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________________ * पुरोवचन भगवद् कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने मुनिधर्म में ध्यान और अध्ययन करना मुख्य बताया है । इनके बिना मुनिधर्म का पालन करना व्यर्थ है भाणाज्भयणं मुक्खं जइ धम्मे तं विणा तहा सो वि ॥१०॥ - रयरणसार प्राचीन ऋषि-मुनि ध्यान और स्वाध्याय में ही अपना उपयोग स्थिर करते थे और अपने गहन अध्ययन के फलस्वरूप स्व-पर उपकार के निमित्त अपने ज्ञान को सूत्रबद्ध या काव्यबद्ध कर शुभोपयोग में रत रहते थे । मूलतः ऐसी रचनायें स्वान्तः सुखाय हुआ करती थीं तभी तो उनमें से अधिकांश के रचनाकार, रचनाकाल आदि के सम्बन्ध में आज हमें कोई जानकारी नहीं मिलती। जैन रचनाकारों की संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश में ऐसी अनेकानेक रचनाएँ हस्तलिखित ग्रन्थभण्डारों में आज भी उपलब्ध हैं । सम्यक् सम्पादन सहित उनके प्रकाशन की प्राज महती आवश्यकता है । T ( ४ )
SR No.002337
Book TitleDharmopadesh Shloka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1993
Total Pages144
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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