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________________ * धर्मरागः * . [ २७ ] आर्यः कुर्याद् धर्मराग-मस्थिमज्जाधिवासितम् । अभेद्यं तस्करक्लृप्त-नारी-कार्मणवद् दृढम् ॥२७॥ पदच्छेदः-आर्यः कुर्याद् धर्मरागम् अस्थिमज्जाधिवासितम् अभेद्यं तस्क रक्लुप्त-नारीकार्मणवद् दृढम् । अन्वयः-आर्यः अस्थि-मज्जाधिवासितम् अभेद्यं दृढं धर्मानुरागम् तस्करक्लुप्तनारीकार्मणवद् दृढम् । शब्दार्थः-आर्यः सज्जन मानव, अस्थि-मज्जाधिवासितम्=हड्डी और मज्जा की गहराई तक, दृढं मजबूत, अभेद्यं नहीं भेदने योग्य, धर्मानुरागम् धर्म के प्रति प्रेम, तस्कर-क्लुप्तनारीकार्मरणवद्=तस्कर से रचित नारीकार्मण की तरह, कुर्यात् करे । श्लोकार्थः-आर्य को चाहिए कि हड्डी और मज्जा की गहराई तक पहुँचे हुए दृढ़ और अभेद्य धर्मराग को तस्कर रचित नारीकार्मण की तरह करे । संस्कृतानुवादः-आर्यः अस्थि-मज्जाधिवासितं दृढमभेद्यञ्च धर्मानुरागं तस्करक्लुप्तनारीकार्मणवद् कुर्यात् ।।२७।। ( २८ )
SR No.002337
Book TitleDharmopadesh Shloka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1993
Total Pages144
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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