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________________ * प्रव्रज्या (दीक्षा) * [ ५६ ] मनोऽभीष्टपदप्राप्त्य, प्रव्रज्याऽप्येकरात्रिकी । भवेदाराधिता सम्य - गवन्तिसुकुमालवत् ॥ ५६ ॥ पदच्छेदः-मनः अभीष्टपदप्राप्त्यै प्रव्रज्या अपि एकरात्रिकी भवेत् आराधिता सम्यग् अवन्तिसुकुमालवत् । अन्वयः-सम्यक् पाराधिता एकरात्रिकी अपि प्रव्रज्या मनोऽभीष्टपदप्राप्त्यै अवन्तिसुकुमालवत् भवति । शब्दार्थः-सम्यग् =अच्छी तरह, आराधिता=आराधना की गयी, एकरात्रिकी अपि एकरात्रि मात्र की भी, प्रव्रज्या=दोक्षा, मनोऽभीष्टपदप्राप्त्यै-- मनवांछित पद की प्राप्ति हेतु, अवन्तिसुकुमालवत् अवन्तिसुकुमाल की तरह, भवति = होती है। - श्लोकार्थः-अच्छी तरह से आराधना की गयी एकरात्रिमात्र की भी प्रव्रज्या-दीक्षा मनवांछित पद की प्राप्ति हेतु अवन्तिसुकुमाल की तरह होती है। __संस्कृतानुवादः-सम्यग् आराधितैकरात्रिक्यपि प्रव्रज्या (दीक्षा) मनोऽभीष्टपदेप्राप्त्यै अवन्तिसुकुमाल इव भवति ।। ५६ ।।
SR No.002337
Book TitleDharmopadesh Shloka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1993
Total Pages144
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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