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________________ * परद्रोहः * [ ८० ] स्वयमेवाप्नुयाद् दुःखं, परद्रोहनिविष्टधीः । 'धर्मे जय' इति ख्यातुरिव द्वषी द्विजन्मनः ॥ ८० ॥ पदच्छेदः-स्वयम् एव प्राप्नुयाद् दुःखं परद्रोहनिविष्टधीः, 'धर्मे जय' इति ख्यातुः इव द्वषी द्विजन्मनः । __ अन्वयः-'धर्मे जय' इति ख्यातुः द्विजन्मनः द्वषी इव परद्रोहनिविष्टधीः स्वयमेव दुःखं प्राप्नुयात् । शब्दार्थः-धर्मे जय=धर्म में जय है, इति ख्यातुः इस प्रकार कहने वाले, द्विजन्मनः ब्राह्मण के, द्वषो इव शत्रु की तरह, परद्रोहनिविष्टधीः दूसरों से द्रोह करने में है बुद्धि जिसकी, स्वयमेव अपने आप ही, दुःखं दुःख, प्राप्नुयात्=प्राप्त करे। श्लोकार्थः-'धर्म में ही जय होती है' इस प्रकार कहने वाले ब्राह्मण के द्वषी की तरह दूसरों से द्रोह करने में लगी है बुद्धि जिसकी ऐसा मानव खुद ही दुःख प्राप्त करता है । संस्कृतानुवादः-'धर्मे एव जयो भवति' इति कथयितुः विप्रस्य द्वषीव अन्यद्रोहनिविष्ट बुद्धिः जनः स्वयमेव दुःखमाप्नोति ।। ८० ॥ धर्मो-६ ( ८१ )
SR No.002337
Book TitleDharmopadesh Shloka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1993
Total Pages144
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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