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________________ * जिनाऽऽज्ञा * [ ११७ ] वयसा लघुरप्यत्र, जिनाऽऽज्ञायां रुचि दधत् । अतिमुक्तर्षिवत् प्राज्ञो, वृणुते केवलश्रियम् ॥ ११७ ॥ पदच्छेदः-वयसा अपि लघुः अत्र जिनाज्ञायां रुचि दधत्, अतिमुक्तर्षिवत् प्राज्ञः वृणुते केवल श्रियम् । अन्वयः-पत्र वयसा लघुः अपि जिनाऽऽज्ञायां रुचि दधत् प्राज्ञः अतिमुक्तर्षिवत् केवल श्रियं वृणुते । शब्दार्थः-अत्र= इस लोक में, वयसा उम्र से, लघुरपि=छोटा होने पर भी, जिनाज्ञायां श्रीजिनेश्वर भगवान की आज्ञा में, रुचि रुचि को, दधत्= रखता हुमा, प्राज्ञः=बुद्धिमान, अतिमुक्तर्षिवत्=प्रतिमुक्तर्षि की तरह, केवलश्रियं केवलज्ञान की लक्ष्मी को, वृणुते वरण करता है। श्लोकार्थः-इस लोक में आयु से छोटा होने पर भी श्रीजिनेश्वर भगवान की आज्ञा में रुचि रखते हुए बुद्धिमान् मनुष्य अतिमुक्तर्षि की तरह केवलज्ञान की लक्ष्मी को वरण करता है। संस्कृतानुवादः-इह लोके वयसा लघुरपि प्राज्ञो जिनाऽऽज्ञायां रुचिं दधत् अतिमुक्तर्षिरिव केवलज्ञानलक्ष्मी वृणुते ।। ११७ ॥ ( ११८ )
SR No.002337
Book TitleDharmopadesh Shloka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1993
Total Pages144
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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