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* लज्जा *
[ १२२ ] धर्माद् विरक्तहृदयोऽपि नरः सुवेष
- लज्जां वहन्नहि जहाति चरित्रधर्मम् । मन्त्रीश्वरोदयनबोधकृते मुनित्व
मारोपितोऽपरनृपरिव पीठमर्दः ॥ १२२ ॥ __पदच्छेदः-धर्माद् विरक्तहृदयः अपि नरः सुवेषलज्जां वहन् नहि जहाति चरित्रधर्मम् मन्त्रीश्वरोदयनबोधकृते मुनित्वम् आरोपितः अपरनृपैः इव पीठमर्दः ।
अन्वयः-धर्मात् विरक्तहृदयः अपि नरः सुवेषलज्जां वहन् चरित्रधर्मम् नहि जहाति । अपरनपैः मन्त्रीश्वरोदयनबोधकृते मुनित्वम् आरोपितः पीठमर्दः इव ।।
शब्दार्थः-धर्मात्=धर्म से, विरक्त हृदयं यस्य स विरक्तहृदयः=विरति से युक्त मनवाला, अपि=भी, नरः= पुरुष, सुवेषस्य लज्जा तां सुवेषलज्जां=सुन्दर वेषभूषा की लज्जा को, वहन धारण करता हुआ, चरित्रधर्मम् = चरित्र धर्म को, न हि जहाति नहीं छोड़ता है। अपरनपैः अन्य राजाओं द्वारा, मन्त्रीश्वरोदयनबोधकृते मन्त्री मुख्य उदयन के बोध के लिए, मुनित्वम् =मुनिपने को, पारोपितः= आरोपित किया गया, पीठमर्दः इव पीठमर्द की तरह ।
श्लोकार्थः-धर्म से विरक्तमनवाला पुरुष सुन्दर वेषभूषा की लज्जा को धारण करता हुआ, अन्य राजाओं के द्वारा मन्त्रीमुख्य उदयन के बोध के लिए मुनिपने को आरोपित पीठमर्द को तरह चरित्र धर्म को नहीं छोड़ता है ।। १२२ ॥
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