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________________ * तृष्णा * [ ६० ] तृष्णापरम्परामद्य - पानव्यग्रमतिर्जनः । मुञ्छणश्रेष्ठिवद् घोरां, पृथ्वी तमस्तमाम् व्रजेत् ॥ ६० ॥ पदच्छेदः-तृष्णापरम्परामद्यपानव्य ग्रमतिः जनः मुञ्छण(मम्मण) श्रेष्ठिवद् घोरां पृथ्वीं तमस्तमाम् व्रजेत् । अन्वयः-तृष्णापरम्परामद्यपानव्यग्रमतिः जनः मुञ्छण(मम्मणः) श्रेष्ठिवत् घोरां तमस्तमां पृथ्वीं व्रजेत् । ___ शब्दार्थः-तृष्णापरम्परामद्यपानव्यग्रमतिः -- असन्तोष की परम्परा और मद्यपान से व्यग्रबुद्धि वाला, जनः= मानव मुञ्छण (मम्मण) श्रेष्ठी की तरह, घोरां= भयङ्कर, तमस्तमां अन्धकार से पूर्ण, पृथ्वी पृथ्वी को, व्रजेत् = जावे । ___श्लोकार्थः-तृष्णा की परम्परा और मद्यपान से व्यग्र ऐसी बुद्धि वाला मनुष्य मुञ्छरण (मम्मरण) सेठ की तरह भयंकर अन्धकार से परिपूर्ण पृथ्वी में (नरक में) जाता है। ___ संस्कृतानुवादः - तृष्णापरम्परामद्यपानव्यग्रमतिर्जनः मुञ्छण (मम्मण) श्रेष्ठिवद् घोरामन्धकारपरिपूर्णां पृथ्वीं गच्छेत् अर्थात् नरकस्थानं गच्छेत् ।। ६० ।। ( ६१ )
SR No.002337
Book TitleDharmopadesh Shloka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1993
Total Pages144
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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