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________________ * दुष्कृतनिन्दा * [ ७३ ] सद्गतिं लभते निन्दन, स्वकृतं दुष्कृतं सुधीः । मृगावती यथाऽवाप, परमानन्दसम्पदम् ॥७३॥ पदच्छेदः-सद्गतिम् लभते निन्दन् स्वकृतं दुष्कृतं सुधीः, मृगावती यथा अवाप परमानन्दसम्पदम् । अन्वयः-सुधीः स्वकृतं दुष्कृतं निन्दन् सद्गतिं लभते यथा मृगावतो परमानन्दसम्पदम् अवाप । शब्दार्थः-सुधीः बुद्धिमान्, स्वीकृतं अपने से किया गया, दुष्कृतं पाप को, निन्दन् निन्दा करता हुआ, सद्गति उत्तम गति को, लभते प्राप्त करता है। यथा जैसे, मृगावती = मृगावती साध्वी ने, परमानन्दसम्पदं परमान्द के ऐश्वर्य को, अवाप = प्राप्त किया। ___ श्लोकार्थः-बुद्धिमान् मनुष्य अपने द्वारा किये गये पाप की निन्दा करता हुआ उत्तम गति को पाता है। जैसे मगावती साध्वी ने परमानन्द की सम्पदा को प्राप्त किया। संस्कृतानुवादः-विद्वान् स्वाचरितं पापं निन्दन् उत्तमां गतिं लभते । यथा मृगावत्या साध्व्या परमानन्दस्य सम्पद् प्राप्ता ।। ७३ ।। ( ७४ )
SR No.002337
Book TitleDharmopadesh Shloka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1993
Total Pages144
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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