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________________ [ ७५ ] संसारापारकपारेऽध्ययनस्मयमाचरन् । प्रारणी परिभ्रमत्येव, भृशं भुवनभानुवत् ॥ ७५ ॥ पदच्छेदः-संसारपारकूपारे अध्ययनस्मयम् प्राचरन् प्राणी परिभ्रमति एव भृशं भुवनभानुवत् । अन्वयः-प्राणी संसारपारकूपारे अध्ययनस्मयम् आचरन् भुवनभानुवत् भृशं परिभ्रमति एव । शब्दार्थः-प्राणी=देहधारी मानव, संसारापारकूपारे= संसार रूप अपार समुद्र में, अध्ययनस्मयम् अध्ययन के गर्व को, पाचरन् करते हुए, भुवनभानुवत् भुवनभानु की तरह, भृशं=अत्यन्त, परिभ्रमति एव घूमता ही . रहता है। श्लोकार्थः-देहधारी जीव संसार रूप अपार समुद्र में अध्ययन के गर्व को करता हुआ भुवनभानु की तरह निरन्तर घूमता ही रहता है । संस्कृतानुवादः-प्राणी संसारापारकूपारे पठनगर्वं कुर्वन् भुवनभानुरिव निरन्तरं परितो भ्रमत्येव ।। ७५ ।। ( ७६ )
SR No.002337
Book TitleDharmopadesh Shloka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1993
Total Pages144
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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