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________________ * व्रतम् * [ ८६ ] गरणयंस्तृणवत् स्वर्ण-वर्णकायं निजव्रतम् । न त्यजेदुपसर्गेऽपि सति सागरचन्द्रवत् ॥ ८६ ॥ पदच्छेदः - गणयन् तृणवत् स्वर्णवर्णकायं निजव्रतम् न त्यजेत् उपसर्गेऽपि सति सागरचन्द्रवत् । अन्वयः - स्वर्णवर्णकायं तृणवत् गणयन् उपसर्गे सति अपि सागरचन्द्रवत् निजव्रतं न त्यजेत् । शब्दार्थ:- स्वर्णवर्ण इव कार्य यस्य सः तं स्वर्णवर्णकायं=सोने के वर्ण के समान शरीर को तृणवत् = तृण के समान, गरणयन् = गिनता हुआ, उपसर्गे सति श्रपि = उपसर्ग के होने पर भी, सागरचन्द्रवत् = सागरचन्द्र की तरह, निजव्रतं = अपने व्रत को, न त्यजेत् = नहीं छोड़े । श्लोकार्थ :- सोने के रंग के समान शरीर को तिनके के समान गिनते हुए, उपसर्ग होने पर भी अपने व्रत को सागरचन्द्र की तरह नहीं छोड़ना चाहिए । संस्कृतानुवादः - स्वर्णवर्णशरीरं तृणवत् गरणयन् उपसर्गे सत्यपि जनः सागरचन्द्रवत् निजव्रतं न त्यजेत् ।। ८६ ।। ' ८७ '
SR No.002337
Book TitleDharmopadesh Shloka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1993
Total Pages144
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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