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________________ * अहङ्कारः * [ ७४ ] नीचजाति वजेज् जन्तु-जैतार्य इव निश्चितम् । तन्वानो जात्यहङ्कारं, दुरायतिनिबन्धनम् ॥७४॥ पदच्छेदः-नीचजाति व्रजेत् जन्तु: मेतार्यः इव निश्चितम् । तन्वानः जात्यहङ्कारं दुरायति निबन्धनम् । अन्वयः-दुरायति निबन्धनम् जात्यहङ्कारं तन्वानः जन्तुः निश्चितम् मेतार्यः इव नीचजाति व्रजेत् । __शब्दार्थः-दुरायति-निबन्धनम् दुरायति का मूल कारण, जात्यहङ्कारं जाति के अहङ्कार को, तन्वानः= विस्तार करता हुआ, जन्तुः प्राणी, निश्चितम् निश्चय ही, मेतार्यः इव मेतार्य की तरह, नीचजाति = नीच जाति के अन्दर, व्रजेत् = गमन करे ।। ___श्लोकार्थः-दुरायति के कारणभूत जाति से उत्पन्न अहङ्कार को विस्तृत करते हुए प्राणी निश्चय ही मेतार्य की तरह नीच जाति को प्राप्त करता है। संस्कृतानुवादः-दुरायतिनिबन्धनं जात्यभिमानं वितन्वन् प्राणी निश्चितम् मेतार्य इव नीचजाति गच्छेत् ॥ ७४ ॥ ( ७५ )
SR No.002337
Book TitleDharmopadesh Shloka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1993
Total Pages144
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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