SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * चरमदेही * [ १२१ ] बहुभिः प्रार्थ्यमानोऽपि, प्राणी चरमविग्रहः । न भोगसम्मुखोनः स्याद् , गजादिसुकुमालवत् ॥ १२१॥ पदच्छेदः-बहुभिः प्रार्थ्यमानः अपि प्राणी चरमविग्रहः न भोगसम्मुखीनः स्यात् गजादिसुकुमालवत् । अन्वयः-बहुभिः प्रार्थ्यमानः अपि चरमविग्रहः प्राणी भोगसम्मुखीनः गजादिसुकुमालवत् न स्यात् । शब्दार्थः-बहुभिः=बहुत लोगों के द्वारा, प्रार्थ्यमानः अपि प्रार्थना किया जाता हुआ भी, चरमविग्रहः चरमदेहो, प्राणी जीव, भोगसम्मुखीनः=भोगों के प्रति उन्मुख, गजादिसुकुमालवद्=गजादि सुकुमाल की तरह, न स्यात्= नहीं होवे। श्लोकार्थः-बहुत लोगों के द्वारा प्रार्थना किया जाता हुआ भी चरमशरीरी जीव भोगों के प्रति गजसुकुमाल की भाँति उन्मुख नहीं होता है। संस्कृतानुवादः बहुभिः जनैः प्रार्थ्यमानोऽपि चरमदेही प्राणी गजादिसुकुमालः इव भोगान् प्रति उन्मुखो न भवति ।। १२१ ॥ ( १२२ )
SR No.002337
Book TitleDharmopadesh Shloka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1993
Total Pages144
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy