अन्योऽन्यं जीवान् हिंसन्तः रामसुभूमवत् नरकं गच्छन्ति ॥ ३८ ॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६ ] कोपोऽग्निरिव सद्वस्तु, पित्राद्यपि प्रतापयेत् । यथा कूरिणनृपेणात्र, हतः श्रेणिकभूपतिः ॥ ३६ ॥ - पदच्छेदः - कोपः श्रग्निः इव सद्वस्तु पित्रादि अपि प्रतापयेत् यथा अत्र कूरिणनृपेण श्रेणिकभूपतिः हतः । अन्वयः - कोपः अग्नि इव पित्रादि सद्वस्तु प्रतापयेत् यथा अत्र कूरिणनृपेण श्रेणिक भूपतिः हतः । -- शब्दार्थ : - कोपः = क्रोध, अग्निरिव = अग्नि की तरह, पित्रादि = पिता आदि, सद्वस्तु श्रेष्ठ वस्तु को प्रतापयेत् = संताप देवे । यथा == जैसे, श्रत्र = इस विषय में, कूणिनृपेण = । कूणिराजा के द्वारा, श्रेणिकभूपतिः = श्रेणिक राजा, हतः = मारा गया । श्लोकार्थ :- क्रोध अग्नि की तरह पितादि सद्वस्तु को भी संतप्त करता है । जैसे कूरिणराजा के द्वारा श्रेणिक राजा मारा गया । संस्कृतानुवादः - कोपो वह्निरिव पित्रादिसद्वस्तु संतापयेत् । यथाऽत्र कूरिणनृपेण श्रेणिकभूपतिः हतः ।। ३६ ।। ( ४० ) - Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पुण्यम् * . [ ४० ] पुराकृतानां पुण्यानां, प्रभावादापदाऽप्यहो। पराभवति नो जन्तूच्छिशुत्वे कृष्णविष्णुवत् ॥ ४० ॥ पदच्छेदः-पुराकृतानां पुण्यानां प्रभावाद् आपदा अपि अहो पराभवति नो जन्तूच्छिशुत्वे कृष्णविष्णुवत् । अन्वयः-अहो आपदा अपि पुराकृतानां पुण्यानां प्रभावात् जन्तून् नो पराभवति शिशुत्वे कृष्णविष्णुवत् ।। ___ शब्दार्थः-आपदापि आपत्ति भी, पुराकृतानां पूर्व में किये गये, पुण्यानां पुण्यों के, प्रभावात्=प्रभाव से, जन्तून =जीवों को, नो=नहीं, पराभवति पराजित करती है। शिशुत्वे बाल्यावस्था में, कृष्णविष्णुवद्=कृष्ण और विष्णु की तरह। श्लोकार्थः-पूर्वकृत पुण्यों के प्रभाव से प्रापत्ति भी प्राणियों को पराजित नहीं करती है, जैसे कि (बचपन) बाल्यावस्था में कृष्ण और विष्णु को आपत्तियों ने पराजित नहीं किया। - संस्कृतानुवादः-अहो आपदपि पूर्वकृतपुण्यानां प्रभावात् जीवान् न पराभवति, यथा बाल्यकाले कृष्णविष्णुरिव ।। ४० ।। ( ४१ ) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दुष्टात्मा * [ ४१ ] जन्तूद्धरणबुद्धींश्च, श्रमरणांश्च महात्मनः । दुष्टात्मा पीडयन् पीडां, लभते नमुचिर्यथा ॥ ४१ ॥ पदच्छेदः-जन्तून् उद्धरणबुद्धीन् च श्रमणान् च महात्मनः दुष्टात्मा पीडयन् पीडां लभते नमुचिः यथा । अन्वयः-दुष्टात्मा जन्तून् उद्धरणबुद्धीन् च श्रमरणान् महात्मनः च पीडयन् पीडां लभते यथा नमुचिः । शब्दार्थः-दुष्टात्मा=दुष्टजन, जन्तून् जीवों को, उद्धरणबुद्धीन् = उद्धार करने की बुद्धिवालों को, श्रमणान् = साधुओं को, महात्मनः=महात्माओं को, पीडयन् पीड़ा देता हुआ, पीडां दुःख को, लभते पाता है। यथा = जैसे, नमुचिः =नमुचि । ___श्लोकार्थः-दुष्टात्मा मानव क्षुद्र जीवों को, उद्धार करने की बुद्धि वाले साधुओं और महात्माओं को पीड़ा देता हुआ स्वयं दुःख प्राप्त करता है; जैसे नमुचि ने दुःख प्राप्त किया । संस्कृतानुवादः-दुष्टात्मा मानवः क्षुद्रजन्तून् उद्धरणबुद्धीन् साधून महात्मनश्च पीडयन् स्वयं दुःखं प्राप्नोति । यथा नमुचिना दुःखमनुभूतम् ।। ४१ ।। ( ४२ ) Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * धर्मोपदेशः * [ ४२ ] धर्मोपदेशो दातव्यः, सुधिया बोधहेतवे । जितशत्रुक्षितिपति - यथाऽमात्यसुबुद्धिना ॥ ४२ ॥ पदच्छेदः-धर्मोपदेशः दातव्यः सुधिया बोधहेतवे जितशत्रुक्षितिपतिः यथा अमात्यसुबुद्धिना। अन्वयः-सुधिया बोधहेतवे धर्मोपदेशः दातव्यः यथा अमात्यसुबुद्धिना जितशत्रुक्षितिपतिः । . शब्दार्थः-सुधिया बुद्धिमान् के द्वारा, बोधहेतवे= बोध देने के लिए, धर्मोपदेशः धर्म का उपदेश, दातव्यःदेना चाहिए; यथा जैसे, अमात्यसुबुद्धिना=मन्त्री सुबुद्धि के द्वारा, जितशत्रुक्षितिपतिः=जितशत्रु नामक राजा। श्लोकार्थः-बुद्धिमान् को चाहिए कि वह ज्ञान देने के लिए धर्मोपदेश दे; जैसे अमात्य सुबुद्धि के द्वारा राजा जितशत्रु को धर्मोपदेश दिया गया था। संस्कृतानुवादः-बुद्धिमता बोधहेतवे धर्मोपदेशः प्रदातव्यः । यथा सचिवेन सुबुद्धिना जितशत्रुर्न पतिरुपदिष्टः ॥ ४२ ॥ ( ४३ ) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४३ ] वदेत् सदुपदेशं तु, चण्डस्यापि महामतिः । कदाचिदपि शान्त्यै स्याद् हरिभद्रगरणीन्द्रवत् ॥ ४३ ॥ पदच्छेदः-वदेत् सदुपदेशं तु चण्डस्य अपि महामतिः कदाचित् अपि शान्त्यै स्याद् हरिभद्रगणीन्द्रवत् । अन्वयः=महामतिः चण्डस्य अपि सदुपदेशं वदेत् कदाचित् हरिभद्रगणीन्द्रवत् शान्त्यै स्यात् । ___ शब्दार्थः-महामतिः=बुद्धिमान्, चण्डस्य क्रोधी को, अपि भी, सदुपदेशं अच्छा उपदेश, वदेत् =कहें । कदाचित् कभी, हरिभद्रगरणीन्द्रवत् हरि भद्रगणीन्द्र की तरह, शान्त्यै शान्ति के लिए, स्यात् होवे ।। श्लोकार्थः-बुद्धिमान् मनुष्य क्रोधी मनुष्य को भी सदुपदेश देवे। कदाचित् वह सदुपदेश हरिभद्रगणीन्द्र की तरह शान्ति के लिए होवे । संस्कृतानुवादः-प्राज्ञः चण्डस्यापि सदुपदेशं कथयेत् यतो हि कदाचिदपि सः उपदेशः हरिभद्रगणीन्द्र इव शान्त्य भूयात् ।। ४३ ।। ( ४ ) Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * धर्मप्रभावः * [ ४४ ] उपस्थितोऽपि प्रत्यूहो, जन्तूनां निष्फलो भवेत् । धर्मकर्मप्रभावेण, ज्ञानगर्भप्रधानवत् ॥४४॥ पदच्छेदः-उपस्थितः अपि प्रत्यूहः जन्तूनां निष्फल: भवेत् धर्मकर्मप्रभावेण ज्ञानगर्भप्रधानवत् । अन्वयः-जन्तूनां धर्मकर्मप्रभावेण उपस्थितः अपि प्रत्यूहः निष्फलः भवेत् ज्ञानगर्भप्रधानवत् । शब्दार्थ:-जन्तूनां प्राणियों के, धर्म-कर्मप्रभावेण= धर्म-कर्म के प्रभाव से, उपस्थितः अपि उपस्थित हुआ भी, प्रत्यूहः विघ्नः, निष्फलः निष्फल, भवेत् होवे, ज्ञानगर्भप्रधानवत् ज्ञानगर्भप्रधान की तरह । ___ श्लोकार्थः-प्राणियों के उपस्थित हुआ विघ्न भी धर्मकर्म के प्रभाव से निष्फल हो जाता है, जैसे ज्ञानगर्भप्रधान के विघ्न निष्फल हुआ। संस्कृतानुवादः-जीवानां धर्मकर्मप्रभावेण उपस्थितोऽपि विघ्नः निष्फलो भवेत्, यथा ज्ञानगर्भप्रधानस्य जातः ।। ४४ ।। ( ४५ ) Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गुरुः क [ ४५ ] धर्माधर्मफलं नान्यो, दर्शयेद् गुरुमन्तरा । प्रदेशिनृपवज्जन्तु, निरयाद् गुरुरुद्धरेत् ॥ ४५ ॥ पदच्छेदः-धर्माधर्मफलं न अन्यः दर्शयेत् गुरुम् अन्तरा प्रदेशिनृपवत् जन्तु निरयात् गुरुः उद्धरेत् । अन्वयः-गुरु' अन्तरा अन्यः धर्माधर्मफलं न दर्शयेत् प्रदेशिनृपवत् गुरुः जन्तु निरयात् उद्धरेत् । शब्दार्थः-गुरु =गुरु के, अन्तरा=बिना, अन्यः= दूसरा, धर्माधर्मफलं धर्म और अधर्म का फल, न=नहीं, दर्शयेत् दिखावे । प्रदेशिनृपवत्=प्रदेशी राजा की तरह, गुरुः गुरु, जन्तुं जीव को, निरयात् नरक से, उद्धरेत्= उद्धार करे । श्लोकार्थः गुरु के सिवाय दूसरा कोई भी धर्म और अधर्म के फल को नहीं दिखावे । प्रदेशी राजा की तरह गुरु ही जीवात्मा को नरक से बाहर निकालता है। ___संस्कृतानुवादः-गुरुमन्तरा अन्यः कश्चिदपि धर्माधर्मफलं न दर्शयेत् । प्रदेशिनृप इव गुरुः जन्तु नरकात् उद्धरति ।। ४५ ॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * द्रव्यवन्दनम् * [ ४६ ] . पालकस्येव नो जन्तोः, फलदं द्रव्यवन्दनम् । इहापि फलदा भाव-नतिः शाम्बकुमारवत् ॥ ४६ ॥ पदच्छेदः-पालकस्य इव नो जन्तोः फलदं द्रव्यवन्दनम् इह अपि फलदा भावनतिः शाम्बकुमारवत् ।। अन्वयः-जन्तोः द्रव्यवन्दनम् पालकस्य इव नो फलदम् इह अपि भावनतिः शाम्बकुमारवद् फलदा । शब्दार्थः-जन्तोः प्राणी का, द्रव्यवन्दनम् द्रव्यवन्दन, पालकस्य इव = पालक की तरह, नो नहीं, फलदम् = फल देने वाला, इहापि= इस लोक में, भावनतिः=भावनति, शाम्बकुमारवत्= शाम्बकुमार की तरह, फलदा=फल देने वाली। श्लोकार्थः-प्राणी को द्रव्यवन्दन करना पालक को तरह फलप्रद नहीं होता है। इस लोक में भी भावनति शाम्बकुमार की तरह फल देने वाली होती है। ___ संस्कृतानुवादः-जन्तोः द्रव्यवन्दनम् पालकस्येव फलप्रदं न भवति । अस्मिन् लोकेऽपि भावनतिः शाम्बकुमारवद् फलप्रदा भवति ।। ४६ ।। ( ४७ ) Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अभव्य * [ ४७ ] प्रभव्यो निर्दयः क्रूरः, कुर्वाणो नैव शङ्कते। अकार्यं वार्यमाणोऽपि, कुबुद्धिः पालको यथा ॥ ४७ ॥ पदच्छेदः-अभव्यः निर्दयः क्रूरः कुर्वाणः न एव शङ्कते अकार्यं वार्यमाणः अपि कुबुद्धिः पालकः यथा । अन्वयः-अभव्यः निर्दयः क्रूरः अकार्यं कुर्वाण: नैव शकते यथा वार्यमाणः अपि कुबुद्धिः पालकः । शब्दार्थः-अभव्यः अभव्य, निर्दयः=निर्दय, क्रूरः= क्रूर, अकार्य=बुरे काम को, कुर्वाणः करता हुआ, अपि= भी, नैव=नहीं, शङ्कते=शङ्का करता है, यथा जैसे, वार्यमाणः अपि-रोकने पर भी, कुबुद्धिः खराब बुद्धि वाला, पालक:=पालक । ___ श्लोकार्थः-अभव्य, निर्दय और क्रूर मनुष्य बुरे काम को करता हुआ भी शंका नहीं करता है। जैसे रोके जाने पर भी कुबुद्धि पालक ने शंका नहीं की। ___ संस्कृतानुवादः-अभव्यो निर्दयः क्रूरो मानवः अकार्य कुर्वाणोऽपि नैव शङ्कां करोति । यथा वार्यमाणेनापि कुबुद्धिना पालकेन शङ्का नैव कृता ।। ४७ ।। ( ४८ ) Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४८ ] निरपराधान् व्यसनी, जन्तून् व्यापादयन् जनः । अवश्यं नरकं गच्छेद्, यथा कालकसूरिकः ॥ ४८ ॥ पदच्छेदः-निरपराधान् व्यसनी जन्तून् व्यापादयन् जनः अवश्यं नरकं गच्छेद् यथा कालकसूरिकः । अन्वयः-व्यसनी जनः निरपराधान् जन्तून् व्यापादयन् अवश्यं नरकं गच्छेद् यथा कालकसूरिकः । शब्दार्थः-व्यसनी व्यसनवाला मनुष्य, जनः=मानव, निरपराधान् =निर्दोष, जन्तून् =जीवों को, व्यापादयन्= मारता हुआ, अवश्यं जरूर, नरकं नरक में, गच्छेत् = जावे, यथा=जैसे, कालकसूरिकः कालकसूरिक । श्लोकार्थः-व्यसनी मनुष्य निर्दोष प्राणियों का वध करता हुआ अवश्य ही नरक में जाता है। जैसे कालकसूरिक नरक में गया। संस्कृतानुवादः-व्यसनीमानवः निर्दोषान् जीवान् निघ्नन् अवश्यमेव नरकं गच्छति । यथा कालकसूरिकः प्राणिवधं कुर्वन् नरकं गतः ।। ४८ ॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * विषयाः * [ ४६ ] प्रासादयेन मुक्तिशर्म, विषयान् विषसंनिभान् । त्यजजीवोऽन्यथा स्वर्ण-कारवद् दुर्गतिं व्रजेत् ॥ ४६ ॥ पदच्छेदः-प्रासादयेत् मुक्तिशर्म विषयान् विषसंनिभान् त्यजन् जीवः अन्यथा स्वर्णकारवद् दुर्गतिं व्रजेत् । अन्वयः-जीवः विषसंनिभान् विषयान् त्यजन् मुक्तिशर्म प्रासादयेत् अन्यथा स्वर्णकारवद् दुर्गतिं व्रजेत् । शब्दार्थः-जीवः प्राणी, विषसंनिभान् विष समान, विषयान् विषयों को, त्यजन् = छोड़ता हुआ, मुक्तिशर्म = मुक्ति रूप कल्याण, प्रासादयेत्=प्राप्त करे, अन्यथा = नहीं तो, स्वर्णकारव=सुनार की तरह, दुर्गति- दुर्गति को, व्रजेत् जावे । श्लोकार्थः-प्राणी विष तुल्य सांसारिक विषयों का त्याग करते हुए मुक्तिरूप कल्याण को प्राप्त करे, नहीं तो स्वर्णकार-सुनार की तरह दुर्गति को प्राप्त करेगा। ___ संस्कृतानुवादः-मानवः विषतुल्यान् सांसारिकविषयान् त्यजन् मुक्तिशर्म प्रासादयेत्, अन्यथा स्वर्णकारवद् दुर्गति गच्छेत् ।। ४६ ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अज्ञानतपः * [ ५० ] अनन्तफलदं धर्मं त्यक्त्वाऽज्ञानतपो जनः । कुर्वन् नाडिन्धम इव, पश्चातापं समाचरेत् ॥ ५० ॥ पदच्छेदः-अनन्तफलदं धर्मं त्यक्त्वा अज्ञानतपः जनः कुर्वन् नाडिन्धमः इव पश्चातापं समाचरेत् । अन्वयः–जनः अनन्तफलदं धर्मं त्यक्त्वा अज्ञानतपः कुर्वन् नाडिन्धमः इव पश्चातापं समाचरेत् । शब्दार्थः - जनः = मानव, अनन्तफलदं = अपरिमित फल देने वाला, धर्मं = धर्म को, त्यक्त्वा = छोड़कर, अज्ञानतपः = अज्ञानरूपी तपस्या को, कुर्वन् = करता हुआ, नाडिन्धमः इव = नाडिन्धम की तरह, पश्चातापं - पश्चाताप को, समाचरेत्=करे । श्लोकार्थ :- मानव श्रनन्त फल देने वाले धर्म को छोड़कर अज्ञानरूप तप करता हुआ नाडिन्धम की तरह पश्चाताप करता है । संस्कृतानुवादः - मानवोऽनन्तफलदं धर्मं परिहाय अज्ञानतपः कुर्वन् नाडिन्धम इव पश्चातापं प्राप्नोति ।। ५० ।। ( ५१ ) Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * धर्ममनोरथः * [ ५१ ] अनाथिश्रमणस्येव, भवेत् सद्धर्मकर्मणः । मनोरथोऽपि जन्तूनां, नानातिच्छेदकः क्षणात् ॥ ५१ ॥ पदच्छेदः-अनाथिश्रमणस्य इव भवेत् सद्धर्मकर्मणः मनोरथः अपि जन्तूनां नानातिच्छेदकः क्षणात् । अन्वयः-अनाथिश्रमणस्य इव जन्तूनां सद्धर्मकर्मणः मनोरथः अपि नानार्तिच्छेदकः क्षणात् भवेत् । शब्दार्थः-अनाथिश्रमणस्य इव=अनाथिश्रमण की तरह, जन्तूनां प्राणियों का, सद्धर्मकर्मणः श्रेष्ठधर्म और कर्म करने का, मनोरथः अभिलाषा, नानातिच्छेदकः== अनेक कष्टों को नाश करने वाला, क्षणात् क्षणभर में, भवेत् होवे । श्लोकार्थः-अनाथिश्रमण (मुनि) की तरह प्राणियों का सद्धर्म और कर्म करने का मनोरथ भी क्षणभर में अनेक कष्टों का नाश करने वाला होवे ।। संस्कृतानुवादः-अनाथिश्रमणस्येव प्राणिनां सद्धर्मकर्मणः मनोरथो क्षणात् नानाकष्ट निवारकः भवेत् ॥ ५१ ।। ( ५२ ) Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * धर्मास्था * [ ५२ ] साधयेद् दृढधर्माऽऽस्थाऽत्रापि चिन्तितमुच्चकैः । राजताडवनी जाता, कुमारनृपतेरिव ॥ ५२ ॥ पदच्छेदः-साधयेत् दृढधर्मास्था अत्र अपि चिन्तितम् उच्चकैः राजताडवनी जाता कुमारनृपतेः इव । अन्वयः-मानवः दृढधर्मास्था अत्र अपि चिन्तितम् उच्चकैः राजताडवनी कुमारनृपतेः इव जाता । शब्दार्थः-मानवः= मनुष्य, दृढधर्मास्था-धर्म में दृढ़ विश्वास, साधयेत् साधे, अत्रापि = इस विषय में भी, उच्चकैः= अत्यन्त, चिन्तितम् = विचार किया, राजताडवनी राजताडवनी, कुमारनृपतेः इव कुमारपाल राजा की तरह, जाता हुई। श्लोकार्थः-मानव को धर्म में दृढ़ विश्वास रखना चाहिए। इस विषय में भी काफी विचार किया गया । राजताडवनी कुमारपाल राजा की तरह हुई। संस्कृतानुवादः-मानवः धर्मे दृढविश्वासं अर्जयेत् । अत्रापि उच्चकैः चिन्तितम् । राजताडवनी कुमारपालनृपतेरिव संजाता ।। ५२ ।। ( ५३ ) Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " [ ५३ ] धर्मादेव विलीयेत, जरा-मरण-जन्मभीः । अपि यत्नशतैर्नान्यैरिभ्यस्येव यमाचितुः ॥ ५३ ॥ पदच्छेदः-धर्मात् एव विलीयेत जरा-मरण-जन्मभी:, अपि यत्नशतः न अन्यैः इभ्यस्य इव यमाचितुः । अन्वयः-जरामरणजन्मभीः धर्मात् इव विलीयेत यमाचितुः इभ्यस्य इव अन्यैः यत्नशतैः अपि न । शब्दार्थः-जरामरणजन्मभीः वृद्धावस्था-बुढ़ापा मृत्युमरण और जन्म का भय, धर्मात् धर्म से ही, विलीयेत= नष्ट होवे । यमाचितुः=यम की पूजा करने वाले, इभ्यस्येव इभ्य की तरह, अन्यैः दूसरे, यत्नशतैः सैकड़ों प्रयत्नों से, न नहीं । श्लोकार्थः-वृद्धावस्था-बुढ़ापा, मृत्यु-मरण और जन्म का भय धर्म से ही नष्ट होता है। यम की अर्चना करने वाले इभ्य की तरह दूसरे सैकड़ों उपायों-प्रयत्नों से भी जरा, मरण और जन्म का भय दूर नहीं होता है । संस्कृतानुवादः-जरा-मरण-जन्मभीः धर्मादेव नाशं प्राप्नोति । यमाचितुः इभ्यस्येवान्यैः यत्नशतैरपि जरामरण-जन्मस्य भयं दूरं न गच्छति ।। ५३ ।। ( ५४ ) Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * भोग्यकर्म * [ ५४ ] नन्दिषेण इवावश्यं, भोग्यकर्माणि देहिनम् । अनिच्छुमपि भोगेच्छु, कुर्वन्ति क्षणमात्रतः ॥ ५४ ॥ पदच्छेदः-नन्दिषेणः इव अवश्यं भोग्य कर्माणि देहिनम् अनिच्छुम् अपि भोगेच्छु कुर्वन्ति क्षणमात्रतः । अन्वयः-भोग्यकर्माणि नन्दिषेणः इव अनिच्छुम् अपि देहिनम् भोगेच्छु अवश्यम् क्षणमात्रतः कुर्वन्ति । __ शब्दार्थः-नन्दिषेरणः इव नन्दिषेण की तरह, भोग्यकर्मारिण= भोगने लायक कर्म, अनिच्छुम् == नहीं चाहने वाले, देहिनम् = मनुष्य को, भोगेच्छुम् = भोग के प्रति उन्मुख, अवश्यम्=अवश्य, क्षएमात्रतः =क्षणमात्र में, कुर्वन्ति=करते हैं। श्लोकार्थः-भोग्यकर्म नन्दिषेण की तरह नहीं चाहने वाले मानव को भी भोग के प्रति क्षणमात्र में ही अवश्य उन्मुख करते हैं। संस्कृतानुवादः-भोग्यकर्माणि नन्दिषेण इव अनभिलषन्तं प्राणिनं भोगेच्छु अवश्यमेव क्षणमात्रतः कुर्वन्ति नात्र संशयः ।। ५४ ।। ( ५५ ) Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * उत्सूत्रम् * [ ५५ ] निरूपयन्नागमार्थ - मप्युत्सूत्रं प्ररूपयन् । परिभ्रमति संसार, कमलप्रभसूरिवत् ॥ ५५ ॥ पदच्छेदः-निरूपयन् प्रागमार्थं अपि उत्सूत्रं प्ररूपयन् परिभ्रमति संसारं कमलप्रभसूरिवत् । अन्वयः-मानवः आगमार्थम् निरूपयन् अपि उत्सूत्रं प्ररूपयन् कमलप्रभसूरिवत् संसारं परिभ्रमति । शब्दार्थः-मानवः मनुष्य, प्रागमार्थम् आगमों के अर्थ को, निरूपयन बताता हुआ, अपि=भी, उत्सूत्रं सूत्रार्थ से विपरीत, प्ररूपयन् = प्ररूपणा करता हुआ, कमलप्रभसूरिवत् कमलप्रभसूरि की तरह, संसारम् =संसार में, परिभ्रमति परिभ्रमण करता है । श्लोकार्थः-मानव आगमों के अर्थ को बताता हुआ भी सूत्रार्थों के विपरीत उसकी प्ररूपणा करते हुए कमलप्रभसूरि की तरह संसार में परिभ्रमण करता रहता है । संस्कृतानुवादः-मानवः आगमार्थं निरूपयनपि उत्सूत्रं प्ररूपयन् कमलप्रभसूरिवत् संसारं परिभ्रमति ।। ५५ ।। ( ५६ ) Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रव्रज्या (दीक्षा) * [ ५६ ] मनोऽभीष्टपदप्राप्त्य, प्रव्रज्याऽप्येकरात्रिकी । भवेदाराधिता सम्य - गवन्तिसुकुमालवत् ॥ ५६ ॥ पदच्छेदः-मनः अभीष्टपदप्राप्त्यै प्रव्रज्या अपि एकरात्रिकी भवेत् आराधिता सम्यग् अवन्तिसुकुमालवत् । अन्वयः-सम्यक् पाराधिता एकरात्रिकी अपि प्रव्रज्या मनोऽभीष्टपदप्राप्त्यै अवन्तिसुकुमालवत् भवति । शब्दार्थः-सम्यग् =अच्छी तरह, आराधिता=आराधना की गयी, एकरात्रिकी अपि एकरात्रि मात्र की भी, प्रव्रज्या=दोक्षा, मनोऽभीष्टपदप्राप्त्यै-- मनवांछित पद की प्राप्ति हेतु, अवन्तिसुकुमालवत् अवन्तिसुकुमाल की तरह, भवति = होती है। - श्लोकार्थः-अच्छी तरह से आराधना की गयी एकरात्रिमात्र की भी प्रव्रज्या-दीक्षा मनवांछित पद की प्राप्ति हेतु अवन्तिसुकुमाल की तरह होती है। __संस्कृतानुवादः-सम्यग् आराधितैकरात्रिक्यपि प्रव्रज्या (दीक्षा) मनोऽभीष्टपदेप्राप्त्यै अवन्तिसुकुमाल इव भवति ।। ५६ ।। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५७ ] समाराधितमव्यक्त - तयाऽपि चरणं शुचि । भवेदनन्तफलद मिव सम्प्रतिभूपतेः ॥ ५७ ॥ पदच्छेदः - समाराधितम् अव्यक्ततया अपि चरण शुचि भवेत् अनन्तफलदम् इव सम्प्रतिभूपतेः । अन्वयः - श्रव्यक्ततया प्रपि समाराधितम् शुचि चरणम् सम्प्रति भूपतेः इव अनन्तफलदं भवेत् । शब्दार्थः-श्रव्यक्ततया= अस्पष्टरूप से, समाराधितम् = आराधना किया गया, शुचि = पवित्र चरणम् = आचरण, सम्प्रतिभूपतेः सम्प्रतिराजा की तरह, अनन्तफलदं = अपरिमित फल देने वाला, भवेत् होवे । श्लोकार्थः-अस्पष्टरूप से भी आराधना किया गया पवित्र आचरण सम्प्रतिराजा की तरह अनन्तफल देने वाला होता है । संस्कृतानुवादः-अस्पष्टतयाऽपि समाराधितम् शुचि आचरणं सम्प्रतिभूपतेरिव श्रनन्तफलदं भवेत् ।। ५७ ।। ( ५८ ) Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सन्तोषः * [ ५८ ] निःसीमलोभपाथोधि सेतु सन्तोषमाचरेत् । यस्माद् भवेदसन्तोषी, दुःखी सुभूमचक्रिवत् ॥ ५८ ॥ पदच्छेदः - निःसीमलोभपाथोधिसेतुम् सन्तोषम् नाचरेत् यस्मात् भवेत् असन्तोषी सुभूमचक्रिवत् । अन्वयः-यस्मात् (मानवः) निःसीमलोभपाथोधिसेतुम् सन्तोषम् श्राचरेत् । असन्तोषी सुभूमचक्रिवत् दुःखी भवेत् । शब्दार्थः- यस्मात् = जिससे, (मानवः = मनुष्य, ) निःसीमलोभपाथोधिसेतुम् =श्रमर्यादित लोभ रूप समुद्र के लिए पुल सदृश सन्तोष को धारण करे | असन्तोषी व्यक्ति सुभूमचक्री की तरह, दुःखी दुःख से युक्त, भवेत् = होवे । = श्लोकार्थः- मानव अमर्यादित लोभरूप समुद्र के लिए पुल समान सन्तोष को धारण करे । अन्यथा असन्तोषी व्यक्ति भूमचक्री की तरह दुःखी होता है । संस्कृतानुवादः - यस्मात् मानवः निःसीमलोभपाथोधिसेतु ं सन्तोषं प्रचरेत् । यतो हि असन्तोषीजनः सुभूमचक्रिवत् दुःखी भवति ।। ५८ ।। । ( ५६ ) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अलोभता * [ ५६ ] जगति दुर्गतिमूलनिबन्धनं, जिनवरनिरधारि परिग्रहः । तदभिघातनिमित्तमलोभतां, कपिलसाधुवदाश्रय सज्जन ! ५६ पदच्छेदः-जगति दुर्गतिमूलनिबन्धनम् जिनवरैः निरधारि परिग्रहः तत् अभिघातनिमित्तम् अलोभताम् कपिलसाधुवद् आश्रय सज्जन ! ___अन्वयः-जिनवरैः दुर्गतिमूलनिबन्धनम् परिग्रहः निरधारि, तदभिघातनिमित्तम् हे सज्जन ! कपिलसाधुवद् प्रलोभतां आश्रय । शब्दार्थः-जिनवरैः जिनेन्द्रों ने, दुर्गतिमूलनिबन्धनम् = दुर्गति का मूल कारण, परिग्रहः परिग्रह को, निरधारि= निश्चय किया है। तदभिघातनिमित्तम् =उस परिग्रह को नाश करने का कारण, अलोभतां अलोभपने को, कपिलसाधुवद् - कपिलसाधु की तरह, पाश्रय पाश्रय करो। श्लोकार्थः-जिनवरों ने दुर्गति का मूल कारण परिग्रह को निश्चित किया है। उस परिग्रह को नाश करने के कारण अलोभपने का हे सज्जन ! कपिलसाधु की तरह प्राश्रय करो। संस्कृतानुवादः-जिनेन्द्रः दुर्गतिमूलनिबन्धनं परिग्रहो निरधारि तदभिघातनिमित्तम् हे सज्जन ! कपिलसाधुवद् अलोभतामाश्रय ।। ५६ ।। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * तृष्णा * [ ६० ] तृष्णापरम्परामद्य - पानव्यग्रमतिर्जनः । मुञ्छणश्रेष्ठिवद् घोरां, पृथ्वी तमस्तमाम् व्रजेत् ॥ ६० ॥ पदच्छेदः-तृष्णापरम्परामद्यपानव्य ग्रमतिः जनः मुञ्छण(मम्मण) श्रेष्ठिवद् घोरां पृथ्वीं तमस्तमाम् व्रजेत् । अन्वयः-तृष्णापरम्परामद्यपानव्यग्रमतिः जनः मुञ्छण(मम्मणः) श्रेष्ठिवत् घोरां तमस्तमां पृथ्वीं व्रजेत् । ___ शब्दार्थः-तृष्णापरम्परामद्यपानव्यग्रमतिः -- असन्तोष की परम्परा और मद्यपान से व्यग्रबुद्धि वाला, जनः= मानव मुञ्छण (मम्मण) श्रेष्ठी की तरह, घोरां= भयङ्कर, तमस्तमां अन्धकार से पूर्ण, पृथ्वी पृथ्वी को, व्रजेत् = जावे । ___श्लोकार्थः-तृष्णा की परम्परा और मद्यपान से व्यग्र ऐसी बुद्धि वाला मनुष्य मुञ्छरण (मम्मरण) सेठ की तरह भयंकर अन्धकार से परिपूर्ण पृथ्वी में (नरक में) जाता है। ___ संस्कृतानुवादः - तृष्णापरम्परामद्यपानव्यग्रमतिर्जनः मुञ्छण (मम्मण) श्रेष्ठिवद् घोरामन्धकारपरिपूर्णां पृथ्वीं गच्छेत् अर्थात् नरकस्थानं गच्छेत् ।। ६० ।। ( ६१ ) Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * लोभः [ ६१ ] प्रतिलोभं वितन्वानो, नरो नरकमाप्नुयात् । श्रवाप्याकालमरणं, सागरे सागरो यथा ॥ ६१ ॥ पदच्छेदः - प्रतिलोभम् वितन्वानः नरः नरकम् प्राप्नुअवाप्य अकालमररणम् सागरे सागरः यथा । यात् । अन्वयः - नरः प्रतिलोभम् वितन्वानः नरकं प्राप्नुयात् यथा सागरः सागरे अकालमरणं अवाप्य नरकं प्राप्तः । शब्दार्थः - नरः = पुरुष, अतिलोभम् = अत्यन्त लोभ को, वितन्वानः विस्तार करता हुआ, नरकं = नरक को, प्राप्नुयात् = प्राप्त करे | यथा = जैसे, सागरः = सागर नाम का व्यक्ति, सागरे = समुद्र में, अकालमरणं असामयिक मृत्यु को, प्रवाप्य = प्राप्त कर | - श्लोकार्थ :- मनुष्य प्रत्यन्त लोभ का विस्तार करता हुआ नरक को प्राप्त करता है । जैसे सागर ने समुद्र अकालमृत्यु को प्राप्त कर नरक प्राप्त किया । में संस्कृतानुवादः - मानवः प्रतिलोभं कुर्वाणो नरकं गच्छति । यथा सागरः सागरेऽकालमृत्युं प्राप्य नरकं गतः ।। ६१ ।। ( ६२ ) Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६२ ] न स्याद् धर्माय योग्योऽतिलोभाकुलितमानसः । हितैषी तं त्यजेत् तेनान्यथा दुःखी कपिर्यथा ॥ ६२ ॥ पदच्छेदः - न स्याद् धर्माय योग्य: अतिलोभाकुलितमानसः । हितैषी तं त्यजेत् तेन अन्यथा दुःखी कपिः यथा । अन्वयः - अतिलोभाकुलितमानसः जनः धर्माय योग्यः न स्यात् तेन हितैषी तं त्यजेत् श्रन्यथा यथा कपिः दुःखी । शब्दार्थः - अतिलोभेन प्राकुलितं मानसं यस्य सः अतिलोभाकुलितमानस: = प्रति लोभ से दुःखी मन वाला, धर्माय धर्माचरण के लिए, योग्यः = लायक, न स्यात् = नहीं होवे । तेन उस कारण से, हितैषी हित चाहने वाला, तं = लोभ को, त्यजेत् = छोड़े । अन्यथा नहीं तो, यथा = जैसे, कपिः – बन्दर, दुःखी श्रभवत् = दुःखी हुआ । - श्लोकार्थ :- अत्यन्त लोभ से व्यग्रमन वाला व्यक्ति धर्माचरण करने के योग्य नहीं होता है । इस कारण से अपना हित चाहने वाला व्यक्ति उस लोभ को छोड़े । अन्यथा उसे बन्दर के समान दुःखी होना पड़ेगा । - संस्कृतानुवादः - प्रतिलोभाकुलितमानसो मानवः धर्माचरणाय योग्यो न भवति, तेन हिताकाङ्क्षी जनः तं लोभं परित्यजेत्, अन्यथा यथा कपिः दुःखी अभूत् ।। ६२ ।। ( ६३ ; Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६३ ] लोभं त्यजेदमर्याद, तन्मर्यादां विवेकवान् । कुर्याद् येनातिलोभेन सिद्धिरन्धकतां गता ॥ ६३ ॥ पदच्छेदः-लोभं त्यजेत् अमर्यादं तत् मर्यादां विवेकवान् कुर्याद् येन अतिलोभेन सिद्धिः अन्धकतां गता। अन्वयः-अमर्यादं लोभं त्यजेत् विवेकवान् तन्मल्दां कुर्यात् येन अतिलोभेन सिद्धि : अन्धकतां गता। ___ शब्दार्थः-अमर्यादं मर्यादा रहित, लोभं लोभ को, त्यजेत् छोड़ना चाहिए, विवेकवान् विवेकीमानव, तन्मर्यादां उस मर्यादा को, कुर्यात् करे, येन=जिससे, अतिलोभेन अतिलोभ से, सिद्धिः सिद्धि, अन्धकतां= निष्फलता को, गता प्राप्त हुई। श्लोकार्थः-मर्यादातीत लोभ को छोड़ देना चाहिए। विवेकी मनुष्य उसकी मर्यादा निश्चित करे, कारण अतिलोभ के वश हो सिद्धि निष्फलता को प्राप्त हुई। संस्कृतानुवादः-अमर्यादं लोभं परित्यजेत् विवेकवान् जनः तन्मर्यादां कुर्यात् । येनातिलोभेन सिद्धिः अन्धकतां गता ।। ६३ ।। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६४ ] सुखार्थी विरतिं कुर्या-ल्लाभाल्लोभो यदेधते । लोभी च शङ्खधमक-वन्मूलमपि हारयेत् ॥ ६४ ॥ पदच्छेदः-सुखार्थी विरतिं कुर्यात् लाभात् लोभः यत् एधते, लोभी च शङ्खधमकवद् मूलम् अपि हारयेत् । ___ अन्वयः-सुखार्थी विरतिं कुर्यात् लाभात् लोभः यत् एधते शङ्खधमकवत् लोभी च मूलम् अपि हारयेत् ।। ___ शब्दार्थः-सुखार्थी=सुख चाहने वाला, विरति वैराग्य को, कुर्यात् करे। लाभात् लाभ से, लोभः=लोभ, एधते बढ़ता है। लोभी लोभी मनुष्य, शङ्खधमकवत्= शङ्खधमक की तरह, मूलमपि मूलधन, हारयेत् खो देवे, गुमावे । ___ श्लोकार्थः-सुख चाहने वाला मनुष्य विरति धारण करे। लाभ से ही लोभ बढ़ता है। शङ्खधमक की तरह लोभी मनुष्य मूलधन को भी खो देता है । संस्कृतानुवादः-सुखार्थी विरतिं कुर्यात् । लाभात् लोभः प्रजायते, लोभोजनेः शङ्खधमकवद् मूलधनमपि हारयेत् ।। ६४ ।। धर्मो-५ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - * साधुदर्शनम् * [ ६५ ] साधूनां दर्शनं बोधि-बीजलाभाय निर्मितम् । भवेन्नन्दनयुग्मस्य, यथा भृगुपुरोधसः ॥ ६५ ॥ पदच्छेदः-साधूनां दर्शनम् बोधिबीजलाभाय निर्मितम् । यथा भवेत् नन्दनयुग्मस्य भृगुपुरोधसः । अन्वयः-साधूनां दर्शनं बोधिबीजलाभाय निर्मितम् । यथा भृगुपुरोधसः नन्दनयुग्मस्य (साधुदर्शनं बोधिबीजाय) भवेत् । __ शब्दार्थः-साधूनां साधुओं का, दर्शनं दर्शन, बोधिबीजलाभाय बोधिबीज के लाभ के लिए, निर्मितम् = निर्मित है। यथा -- जैसे, भृगुपुरोधसः= भृगुपुरोहित के, नन्दनयुग्मस्य दोनों पुत्रों का ।। श्लोकार्थः-साधुओं का दर्शन बोधिबीज के लाभ के लिए निर्मित किया गया है। जैसे भृगुपुरोहित के दोनों पुत्रों के लिए साधुदर्शन बोधि का बीज हुमा । ___संस्कृतानुवादः-साधूनां दर्शनं बोधिबीजलाभाय निर्मितमस्ति । यथा-भृगुपुरोहितस्य पुत्रद्वयस्य कृते साधुदर्शनं बोधिबीजं अजायत ।। ६५ ।। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * धर्मधीः ६ [६६ ] रूपयौवनवामाक्षी - भोगस्वजनसम्पदः । गणयेत् तृणवत् प्राणी, जम्बूस्वामीव धर्मधीः ॥ ६६ ॥ पदच्छेदः-रूपयौवनवामाक्षी-भोगस्वजनसम्पदः गणयेत् तृणवत् प्राणी जम्बूस्वामीव धर्मधीः । अन्वयः-धर्मधीः प्राणी जम्बूस्वामी इव रूपयौवनवामाक्षी भोगस्वजनसम्पदः तृणवत् गरणयेत् । शब्दार्थः-धर्मे धीर्यस्यासौ धर्मधीः--धर्म में बुद्धि रखने वाला, प्रारणी देहधारी मानव, जम्बूस्वामी इव=जम्बूस्वामी की तरह। रूपयौवनवामाक्षीभोगस्वजनसम्पदः = सौन्दर्य, यौवन, कामिनी, भोग, अपने स्वजन और सम्पत्तियों को, तृणवत्=घास की तरह। गणयेत्=गिनना चाहिए। श्लोकार्थः-धर्म में बुद्धि रखने वाला मानव जम्बूस्वामी की तरह सौन्दर्य, जवानी, कामिनी, भोग, स्वजन और सम्पत्तियों को तिनके की तरह (तुच्छ) गिने । संस्कृतानुवादः-धर्मधीः प्राणी जम्बूस्वामीव रूपयौवनवामाक्षीभोगस्वजनसम्पदः तृणवत् गणयेत् ।। ६६ ।। ( ६७ ) Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * विषयाऽऽसक्तः * [६७ ] संसारसुखगृध्नुः सन्, न कुर्याद् धर्ममार्हतम् । दुःखं मधुलवाऽऽकाङ्क्षी, प्रारणीव लभते हि सः ॥ ६७ ॥ पदच्छेदः-संसारसुखगृध्नुः सन् न कुर्यात् धर्मम् प्रार्हतम्, दुःखं मधुलवाऽऽकाङ्क्षी प्राणी इव लभते हि सः । अन्वयः-यः संसारसुखगधनुः सन् आर्हतं धर्म न कुर्यात् सः मधुलवाऽऽकाङ्क्षी प्राणी इव दुःखं लभते । शब्दार्थः-यः=जो, संसारसुखगध्नुः सांसारिक सुख का लोभी, प्रार्हतं अर्हत् सम्बन्धी, धर्म धर्म को, न कुर्यात् न करे। सः वह, मधुलवाऽऽकाङ्क्षी=मधुबिन्दुओं को चाहने वाले, प्रारणी इव प्राणी की तरह, दुःखं दुःख को, लभते पाता है । श्लोकार्थः-जो मनुष्य सांसारिक सुख का लोभी होते हुए अर्हत् सम्बन्धी धर्म का आचरण नहीं करता है, वह मनुष्य मधुबिन्दुओं को चाहने वाले प्राणी की तरह दुःख पाता है। संस्कृतानुवादः-यः संसारसुखगृध्नुः सन् पाहतं धर्म न कुर्यात्, सः मधुलवाऽऽकाङ्क्षी प्राणीव दुःखं लभते ।। ६७ ।। ( ६८ ) Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * धर्माऽऽचरणम् * [ ६८ ] धर्मार्थोपार्जनं प्राज्ञो, यथावसरमाचरेत् । . कृषीबल इव स्वीयं, हारयेन्न द्वयं परम् ॥ ६८ ॥ पदच्छेदः-धर्मार्थोपार्जनम् प्राज्ञः यथा अवसरम् आचरेत् कृषीबल इव स्वीयम् हारयेत् न द्वयं परम् । अन्वयः-प्राज्ञः धर्मार्थोपार्जनम् यथावसरम् आचरेत् । परं कृषीबल इव स्वीयं द्वयं न हारयेत् । शब्दार्थः-प्राज्ञः बुद्धिमान्, धर्मार्थोपार्जनम् धर्म और अर्थ का उपार्जन, यथावसरम् = यथासमय, प्राचरेत्= आचरण करे। परं परन्तु, कृषीबल इव=कृषीबल की तरह, स्वीयं = अपने, द्वयं इहलोक और परलोक को। न हारयेत्न गुमावे । ____श्लोकार्थः-बुद्धिमान् मनुष्य धर्म और अर्थ का उपार्जन यथासमय करे । किन्तु कृषीबल की तरह अपने इस लोक और परलोक को नष्ट न करे। . संस्कृतानुवादः-धीमान् यथावसरम् धर्मार्थोपार्जन कुर्यात् । परं च सः कृषीबल इव स्वीयं लोकद्वयसुखं न हारयेत् ।। ६८ ।। ( ६६ ) Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * धर्मस्त्राता * [ ६६ ] त्राताऽत्र न परत्रापि, सुतादिरपि पिण्डदः । विना धर्म यथा तातं, प्रत्यभून्न महेश्वरः ॥ ६६ ॥ पदच्छेदः-त्राता अत्र न परत्रापि सुतादिः अपि पिण्डदः विना धर्म यथा तातं प्रति अभूत् न महेश्वरः । अन्वयः-धर्म विना पिण्डदः सुतादिः अपि अत्र परत्र न त्राता यथा तातं प्रति महेश्वरः न अभूत् । शब्दार्थः-धर्म विना=धर्म के सिवाय, पिण्डं ददातीति पिण्डदः पिण्डदान करने वाला, सुतादिरपि=पुत्रादि भी, अत्र=इस लोक में, परत्रापि परलोक में भी, न त्राता रक्षा करने वाला नहीं है। यथा=जैसे, तातं प्रति= पिता के प्रति, महेश्वरः महेश्वर, न=नहीं, अमूत्= हुआ। ' श्लोकार्थः-धर्म के सिवाय पिण्ड देने वाले पुत्रादि भी इस लोक में तथा परलोक में रक्षा करने वाले नहीं होते हैं। जैसे अपने पूज्य पिता के प्रति महेश्वर नहीं हुआ । संस्कृतानुवादः-धर्म विना पिण्डदः सुसादिरपि प्रत्र परलोके च त्राता नाभवत् । यथा महेश्वरः स्वीय तातं प्रति रक्षको नाभूत् ।। ६६ ।। ( ७० ) Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *faqu: * [ ७० ] " ललिताङ्ग इव ज्ञात्वा विश्रं [षं] वैषयिकं सुखम् । न पुनः स्पृहयेच्छुद्ध - बुद्धिरात्महितार्थिकः ॥७०॥ पदच्छेदः - ललिताङ्गः इव ज्ञात्वा विषं वैषयिकं सुखम्, न पुनः स्पृहयेत् शुद्धबुद्धिः श्रात्महितार्थिकः । • अन्वयः - शुद्धबुद्धिः प्रात्महितार्थिक: ललिताङ्गः इव वैषयिकं सुखं विषं ज्ञात्वा न पुनः स्पृहयेत् । शब्दार्थ:- शुद्धा बुद्धिर्यस्य सः शुद्धबुद्धिः = पवित्र बुद्धि वाला, श्रात्महितार्थिकः श्रात्महित चाहने वाला, ललि ताङ्ग इव = ललिताङ्ग की तरह, वैषयिकं सुखं विषय सम्बन्धी सुख को, विषं जहर, ज्ञात्वा = जानकर, पुनः न वापिस नहीं, स्पृहयेत् = स्पृहा करे । == - श्लोकार्थ :- पवित्र बुद्धिवाला एवं आत्महित को चाहने वाला व्यक्ति ललिताङ्ग की तरह, विषय सम्बन्धी सुख को विष-जहर जानकर उसकी वापस चाहना न करे । ( ७१ ) संस्कृतानुवादः - शुद्धबुद्धिरात्महितार्थिको जनः ललिताङ्गः इव वैषयिकं सुखं विषं मत्वा तस्मै पुनः कामनां कुर्यात् ।। ७० ।। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * भोगाः * [ ७१ ] अभुजानोऽपि भोगादीन, प्राणी दुनियोगतः। अधोगति व्रजेत् कोप-वान् राजगृहभिक्षुवत् ॥७१॥ पदच्छेदः-अभुजानः अपि भोगादीन् प्राणी दुनियोगतः अधोगति व्रजेत् कोपवान् राजगृहभिक्षुवत् । अन्वयः-कोपवान् प्राणी भोगादीन् अभुजानः अपि दुर्ध्यानयोगतः राजगृहभिक्षुवत् अधोगतिं व्रजेत् । - शब्दार्थः-कोपवान् क्रोधी, प्राणी जीवधारी, भोगादोन्= भोगादिक को, अभुजानः अपिः=नहीं भोगते हुए भी, दुर्ध्यानयोगतः=दुष्टध्यान के योग से, राजगृहभिक्षुवत् राजगृह के भिक्षु की तरह, अधोगति अवनति को, व्रजेत् प्राप्त करे । श्लोकार्थः-क्रोधी मानव सांसारिक भोगादिकों को नहीं भोगते हुए भी दुनि के योग से राजगृह भिक्षु की तरह अधोगति को प्राप्त करता है । ____ संस्कृतानुवादः-कोपवान् प्राणी भोगादीन् प्रभुञ्जानोऽपि दुर्ध्यानयोगतः राजगृहभिक्षुरिव अवनति गच्छेत् ॥ ७१ ।। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * धर्मः * [ ७२ ] धर्ममाराधयेद् बुद्धया संसारविमुखो बुधः । स्वजनैरननुज्ञातोऽप्यत्राऽभयकुमारवत् ॥७२ ॥ पदच्छेदः-धर्मम् अाराधयेद् बुद्धया संसार - विमुखः बुधः, स्वजनैः अननुज्ञातः अपि अत्र अभयकुमारवत् । अन्वयः-अत्र अभयकुमारवत् स्वजनैः अननुज्ञातः अपि बुधः संसारविमुखः सन् बुद्धया धर्मम् आराधयेत् । शब्दार्थः-पत्र यहाँ पर, अभयकुमारवत् अभयकुमार की तरह, स्वजनैः स्वजनों के द्वारा, अननुज्ञातोऽपि प्राज्ञा प्राप्त करने पर भी, बुधः पण्डित (विद्वान्), संसारविमुखः संसार से विमुख, बुद्धया= बुद्धि से, धर्मम् धर्म को, पाराधयेत् आराधना करे। ' श्लोकार्थः-यहाँ पर अभयकुमार की तरह अपने लोगों के द्वारा अनुज्ञात न होते हुए भी पण्डित (विद्वान्) संसार से विमुख होकर धर्म की आराधना करे । संस्कृतानुवादः-पत्र अभयकुमारवत् स्वाप्तैः जनैरननुज्ञातोऽपि विद्वान् संसारतो विमुखः सन् बुद्धया धर्मम् आराधयेत् ।। ७२ ।। ( ७३ ) Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दुष्कृतनिन्दा * [ ७३ ] सद्गतिं लभते निन्दन, स्वकृतं दुष्कृतं सुधीः । मृगावती यथाऽवाप, परमानन्दसम्पदम् ॥७३॥ पदच्छेदः-सद्गतिम् लभते निन्दन् स्वकृतं दुष्कृतं सुधीः, मृगावती यथा अवाप परमानन्दसम्पदम् । अन्वयः-सुधीः स्वकृतं दुष्कृतं निन्दन् सद्गतिं लभते यथा मृगावतो परमानन्दसम्पदम् अवाप । शब्दार्थः-सुधीः बुद्धिमान्, स्वीकृतं अपने से किया गया, दुष्कृतं पाप को, निन्दन् निन्दा करता हुआ, सद्गति उत्तम गति को, लभते प्राप्त करता है। यथा जैसे, मृगावती = मृगावती साध्वी ने, परमानन्दसम्पदं परमान्द के ऐश्वर्य को, अवाप = प्राप्त किया। ___ श्लोकार्थः-बुद्धिमान् मनुष्य अपने द्वारा किये गये पाप की निन्दा करता हुआ उत्तम गति को पाता है। जैसे मगावती साध्वी ने परमानन्द की सम्पदा को प्राप्त किया। संस्कृतानुवादः-विद्वान् स्वाचरितं पापं निन्दन् उत्तमां गतिं लभते । यथा मृगावत्या साध्व्या परमानन्दस्य सम्पद् प्राप्ता ।। ७३ ।। ( ७४ ) Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अहङ्कारः * [ ७४ ] नीचजाति वजेज् जन्तु-जैतार्य इव निश्चितम् । तन्वानो जात्यहङ्कारं, दुरायतिनिबन्धनम् ॥७४॥ पदच्छेदः-नीचजाति व्रजेत् जन्तु: मेतार्यः इव निश्चितम् । तन्वानः जात्यहङ्कारं दुरायति निबन्धनम् । अन्वयः-दुरायति निबन्धनम् जात्यहङ्कारं तन्वानः जन्तुः निश्चितम् मेतार्यः इव नीचजाति व्रजेत् । __शब्दार्थः-दुरायति-निबन्धनम् दुरायति का मूल कारण, जात्यहङ्कारं जाति के अहङ्कार को, तन्वानः= विस्तार करता हुआ, जन्तुः प्राणी, निश्चितम् निश्चय ही, मेतार्यः इव मेतार्य की तरह, नीचजाति = नीच जाति के अन्दर, व्रजेत् = गमन करे ।। ___श्लोकार्थः-दुरायति के कारणभूत जाति से उत्पन्न अहङ्कार को विस्तृत करते हुए प्राणी निश्चय ही मेतार्य की तरह नीच जाति को प्राप्त करता है। संस्कृतानुवादः-दुरायतिनिबन्धनं जात्यभिमानं वितन्वन् प्राणी निश्चितम् मेतार्य इव नीचजाति गच्छेत् ॥ ७४ ॥ ( ७५ ) Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७५ ] संसारापारकपारेऽध्ययनस्मयमाचरन् । प्रारणी परिभ्रमत्येव, भृशं भुवनभानुवत् ॥ ७५ ॥ पदच्छेदः-संसारपारकूपारे अध्ययनस्मयम् प्राचरन् प्राणी परिभ्रमति एव भृशं भुवनभानुवत् । अन्वयः-प्राणी संसारपारकूपारे अध्ययनस्मयम् आचरन् भुवनभानुवत् भृशं परिभ्रमति एव । शब्दार्थः-प्राणी=देहधारी मानव, संसारापारकूपारे= संसार रूप अपार समुद्र में, अध्ययनस्मयम् अध्ययन के गर्व को, पाचरन् करते हुए, भुवनभानुवत् भुवनभानु की तरह, भृशं=अत्यन्त, परिभ्रमति एव घूमता ही . रहता है। श्लोकार्थः-देहधारी जीव संसार रूप अपार समुद्र में अध्ययन के गर्व को करता हुआ भुवनभानु की तरह निरन्तर घूमता ही रहता है । संस्कृतानुवादः-प्राणी संसारापारकूपारे पठनगर्वं कुर्वन् भुवनभानुरिव निरन्तरं परितो भ्रमत्येव ।। ७५ ।। ( ७६ ) Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गुरणश्रवणम् * [ ७६ ] गुए.श्रवरणमात्रेण, निरीहाणां महात्मनाम् । बोधं लभन्ते सुलभ-बोधिनः सार्थवाहवत् ॥ ७६ ॥ पदच्छेदः-गुणश्रवणमात्रेण निरीहाणां महात्मनाम् बोधं लभन्ते सुलभबोधिनः सार्थवाहवत् । अन्वयः-सुलभबोधिनः निरीहाणां महात्मनां गुणश्रवणमात्रेण सार्थवाहवत् बोध लभन्ते । ___ शब्दार्थः-सुलभबोधिनः=सुलभ बोध वाले मनुष्य, निरीहाणां निष्काम भावना वाले, महात्मनां महापुरुषों के, गुणश्रवणमात्रेण गुणों को सुनने मात्र से ही, सार्थवाहवत् सार्थवाह की तरह, बोधं बोध को (ज्ञान को), लभन्ते प्राप्त करते हैं। ___ श्लोकार्थः-सुलभ बोध वाले मनुष्य निष्काम भावना वाले महापुरुषों के गुण सुनने मात्र से ही सार्थवाह की तरह बोध पाते हैं। संस्कृतानुवादः-सुलभबोधिनो जना: निष्कामानां महापुरुषाणां गुणश्रवणमात्रेण सार्थवाहः इव बोधं लभन्ते ।। ७६ ।। ( ७७ ) Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * निकाचितकर्म * [ ७७ ] अपि यत्नशतै ति, क्षयं कर्म निकाचितम् । यथा श्रेणिकभूपेन, नरकायुरुपाजितम् ।। ७७ ॥ पदच्छेदः-अपि यत्नशतैः न एति क्षयं कर्म निकाचितम्, यथा श्रेणिकभूपेन नरकायुः उपार्जितम् । अन्वयः-यत्नशतैः अपि निकाचितम् कर्म क्षयं न एति यथा श्रेणिकभूपेन नरकायुः उपार्जितम् । शब्दार्थः-यत्नशतैः सैकड़ों प्रयत्नों से, अपि=भी, निकाचितम् = निकाचित, कर्म कर्म, क्षयं नाश, नैति= नहीं होता है। यथा जैसे, श्रेरिणकभूपेन=श्रेणिक राजा के द्वारा, नरकायुः नरक का आयु, उपाजितम् = उपार्जित किया। श्लोकार्थः-सैकड़ों प्रयत्न करने पर भी निकाचित कर्म का नाश नहीं होता है। जैसे श्रेणिक राजा द्वारा उपाजित नरकायुष्य । संस्कृतानुवादः-प्रयत्नशतैरपि निकाचितं कर्म नाशं न गच्छति । यथा राज्ञा श्रेणिकेन नरकायुरुपाजितम् ॥ ७७ ।। ( ७८ ) Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * हिंसा * [ ७८ ] हिंसां परस्य जीवस्य, मनसाऽपि विचिन्तयन । निहन्यते स देवेनाऽकस्मादपि शृगालवत् ॥७॥ पदच्छेदः-हिंसां परस्य जीवस्य मनसा अपि विचिन्तयन् निहन्यते सः देवेन अकस्माद् अपि शृगालवत् । अन्वयः-मनसा अपि परस्य जीवस्य हिंसां विचिन्तयन् शृगालवत् सः अकस्माद् अपि देवेन निहन्यते । शब्दार्थः-परस्य पराये, जीवस्य प्राणी की, मनसा अपि=मन से भी, हिंसां -हिंसा (वध), विचिन्तयन् = विचारते हुए, शृगालवत् =सियार की तरह, सः वह, अकस्माद् अपि=अचानक, देवेन=भाग्य के द्वारा, निहन्यते = मारा जाता है। श्लोकार्थः-मन से भी दूसरे प्राणी की हिंसा को सोचते हुए सियार की तरह व्यक्ति अचानक भाग्य के द्वारा मारा जाता है। संस्कृतानुवादः-मनसाऽपि परस्य जीवस्य वधं चिन्तयन् शृगालवद् सः अकस्मादपि देवेन निहन्यते ।। ७८ ।। ( ७६ ) Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . [ ७६ ] हिंसा हि नरकद्वार-दीपिका निमिता सती । सुताद्यर्थेऽपि देव्यग्ने छाहिंसकविप्रवत् ॥ ७९ ॥ पदच्छेदः-हिंसा हि नरकद्वारदीपिका निर्मिता सती, सुताद्यर्थे अपि देव्यग्रे छागहिंसकविप्रवत् । - अन्वयः-हि सुताद्यर्थे अपि निर्मिता सती हिंसा नरकद्वारदीपिका भवति देव्यग्रे छागहिंसकविप्रवत् । शब्दार्थः-हि=क्योंकि, सुताद्यर्थे पुत्रादि के लिए, अपि=भी, निर्मिता सती की गयी, हिंसा=वध, नरकद्वारदीपिका नरक के द्वार को दिखाने वाली, भवति होती है। देव्यग्रे=देवी के सामने, छागहिंसकविप्रवद्=बकरे को मारने वाले ब्राह्मण की तरह । श्लोकार्थः-क्योंकि पुत्रादि के लिए की गयी हिंसा भी नरक के द्वार को दिखाने वाली होती है। जैसे कि देवी के सामने बकरे की हिंसा करने वाला ब्राह्मण (नरक में गया)। संस्कृतानुवादः-यतो हि पुत्राद्यर्थे निर्मिता हिंसा नरकद्वारस्य प्रकाशिका भवति । यथा देव्यग्रे छागहिंसकविप्र इव ।। ७६ ।। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * परद्रोहः * [ ८० ] स्वयमेवाप्नुयाद् दुःखं, परद्रोहनिविष्टधीः । 'धर्मे जय' इति ख्यातुरिव द्वषी द्विजन्मनः ॥ ८० ॥ पदच्छेदः-स्वयम् एव प्राप्नुयाद् दुःखं परद्रोहनिविष्टधीः, 'धर्मे जय' इति ख्यातुः इव द्वषी द्विजन्मनः । __ अन्वयः-'धर्मे जय' इति ख्यातुः द्विजन्मनः द्वषी इव परद्रोहनिविष्टधीः स्वयमेव दुःखं प्राप्नुयात् । शब्दार्थः-धर्मे जय=धर्म में जय है, इति ख्यातुः इस प्रकार कहने वाले, द्विजन्मनः ब्राह्मण के, द्वषो इव शत्रु की तरह, परद्रोहनिविष्टधीः दूसरों से द्रोह करने में है बुद्धि जिसकी, स्वयमेव अपने आप ही, दुःखं दुःख, प्राप्नुयात्=प्राप्त करे। श्लोकार्थः-'धर्म में ही जय होती है' इस प्रकार कहने वाले ब्राह्मण के द्वषी की तरह दूसरों से द्रोह करने में लगी है बुद्धि जिसकी ऐसा मानव खुद ही दुःख प्राप्त करता है । संस्कृतानुवादः-'धर्मे एव जयो भवति' इति कथयितुः विप्रस्य द्वषीव अन्यद्रोहनिविष्ट बुद्धिः जनः स्वयमेव दुःखमाप्नोति ।। ८० ॥ धर्मो-६ ( ८१ ) Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - [८१ ] न चिन्तयेत् परद्रोह-मात्मश्रेयोऽथिकः पुमान् । वध्वाः पपात यद्बोहस्थविरायै विनिर्मितः ॥८१ ॥ पदच्छेदः-न चिन्तयेत् परद्रोहम् आत्मश्रेयोऽथिकः पुमान् वध्वाः पपात यद् द्रोहः स्थविराय विनिर्मितः । अन्वयः-आत्मश्रेयोऽथिकः पुमान् परद्रोहं न चिन्तयेत् यत् स्थविराय विनिर्मितः द्रोहः वध्वाः उपरि पपात । शब्दार्थः-प्रात्मश्रेयोऽथिकः=अपना कल्याण चाहने वाला, पुमान् = पुरुषः, परद्रोहं = दूसरों से द्वष, न चिन्तयेत् = चिन्ता न करे, यत् =जो कि, स्थविराय वृद्धा के लिए, विनिर्मितः किया गया, द्रोहः द्वष, वध्वाः उपरि=बहू के ऊपर, पपात गिरा। श्लोकार्थः-अपने कल्याण को चाहने वाला पुरुष दूसरों के साथ द्वष करने की न सोचे । वृद्धा के लिए किया गया द्रोह वधू के ऊपर ही गिरा । संस्कृतानुवादः-प्रात्मकल्याणेच्छुः पुरुषः परद्रोहं न चिन्तयेत् यतो हि वृद्धायै विनिर्मितः द्रोहः वध्वाः उपरि पपात ।। ८१ ॥ ( ८२ ) Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * परनिन्दा * [ ८२ ] वरं न परनिन्दायाः, पापं तां कुर्वतः सतः । अकृतान्यन्यपापान्यागच्छन्ति जरतीमिव ॥ २ ॥ पदच्छेदः-वरम् न परनिन्दायाः पापं तां कुर्वतः सतः, अकृतानि अन्यपापानि पागच्छन्ति जरतीम् इव । अन्वयः-परनिन्दायाः पापं वरं न, तां कुर्वतः सतः अकृतानि अन्यपापानि जरतीम् इव प्रागच्छन्ति । __शब्दार्थः-परनिन्दायाः दूसरों की निन्दा का, पापं= पाप, वरं न अच्छा नहीं होता है। तां परनिन्दा को, कुर्वतः सतः=करते हुए मानव को, अकृतानि-नहीं किये गये, अन्य पापानि दूसरे पाप, जरतीमिव =जरती की तरह, प्रागच्छन्ति पाते हैं। ___श्लोकार्थः-दूसरों की निन्दा का पाप अच्छा नहीं होता है। परनिन्दा करने वाले मनुष्य के पास स्वयं द्वारा नहीं किये गये अन्य पाप भी जरती की तरह आ जाते हैं। संस्कृतानुवादः-परनिन्दायाः पापं वरं न भवति, परनिन्दां कुर्वतः सतः मानवस्य अविहितानि अन्यपापान्यपि जरतीमिव आगच्छन्ति ।। ८२ ।। ( ८३ ) Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * कपटीश्राद्धः * [ ८३ ] कपटी निष्कृपः प्रारणी, पीडयञ्श्रमरणानपि । न लज्जते यथा श्राद्धो लघुक्षुल्लकविक्रयी ॥ ८३ ॥ पदच्छेदः - कपटी निष्कृपः प्राणी पीडयन् श्रमणान् अपि न लज्जते यथा श्राद्धः लघुक्षुल्लकविक्रयी । अन्वयः - कपटी निष्कृपः प्राणो श्रमरणान् अपि पीडयन् न लज्जते यथा लघुक्षुल्लकविक्रयी श्राद्धः । शब्दार्थ : - कपटी कपट वाला, निष्कृपः निर्दय, प्रारणी देहधारी, श्रमणान् = साधुनों को, पीडयन् - पीड़ा देता हुआ, न लज्जते नहीं लज्जित होता है । यथा = जैसे, लघुक्षुल्लकविक्रयी = छुटक वस्तुओं को बेचने वाला, श्राद्ध = - श्रावक । - श्लोकार्थ :- कपटी और निर्दय प्राणी साधुयों को पीड़ा देते हुए भी लज्जित नहीं होता है । जैसे क्षुद्र और छोटी वस्तुनों को बेचने वाला श्रावक । संस्कृतानुवादः - कपटी निर्दय प्राणी साधून् पीडयन् नहि लज्जते लघुक्षुल्लकविक्रयी श्राद्ध इव ।। ८३ ।। (as ) Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * लोभी * [ ८४ ] अर्थलुब्धः पूर्णकार्यो, विश्वस्तं प्राणिनं कुधीः । विभागिनं निहन्त्येव, चाणक्य इव पर्वतम् ॥ ८४ ॥ पदच्छेदः-अर्थलुब्धः पूर्णकार्यः विश्वस्तं प्राणिनं कुधीः विभागिनं निहन्ति एव चाणक्यः पर्वतम् इव । अन्वयः-चाणक्यः पर्वतम् इव अर्थलुब्धः पूर्णकार्यः कुधीः विश्वस्तं विभागिनं प्राणिनं निहन्ति एव । शब्दार्थः-चाणक्यः चारणक्य, पर्वतम् इव= पर्वत की तरह, अर्थलुब्धः अर्थ का लोभी, पूर्णकार्य:- जिसका कार्य पूर्ण हो चुका है, कुधीः=कुत्सित बुद्धिवाला मनुष्य, विश्वस्तं विश्वासी, विभागिनम् =भागीदार को, प्राणिनं= मानव को, निहन्त्येव मारता ही है । श्लोकार्थः-कुत्सित बुद्धि वाला, अर्थलोभी और जिसका कार्य पूर्ण हो चुका है ऐसा व्यक्ति अपने विश्वासी भागीदार को भी मार देता है जैसे चाणक्य ने पर्वत को मारा। संस्कृतानुवादः-चाणक्यः पर्वतमिवार्थलुब्धः पूर्णकार्यः कुधीः मानवः विश्वस्तं विभागिनं प्राणिनं निहन्त्येव ॥ ८४ ।। ( ८५ ) Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * मतिः * [ ८५ ] वादिनो गर्वभाजोऽपि, हितकर्यायतौ मतिः । सम्पूर्णपण्डितस्य स्यात्, सिद्धसेनगणेरिव ॥ ८५ ॥ पदच्छेदः-वादिनः गर्वभाजः अपि हितकरी प्रायती मतिः सम्पूर्णपण्डितस्य स्यात् सिद्धसेनगणेः इव । __ अन्वयः-सम्पूर्णपण्डितस्य स्यात् गर्वभाजः अपि वादिनः मतिः सिद्धसेनगणेः इव आयतौ हितकरी स्यात् । शब्दार्थ:-सम्पूर्णपण्डितस्य पूर्ण विद्वान् की, गर्वभाजोऽपि अहंकार को सेवन करने वाले की, वादिनः= बहस करने वाले की, मतिः बुद्धि, सिद्धसेनगणेः इव= सिद्धसेन नामक गणि की तरह, आयतौ उत्तर समय में, हितकरी हित करने वाली, स्यात् = होवे । श्लोकार्थः-पूर्ण विद्वान् एवं अहंकार को धारण करने वाले वादी की बुद्धि सिद्धसेन नामक गणि की तरह उत्तरकाल में हित करने वाली होवे । संस्कृतानुवादः-सम्पूर्णपण्डितस्य गर्वभाजोऽपि वादिनः बुद्धिः सिद्धसेननामकगणेरिव उत्तरकाले कल्याणकरी स्यादिति ।। ८५ ।। ( ८६ ) Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * व्रतम् * [ ८६ ] गरणयंस्तृणवत् स्वर्ण-वर्णकायं निजव्रतम् । न त्यजेदुपसर्गेऽपि सति सागरचन्द्रवत् ॥ ८६ ॥ पदच्छेदः - गणयन् तृणवत् स्वर्णवर्णकायं निजव्रतम् न त्यजेत् उपसर्गेऽपि सति सागरचन्द्रवत् । अन्वयः - स्वर्णवर्णकायं तृणवत् गणयन् उपसर्गे सति अपि सागरचन्द्रवत् निजव्रतं न त्यजेत् । शब्दार्थ:- स्वर्णवर्ण इव कार्य यस्य सः तं स्वर्णवर्णकायं=सोने के वर्ण के समान शरीर को तृणवत् = तृण के समान, गरणयन् = गिनता हुआ, उपसर्गे सति श्रपि = उपसर्ग के होने पर भी, सागरचन्द्रवत् = सागरचन्द्र की तरह, निजव्रतं = अपने व्रत को, न त्यजेत् = नहीं छोड़े । श्लोकार्थ :- सोने के रंग के समान शरीर को तिनके के समान गिनते हुए, उपसर्ग होने पर भी अपने व्रत को सागरचन्द्र की तरह नहीं छोड़ना चाहिए । संस्कृतानुवादः - स्वर्णवर्णशरीरं तृणवत् गरणयन् उपसर्गे सत्यपि जनः सागरचन्द्रवत् निजव्रतं न त्यजेत् ।। ८६ ।। ' ८७ ' Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * स्त्री * [ ८७ ] अकार्येऽपि स्वभर्तारं, कलेर्मूलं मृगेक्षणा । प्रेरयेदिव हारादि-कृते कूरिणनृपं प्रिया ॥ ७ ॥ पदच्छेदः-प्रकार्ये अपि स्वभर्तारं कलेः मूलम् मृगेक्षणा प्रेरयेत् इव हारादिकृते कूरिणनृपं प्रिया । अन्वयः-कलेः मूलं मृगेक्षणा अकार्ये अपि स्वभरि हारादिकृते कूणिनृपं प्रिया इव प्रेरयेत् । शब्दार्थः-कले: क्लेश को, मूलं = मूल, मृगेक्षणा-स्त्री, अकार्येऽपि बुरे काम में भी, स्वभारम् =अपने पति को, हारादिकृते हारादि के लिए, कूणिनृपं कूणि राजा को, प्रिया इव = प्रेयसी की तरह, प्रेरयेत्=प्रेरित करे। श्लोकार्थः-क्लेश की जड़ स्त्री अकार्य में भी अपने पति को हारादि के लिए प्रेरित करती है, जिस प्रकार कूरिण राजा को उसकी प्रिया ने किया। संस्कृतानुवादः-क्लेशस्य मूलं मृगनयनी अकार्येऽपि स्वपति हारादिकृते कूरिणनृपं प्रियेव प्रेरयेत् ।। ८७ ।। ( ८८ ) Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * भोगलालसा के [ ८८ ] जानन्नपि त्यजेन्नव, दुरन्तां भोगलालसाम् । सार्वभौमब्रह्मदत्त, इव पाश्चात्यजन्मनि ॥ १८ ॥ पदच्छेदः-जानन् अपि त्यजेत् न एव दुरन्तां भोगलालसाम् सार्वभौम ब्रह्मदत्त इव पाश्चात्य जन्मनि । अन्वयः-भोगलालसां दुरन्तां जानन् अपि पाश्चात्यजन्मनि सार्वभौम ब्रह्मदत्त इव नैव त्यजेत् । शब्दार्थः-दुरन्तां खराब अन्त वाली, भोगलालसां= भोगों की लालसा को, जानन् अपि जानते हुए भी, पाश्चात्यजन्मनि=पिछले जन्म में, सार्वभौम ब्रह्मदत्त इव चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त की तरह, नैव नहीं, त्यजेत्= छोड़े। श्लोकार्थः-भोगों की लालसा को खराब अन्त वाली जानते हुए भी मानव, पिछले जन्म में चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त की तरह नहीं छोड़ता है। संस्कृतानुवादः-दुरन्तां भोगेच्छां जाननपि पाश्चात्यजन्मनि चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त इव नैव परित्यजेत् ।। ८८ ॥ ( ८६ ) Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * स्मयः [मानः] * गच्छतां शिवसदः शरीरिणा मन्तरायकरणो भवेत् स्मयः । येन बाहुबलिवन् महात्मनां, धर्मिणां सुजन ! तं ततस्त्यज ॥८६॥ .. पदच्छेदः-गच्छतां शिवसदः शरीरिणां अन्तरायकरणः भवेत् स्मयः। येन बाहुबलिवत् महात्मनां धर्मिणां सुजन ! तं ततः त्यज । अन्वयः-शिवसदः गच्छतां महात्मनां धर्मिणां शरोरिणां अन्तरायकरणः स्मयः भवेत् येन हे सुजन ! त्वं बाहुबलिवत् ततः तं त्यज । शब्दार्थः-शिवसदः= मुक्तिधाम, गच्छतां जाते हुए, महात्मनां महात्माओं के, मिरणां=धर्माचरण करने वाले, शरीरिणां देहबारियों के, अन्तरायकरणः=अन्तराय करने वाला, स्मयः=गर्व, भवेत् होवे। येन=जिससे, हे सुजन ! =हे सज्जन, बाहुबलिवत्=बाहुबली की तरह, तं= गर्व को, त्यजेत् - छोड़े। श्लोकार्थः-मुक्तिधाम को जाने वाले धर्माचरण करने वाले महात्माओं को भी अन्तराय करने वाला घमण्ड होता है, जिससे हे सज्जन ! तुम बाहुबली की तरह उसे छोड़ दो। संस्कृतानुवादः-मुक्तिधाम गच्छतां धर्मिणां महात्मनां शरीरिणामन्तरायकारकः स्मयो भवेत् । येन हे सुजन ! त्वं बाहुबलिवत् तं परित्यज ।। ८६ ।। ( ६० ) Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राज्ञा * [ ६० ] उल्लङ्घयन् गुरोराज्ञां, पश्चात्तापं समाचरेत् । उपकोश्यागृहप्राप्त - क्षमाश्रमणवद् दृढम् ॥ १० ॥ पदच्छेदः-उल्लङ्घयन् गुरोः प्राज्ञां पश्चात्तापं समाचरेत् उपकोश्याः गृहप्राप्त क्षमाश्रमणवद् दृढम् । अन्वयः-गुरोः प्राज्ञां उल्लङ्घयन् उपकोश्याः गृहप्राप्तक्षमाश्रमणवद् दृढम् पश्चात्तापं समाचरेत् । शब्दार्थः-गुरोः=गुरु की, प्राज्ञां आदेश को, उल्लङ्घयन् =उल्लङ्घन करते हुए, उपकोश्याः=उपकोशी के, गृहप्राप्तक्षमाश्रमणवद्=घर आये क्षमाश्रमण की तरह, दृढम् दृढ़, पश्चातापं=पश्चाताप को, समाचरेत् करना चाहिए। श्लोकार्थः-गुरु की आज्ञा का उल्लङ्घन करने पर उपकोशी के घर आये क्षमाश्रमण की तरह दृढ़ पश्चाताप करना चाहिए। संस्कृतानुवादः-गुरोरादेशमुल्लङ्घयन् जनः उपकोश्याः गृहप्राप्तक्षमाश्रमणवत् दृढं पश्चातापं समाचरेत् इति ।। ६० ।। ( ६१ ) Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * धर्मः : 8 [ १ ] समयोपस्थितं धर्म- मकुर्वन् धर्म- मकुर्वन् विषयस्पृहः । दुःखी स्यान्मृतमातङ्गाऽऽमिषार्थिद्विकवज्जडः ॥ ६१ ॥ पदच्छेदः - समयोपस्थितं धर्मम् प्रकुर्वन् विषयस्पृहः दुःखी स्यात् मृतमातङ्गाऽऽमिषार्थि द्विकवत् जडः । अन्वयः - विषयस्पृहः जडः समयोपस्थितं धर्मम् अकुर्वन् मृतमातङ्गाऽऽमिषार्थि द्विकवत् दुःखी स्यात् । शब्दार्थ : - समयोपस्थितम् = समय पर उपस्थित हुए, धर्मम् = धर्माचरण को, अकुर्वन् = नहीं करते हुए, विषयस्पृहः = विषयों की अभिलाषा रखने वाला, जडः = जड़ मनुष्य, मृतमातङ्गाऽऽमिषार्थि द्विकवत् मरे हाथी के मांस को चाहने वाले द्विक की तरह, दुःखी स्यात् = दुःखी होता है । श्लोकार्थ :- विषयों की अभिलाषा रखने वाला जड़ मनुष्य समय पर उपस्थित धर्माचरण को नहीं करने पर मरे हाथो के मांस को चाहने वाले द्विक को तरह दुःखी होता है । संस्कृतानुवादः - विषयस्पृहो जडो मानवः समयोपस्थितं धर्माचरणमकुर्वन् मृतमातङ्गाऽऽमिषार्थि द्विकः इव दुःखी भवेत्, नात्र संशयः ।। ६१ ।। ( १२ ) Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जरत्वम् [ २ ] नरत्वं दुर्लभं लब्ध्वा , धर्माऽऽराधनकारणम् । प्राणी न गमयेद् व्यर्थं, स्वरत्नं पुण्यसारवत् ॥ २ ॥ पदच्छेदः-नरत्वम् दुर्लभम् लब्ध्वा धर्माऽऽराधनकारणम् प्राणी न गमयेद् व्यर्थं स्वरत्नं पुण्यसारवत् । अन्वयः-प्राणो धर्माऽऽराधनकारणम् दुर्लभं नरत्वं लब्ध्वा पुण्यसारवत् स्वरत्नं व्यर्थं न गमयेत् । शब्दार्थः-प्राणी मानव, धर्मस्य पाराधनं तस्य कारणं धर्माराधनकारणम् =धर्म की आराधना का मूल कारण, दुर्लभं दुःख से पाने योग्य, नरत्वं = मनुष्यपने को, लब्ध्वा पाकर, पुण्यसार इव पुण्यसार की तरह, स्वरत्नं=अपने अमूल्य जीवन रूपी रत्न को, व्यर्थं फिजूल, न गमयेत्=न नष्ट करे। श्लोकार्थः-मनुष्य को धर्म की आराधना के मूल कारणभूत दुर्लभ मनुष्यत्व को पाकर पुण्यसार की तरह अपने जीवनरूपी रत्न को व्यर्थ नष्ट नहीं करना चाहिए। संस्कृतानुवादः-प्राणी धर्माराधनस्य मूलकारणं दुर्लभं लब्ध्वा पुण्यसारवत् स्वस्य जीवनरूपरत्नं व्यर्थमेव न हारयेत् ।। ६२ ।। ( ३ ) Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६३ ] विद्युन्मालीव सद्विद्या, प्रमदाप्रेममोहितः । अहारयत्तथा नृत्वं, हारयेन्नैव पण्डितः ॥ ६३ ॥ पदच्छेदः-विद्युन्माली इव सद्विद्याम् प्रमदाप्रेममोहितः प्रहारयत् तथा नृत्वं वै न एव हारयेत् पण्डितः । ____ अन्वयः-विद्युन्माली इव पण्डितः प्रमदाप्रेममोहितः सन् यथा सद्विद्यां अहारयत् तथा नृत्वं नैव हारयेत् । शब्दार्थः-विद्युन्मालीव=विद्युन्माली की तरह, पण्डितः विद्वान्, प्रमदायाः प्रेम तेन मोहितः प्रमदाप्रेममोहितः सन स्त्री के प्रेम-मोह को प्राप्त होता हुआ, सद्विद्यां = उत्तम विद्या को, यथा जैसे, अहारयत्=खोदिया, तथा = वैसे ही, नृत्वं मनुष्यता को, न हारयेत् नहीं खोवे । श्लोकार्थः-विद्युन्माली की तरह, विद्वान् मनुष्य ने स्त्री के स्नेह से मोहित होते हुए, जैसे सद्विद्या को खो दिया वैसे मनुष्यत्व को नहीं खोवे । संस्कृतानुवादः-विद्युन्मालीव विद्वान् ललनास्नेहमोहितः सन् यथा सद्विद्यां अहारयेत् तथा मनुष्यत्वं नैव हारयेत् ।। ६३ ।। ( ६४ ) Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दानम् [ ६४ ] भावपात्ररहितं फलप्रदं, नैव दानमुदितं मनीषिभिः । अक्कया द्रविणलुब्धया यथा, स्पष्टदत्तमजनिष्ट निष्फलम् ॥ ६४ ॥ पदच्छेदः - भावपात्र रहितम् फलप्रदम् न एव दानम् उदितम् मनीषिभिः प्रक्कया द्रविणलुब्धया यथा, स्पष्टदत्तम् अजनिष्ट निष्फलम् । अन्वयः - मनीषिभिः भावपात्ररहितं दानम् फलप्रदं नैव उदितम् यथा द्रविणलुब्धया अवकया स्पष्टदत्तं निष्फलम् अजनिष्ट | शब्दार्थ : - मनीषिभिः = विद्वानों के द्वारा, भावपात्ररहितं = भावपात्र से रहित, दानम् = दान, फलप्रदं =फल देने वाला, नव नहीं, उदितम् = कहा है । यथा = जैसे, द्रविणलुब्धया = धन की लोभी, अक्कया = इस नामकी स्त्री के द्वारा स्पष्टदत्तं स्पष्ट रूप से दिया गया, निष्फलम् = निकम्मा, अजनिष्ट = हुआ । श्लोकार्थ :- विद्वानों के द्वारा भावपात्ररहित दिया गया दान, फल देने वाला नहीं कहा गया है । जैसे धन में लोभी अक्का के द्वारा स्पष्ट रूप से दिया गया दान, निष्फल हो गया । संस्कृतानुवादः - विद्वद्भिः भावपात्ररहितं दानम्, फलप्रदं नैव कथितम् । यथा द्रविणलुब्धया अक्कया प्रगटरूपेण दत्तं दानं निष्फलं संजातम् ।। ६४ ।। ( ६५ ) Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पुण्यहीनता * [ ६५ ] कष्टायाकृतपुण्यस्य स्यात् तत् सर्वं करोति यत् । हलखेटनलात्तान्य (?) वृषस्येव कुटुम्बिनः ॥ १५ ॥ पदच्छेदः-कष्टाय अकृतपुण्यस्य स्यात् तत् सर्वं यत् करोति यथा कुटुम्बिनः हलखेटनलात्तानि वृषस्य इव कष्टाय भवति । अन्वयः-यथा कुटम्बिनः वृषस्य हलखेटनलात्तानि इव (मानवः) यत् करोति तत् सर्वं प्रकृतपुण्यस्य कृते कष्टाय स्यात् । ___ शब्दार्थः-यथा=जैसे, कुटुम्बिनः- गृहस्थ मानव के लिए, वृषस्य - बैल के, हलखेटनलात्तानि इव=हल जोतना और लात आदि की तरह, मानवः= मनुष्य, यत्करोति-जो करता है, तत्सर्वं वह सब, अकृतपुण्यस्य अभाग्यशाली मनुष्य के लिए, कष्टाय दुःख के लिए, स्यात् =होवे । ___ श्लोकार्थः-जिस प्रकार गृहस्थ मानव के लिए 'बैल का हल' जोतना और लात आदि कष्ट के लिए हो जाते हैं, उसी तरह नहीं किया है पुण्य जिसने ऐसे मनुष्य के लिए मानव जो कुछ भी करता है, वह सब कष्ट के लिए हो जाता है । ___संस्कृतानुवादः-मानवो यत् करोति तत्सर्वं अकृतपुण्यस्य कृते कष्टाय भवति । यथा कुटुम्बिनः वृषस्य हलखेटनलात्तानि कष्टाय जायन्ते ।। ६५ ।। (६६ ) Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रभावना * [ ६६ ] प्रभावनां यथाशक्ति सुधीः सम्यक्त्वभूषणम् । सुकृतं सेवयेत् कुर्वन्, वादिदेवमुनीन्द्रवत् ॥ ६६ ॥ पदच्छेदः-प्रभावनां यथाशक्ति सुधीः सम्यक्त्वभूषणम् सुकृतं सेचयेत् कुर्वन् वादिदेवमुनीन्द्रवत् । अन्वयः-सुधीः यथाशक्ति सम्यक्त्वभूषणम् सुकृतं कुर्वन् वादिदेवमुनीन्द्रवत् प्रभावनां सेचयेत् । शब्दार्थः-सुधीः बुद्धिमान्, यथाशक्ति= शक्ति के अनुसार,प्रभावनां प्रभावना को, सम्यक्त्वभूषणम् सम्यक्त्व का अलंकार, सुकृतं पुण्य को, कुर्वन् = करते हुए, वादिदेवमुनीन्द्रवत् वादिदेवमुनीन्द्र की तरह, सेचयेत् सींचे । श्लोकार्थः-बुद्धिमान् मनुष्य शक्ति के अनुसार सम्यक्त्व के भूषण रूप पुण्य को करते हुए वादिदेवमुनीन्द्र की तरह प्रभावना को सींचे यानी पुष्ट करे । संस्कृतानुवादः-धीमान् जनः यथाशक्ति प्रभावनां सम्यक्त्वभूषणम् सुकृतं कुर्वन् वादिदेवमुनीन्द्रवत् सेचयेत् धर्मो-७ ( ६७ ) Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * विषयः * [ ९७ ] विषयरसलोलुपः सन् बहुसुकृतं कण्डरीकवज्जह्यात् । अथ पुण्डरीकनृपवन्मनुते हालाहलं विषयान् ॥१७॥ पदच्छेदः-विषयरसलोलुपः सन् बहुसुकृतं कण्डरीकवत् जह्यात् अथ पुण्डरीकनृपवत् मनुते हालाहलं विषयान् । अन्वयः-प्राणी विषयरसलोलुपः सन् कण्डरीकवत् बहुसुकृतं जह्यात् अथ सः पुण्डरीकनृपवत् विषयान् हालाहलं मनुते । शब्दार्थः-प्राणी मानव, विषयाणां रसस्तस्मिन् लोलुपः विषयरसलोलुपः सन् विषयों के रस में लालसा रखता हुआ, कण्डरीकवत् कण्डरीक की तरह, बहुसुकृतं= बहुत पुण्य को। जह्यात् =छोड़ दे। हालाहलं विष, मनुते मानता है। ___श्लोकार्थः-विषयों के रस में लालसा रखते हुए मानव कण्डरीक की तरह बहुत पुण्य को छोड़ देता है और राजा पुण्डरीक की तरह सांसारिक भोगों को विष तुल्य समझता है। संस्कृतानुवादः-प्राणी विषयरसेषु सतृष्णः सन् कण्डरीकवत् बहुपुण्यं जह्यात् । अथ सः पुण्डरीकनृपतिरिव सांसारिकभोगान् विषं मनुते ।। ६७ ॥ (६८ ) Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्रनित्यत्वम् [ ८ ] यत्किञ्चिदीक्षरणात् सम्पदनित्यत्वं विभावयन् । नग्गईनृपवद् बोधं स्वयमेवाऽऽप्नुयाद् बुधः ॥ ६८ ॥ पदच्छेदः - यत् किञ्चित् ईक्षणात् सम्पदनित्यत्वम् विभावयन् नग्गईनृपवद् बोधं स्वयम् एव प्राप्नुयात् बुधः । अन्वयः - बुधः यत् किञ्चिद् ईक्षणात् सम्पदनित्यत्वं विभावयन् नग्गईनृपवद् स्वयम् एव बोधं प्राप्नुयात् । शब्दार्थ:- बुधः = पण्डित, यत् किञ्चिद् = जो कोई, ईक्षणात् = देखने से, सम्पदनित्यत्वम् ऐश्वर्य की अनित्यता को, विभावयन् = देखता हुआ, नग्गईनृपवत् = नग्गई नामक राजा की तरह, स्वयमेव = खुद ही, बोधं = बोध को, प्राप्नुयात् = प्राप्त करे । श्लोकार्थ :- विद्वान् जो कुछ भी निरीक्षण करने से ऐश्वर्य की अनित्यता को देखते हुए नग्गईनृपति की तरह खुद ही बोध को प्राप्त करे । संस्कृतानुवादः - विद्वान् यत् किञ्चिद् निरीक्षणात् ऐश्वर्यस्याऽनित्यतां विभावयन् नग्गईनृपतिरिव स्वयमेव बोधं प्राप्नुयात् ।। 8८ ॥ ( ६६ ) Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * मर्मभेदः * [ 8 ] प्राणी प्रमादादपि नैव मिथ्या,ब्र यात तथाऽप्यत्र न मर्म भिन्द्यात् । तद् भेदतः श्रेष्ठिवरो यतोऽत्र, स्वकीयपत्नीवधपापमाप ॥६६॥ पदच्छेदः-प्राणी प्रमादात् अपि न एव मिथ्या ब्र यात् तथाऽपि अत्र न मर्म भिन्द्यात् । तत् भेदतः यतः अत्र श्रेष्ठिवरः स्वकीयपत्नीवधपापम् पाप । अन्वयः-प्राणी प्रमादात् अपि मिथ्या न ब्र यात् तथापि अत्र मर्म न भिन्द्यात् । यतः अत्र तद् भेदतः श्रेष्ठिवरः स्वकीयपत्नीवधपापम् अाप । शब्दार्थः-प्राणी देहधारी मानव, प्रमादात्=प्रमाद से, अपि=भी, मिथ्या असत्य, न ब्रूयात् नहीं बोले, तथापि अत्र=तब भी इस विषय में, मर्म न भिन्द्यात् किसी का मर्म भेदन न करे । यतः क्योंकि, अत्र=इस विषय में, तभेदतः=मर्म भेद करने से, श्रेष्ठिवरः-सेठ ने, स्वकीया या पत्नी तस्याः वधः तस्य पापं स्वकीयपत्नीवधपापम् अपनी पत्नी के वध के पाप को, आप प्राप्त किया। श्लोकार्थः-प्राणधारी मानव प्रमाद से भी मिथ्या न बोले, तथापि इस विषय में किसी का मर्मभेदन न करे । क्योंकि, इस लोक में मर्मभेदन करने से श्रेष्ठी ने अपनी पत्नी के वध के पाप को प्राप्त किया। __ संस्कृतानुवादः-प्राणी प्रमादादपि असत्यं न वदेत् तथापि अत्र कस्यचिदपि मर्मभेदनं न कुर्यात् । यतोहि अत्र लोके मर्मभेदनकरणेन श्रेष्ठिवरः स्वकीयपत्नीवधपापं प्राप्तवान् ।। ६६ ।। ( १०० ) Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * विश्वासः * [ १०० ] सुगयसुकुमालिकाया , निशम्य वार्ता न विश्वसेत् प्राज्ञः। पापप्रवृत्तिहेतौ , देहे चर्मावशेषऽपि ॥१०० ॥ पदच्छेदः-सुगयसुकुमालिकायाः, निशम्य वार्ता न विश्वसेत् प्राज्ञः, पापप्रवृत्तिहेतौ देहे चर्मावशेषे अपि । अन्वयः-प्राज्ञः सुगयसुकुमालिकायाः वार्ती निशम्य पापप्रवृत्तिहेतौ चर्मावशेषे अपि देहे न विश्वसेत् । शब्दार्थः-प्राज्ञः बुद्धिमान् , सुगयसुकुमालिकायाः= सुगयसुकुमालिका की, वार्ता वार्ता को, निशम्य सुनकर, पापस्य वृत्तिः तस्याः हेतुः तस्मिन्पापवृत्तिहेतौ पापवृत्ति के मुख्य कारणभूत, चर्मावशेषेऽपि चमड़ी के बच जाने पर, देहे शरीर के विषय में, न विश्वसेत् विश्वास नहीं करे । श्लोकार्थः-बुद्धिमान् मनुष्य सुगयसुकुमालिका की बात को सुनकर पापप्रवृत्ति के मूल हेतुभूत चर्ममात्र अवशिष्ट होने पर शरीर के विषय में विश्वास नहीं करे। संस्कृतानुवादः-प्राज्ञो जनः सुगयसुकुमालिकाया वार्ता श्रुत्वा पापप्रवृत्तेः मूलहेतौ चर्मावशेषेऽपि शरीरं विश्वासं नैव कुर्यात् ।। १०० ।। ( १०१ ) Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रास्था * [ १०१ ] विनाऽऽस्थामाहतो धर्मः, फलप्राप्त्यै भवेन्न हि । सिद्धदत्ताऽऽकाशगामि, विद्येवात्र द्विजन्मनः ॥ १०१ ॥ पदच्छेदः-विना आस्थाम् आर्हतः धर्मः फलप्राप्त्यै भवेत् नहि सिद्धदत्ताऽऽकाशगामि विद्या इव प्रत्र द्विजन्मनः । अन्वयः-प्रास्थाम् विना पार्हतः धर्मः, अत्र द्विजन्मनः सिद्धदत्ताऽऽकाशगामि विद्या इव फल-प्राप्त्यै न हि भवेत् । शब्दार्थः-प्रास्थाम् =श्रद्धा के, विना=सिवाय, पार्हतः=अरिहन्त भगवान सम्बन्धी, धर्मः=धर्म, अत्र इस लोक में, द्विजन्मनः ब्राह्म को, सिद्धदत्ताऽऽकाशगामि= सिद्ध द्वारा दी गयी आकाशगामी विद्या की तरह, फलप्राप्त्यै फलप्राप्ति के लिए, न हि भवेत् नहीं होवे । श्लोकार्थः-श्रद्धा के सिवाय अरिहन्त भगवान सम्बन्धी धर्म इस लोक में ब्राह्म को सिद्ध द्वारा दी गयी आकाशगामी विद्या की तरह फलप्राप्ति के लिए नहीं होवे । संस्कृतानुवादः-श्रद्धां विनाऽऽहतो धर्मः अत्र विप्रस्य सिद्धप्रदत्ताऽऽकाशगामीतिविद्येव फलप्राप्त्यै नहि भवेत् ।। १०१ ॥ ( १०२ ) Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सत्यम् * [ १०२ ] कुर्वाणः पापकर्माणि, चौर्यादीन्यपि देहभृत् । सत्यकश्रेष्ठिवत् सत्य-व्रती स्याद् राजवल्लभः ॥१०२॥ पदच्छेदः-कुर्वाणः पापकर्माणि चौर्यादीनि अपि देहभृत् सत्यकश्रेष्ठिवत् सत्यव्रती स्यात् राजवल्लभः । अन्वयः-देहभृत् चौर्यादीन्यपि पापकर्माणि कुर्वाणः सत्यव्रती सत्यकश्रेष्ठिवद् राजवल्लभः स्यात् । शब्दार्थः-देहं बिभर्ति इति देहभृत् =शरीरधारी, चौर्यादीन्यपि चोरी आदि भी, पापकर्मारिण=पाप कर्मों को, कुर्वाणः करता हुआ, सत्यं व्रतं यस्याऽसौ सत्यव्रती= सत्य का व्रत रखने वाला, सत्यकश्रेष्ठिवद=सत्यक सेठ की तरह, राज्ञः वल्लभः राजवल्लभः= राजा का प्रिय, स्यात् होवे। श्लोकार्थः-देहधारी मानव चोरी आदि पापकर्मों को करते हुए भी सत्यवती सत्यकश्रेष्ठी की तरह राजा को प्रिय हो जाता है। संस्कृतानुवादः-देहभृज्जनश्चौर्यादीन्यपि पापकृत्यानि कुर्वन् सत्यव्रतधारकः सत्यकश्रेष्ठिवद् नृपतिप्रियो भवेत् ॥ १०२ ॥ ( १०३ ) Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * असत्यम् * [ १०३ ] संसारभीरुवितथ - मधोगति - निबन्धनम् । उपरोधाद् भयाद् वापि, न वदेत् कालिकार्यवत् ॥ १०३॥ पदच्छेदः-संसारभीरुः वितथम् अधोगतिनिबन्धनम् उपरोधात् भयाद् वा अपि न वदेत् कालिकार्यवत् । अन्वयः-संसारभीरुः कालिकार्यवत् उपरोधात् भयाद् वा अपि अधोगतिनिबन्धनम् वितथम् न वदेत् । शब्दार्थः-संसारभीरुः संसार से डरने वाला व्यक्ति, कालिकार्यवत् कालिकार्य की तरह, उपरोधात्=किसी के आग्रह करने से, भयात्=भय से, वा=अथवा, अपि भी अधोगतेः निबन्धनम्, अधोगतिनिबन्धनम् अवनति का कारण, वितथम् =असत्य को, न वदेत् नहीं बोलना चाहिए। श्लोकार्थः-संसार से डरने वाला व्यक्ति कालिकार्य की तरह किसी के आग्रह करने से अथवा भय से भी अवनति के मूल कारण असत्य को नहीं बोले । संस्कृतानुवादः-संसारभीरुर्जनः कालिकार्यवत् उपरोधाद् भयाद्वाऽपि अवनतेः कारणभूतमसत्यं कदापि न कथयेत् ।। १०३ ॥ ( १०४ ) Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०४ ] सुचिरं सत्यवक्ताऽपि, वदन्मिथ्योपरोधतः । प्रयाति नरकं स्वार्थ-भ्र शकृद् वसुराजवत् ॥ १०४॥ पदच्छेदः-सुचिरं सत्यवक्ता अपि वदन् मिथ्या उपरोधतः प्रयाति नरकं स्वार्थभ्रशकृद् वसुराजवत् । अन्वयः-सुचिरं सत्यवक्ता अपि उपरोधतः मिथ्या वदन् वसुराजवत् स्वार्थभ्र शकृद् सन् नरक प्रयाति । शब्दार्थः-सुचिरं दीर्घ समय तक, सत्यवक्ता सत्य बोलने वाला, अपि भी, उपरोधतः=अन्य के उपरोध से, मिथ्या=असत्य, वदन्=बोलता हुआ, वसुराजवत् वसु राजा की तरह, स्वार्थभ्रशकृद् अपने स्वार्थ को नष्ट करता हुआ, नरकं = नरक को, प्रयाति=जाता है। श्लोकार्थः-दीर्घ समय तक सत्य बोलने वाला व्यक्ति भी अन्य के आग्रह से झूठ बोलने पर अपने स्वार्थ को नष्ट करते हुए वसुराजा की तरह नरक को जाता है । संस्कृतानुवादः-सुचिरं सत्यवादी अपि अन्योपरोधतोऽ सत्यं कथयन् वसुराजवद् स्वार्थभ्रशकृद् सन् नरकं प्रगच्छति ।। १०४ ॥ ( १०५ ) . Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नमस्कारः * [ १०५ ] नमस्कारप्रभावेण, जीवाः सद्गतिभागिनः । इव हस्तिपकश्चौर्य-कलङ्की त्रिदिवं गताः ॥ १०५ ॥ पदच्छेदः-नमस्कारप्रभावेण जीवाः सद्गतिभागिनः इव हस्तिपकः चौर्यकलङ्की त्रिदिवं गताः । अन्वयः-सद्गतिभागिनः जीवाः नमस्कारप्रभावेण चौर्यकलङ्की हस्तिपक इव त्रिदिवं गताः । शब्दार्थः-सद्गति भजन्तीति सद्गतिभागिनः श्रेष्ठ गति को पाने वाले, जीवाः प्राणी, नमस्कारप्रभावेण= नमस्कार के प्रभाव से, चौर्यस्य कलङ्कोऽस्यास्तीति चौर्यकलङ्की चोरी के कलंक वाला, हस्तिपकः इव हाथी के महावत की तरह, त्रिदिवं स्वर्ग को, गताः=गये । श्लोकार्थः-सद्गति को पाने वाले प्राणी नमस्कार महामन्त्र के प्रभाव से चोरी के कलङ्क वाले हाथी के महावत की तरह स्वर्ग को गये । ___ संस्कृतानुवादः-श्रेष्ठगतिभागिनः प्राणिनः नमस्कारमहामन्त्रस्य प्रभावेण चौर्यकलङ्की हस्तिपक इव त्रिदिवं प्रयाताः ॥ १०५ ॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबुद्धः * [ १०६ ] नानापुराकृतकुकर्मकदर्थनानि , दृष्ट्वा न हास्यरसमाचरति प्रबुद्धः । यद् ब्राह्मणी नृपतिघातपणाङ्गनादि-.. कर्माण्यचीकरदिहैककजन्ममध्ये ॥१०६ ॥ पदच्छेदः-नानापुराकृतकुकर्मकदर्थनानि दृष्ट्वा न हास्यरसम् आचरति प्रबुद्धः । यद् ब्राह्मणी नृपतिघातपणाङ्गनादि कर्माणि अचीकरत् इह एककजन्ममध्ये । अन्वयः-प्रबुद्धः जनः नानापुराकृतकुकर्मकदर्थनानि दृष्ट्वा हास्यरसम् न आचरति यद् ब्राह्मणी इह एककजन्ममध्ये नृपतिघातपणाङ्गनादि कर्माणि अचीकरत् । शब्दार्थः-प्रबुद्धः=ज्ञानी, जनः मानवः, नानापुराकृतानि कुकर्माणि च तानि कदर्थनानि च नानापुराकृतकुकर्मकदर्थनानि अनेकविध पहले किये गये कुकर्म और कष्टों को, दृष्ट्वा देखकर, हास्यरसम् = हँसीमजाकादि को, न पाचरति नहीं करता है, यत्-जो कि, ब्राह्मणी= ब्राह्मण की स्त्री, इह इस लोक में, एककजन्ममध्ये एक ही जन्म के अन्दर, नपतिघातपणाङ्गनादिकारिण=राजा का वध एवं वेश्या आदि के कर्मों को, अचीकरत् किया। श्लोकार्थः-ज्ञानीजन पहले किये गये अनेकविध कुकर्मों एवं कष्टों को देखकर हँसी-मजाक नहीं करता है । ब्राह्मणी ने इस लोक में एक ही जन्म में राजा का वध एवं वेश्यादि के कुकर्मों को किया। संस्कृतानुवादः-ज्ञानी जनो नानाविध-पूर्वाचरितकुकर्मकदर्थनानि दृष्ट्वा हास्यं नैव करोति । यत् ब्राह्मणी इह लोके एकस्मिन्नव जन्ममध्ये नृपतिवधपणाङ्गनादि कुकर्माणि अचीकरदिति ।। १०६ ।। ( १०७ ) Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सेवा * [ १०७ ] महात्मनां निर्ममाणामपि सेवा फलप्रदा । यथा नमि-विनम्योः श्रीवृषभस्वामिसेविनोः ॥ १०७ ॥ पदच्छेदः-महात्मनां निर्ममारणाम् अपि सेवा फलप्रदा, यथा नमि-विनम्योः श्रीवृषभस्वामिसेविनोः ।। अन्वयः-निर्ममारणां महात्मनां अपि सेवा फलप्रदा यथा नमि-विनम्योः श्रीवृषभस्वामिसेविनोः (सेवा फलप्रदा जाता) । शब्दार्थः-निर्ममाणां ममत्व से रहित, महात्मनां अपि महात्माओं की भी, सेवाशुश्रूषा, फलप्रदा=फल देने वाली, यथा=जैसे, श्रीवृषभस्वामिसेविनोः= श्रीवृषभस्वामी की सेवा करने वाले, नमि-विनम्योः नमि और विनमि की। श्लोकार्थः-ममत्व से रहित निष्कामभावना वाले महात्मा पुरुषों की भी सेवा फल देने वाली होती है। जैसे श्रीवृषभदेव प्रभु की सेवा करने वाले नमि और विनमि की सेवा फलप्रदा हुई। संस्कृतानुवादः-ममत्वरहितानां महात्मनामपि सेवा फलप्रदा भवति; यथा श्रीवृषभस्वामिसेविनोः नमिविनम्योः सेवा फलदाता जाता ।। १०७ ॥ ( १०८ ) Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * धर्मः * [ १०८ ] कुर्यात् पराक्रमं भूय, प्रात्ममृत्युभयच्छिदे । कंसस्येव परं मृत्युभीधर्मादेव गच्छति ॥ १०८ ॥ पदच्छेदः-कुर्यात् पराक्रमं भूयः आत्ममृत्युभयच्छिदे कंसस्य इव परं मृत्युभीः धर्मात् एव गच्छति । अन्वयः-प्रात्ममृत्युभयच्छिदे भूयः पराक्रमं कुर्यात्, मृत्युभीः कंसस्य इव धर्मात् एव गच्छति । शब्दार्थः-प्रात्ममृत्युभयच्छिदे अपनी मृत्यु के भय के नाश के लिए, भूयः=फिर से, पराक्रम पराक्रम को, कुर्यात् करना चाहिए, मृत्युभीः मृत्यु का भय, कंसस्य इव कंस की तरह, धर्मादेव धर्म से ही, गच्छति= जाता है। श्लोकार्थः-अपनी मृत्यु के भय को नष्ट करने के लिए मानव को फिर से पराक्रम करना चाहिए। मृत्यु का भय कंस की तरह धर्म से ही जाता है । संस्कृतानुवादः-स्वकीयमृत्युभयनाशार्थं मानवो भूयः पराक्रमं कुर्यात् । मृत्युभीः कंसस्येव धर्माचरणादेव गच्छति ।। १०८ ।। ( १०६ ) Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जिनस्तुतिः * _ [ १०६ ] व्याधिध्वंसो भवेज्जन्तो,-गुणनेन जिनस्तुतेः । भक्तामरप्रभावेण, राजहंसकुमारवत् ॥१०६ ॥ पदच्छेदः-व्याधिध्वंसः भवेत् जन्तोः गुणनेन जिनस्तुतेः । भक्तामरप्रभावेण राजहंसकुमारवत् । अन्वयः-जिनस्तुतेः गुणनेन जन्तोः भक्तामरप्रभावेण राजहंसकुमारवत् व्याधिध्वंसः भवेत् । __ शब्दार्थ:-जिनस्तुतेः जिनेश्वर भगवान की स्तुति का, गुणनेन=गुणगान करने से, जन्तोः प्राणी का, भक्तामरप्रभावेण भक्तामरस्तोत्र के प्रभाव से, राजहंसकुमारवत्= राजहंस कुमार को तरह, व्याधिध्वंसः व्याधि-रोगों का विनाश, भवेत् = होवे । श्लोकार्थः-श्रीजिनेश्वर भगवान की स्तुति करने से प्राणी के भक्तामर स्तोत्र के प्रभाव से राजहंसकुमार की तरह सब तरह के व्याधि-रोगों का विनाश होता है । संस्कृतानुवादः-जिनेश्वरस्तुतेः कीर्तनेन प्राणिनः भक्तामरस्तोत्रप्रभावेण राजहंसकुमार इव व्याधिविनाशो भवेत् ।। १०६ ।। ( ११० ) Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रभव्यः * [ ११० ] श्रदधाति न जीवादितत्त्वानप्यात्तसंयमः । अङ्गारमर्दकाचार्य इवाऽभव्यो निरास्तिकः ॥ ११० ॥ पदच्छेदः-श्रद्दधाति न जीवादितत्त्वान् अपि प्रात्तसंयमः, अङ्गारमर्दकाचार्यः इव अभव्यः निरास्तिकः भवति । अन्वयः-प्रात्तसंयमः अपि यः जीवादितत्त्वान् न . श्रद्दधाति सः अङ्गारमर्दकाचार्यः इव अभव्य: निरास्तिकः भवति । शब्दार्थः-प्रात्तः संयमो येन सः आत्तसंयमः अपि = ग्रहण किया है संयम जिसने, यः=जो, जीवादितत्त्वान् = जीवादि तत्त्वों को, न श्रद्दधाति श्रद्धा नहीं करता है, सः वह, अङ्गारमर्दकाचार्यः इव-अङ्गारमर्दकाचार्य की तरह, प्रभव्यः अभविक, निरास्तिकः नास्तिक, भवति= होता है। श्लोकार्थः-ग्रहण किया है संयम जिसने ऐसा प्राणी भी (यदि) जीवादितत्त्वों पर विश्वास नहीं करता है तो वह अङ्गारमर्दकाचार्य की तरह अभव्य और नास्तिक होता है । ___संस्कृतानुवादः-यः प्रात्तसंयमोऽपि जनः जीवादितत्त्वान् न श्रद्दधाति सोऽङ्गारमर्दकाचार्य इवाऽभव्यो नास्तिकश्च भवति ।। ११० ।। ( १११ ) Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सौजन्यम् * [ १११ ] भ्रात्रादिष्वपि सौजन्यं, प्राणी राज्यादिलोलुपः । तृष्णावशान्न गणयेत्, सहजेषु यथाऽऽर्षभिः ॥ १११ ॥ पदच्छेदः-भ्रात्रादिषु अपि सौजन्यं प्राणी राज्यादिलोलुपः । तृष्णावशात् न गणयेत्, सहजेषु यथा पार्षभिः । अन्वयः-तृष्णावशात् प्राणी राज्यादिलोलुपः सन् भ्रात्रादिषु अपि सौजन्यं न गणयेत् यथा पार्षभिः सहजेषु । ___ शब्दार्थः-प्राणी देहधारी, राज्यादिलोलुपः सन्= राज्यादि का लोलुप होते हुए, भ्रात्रादिषु अपि भाइयों के विषय में भी, तृष्णावशात् तृष्णा के आधीन होने से, सौजन्यं सुजनता, यथा=जैसे, पार्षभिः श्रीऋषभस्वामी के पुत्र ने, सहजेषु अपने सगे भाइयों के विषय में, न गरणयेत् =नहीं गिने। ___श्लोकार्थः-तृष्णा के वशीभूत हुआ प्राणी राज्यादि के विषय में लोलुप होकर सगे भाइयों के विषय में भी सौजन्य नहीं रखता जैसे श्री ऋषभदेव के पुत्रों (भरत, बाहुबली) ने नहीं रखा। संस्कृतानुवादः-तृष्णायाः प्राबल्येन प्राणी राज्यादिविषयेषु गृध्नुः सन् भ्रात्रादिष्वपि सौजन्यं न गणयेत् । यथा पार्षभिः सहजेषु अपि सौजन्यं नागरणयत् ।। १११ ।। ( ११२ ) Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * विनयी * [ ११२ ] विनयी धर्मयोग्यः स्याद्, बुद्धयादिगुणभाजनम् । सहकारफलाऽऽकृष्टि-विद्यावाञ्छणिको यथा ॥ ११२ ॥ पदच्छेदः-विनयी धर्मयोग्य: स्यात् बुद्धयादिगुणभाजनम्, यथा सहकारफलाऽऽकृष्टि - विद्यावान् श्रेणिकः जातः । अन्वयः-बुद्धयादिगुणभाजनम् विनयी धर्मयोग्यः . स्यात् यथा सहकारफलाऽऽकृष्टि - विद्यावान् श्रेणिकः गुणभाजनम् जातः । शब्दार्थः-बुद्धयादिगुरणभाजनम् =बुद्धि आदि गुणों का पात्र, विनयी विनयशील मानव, धर्मयोग्यः धर्म के लिए योग्य, स्यात् होवे, यथा जैसे, सहकारफलाऽऽकृष्टि विद्यावान पाम्रवृक्ष के फल को आकर्षित करने की विद्यावाला, श्रेणिकः श्रेणिक राजा, गुणभाजनम्=गुणों का पात्र, जातः=हुआ। ___ श्लोकार्थः-बुद्धि आदि गुणों का पात्र विनयी मानव धर्म के योग्य होता है। जैसे अाम्रवृक्ष के फलों को आकर्षित करने की विद्या वाला श्रेणिक राजा गुणों का भाजन बना। ___ संस्कृतानुवादः-बुद्धयादिगुणभाजनं विनयी मानवो धर्मयोग्यो भवेत् यथा आम्रवृक्षफलाकृष्टि - विद्यानाम् श्रेणिको नृपतिः गुणभाजनं जातः ।। ११२ ।। धर्मो-८ ( ११३ ) Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * धर्मसमयः * [ ११३ ] प्राप्य धर्मसमयं सुधीधनो, विस्तराय न विलम्बमाचरेत् ।। येन बाहुबलिनाऽपि यामिनी लङ्घनेन वृषभो न वन्दितः ॥ ११३ ॥ पदच्छेदः-प्राप्य धर्मसमयं सुधीधनः, विस्तराय न विलम्बम् आचरेत् । येन बाहुबलिना अपि यामिनीलङ्घनेन वृषभो न वन्दितः ।। अन्वयः-सुधीधनः धर्मसमयं प्राप्य विस्तराय विलम्बम् न आचरेत् । येन बाहुबलिना अपि यामिनीलङ्घनेन वृषभः न वन्दितः । शब्दार्थः-सुधीधनः=सुन्दरबुद्धिरूप धनवाला, धर्मसमयं धर्म के अवसर को, प्राप्य प्राप्तकर, विस्तराय= विस्तार के लिए, विलम्बम् विलम्ब, देरी, न पाचरेत् = नहीं करे । येन कारण कि, बाहुबलिना=बाहुबली के द्वारा, अपि=भी, यामिनीलङ्कनेन रात्रि के उल्लङ्घन द्वारा, वृषभः=ऋषभदेव, न वन्दितः=वन्दना नहीं किये गये। श्लोकार्थः-सुन्दर बुद्धिरूप धनवाला प्राणी धर्म के अवसर को प्राप्त कर विस्तार के लिए विलम्ब न करे । कारण कि बाहुबली भी रात्रि का उल्लङ्घन करने से श्रीऋषभदेव भगवान के चरणों की वन्दना नहीं कर सके । संस्कृतानुवादः-सुधीधनः प्राणी धर्मस्यावसरं लब्ध्वा विस्तराय विलम्बं न कुर्यात् येन श्रीबाहुबलिना यामिनीलङ्घनेन वृषभो न वन्दितः अर्थात् भगवान ऋषभदेवः बाहुबलेरागमनात् पूर्वमेव तत्स्थानात् प्रस्थिता ।। ११३ ।। ( ११४ ) Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * मन्मथः [कामः] * [ ११४ ] मन्मथव्याकुलः किञ्चि-दपि नो गरणयेन्नरः । ब्रह्मदत्तं यथा माता चुलगी मारणोद्यता ॥ ११४ ॥ पदच्छेदः-मन्मथव्याकुलः किञ्चिद् अपि नो गणयेत् नरः। ब्रह्मदत्तं यथा माता चुलणी मारणोद्यता। अन्वयः-यथा माता चुलणी ब्रह्मदत्तं मारणोद्यता तथा मन्मथव्याकुलः नरः किञ्चिद् अपि न गणयेत् । शब्दार्थः-यथा जैसे, माता=जननी, चुलणी = चुलणी नाम की, ब्रह्मदत्तं ब्रह्मदत्त को, मारणोद्यता=मारने के लिए उद्यत हुई। तथा वैसे ही, मन्मथेन व्याकुलः मन्मथव्याकुलः कामपीड़ित, नरः पुरुष, किञ्चिदपि= कुछ भी, न गरणयेत् नहीं गिनता। श्लोकार्थः-जैसे माता चुलणी ब्रह्मदत्त को मारने के लिए तैयार हुई, वैसे ही काम से पोड़ित पुरुष कुछ भी नहीं गिनता। संस्कृतानुवादः यथा चुलणी माता ब्रह्मदत्तं मारणोद्यता जाता तथैव कामपीडितो नरः किञ्चिदपि न गणयति ॥ ११४ ॥ ( ११५ ) Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * कर्मवैषम्यम् * [ ११५ ] वैफल्यं न नयेत् कर्म-वैषम्यं समुपस्थितम् । प्रौढः पुरुषकारोऽपि, द्वारवत्यां हरेरिव ॥ ११५ ॥ पदच्छेदः-वैफल्यं न नयेत् कर्मवैषम्यं समुपस्थितं प्रौढः पुरुषकारः अपि द्वारवत्यां हरेः इव । अन्वयः-समुपस्थितं कर्मवैषम्यं वैफल्यं न नयेत् द्वारवत्यां हरेः प्रौढः पुरुषकारः इव । शब्दार्थः-समुपस्थितम् =उपस्थित हुई, कर्मवैषम्यं= कर्म की विषमता को, वैफल्यं विफलता को, न नयेत् = न ले जाये, द्वारवत्यां द्वारका में, हरेः=कृष्ण का, प्रौढः=महान् , पुरुषकारः इव पुरुषार्थ की तरह । श्लोकार्थः-उपस्थित हुई कर्म की विषमता विफलता को नहीं ले जाई जाती जैसे द्वारकानगरी में श्रीकृष्ण का महान् पुरुषार्थ (भी सफल नहीं हुआ)। संस्कृतानुवादः-समुपस्थितं कर्मवैषम्यं प्राणी ! द्वारवत्यां हरेः प्रौढः पुरुषकार इव वैफल्यं न नयेत् ।। ११५ ॥ ( ११६ ) Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * शान्तात्मा * [ ११६ ] प्रशान्तहृदयं धर्म - ध्यानचित्तं दृढवतम् । पापोऽपि बोधवान् दृष्ट्वा , पुष्पाजीव इवार्जुनः ॥ ११६ ॥ पदच्छेदः-प्रशान्तहृदयं धर्मध्यानचित्तं दृढव्रतम् पापः अपि बोधवान् दृष्ट्वा पुष्पाजीव इव अर्जुनः । अन्वयः-प्रशान्तहृदयं धर्मध्यानचित्तं दृढव्रतं पापः अपि अर्जुनः दृष्ट्वा पुष्पाजीवः इव बोधवान् जातः । शब्दार्थः-प्रशान्तहृदयं =प्रशान्त हृदय वाले, धर्मध्यानचित्तं धर्म के ध्यान में मन वाले, दृढव्रतं दृढव्रत वाले को, पापः अपि पापी भी, अर्जुन अर्जुन, पुष्पाजीव इव = पुष्पाजीव की तरह, बोधवान् बोधवाले, जातः हुए। श्लोकार्थः-प्रशान्तहृदय वाले, धर्मध्यान में मन वाले दृढव्रतधारी को देखकर पापी अर्जुन भी पुष्पाजीव की तरह बोधवाला हुआ। संस्कृतानुवादः-प्रशान्तहृदयं धर्मध्यानचित्तं दृढव्रतं दृष्ट्वा पापोऽपि अर्जुनः पुष्पाजीव इव बोधवान् संजातः ॥ ११६ ॥ ( ११७ ) Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जिनाऽऽज्ञा * [ ११७ ] वयसा लघुरप्यत्र, जिनाऽऽज्ञायां रुचि दधत् । अतिमुक्तर्षिवत् प्राज्ञो, वृणुते केवलश्रियम् ॥ ११७ ॥ पदच्छेदः-वयसा अपि लघुः अत्र जिनाज्ञायां रुचि दधत्, अतिमुक्तर्षिवत् प्राज्ञः वृणुते केवल श्रियम् । अन्वयः-पत्र वयसा लघुः अपि जिनाऽऽज्ञायां रुचि दधत् प्राज्ञः अतिमुक्तर्षिवत् केवल श्रियं वृणुते । शब्दार्थः-अत्र= इस लोक में, वयसा उम्र से, लघुरपि=छोटा होने पर भी, जिनाज्ञायां श्रीजिनेश्वर भगवान की आज्ञा में, रुचि रुचि को, दधत्= रखता हुमा, प्राज्ञः=बुद्धिमान, अतिमुक्तर्षिवत्=प्रतिमुक्तर्षि की तरह, केवलश्रियं केवलज्ञान की लक्ष्मी को, वृणुते वरण करता है। श्लोकार्थः-इस लोक में आयु से छोटा होने पर भी श्रीजिनेश्वर भगवान की आज्ञा में रुचि रखते हुए बुद्धिमान् मनुष्य अतिमुक्तर्षि की तरह केवलज्ञान की लक्ष्मी को वरण करता है। संस्कृतानुवादः-इह लोके वयसा लघुरपि प्राज्ञो जिनाऽऽज्ञायां रुचिं दधत् अतिमुक्तर्षिरिव केवलज्ञानलक्ष्मी वृणुते ।। ११७ ॥ ( ११८ ) Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * वधः * [ ११८ ] प्रभुत्वमदमत्तः सन्, कर्णनक्रवधादिकम् । कुर्वनिन्द्रियवैकल्य-दुःखं लोष्टवदाप्नुयात् ॥ ११८ ॥ पदच्छेदः-प्रभुत्वमदमत्तः सन् कर्णनक्रवधादिकम् कुर्वन् मानवः इन्द्रियवैकल्य-दुःखं लोष्टवद् प्राप्नुयात् । अन्वयः-मानवः प्रभुत्वमदमत्तः सन् कर्णनक्रवधादिकम् कुर्वन् इन्द्रियवैकल्यदुःखं लोष्टवद् प्राप्नुयात् । शब्दार्थः-प्रभुत्वमदमत्तः सन् उच्च पद के मद से मत्त होता हुआ, कर्णनकवधादिकम् कुर्वन् =कर्ण और मगर आदि का वध करता हुआ, मानवः=मनुष्य, इन्द्रियवैकल्यदुःखं=इन्द्रियों की विकलता के दुःख को, लोष्टवद्=लोष्ट की तरह, आप्नुयात् =प्राप्त करे। श्लोकार्थः-उच्चपद के गर्व से मत्त होता हुआ और कर्ण तथा मगर आदि का वध करता हुआ प्राणी इन्द्रियों की विकलता के दुःख को लोष्ट की तरह प्राप्त करे । ____संस्कृतानुवादः-प्रभुत्वगर्वमत्तः सन् कर्णनक्रवधादिकं कुर्वन् मानवः इन्द्रियवैकल्यदुःखं लोष्टवद् प्राप्नुयात् ॥ ११८ ।। ( ११६ ) . Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * स्तेयम् * [ ११६ ] स्तेयो नरकगामी स्यात्, स्तेयं हेयं मनीषिणा। चौर्याद् येन निगृह्यत, नृपैर्मण्डितचोरवत् ॥ ११६ ।। पदच्छेदः-स्तेयी नरकगामी स्यात् स्तेयं हेयं मनीषिणा चौर्यात् येन निगृह्यत नृपैः मण्डितचोरवत् । - अन्वयः-स्तेयी नरकगामी स्यात्, मनीषिणा स्तेयम् हेयम्, येन चौर्यात् मण्डितचोरवत् नृपः निगृह्यत । शब्दार्थः-स्तेयी चोरी करने वाला, नरकगामी = नरक में जाने वाला, स्यात् होवे । मनीषिणा=बुद्धिमान के द्वारा, स्तेयं चोरी को, हेयम्=छोड़ना चाहिए। येन= जिससे, चौर्यात् =चोरी करने से, मण्डितचोरवत् =मण्डित चोर की तरह, नृपः राजाओं के द्वारा, निगृह्यत= दण्डनीय होवे। __श्लोकार्थः-चोरी करने वाला नरक में जाने वाला होता है। इसलिए बुद्धिमान को चोरी छोड़ देनी चाहिए। कारण कि चोरी करने से मण्डित चोर की तरह राजा के द्वारा दण्डाह अर्थात् दण्डनीय होता है। संस्कृतानुवादः-स्तेयी मानवो नरकगामी भवेत्, अतः विदुषा चौर्यं हेयम् । येन चौर्यात् मण्डितचोरवत् राज्ञा निगृह्यत ।। ११६ ॥ ( १२० ) Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२० ] स्तेयं कुलकमाऽऽयात-मपि यस्तु परित्यजेत् । स्वर्भोगभङ्गी-सुभगः स भवेद् रौहिणेयवत् ॥ १२० ॥ पदच्छेदः-स्तेयम् कुलक्रमाऽऽयातम् अपि यः तु परित्यजेत् स्वर्भोगभङ्गी सुभगः स भवेद् रोहिणेयवत् । अन्वयः-यः कुलक्रमाऽऽयातम् अपि स्तेयं परित्यजेत्, सः रोहिणेयवत् स्व गभङ्गी सुभगः भवेत् । शब्दार्थः-यः जो कुल क्रमाऽऽयातम् अपि कुलक्रम से आते हुए भी, स्तेयं चोरी को, परित्यजेत्=छोड़ना चाहिए। सः वह मनुष्य, रोहिणेय की तरह, स्वर्भोगभङ्गी सुभगः स्वर्गीय भोगों को भोगने वाला । __श्लोकार्थः-जो मनुष्य कुलपरम्परा से प्रागत भी चौर्यकर्म को छोड़ता है वह रौहिणेय की तरह स्वर्गीय भोगों को भोगने वाला होता है । संस्कृतानुवादः-यो मानवः कुलक्रमाऽऽयातमपि चौर्य परित्यजेत् सः रौहिणेयवत् स्वर्भोगभङ्गी सुभगो भवेत् ॥ १२० ॥ ( १२१ ) Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * चरमदेही * [ १२१ ] बहुभिः प्रार्थ्यमानोऽपि, प्राणी चरमविग्रहः । न भोगसम्मुखोनः स्याद् , गजादिसुकुमालवत् ॥ १२१॥ पदच्छेदः-बहुभिः प्रार्थ्यमानः अपि प्राणी चरमविग्रहः न भोगसम्मुखीनः स्यात् गजादिसुकुमालवत् । अन्वयः-बहुभिः प्रार्थ्यमानः अपि चरमविग्रहः प्राणी भोगसम्मुखीनः गजादिसुकुमालवत् न स्यात् । शब्दार्थः-बहुभिः=बहुत लोगों के द्वारा, प्रार्थ्यमानः अपि प्रार्थना किया जाता हुआ भी, चरमविग्रहः चरमदेहो, प्राणी जीव, भोगसम्मुखीनः=भोगों के प्रति उन्मुख, गजादिसुकुमालवद्=गजादि सुकुमाल की तरह, न स्यात्= नहीं होवे। श्लोकार्थः-बहुत लोगों के द्वारा प्रार्थना किया जाता हुआ भी चरमशरीरी जीव भोगों के प्रति गजसुकुमाल की भाँति उन्मुख नहीं होता है। संस्कृतानुवादः बहुभिः जनैः प्रार्थ्यमानोऽपि चरमदेही प्राणी गजादिसुकुमालः इव भोगान् प्रति उन्मुखो न भवति ।। १२१ ॥ ( १२२ ) Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * लज्जा * [ १२२ ] धर्माद् विरक्तहृदयोऽपि नरः सुवेष - लज्जां वहन्नहि जहाति चरित्रधर्मम् । मन्त्रीश्वरोदयनबोधकृते मुनित्व मारोपितोऽपरनृपरिव पीठमर्दः ॥ १२२ ॥ __पदच्छेदः-धर्माद् विरक्तहृदयः अपि नरः सुवेषलज्जां वहन् नहि जहाति चरित्रधर्मम् मन्त्रीश्वरोदयनबोधकृते मुनित्वम् आरोपितः अपरनृपैः इव पीठमर्दः । अन्वयः-धर्मात् विरक्तहृदयः अपि नरः सुवेषलज्जां वहन् चरित्रधर्मम् नहि जहाति । अपरनपैः मन्त्रीश्वरोदयनबोधकृते मुनित्वम् आरोपितः पीठमर्दः इव ।। शब्दार्थः-धर्मात्=धर्म से, विरक्त हृदयं यस्य स विरक्तहृदयः=विरति से युक्त मनवाला, अपि=भी, नरः= पुरुष, सुवेषस्य लज्जा तां सुवेषलज्जां=सुन्दर वेषभूषा की लज्जा को, वहन धारण करता हुआ, चरित्रधर्मम् = चरित्र धर्म को, न हि जहाति नहीं छोड़ता है। अपरनपैः अन्य राजाओं द्वारा, मन्त्रीश्वरोदयनबोधकृते मन्त्री मुख्य उदयन के बोध के लिए, मुनित्वम् =मुनिपने को, पारोपितः= आरोपित किया गया, पीठमर्दः इव पीठमर्द की तरह । श्लोकार्थः-धर्म से विरक्तमनवाला पुरुष सुन्दर वेषभूषा की लज्जा को धारण करता हुआ, अन्य राजाओं के द्वारा मन्त्रीमुख्य उदयन के बोध के लिए मुनिपने को आरोपित पीठमर्द को तरह चरित्र धर्म को नहीं छोड़ता है ।। १२२ ॥ ( १२३ ) Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * धर्मः ॐ [ १२३ ] कुशाग्रीयमतिर्धर्म, परीक्ष्यैव समाचरेत् । वृषवाहिवरिणग्वन्न, लोकोक्तौ प्रत्ययो भवेत् ॥ १२३ ॥ पदच्छेदः-कुशाग्रीयमतिः धर्म परीक्ष्य एव समाचरेत्, वृषवाहिवणिग्वत् लोकोक्तौ न प्रत्ययी भवेत् । अन्वयः-कुशाग्रीयमतिः धर्म परीक्ष्य एव समाचरेत् , वृषवाहिवरिणग्वत् लोकोक्तौ न प्रत्ययी भवेत् । शब्दार्थः-कुशाग्रीया मतिर्यस्य सः कुशाग्रीयमतिः= तीव्र बुद्धिवाला मनुष्य, धर्म धर्म को, परीक्ष्य एव परीक्षा करके ही, समाचरेत् पाचरण करना चाहिए । वृषवाहिवरिणग्वत् वृषवाही वणिक् की तरह, न भवेत् नहीं होना चाहिए। लोकोक्तौ लोकोक्ति में, प्रत्ययी = विश्वास करने वाला, न भवेत् नहीं होना चाहिए। श्लोकार्थः-तीव्रबुद्धिवाला मनुष्य धर्म की परीक्षा करके ही आचरण करे। वृषवाही नामक वणिग् की तरह लोकोक्ति में विश्वास करने वाला नहीं होना चाहिए। संस्कृतानुवाद:-कुशाग्रबुद्धिः मानवीधर्म परीक्ष्यैव सदाचरणं कुर्याद् वृषवाहिवरिणग्वत् लोकोक्तौ प्रत्ययी न भवेत् ।। १२३ ॥ ( १२४ ) Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दोषगुणाः * [ १२४ ] पाच्छादयन् व्यक्तदोषानपि च ख्यापयन् गुणान् । स प्रशस्यः सुरेन्द्राणामपि स्याद् वासुदेववत् ॥ १२४ ॥ __ पदच्छेदः-पाच्छादयन् व्यक्तदोषानपि च ख्यापयन् गुणान् सः प्रशस्यः सुरेन्द्राणाम् अपि प्रशस्यः स्यात् । अन्वयः-व्यक्तदोषान् अपि आच्छादयन् गुणान् च ख्यापयन् वासुदेवः इव सः सुरेन्द्राणाम् अपि प्रशस्यः स्यात् । शब्दार्थः-व्यक्ताश्च ते दोषास्तान् व्यक्तदोषान् अपि = प्रगटदोषों को भी, आच्छादयन् =ढाँकते हुए, गुणान् च = और गुणों को, ख्यापयन् = प्रसिद्ध करते हुए, वासुदेवः इव वासुदेव की तरह, सः वह, सुरेन्द्राणामपि देवेन्द्रों का भी, प्रशस्यः प्रशंसा के योग्य, स्यात् होवे । श्लोकार्थः-प्रगटदोषों को भी छिपाते हुए तथा गुणों की प्रसिद्धि करते हुए वासुदेव की तरह वह देवेन्द्रों का भी प्रशंसा-पात्रबनता है। संस्कृतानुवादः-व्यक्तदोषानप्याच्छादयन् गुणान् च ख्यापयन् वासुदेवः इव स देवेन्द्राणामपि प्रशस्यः भवति ॥ १२४ ॥ ( १२५ ) Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सम्यक्त्वम् [ १२५ ] द्विविधस्यापि धर्मस्य साधुश्रद्धालुभेदतः। . द्वारभूतेऽथ सम्यक्त्वे यततां धनपालवत् ॥ १२५ ॥ पदच्छेदः-द्विविधस्य अपि धर्मस्य साधुश्रद्धालुभेदतः द्वारभूते अथ सम्यक्त्वे यततां धनपालवत् । अन्वयः-अथ साधुश्रद्धालुभेदतः द्विविधस्य अपि धर्मस्य द्वारभूते सम्यक्त्वे धनपालवत् यतताम् । शब्दार्थः-अथ तदनन्तर, साधुश्च श्रद्धालुश्च तयोर्भेदस्तस्मात् साधुश्रद्धालुभेदतः साधु और श्रद्धालु के भेद से, द्विविधस्य दो प्रकार के, अपि=भी, धर्मस्य--धर्म के, द्वारभूते द्वाररूप, सम्यक्त्वे सम्यक्त्वपने में, धनपालवत् = धनपाल की तरह, यतताम् प्रयत्न करो। श्लोकार्थः-उसके पश्चात् साधु और श्रद्धालु के भेद से [सर्वविरति और देशविरति रूप] दो प्रकार के धर्म के द्वार रूप सम्यक्त्वपने के विषय में धनपाल की तरह प्राप प्रयत्न करो। संस्कृतानुवादः-अथ साधुश्रद्धालुभेदात् द्विविधस्यापि धर्मस्य द्वाररूपे सम्यक्त्वे धनपालः इव प्रयत्नं भवान् करोतु ।। १२५ ।। ( १२६ ) Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२६ ] न चलेन्मेरुचू लेव, त्रिदशैश्वालितोऽपि सन् । स्थिरबुद्धिः शुद्धधर्माच्छेणिक क्षितिपालवत् ॥ १२६ ॥ पदच्छेदः - न चलेत् मेरुचूला इव त्रिदशैः चालितः अपि सन् स्थिरबुद्धिः शुद्धधर्मात् श्रणिकक्षितिपालवत् । शब्दार्थ:- स्थिर अन्वयः - स्थिरबुद्धिः शुद्धधर्मात् श्रेणिकक्षितिपालवत् त्रिदशैः चालितः अपि सन् मेरुचूला इव न चलेत् । बुद्धिर्यस्य सः स्थिरबुद्धिः = स्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति, शुद्धश्रासौ धर्मस्तस्मात् शुद्धधर्मात् शुद्ध धर्म से, श्रेणिश्चासौ क्षितिपालः श्रेणिक क्षितिपाल इव श्रेणिक राजा की तरह, त्रिदशैः = देवताओं से, चालितोऽपि = चलायमान होने पर भी, मेरोश्चूला मेरुचूला इव मेरु पर्वत के शिखर की तरह, न चलेत् = चलायमान नहीं होना चाहिए । -- -- श्लोकार्थ :- स्थिरबुद्धि वाला व्यक्ति पवित्र धर्म से श्रेणिकराजा को देवताओं से चलित करने पर भी मेरुपर्वत के शिखर की तरह चलायमान नहीं होवे | संस्कृतानुवादः - स्थिरबुद्धिः प्राज्ञः शुद्धधर्माच्छ्रे णिकनृपतिरिव देवैश्चालितोऽपि मेरुपर्वतस्य शृङ्गमिव न चलेत् ।। १२६ ।। ।। इति धर्मोपदेशश्लोकाः समाप्ताः ॥ ॥ इति श्रीधर्मोपदेशकथनार्ह ( ? ) सम्बन्धश्लोकाः : समाप्ताः ॥ ( १२७ ) Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है प्रशस्तिः । hmmmmmmons श्रीविक्रमे वरे वर्षे, ऋषिमोक्षनभाक्षिके । आश्विनशुक्लपक्षे हि, दशम्यां च शुभे दिने ।। १ विख्याते भारते देशे, श्रीगुर्जरप्रदेशके । नगरे ह्यमदाबादे, धर्मी-माण्डवीपोलके ॥ २ ॥ जैनस्योपाश्रयस्थाने, वर्षास्थितिं प्रकुर्वता । नेमि-लावण्यसूरीणां, श्रीदक्षवाचकस्य वै ।। ३ ।। पन्न्यासपदयुक्त न, सुशीलगणिना मुदा । विबुधाभिधशिष्यस्य, प्रार्थनया सुभक्तितः ।। ४ ।। पूर्वमुनिपतिदृब्ध - धर्मोपदेशकस्य वै। श्लोकानां पाठनायश्च, कृतोऽयमनुवादकः ॥ ५॥ ( १२८ ) Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .......0.000000 * प्राप्ति स्थान * 20 आचार्यश्री सुशील सरि जैन ज्ञान-मन्दिर शान्तिनगर, मु. सिरोही-307 001 (राज.) - श्री अरिहन्त-जिनोत्तम जैन ज्ञान-मन्दिर मु. जावाल, जि. सिरोही (राज.) - सुशील-सन्देश प्रकाशन मन्दिर सुराणा कुटीर, रूपाखान मार्ग, पुराने बस स्टेण्ड के पास, मु. सिरोही-307 001 (राज.) ........... 000 हित्य AHITI Ratini -उदश्यसम्यरज्ञान का प्रचार प्रसार ॐ नमो नाणस्स (D मुद्रक-ताज प्रिण्टर्स, जोधपुर दूरभाष : 21435, 21853