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________________ * उत्सूत्रम् * [ ५५ ] निरूपयन्नागमार्थ - मप्युत्सूत्रं प्ररूपयन् । परिभ्रमति संसार, कमलप्रभसूरिवत् ॥ ५५ ॥ पदच्छेदः-निरूपयन् प्रागमार्थं अपि उत्सूत्रं प्ररूपयन् परिभ्रमति संसारं कमलप्रभसूरिवत् । अन्वयः-मानवः आगमार्थम् निरूपयन् अपि उत्सूत्रं प्ररूपयन् कमलप्रभसूरिवत् संसारं परिभ्रमति । शब्दार्थः-मानवः मनुष्य, प्रागमार्थम् आगमों के अर्थ को, निरूपयन बताता हुआ, अपि=भी, उत्सूत्रं सूत्रार्थ से विपरीत, प्ररूपयन् = प्ररूपणा करता हुआ, कमलप्रभसूरिवत् कमलप्रभसूरि की तरह, संसारम् =संसार में, परिभ्रमति परिभ्रमण करता है । श्लोकार्थः-मानव आगमों के अर्थ को बताता हुआ भी सूत्रार्थों के विपरीत उसकी प्ररूपणा करते हुए कमलप्रभसूरि की तरह संसार में परिभ्रमण करता रहता है । संस्कृतानुवादः-मानवः आगमार्थं निरूपयनपि उत्सूत्रं प्ररूपयन् कमलप्रभसूरिवत् संसारं परिभ्रमति ।। ५५ ।। ( ५६ )
SR No.002337
Book TitleDharmopadesh Shloka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1993
Total Pages144
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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