Book Title: Devindatthao
Author(s): Subhash Kothari, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम संस्थान ग्रन्थमाला : 1 सम्पादक प्रो० सागरमल जैन धम्मे पवईये दे विद त्थ ओ ( देवेन्द्रस्तव) . डा० सुभाष कोठारी सव्वत्थेस समं चरे सव्वं जतु समयापही पियमंपियं रस विनोकरेज्जा सम्मत्तदंती न करेइ पाचं सम्मत्त सिया अमटे समिया) मुनि होड़ आगम अहिंसा समता एवं प्राकृत संस्थान उदयपुर Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम-संस्थान ग्रन्थमाला-१ निर्देशक प्रो० कमलचन्द सोगाणी संपादक प्रो० सागरमल जैन देविदत्थरो ( देवेन्द्रस्तव ) [मुनि पुण्यविजयजी द्वारा सम्पादित मूलपाठ] * अनुवाद और व्याकरणात्मक-विश्लेषण डॉ. सुभाष कोठारी अनुवाद सहयोग सुरेश सिसोदिया WAM मागम-अ Sabi नाहिसा-सा तसंस्थान wwwww पिस्वं प्राकृत M आगम-अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान उदयपुर Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : आगम-अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान पमिनी मार्ग, उदयपुर (राज.) 313001 / संस्करण : प्रथम 198 मूल्य : रु० 50.00 DEVIMDATTHAO (DEVENDRASTAVA) ' Hindi Translation and Grammatical Notes Edition : First 1988 Price : Rs. 50.00 मुद्रक : रत्ना प्रिंटिंग वर्क्स कमच्छा, वाराणसी Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय अर्धमागधी जैन आगम-साहित्य भारतीय संस्कृति और साहित्य की अमूल्य निधि है। दुर्भाग्य से इन ग्रन्थों के अनुवाद उपलब्ध न होने के कारण जनसाधारण और विद्वद्वर्ग दोनों ही इनसे अपरिचित हैं। आगम ग्रन्थों में अनेक प्रकीर्णक प्राचीन और अध्यात्म प्रधान होते हुए भी अप्राप्य से रहे हैं / यह हमारा सौभाग्य है कि पूज्य मुनि श्री पुण्यविजय जी द्वारा संपादित इन प्रकीर्णक ग्रन्थों के मूल पाठ का प्रकाशन महावीर विद्यालय, बम्बई से हुआ है। किन्तु अनुवाद के अभाव में जनसाधारण के लिए वे ग्राह्य नहीं थे। इसी कारण जैनविद्या के विद्वानों की समन्वय समिति ने अनूदित आगम ग्रन्थों और आगमिक व्याख्याओं के अनुवाद के प्रकाशन को प्राथमिकता देने का निर्णय लिया और इसी सन्दर्भ में प्रकीर्णकों के अनुवाद का कार्य आगम संस्थान को दिया गया। हमें प्रसन्नता है कि संस्थान के शोधाधिकारी डॉ. सुभाष कोठारी ने श्री सुरेश सिसोदिया के सहयोग से एवं प्रो० कमलचन्द सोगानी के निर्देशन में मात्र छः मास में ही प्रथम प्रकीर्णक 'देवेन्द्रस्तव' का अनुवाद और व्याकरणात्मक विश्लेषण सम्पूर्ण किया। प्रस्तुत ग्रन्थ को सुविस्तृत एवं . विचारपूर्ण भूमिका संस्थान के मानद निदेशक प्रो० सागरमल जैन एवं डॉ. सुभाष कोठारी ने लिखकर ग्रन्थ को एक पूर्णता प्रदान की है। इस हेतु हम इन सभी के आभारी हैं। ग्रन्थ के सुन्दर और सत्त्वर मुद्रण का कार्य रत्ना प्रिटिंग वर्क्स ने किया, एतदर्थ हम उनके प्रति भी आभार व्यक्त करते हैं / ग्रन्थ के प्रकाशन एवं प्रूफ संशोधन आदि में पार्श्वनाथ विद्याश्रम के अकादमीय स्टाफ का जो सहयोग रहा, उसके लिए भी आभारी हैं / Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन में हमें श्री सरदारमल जी कांकरिया की ओर . से उनके ज्येष्ठ भ्राता श्री पारसमल जी कांकरिया की पुण्य स्मृति में 7000 रुपये का अनुदान प्राप्त हुआ; अतः उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना हमारा पुनीत कर्तव्य है। -- यह प्रन्थ प्राकृत और जैन विद्या की सेवा में आगम संस्थान का प्रथम . पुष्प है। ग्रन्थ कितना उपयोगी और सार्थक बना है, यह निर्णय तो हम पाठकों पर छोड़ते हैं किन्तु हमें इस बात का अवश्य संतोष है कि आज अर्धमागधी आगम-साहित्य का एक रत्न प्रथम बार हिन्दी भाषा में अनूदित होकर लोकार्पित हो रहा है। गणपतराज बोहरा फतहलाल हिंगर. अध्यक्ष मंत्री Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय विषयानुक्रम गाथा-क्रमांक पृष्ठ क्रमांक भूमिका प्रस्तावना 1 से 3 वर्धमान जिनेन्द्र की स्तुति 4 से 11 बत्तीस देवेन्द्रों के स्वरूप विषयक उत्तर 12 से 13 भवनपति देवों की सम्पत्ति 14 बीस भवनपति इन्द्र 15 से 20 भवनपति इन्द्रों की भवन संख्या 21 से 27 भवनपति इन्द्रों की स्थिति व आयु 28 से 31 भवनपति इन्द्रों के स्थान भवन एवं आकृति 32 से 38 8-10 दक्षिणोत्तर भवनपति इन्द्रों की भवन संख्या 39 से 42 10-12 भवनपति इन्द्रों का परिवार 43 से 45 १२भवनपति इन्द्रों के आवास एवं पर्वत 46 से 50 12-14 भवनपंतियों का बल, वीर्य व पराक्रम 51 से 66 .. 14-16. वाणव्यंतरों के आठ भेद 67 से 68 . 16-18 : वाणव्यंतरों के सोलह इन्द्र 69 से 70 . . वाणव्यंतरों के आठ अन्तर भेद / वाणव्यंतरों के आठ अन्तर भेदों के . सोलह इन्द्र 71 से 72 व्यंतर-वाणव्यंतरों के भवन, स्थान, स्थिति 73 से 80 8-20 पांच प्रकार के ज्योतिषिक देव 81 20 ज्योतिषी देवों के स्थान, विमानसंख्या, विमानों की लम्बाई, मोटाई, परिधि, विमानवाहक व किंकर देव 82 से 93 20-24 |.. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (vi ) 24 .32 32-34 34-36 ज्योतिष्कों की गति का प्रमाण एवं ऋद्धि 94 से 96 ज्योतिष्क देवों के स्थान की सीमा .. और आभ्यंतर परिमाण 97 से 100 तारा, चन्द्र, नक्षत्रचन्द्र व नक्षत्रसूर्य का साथ, गति, काल परिमाण 101 से 108 जम्बूद्वीप आदि में चन्द्र, सूर्य, ग्रहों ___ आदि की संख्या __ 109 से 139 ज्योतिषियों के दो चन्द्र और दो सूर्यो का समह और पंक्तियों से चन्द्रमा का परिमाण 130 से 135 ज्योतिषकों की परिधि ताप क्षेत्र और गति 136 से 141 चन्द्र की हानि और वृद्धि 142 से 146 ज्योतिष्कों की गति और स्थिर विभाग 147 से 148 जम्बूद्वीप में चन्द्र सूर्यों की संख्या और अंतर 149 से 158. वैमानिक देव :कल्प वैमानिक देवों के बारह इन्द्र 162 से 166 अनुत्तर ग्रैवेयकों में इन्द्रों की अवस्था से सम्यग्दर्शन से गिरे हुए अन्यलिङ्गी पर्यन्त का उत्पन्न और निरूपण . 167 से 168 वैमानिक इन्द्रों की विमानसंख्या 169 से 174 वैमानिक इन्द्रों की स्थिति 175 से 179 वेयक देवों के नाम, विमानसंख्या, स्थिति आदि 180 से 183 अनुत्तर देवों के नाम, विमान, स्थान, स्थिति आदि 184 से 186 ग्रेवेयक अनुत्तरदेव विमानों का स्थान 187 से 188 वैमानिक देव विमानों का आधार 189 से 190 36-38. 40 40-42 42-44 43 44-46 46 . Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46-48 48 48.50 50 50-52 ه ه 220 ه ( vii ) देवों की लेश्याएं 191 से 193 देवताओं की ऊंचाई व अवगाहना 194 से 198 देवताओं की काम-क्रीड़ा 199 से 201 देवताओं की गंध और दृष्टि 203 से 204 प्रकीर्णक विमानों की श्रेणी, संख्या और अंतर 205 से 208 आवलिका विमानों की आकृति व सीमा 209 से 213 कल्पपतिविमानों का स्वरूप 214 से 216 भवनपति वाणव्यंतर ज्योतिष्कों के __ भवन, नगर और विमानसंख्या 217 से 218 चतुर्विध देवों का अल्प बहुत्व 219 वैमानिक देवियों की विमानसंख्या अनुत्तरदेवों की विमानसंख्या, शब्द . व स्वभाव 221 से 224 देवों का आहार और उच्छ्वास 225 से 232 वैमानिक देवों का अवधिज्ञान विषय 233 से 240 वैमानिक देवों के विमान, आवास, प्रासाद आयु, उच्छ्वास, देह आदि का वर्णन 241 से 176 सिद्धशिला पृथ्वी से स्थान, संस्थान, प्रमाण 277 से 282 सिद्धों के स्थान, संस्थान अवगाहना और स्पर्श 283 से 295 सिद्धों के उपयोग 296 से 297 .. सिद्धों के सुख और उपमा 298 से 306 जिनदेवों की ऋद्धि 307 से 309 देवेन्द्रस्तव का उपसंहार 310 से 311 व्याकरणात्मक विश्लेषण 1 से 311 संदर्भ प्रन्य सूची 52-54 54-56 56-58 58-66 66-70 70 70-72 72-74 74 79-151 152 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका प्रत्येक धर्म परम्परा में धर्म ग्रन्थ का एक महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। 'हिन्दुओं के लिए वेद, बौद्धों के लिए त्रिपिटक, पारसियों के लिए अवेस्ता, ईसाइयों के लिए बाइबिल और मुसलमानों के लिए कुरान का जो स्थान और महत्त्व है, वही स्थान और महत्त्व जैनों के लिए आगम साहित्य का है। यद्यपि जैन परम्परा में आगम न तो वेदों के समान अपौरुषेय माने गये हैं और न ही बाइबिल और कुरान के समान किसी पैगम्बर के माध्यम से दिया गया ईश्वर का संदेश है, अपितु वे उन अर्हतों एवं ऋषियों की वाणी का संकलन है, जिन्होंने साधना और अपनी आध्यात्मिक विशुद्धि के द्वारा सत्य का प्रकाश पाया था। यद्यपि जैन आगम साहित्य में अंग सूत्रों के प्रवक्ता तीथंकरों को माना जाता है, किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि तीर्थकर भी मात्र अर्थ के प्रवक्ता हैं, दूसरे शब्दों में वे चिन्तन या विचार प्रस्तुत करते हैं, जिन्हें शब्द रूप देकर ग्रंथ का निर्माण गणधर अथवा अन्य प्रबुद्ध आचार्य या स्थविर करते हैं।' जैन-परम्परा हिन्दू-परम्परा के समान शब्द पर उतना बल नहीं देती है। वह शब्दों को विचार की अभिव्यक्ति का मात्र एक माध्यम मानती है। उसकी दृष्टि में शब्द नहीं, अर्थ (तात्पर्य) ही प्रधान है। शब्दों पर अधिक बल न देने के कारण ही जैन-परम्परा में आगम ग्रन्थों में यथाकाल भाषिक परिवर्तन होते रहे और वे वेदों के समान शब्द रूप में अक्षण्ण नहीं बने रह सके / यही कारण है कि आगे चलकर जैन आगम-साहित्य अर्द्धमागधी आगम-साहित्य और शौरसेनी आगम-साहित्य ऐसी दो शाखाओं में विभक्त हो गया। यद्यपि इनमें अर्द्धमागधी आगम-साहित्य न केवल प्राचीन है, अपितु वह महावीर की मूलवाणी के निकट भी है। शौरसेनी आगम-साहित्य का विकास इन्हीं अर्द्धमागधी आगम साहित्य के प्राचीन स्तर के आगम ग्रन्थों के आधार पर हुआ है। अतः अर्द्धमागधी आगमसाहित्य शौरसेनी आगम-साहित्य का आधार एवं उसको अपेक्षा प्राचीन 1. 'अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा'-आवश्यकनियुक्ति, गाथा 92 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी है / यद्यपि यह अर्द्धमागधी आगम-साहित्य महावीर के काल से लेकर वीर निर्वाण संवत् 980 या 993 की वलभी की वाचना तक लगभग एक हजार वर्ष की सुदीर्घ अवधि में संकलित और सम्पादित होता रहा है। प्राचीन काल में यह अर्द्धमागधी आगम-साहित्य अंग-प्रविष्ट और अंगबाह्य ऐसे दो विभागों में विभाजित किया जाता था / अंग प्रविष्ट में ग्यारह अंग आगमों और बारहवें दृष्टिवाद को समाहित किया जाता था। जबकि अंगबाह्य में इसके अतिरिक्त वे सभी आगम ग्रन्थ समाहित किये जाते थे, जो श्रुतकेवली एवं पूर्वधर स्थविरों की रचनाएं माने जाते थे / पुनः इस अंगबाह्य आगम साहित्य को नन्दीसत्र में आवश्यक और आवश्यक व्यतिरिक्त ऐसे दो भागों में विभाजित किया गया है। आवश्यक व्यतिरिक्त के भी पुनः कालिक और उत्कालिक ऐसे दो विभाग किए गये हैं। नन्दीसूत्र का यह वर्गीकरण निम्नानुसार है-- श्रुत (आगम ) अंगप्रविष्ट अंगबाह्य आवश्यक आवश्यक व्यतिरिक्तः आचारांग सूत्रकृतांग स्थानाङ्ग समवायाङ्ग व्याख्याप्रज्ञप्ति ज्ञाताधर्मकथा उपासकदशांग अन्तकृतदशांग अनुत्तरोपपातिकदशांग प्रश्नव्याकरण विपाक सूत्र दृष्टिवाद सामायिक चतुर्विशतिस्तव वन्दना प्रतिक्रमण कायोत्सर्ग प्रत्याख्यान 1. नन्दीसूत्र-सं० मुनि मधुकर सूत्र 76, 79-81 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (xi ) कालिक उत्कालिक उत्तराध्ययन वेश्रवणोपपात दशवेकालिक सूर्यप्रज्ञप्ति दशाश्रतस्कन्ध वेलन्धरोपपात कल्पिकाकल्पिक पौरुषीमंडल कल्प देवेन्द्रोपपात चुल्लकल्पश्रुत मण्डलप्रवेश व्यवहार * उत्थानश्रुत महाकल्पश्रत विद्याचरण विनिश्चय निशीथ समुत्थानश्रुत औपपातिक गणिविद्या महानिशीथ नागपरितापनिका राजप्रश्नीय ध्यानविभक्ति ऋषिभाषित निरयावलिका जीवाभिगम मरणविभक्ति जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति कल्पिका प्रज्ञापना आत्मविशोधि द्वीपसागरप्रज्ञप्ति कल्पांवतंसिका / महाप्रज्ञापना वीतरागश्रुत चन्द्रप्रज्ञप्ति . पुष्पिका प्रमादाप्रमाद संलेखणाश्रुत क्षुल्लिकाविमान - पुष्पचूलिका . नन्दी विहारकल्प प्रविभक्ति . वृष्णिदशा अनुयोगद्वार चरणविधि महल्लिकाविमा देवेन्द्रस्तव आतुरप्रत्याख्यान नप्रविभक्ति तंदलवैचारिक महाप्रत्याख्यान अंगचूलिका चन्द्रवेध्यक बंगचूलिका विवाहचूलिका . अरुणोपपात वरुणोपपात / * 'गरुडोपपात धरणोपपात ___इस प्रकार हम देखते है कि नन्दीसूत्र में देवेन्द्रस्तव का उल्लेख अंगबाह्य, आवश्यक-व्यतिरिक्त उत्कालिक आगमों में हुआ है। पाक्षिकसूत्र में भी आगमों के वर्गीकरण की यही शैली अपनायी गयी है। इसके अतिरिक्त आगमों के वर्गिकरण की एक प्राचीन शैली हमें यापनीय परम्परा के शौर... सेनी आगम 'मूलाचार' में भी मिलती है / मूलाचार आगमों को चार भागों Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में वर्गीकृत करता है'-(१) तीर्थंकर-कथित (2) प्रत्येक बुद्ध-कथित (3) श्रुतकेवली-कथित (4) पूर्वधर-कथित / पुनः मूलाचार में इन आगमिक ग्रन्थों का कालिक और उत्कालिक के रूप में वर्गीकरण किया गया है / मूलाचार में आगमों के इस वर्गीकरण में "थुदि" का उल्लेख उत्कालिक आगमों में हुआ है / आज यह कहना तो कठिन है कि 'थुदि' से वे वीरत्थुई या देविंदत्थओ में से किसका ग्रहण करते थे। इस प्रकार अर्धमागधी और शौरसेनी दोनों ही आगम परम्पराएँ एक उत्कालिक सूत्र के रूप में स्तव. . या देवेन्द्रस्तव का उल्लेख करती है। वर्तमान में आगमों के अंग, उपांग, छेद, मूलसूत्र, प्रकीर्णक आदि विभाग किये जाते हैं। यह विभागीकरण हमें सर्वप्रथम विधिमार्गप्रपा (जिनप्रभ१३वीं शताब्दी) में प्राप्त होता है। सामान्यतया प्रकीर्णक का अर्थ विविध विषयों पर संकलित ग्रन्थ ही किया जाता है। नन्दोसूत्र के टीकाकार मलयगिरि ने लिखा है कि तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट श्रुत का अनुसरण करके श्रमण प्रकीर्णकों की रचना करते थे। परम्परानुसार यह भी मान्यता है कि प्रत्येक श्रमण एक-एक प्रकीर्णक की रचना करते थे। समवायांग सूत्र में "चोरासीइं पण्णग सहस्साइं पण्णता" कहकर ऋषभदेव के चौरासी हजार शिष्यों के चौरासी हजार प्रकीर्णकों का उल्लेख किया है। महावीर के तीर्थ में चौदह हजार साधुओं का उल्लेख प्राप्त होता है अतः उनके तीर्थ में प्रकीर्णकों की संख्या भी चौदह हजार मानी गयी है। किन्तु आज प्रकीर्णकों की संख्या दस मानी जाती है। ये दस प्रकीर्णक निम्न हैं (1) चतुःशरण (2) आतुरप्रत्याख्यान, (3) महाप्रत्याख्यान (4) भत्तपरिज्ञा (5) तंदुलवैचारिक (6) संस्थारक (7) गच्छाचार (8) गणिविद्या (9) देवेन्द्रस्तव और (10) मरण समाधि __इन दस प्रकीर्णकों को श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय आगमों को श्रेणी में मानते हैं / परन्तु प्रकीर्णक नाम से अभिहित इन ग्रन्थों का संग्रह किया जाये तो निम्न बाईस नाम प्राप्त होते हैं (1) चतुःशरण (2) आतुरप्रत्याख्यान (3) भत्तपरिज्ञा (4) संस्थारक 1. मूलाचार-५/८०-८२ / 2. विधिमार्गप्रपा-पृष्ठ 55 / 3. समवायांग सूत्र-मुनि मधुकर-८४वां समवाय Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xiii ) (5) तंदुलवैचारिक (6) चंद्रावेध्यक (7) देवेन्द्रस्तव (8) गणिविद्या (9) महाप्रत्याख्यान (10) वोरस्तव (11) ऋषिभाषित (12) अजीवकल्प (13) गच्छाचार (14) मरणसमाधि (15) तित्थोगालि (16) आराधना पताका (17) द्वीपसागरप्रज्ञप्ति (18) ज्योतिष्करण्डक (19) अंगविद्या (20) सिद्धप्राभृत (21) सारावली और (22) जोवविभक्ति ' इसके अतिरिक्त एक ही नाम के अनेक प्रकीर्णक भी उपलब्ध होते है। यथा-'आउर पच्चक्खान' के नाम से तीन ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। इनमें से नन्दी और पाक्षिक के उत्कालिक सूत्रों के वर्ग में देवेन्द्रस्तव, तंदुलवेचारिक, चन्द्रावेध्यक, गणिविद्या, मरणविभक्ति, मरणसमाधि, महाप्रत्याख्यान, ये सात नाम पाये जाते हैं और कालिकसूत्रों के वर्ग में ऋषिभाषित और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति ये दो नाम पाये जाते हैं। इस प्रकार नन्दी एवं पाक्षिक सूत्र में नौ प्रकीर्णकों का उल्लेख मिलता है / 2 / यद्यपि प्रकीर्णकों की संख्या और नामों को लेकर मतभेद देखा जाता है, किन्तु यह सुनिश्चित है कि प्रकीर्णकों के भिन्न-भिन्न सभी वर्गीकरणों में देवेन्द्रस्तव को स्थान मिला ही है। यद्यपि आगमों की शृङ्खला में प्रकीर्णकों का स्थान द्वितीयक है, किन्तु यदि हम भाषागत प्राचीनता और आध्यात्म-प्रधान विषय-वस्तु की दृष्टि से विचार करें तो प्रकीर्णक, आगमों की अपेक्षा भी महत्त्वपूर्ण प्रतीत होते हैं। प्रकीर्णकों में ऋषिभाषित आदि ऐसे प्रकीर्णक हैं, जो उत्तराध्ययन और दशवेकालिक जैसे प्राचीन स्तर के आगमों की अपेक्षा भी प्राचीन है।' अतः 'देवेन्द्रस्तव' का स्थान प्रकीर्णकों में होने से उसका महत्त्व कम नहीं हो जाता है। फिर भी इतना अवश्य है कि यह प्रकीर्णक अध्यात्मपरक अथवा आचारपरक न होकर स्तुतिपरक है। इसकी विषयवस्तू मुख्यतः देवनिकाय तथा उसके खगोल एवं भूगोल से संबंधित है। 1. पइण्णयसुत्ताइं--मुनि पुण्यविजयजी-प्रस्तावना पृष्ठ 19 / 2. नन्दीसूत्र--मुनि मधुकर पृष्ठ 80-81 / 3. ऋषिभाषित की प्राचीनता आदि के सम्बन्ध में देखें डा० सागरमल जैन-ऋषिभाषितः एक अध्ययन (प्राकृतभारती संस्थान,जयपुर), Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xiv ) स्तुतिपरक साहित्य-आराध्य की स्तुति करने की परम्परा भारत में प्राचीनकाल से ही रही है। भारतीय साहित्य की अमरनिधि वेद मुख्यतः स्तुतिपरक ग्रन्थ है। वेदों के अतिरिक्त भी हिन्दूपरम्परा में स्तुतिपरक साहित्य की रचना होती रही है, किन्तु जहां तक श्रमणपरम्पराओं का प्रश्न है वे स्वभावतः अनीश्वरवादी बौद्धिक परम्पराएं हैं। श्रमणधारा के प्राचीन ग्रन्थों में हमें साधना या आत्मशोधन की प्रक्रिया पर ही अधिक बल मिलता है, उपासना या भक्ति का तत्व उनके लिए प्रधान नहीं रहा / जैनधर्म भो श्रमणपरम्परा का धर्म है। इसलिए उसकी मूल प्रकृति में स्तुति का कोई महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं है। जब जैन परम्परा में आराध्य के रूप में महावीर को स्वीकार किया गया, तो सबसे पहले उन्हीं की स्तुति लिखी गयी, जो कि आज भी सूत्रकृतांगसूत्र के छठे अध्याय के रूप में उपलब्ध होती है।' सम्भवतः जैनधर्म के स्तुतिपरक साहित्य का प्रारम्भ इसी 'वीरत्थुइ' से है / वस्तुतः इसे भी स्तुति केवल इसी आधारपर कहा जा सकता है कि इसमें महावीर के गुणों एवं उनके व्यक्तित्व के महत्त्व को निरूपित किया गया है / इसमें स्तुतिकर्ता महावीर से किसी भी प्रकार की याचना नहीं करता। उसके पश्चात् स्तुतिपरक साहित्य के रचनाक्रम में हमारे विचार से “नमुत्थुणं" जिसे 'शक्रस्तव' भी कहा जाता है, निर्मित हुआ होगा वस्तुतः यह अहंत या तीर्थकर को बिना किसी व्यक्तिविशेष का नाम निर्देश किये सामान्य स्तुति है जहाँ सूत्रकृतांग को 'वोरत्युइ' पद्यात्मक है, वहाँ यह गद्यात्मक है। दूसरी बात यह कि इसमें अर्हन्त को एक लोकोत्तर पुरुष के रूप में हो चित्रित किया गया है; 'वीरस्तुति' में केवल कुछ प्रसंगों को छोड़कर सामान्यतया महावीर को लोक में श्रेष्ठतम व्यक्ति के रूप प्रस्तुत किया गया है, लोकोत्तर रूप में नहीं / यद्यपि आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में वर्णित उनके जोवनवृत्त को अपेक्षा इसमें लोकोत्तर तत्त्व अवश्य ही प्रविष्ट हुए हैं। हमें तो ऐसा लगता है कि प्रारम्भ में 'वीरत्थुइ' के रूप में 'पुच्छिसुणं' और 'देविदत्यओ' रूप में 'नमोत्थुणं' ही रहे होंगे / क्योंकि 'देविस्थओ' का भी एक अर्थ देवेन्द्र के द्वारा की गयी स्तुति होता है, 'नमुत्थुणं' को जो 'शकस्तव' कहा जाता है, वह इसी तथ्य की पुष्टि करता है। स्तुतिपरक साहित्य में इन दोनों के पश्चात् 'चविंशतिस्तव' (लोगस्स-चोवीसत्थव) का स्थान आता है / लोगस्स का निर्माण तो चौबोस 1. सूत्रकृतांगसूत्र-मुनि मधुकर, छठा अध्ययन-'वोरत्युइ' Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xv ) तीर्थकरों की अवधारणा के साथ ही हुआ होगा। 'वीरत्थुइ' और 'नमुत्थुणं' में एक महत्त्वपूर्ण अन्तर यह है कि जहाँ इन दोनों में भक्तहृदय अपने आराध्य के गुणों का स्मरण करता है, उससे किसी प्रकार की लोकिक या आध्यात्मिक अपेक्षा नहीं करता है जबकि "चोवीसत्थव" के पाठ में सर्वप्रथम भक्त अपने कल्याण की कामना के लिए आराध्य से प्रार्थना करता है कि हे तीर्थकर देवों! आप मुझ पर प्रसन्न हों तथा मुझे आरोग्य, बोधिलाभ तथा सिद्धि प्रदान करें।' सम्भवतः जैन स्तुतिपरक साहित्य में यहीं सबसे पहले उपासकहृदय याचना की भाषा का प्रयोग करता है / यद्यपि जैनदर्शन की स्पष्टतया यह मान्यता रही है कि तीर्थंकर तो वीतराग है, अतः वे न तो किसी का हित करते हैं और न अहित ही, वे तो मात्र कल्याण पथ के प्रदर्शक हैं। अपने भक्त का हित या उसके शत्र का अहित सम्पादित करना उनका कार्य नहीं। 'लोगस्स' के पाठ को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि उस पर सहवर्ती हिन्दू-परम्परा का प्रभाव आया है। लोगस्स के पाठ में आरोग्य, बोधि और निर्वाण इन तीनों बातों की कामना की गयी है। जिसमें आरोग्य का सम्बन्ध बहुत कुछ हमारे ऐहिक जीवन के कल्याण के साथ जुड़ा हुआ है.। यद्यपि आध्यात्मिक रूप से इसकी व्याख्या आध्यात्मिक विकृतियों के निराकरण रूप में की जाती है तथापि जैन-परम्परा के स्तुति. परक साहित्य में कामना का तत्व प्रविष्ट होता गया है, जो जैन दर्शन के मूल-सिद्धान्त वीतरागता की अवधारणा के साथ संगति नहीं रखता है। इसी संदर्भ में आगे चलकर यह माना जाने लगा कि तीर्थंकर को भकि से उनके शासन के यक्ष-यक्षी (शासन देवता ) प्रसन्न होकर भक्त का कल्याण करते हैं। फिर शासन-देवता के रूप में प्रत्येक तीर्थंकर के यज्ञ . और यक्षी की अवधारणा निर्मित हुई और उनको भो स्वतन्त्ररूप से स्तुति की जाने लगी। "उवसग्गहर" प्राकृत-साहित्य का सम्भवतः सबसे पहला तीर्थंकर के साथ-साथ उसके शासन के यक्ष को स्तुति करने वाला काव्य है।' इसमें पार्श्व के साथ-साथ पार्श्व-यक्ष को भो लक्षगा से स्तुति को गयो है। प्रस्तुत स्तोत्र में जहाँ एक ओर पार्श्व से चिन्तामणि कल्प के समान सम्यक्त्व-रत्न रूप बोधि और अजर-अमर पद अर्थात् मोक्ष प्रदान करने की कामना की गयी है, वहीं यह भी कहा गया है कि कर्ममल से रहित 1. उवसग्गहर-स्तोत्र-गाथा 1 से 5 (पंचप्रतिक्रमण सूत्र ) Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xvi ) पार्श्व का यह नाम रूपी मन्त्र विषधर के विष का विनाश करने वाला तथा कल्याणकारक है। जो मनुष्य इस मन्त्र को धारण करता है उसके ग्रहों के दुष्प्रभाव, रोग और ज्वर आदि से शान्त हो जाते हैं। इसके साथ ही यह भी कहा गया कि जो मात्र पार्श्व को प्रणाम करता है, वह भी दुर्गति रूपी दुःख से मुक्त हो जाता है। इस प्रकार प्रस्तूत स्तोत्र में एक ओर भौतिक कल्याण की अपेक्षा है तो दूसरी ओर आध्यात्मिक पूर्णता की कामना भी / यदि हम चतुर्विंशतिस्तव से इस उवसग्गहर-स्त्रोत्र की तुलना , ' करें तो हमें यह स्पष्ट लगता है कि यद्यपि इसमें आध्यात्मिक और भौतिक दोनों प्रकार के कल्याण की कामना है। फिर भी इतना स्पष्ट है कि चतुर्विंशतिस्तव की अपेक्षा उवसग्गहर-स्त्रोत भौतिक कल्याण की कामना में आगे बढ़ा हुआ कदम है। जहां चतुर्विंशतिस्तव में मात्र आरोग्य की कामना की गयी है, वहीं इसमें ज्वरशांति, रोगशांति और सर्प-विष से मुक्ति की कामना परिलक्षित होती है। इसे एक मन्त्र का रूप दिया गया है / जैन साहित्य में स्तोत्रों के माध्यम से मन्त्र-तन्त्र का जो प्रवेश हआ है, उस दिशा की ओर यह स्तोत्र प्रथम पद-निक्षेप कहा जा सकता है। इस स्तोत्र के कर्ता वरामिहिर के भाई द्वितीय भद्रबाहु को माना गया है। ___इसके पश्चात् प्राकृत, संस्कृत और आगे चलकर मरु-गुर्जर में अनेक स्तोत्र बने, जिनमें ऐहिक सुख-सम्प्रदा प्रदान करने की भी कामना की गयी है। यह चर्चा हमने यहाँ इसलिए प्रस्तुत की कि जैन परम्परा में स्तुतिपरक साहित्य किस क्रम से और किस रूप से विकसित हुआ है, इसे समझा जा सके / अब हम इसी सन्दर्भ में 'देवेन्द्रस्तव' का मूल्यांकन करेंगे। जैसा कि हम पूर्व में कह चुके हैं कि 'देवेन्द्रस्तव' को किसकी स्तुति माना जाय, यह निर्णय करना कठिन है / जहाँ इसकी प्रारम्भिक एवं अन्तिम गाथायें तीर्थंकर की स्तुतिरूप हैं, वहीं इसका शेषभाग इन्द्रों व देवों के विवरणों से भरा हुआ है / इस ग्रन्थ की विशेषता यह है कि इसमें किसी प्रकार के भौतिक कल्याण को कामना न तो तीर्थकरों से और न ही देवेन्द्रों से की गयी है, केवल अन्तिम गाथा में कहा गया है कि सिद्ध, सिद्धि को प्रदान करें।' इसप्रकार कल्याण कामनापरक स्तुतियों की दृष्टि से तो यह “वीरत्थुइ" और "नमुत्थुणं" के पश्चात् एवं “चतुर्विशतिस्तव" के 1. "सिद्धा सिद्धि उवविहिंतु"--देवेन्द्रस्तव-गाथा 310 . Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xvii ) पूर्व का सिद्ध होता है। किन्तु इसको चतुर्विंशतिस्तव के पूर्व मानने के सम्बन्ध में मुख्य कठिनाई यह है कि इसमें ऋषभ को प्रथम और महावीर को अन्तिम तीर्थकर मानकर प्रथम गाथा में ही वन्दन किया गया है।' अतः यह स्पष्ट है कि ग्रन्थकार के समक्ष चौबीस तीर्थंकरों की अवधारणा उपस्थित थी, किन्तु हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि ऋषभ को प्रथम और महावीर को अन्तिम तीर्थकर मानने मात्र से चौबीस की अवधारणा का समावेश नहीं हो जाता। उत्तराध्ययन में भी महावीर को अन्तिम तीर्थकर के रूप में माना गया है, लेकिन उसमें कहीं भी स्पष्ट रूप से चौबीस की संख्या का निर्देश नहीं है। इस प्रकार स्तुतिपरक साहित्य के विकासक्रम की दृष्टि से 'देवेन्द्रस्तव' पर्याप्त प्राचीन स्तर का ग्रन्थ सिद्ध होता है। पूनः 'देवेन्द्रस्तव' को "देवेन्द्रों का स्तव" यदि इस रूप में माना जाय तो यह केवल उसी अर्थ में स्तवन है कि उनकी विशेषताओं का विवरण प्रस्तुत करता है। इसमें यद्यपि इन्द्रों की सामर्थ्य आदि का अतिशयपूर्ण वर्णन है फिर भी इसमें स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि देवताओं की इस समस्त ऋद्धि की अपेक्षा भी तीर्थंकरों की ऋद्धि अनन्तानन्त गुण अधिक है। इससे ऐसा लगता है कि यह ग्रन्थ यद्यपि देवेन्द्रों का विवरण प्रस्तुत करता है किन्तु उसका मूल लक्ष्य तो तीर्थंकर की महत्ता को स्थापित करना और उनकी स्तुति करना ही है। नामकरण की सार्थकता का प्रश्न-यद्यपि नन्दी, पाक्षिक-सूत्र आदि में इसका उल्लेख देवेन्द्रस्तव ( देविदत्थओ) के रूप में ही पाया जाता है, "किन्तु यदि हम इसके वणित विषय का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन करें तो ऐसा लगता है कि यह 'देवेन्द्रस्तव' के स्थान पर तीर्थकर-स्तव ही है। क्योंकि इसकी ३१०वी गाथा में ऋषिपालित को 'देविंदथयकारस्स वीरस्स' कहा गया है। मूलाचार में तो इसका 'थुदी' के रूप में ही उल्लेख है। यद्यपि इस देवेन्द्रस्तव में देवेन्द्रों का विस्तार से विवरण है, किन्तु 1. "अमरनवंदिए वंदिऊण उसभाइये जिणवारदे वीरवर पच्छिमंते तेलोक्कगुरु गुणाइन्ने" --देवेन्द्रस्तव गाथा-१ 2. सुरगणइड्डि समग्गा सव्वद्धापिंडिया अणंतगुणा / न वि पावे जिण इढि णंतेहिं वि वग्गवग्गूहिं / -देवेन्द्रस्तव गाथा-३०७ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xviii ) उसमें एक भी गाथा ऐसी नहीं है, जिसमें देवेन्द्रों को स्तुति की गयी हो। अतः देवेन्द्रस्तव की व्याख्या करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि इसका अर्थ देवेन्द्र की स्तुति न होकर देवेन्द्रों के द्वारा की गयी स्तुति ही माना जाना चाहिए। यदि इसे देवेन्द्रों की स्तुति मानना हो, तो यह केवल विवरणात्मक स्तुति है। देवेन्द्रस्तब के कर्ता-देवेन्द्रस्तव के कर्ता के रूप में हमें ऋषिपालित का नाम उपलब्ध होता है। मुनि श्री पुण्यविजय जी द्वारा सम्पादित एवं महावीर विद्यालय बम्बई से प्रकाशित संस्करण में इस प्रकीर्णक के प्रारंभ में ही "सिरिइसिवालियथेरविरइओ" ऐसा स्पष्ट उल्लेख है, मात्र यही नहीं उसकी गाथा क्रमांक 309-310 में भी कर्ता का निम्न रूप में निर्देश उपलब्ध है-- (अ) “इसिवालियमइमहिया करेंति जिणवराणं"। (ब) "इसिवालियस्स भई सुरवरथयकारयस्स वीरस्स" / इसमें ऋषिपालित को स्तुतिकर्ता के रूप में स्पष्ट रूप से उल्लिखित किया गया है, अतः ग्रन्थ के आन्तरिक एवं बाह्य साक्षों से यह फलित होता है कि इसके कर्ता ऋषिपालित हैं। यद्यपि डॉ० जगदीश चन्द्र जैन ने अपने 'प्राकृत साहित्य के इतिहास' में तथा देवेन्द्रमुनि शास्त्री ने 'जैन आगम-साहित्य मनन और मीमांसा' में इसके कर्ता के रूप में 'वीरभद्र का उल्लेख किया है, किन्तु दोनों ने इसके कर्ता वीरभद्र को मानने का कोई प्रमाण नहीं दिया है। संभवतः चउसरण, आउरपच्चक्खाण, भत्तपरिण्णा और आराधनापताका आदि कुछ प्रकीर्णकों के कर्ता के रूप में वीरभद्र का नाम प्रसिद्ध था, इसी भ्रमवश जगदीश चन्द्र जी ने देवेन्द्रस्तव के कर्ता के रूप में वीरभद्र का उल्लेख कर दिया होगा। उन्होंने मूलग्रन्थ की अंतिम गाथाओं को देखने का भी प्रयास नहीं किया। देवेन्द्र मनि शास्त्री ने तो अपना ग्रन्थ जगदीश चन्द्र जैन एवं नेमिचन्द्र शास्त्री के प्राकृत साहित्य के इतिहास ग्रन्थों को ही आधार बनाकर लिखा है इसलिए उन्होंने भी मूल ग्रन्थों को देखने का कोई कष्ट नहीं किया। अतः उनसे 1. ( क ) प्राकृत साहित्य का इतिहास-डॉ० जगदीश चन्द्र जैन, पृ० 128 (ख) जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा-देवेन्द्रमुनि शास्त्री पृ०-४०० Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xix ) भी यह भ्रांति होना स्वाभाविक ही था। पार्श्वनाथ विद्याश्रम वाराणसी से प्रकाशित जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग-२ में डॉ. मोहन लाल जी मेहता ने और श्री जैन प्रवचन किरणावली के लेखक आचार्य विजयपद्मसरि ने इस ग्रन्थ की विषय-वस्तु का संक्षिप्त निर्देश तो किया है, किन्तु उन्होंने इसके कर्ता के सम्बन्ध में विचार करने का कोई प्रयास ही नहीं किया है। अतः यह दायित्व अब हमारे ऊपर ही रह जाता है कि इसके कर्ता के सम्बन्ध में थोड़ा गंभीरतापूर्वक विचार करें। __ नन्दीसूत्र और मूलाचार में देविदत्थओ का उल्लेख होने से इतना तो निश्चित है कि यह ग्रन्थ ईसा की पांचवीं शताब्दी में अस्तित्व में आ गया था, अतः इसके कर्ता वीरभद्र किसी भी स्थिति में नहीं हो सकते, क्योंकि आगमवेत्ता मनि श्री पूण्यविजयजी ने "पइण्णय सुत्ताई" के प्रारम्ममें अपने संक्षिप्त वक्तव्य में वीरभद्र का समय विक्रम सं० 1008 या 1078 निश्चित् किया है। मूलग्रन्थ में वीरभद्र के नाम का स्पष्ट उल्लेख नहीं होने से तथा वीरभद्र के पर्याप्त परवर्ती काल का होने से यह निश्चित है कि इस प्रकीर्णक के कर्ता वीरभद्र नहीं है। चूंकि ग्रन्थ की मूल गाथाओं में कर्ता के रूप में ऋषिपालित का स्पष्ट उल्लेख है अतः इसके कर्ता ऋषिपालित ही हैं. अन्य कोई नहीं। / अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि 'देवेन्द्रस्तव' के कर्ता ऋषिपालित कौन थे ? और कब हुए ? यद्यपि नन्दीसूत्र की स्थविरावली एवं श्वेताम्बर परम्परा की कुछ पट्टावलियों में ऋषिपालित नाम के आचार्य का उल्लेख हमें नहीं मिला है, किन्तु खोज करते-करते हमें ऋषिपालित का उल्लेख कल्पसूत्र की स्थविरावलीमें प्राप्त हो गया। कल्पसूत्र की स्थविरा 1. ( क ) जैन साहित्य का बृहद् इतिहास-भाग-२ -डॉ० मोहन लाल मेहता-पृ०-३६० . ( ख ) श्री जैन प्रवचन किरणावली-विजयपद्मसूरि-पृ०-४३३ 2. पइण्णयसुत्ताइं-मुनि पुण्यविजय जी-प्रस्तावना-पृ०-१९ 3. देवेन्द्रस्तव-गाथा 309-310 4 "थेरेहितो णं अज्ज इसिपालिएहितो एत्थ णं अज्ज इसिपालिया साहा निग्गया" कल्पसूत्र-म० विनयसागर पृ० 304 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वली के अनुसार ऋषिपालित आर्य शांतिसेन के शिष्य थे। मात्र यही नहीं कल्पसूत्र की स्थविरावलीमें ऋषिपालित की गुरुपरम्परा का भी उल्लेख है / ऋषिपालित के गुरु शांतिसेन और शांतिसेन के गुरु इन्द्रदिन्न थे। इन्हीं इन्द्रदिन्न के गुरु आर्य सुस्थित से 'कोडिय' नामक गण निकला था। इसी कोडिय गण में आर्य शान्तिसेन से उच्चनागरी शाखा निकली / ज्ञातव्य है कि इसी उच्चनागरी शाखा में आगे चलकर तत्त्वार्थ के कर्ता उमास्वाति हए हैं / पुनः प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्ता ऋषिपालित से भी कोटिकगण की आर्य ऋषिपालित शाखा निकलने का उल्लेख भी कल्पसूत्रकार करता है। अतः यह निश्चित हो जाता है कि आर्य ऋषिपालित एक प्रभावशाली आचार्य और ऐतिहासिक व्यक्ति हैं और हमारी दृष्टि में यही ऋषिपालित इस देविदत्थओ के कर्ता है। कल्पसूत्र में उल्लिखित इन ऋषिपालित को 'देवेन्द्रस्तव' के कर्ता मानने में विद्वानों को एक ही आपत्ति हो सकती है, वह यह कि इस आधार पर 'देवेन्द्रस्तव' पर्याप्त प्राचीन काल का ग्रन्थ सिद्ध होगा। किन्तु ग्रन्थ की विषयवस्तु एवं भाषा पर विचार करने पर हमें तो इसकी प्राचीनता पर संदेह नहीं रहता है / पुनः जब तक नन्दी के रचनाकाल के पूर्व अन्य किसी ऋषिपालित का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है तो हमारे सामने इसके कर्ता के रूप में कल्पसूत्र में उल्लिखित ऋषिपालित को मानने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है / कल्पसूत्र की स्थविरावली के अनुसार महावीर से लेकर ऋषिपालित तक की गुरुपरम्परा इस प्रकार से निश्चित होती है श्रमण भगवान महावीर आर्य सुधर्मा आर्य जम्बू आर्य प्रभव आर्य स्वयंप्रभ आर्य यशोभद्र Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xxl ) आर्य भद्रबाहु आर्य सम्भूतिविजय स्थूलिभद्र आर्य महागिरि आर्य सुहस्ति सुस्थित सुप्रतिबुद्ध (अन्य दस) आर्य इन्द्रदिन्न शान्तिसेन ऋषिपालित ऋषिपालित का काल-उपर्युक्त गुरु-शिष्य परम्परा के अनुसार ऋषिपालित का क्रम भगवान् महावीर से बारहवां आता है अर्थात् इन दोनों के बीच दस आचार्य हए हैं। यदि हम प्रत्येक आचार्य का काल 30 वर्ष भी स्वीकार करें तो ऋषिपालित लगभग वीर निर्वाण सं० 300 के आसपास तो हुए ही होंगे। इस गुरु-शिष्य परम्परा में आर्य सुहस्ति को अशोक के पौत्र सम्प्रति का समकालीन माना है। आर्य सुहस्ति से आर्य ऋषिपालित का क्रम पाँचवां आता है अतः यह मानना होगा कि आर्य . * ऋषिपालित सम्प्रति से लगभग 100 वर्ष पश्चात् हए होंगे। सम्प्रति का शासन काल ईस्वी पूर्व 216-207 माना जाता है, इसमें 100 कम करने पर ऋषिपालित का काल ईस्वी पूर्व 107 के लगभग स्वीकृत होता है। अतः ऋषिपालित ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी के उत्तरार्ध में जीवित रहे होंगे और तभी उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना की होगी। अतः 'देविदत्थओ' का रचना काल लगभग ई० पू० प्रथम शताब्दी निश्चित होता है। यहाँ इस प्रश्न पर भी विचार करना आवश्यक है कि 'देवेन्द्रस्तव' को ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी की रचना मानने में क्या बाधायें आ सकती हैं, इस संदर्भ में हमको इसकी भाषा-शैली और विषय-वस्तु की दृष्टि से Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xxil ) विचार करना होगा। जहाँ तक 'देवेन्द्रस्तव' की भाषा का प्रश्न है, यह सत्य है कि उस पर महाराष्ट्री प्राकृत का प्रभाव परिलक्षित होता है, किन्तु महाराष्ट्री का ऐसा प्रभाव तो हमें ऋषिभाषित जैसे प्राचीनस्तर के प्रकोर्णक पर तथा आचारांग (प्रथम श्रुतस्कन्ध), उत्तराध्ययन और दशवेकालिक जैसे प्राचीन आगम ग्रन्थों में भी मिलता है। वास्तविकता यह है कि श्रत के शताब्दियों तक मौखिक बने रहने के कारण इस प्रकार के भाषिक परिवर्तन उसमें आ ही गये हैं। साथ ही अभी भी कुछ प्राचीन प्रतों में प्राचीन अर्धमागधी के पाठान्तर उपलब्ध हो जाते हैं। अतः महाराष्ट्रो प्राकृत के प्रभाव के आधार पर इसे परवर्ती काल की रचना नहीं कहा जा सकता है। पुनः प्रश्नव्याकरण, आदि कुछ आगमों की अपेक्षा इसकी भाषा में प्राचीनता के तत्त्व परिलक्षित होते हैं / शैली-यदि हम शैली की दृष्टि से विचार करें तो 'देवेन्द्रस्तव' की शैली समस्त आगमग्रन्थों से भिन्न है। आगम ग्रन्थों की प्राचीन शैली में निम्न वाक्यांश से प्रारम्भ किया जाता है "सुयं मे आउसं! तेण भगवया एवमक्खायं--" 'हे आयुष्मन् ! मैंने सुना है उन भगवान ने यह कहा है। दूसरे कुछ परवर्ती स्तर के आगमों में प्रारम्भ में आयं सुधर्मा से जम्ब जिज्ञासा प्रकट करते हैं और आर्य सुधर्मा, गौतम और महावीर के संवाद के रूप में आगम की विषय-वस्तु का विवेचन करते हैं। स्तुतिपर्वक गाथाओं के पश्चात् आगमों का विवरण प्रस्तुत करने की शैली मुख्यतः उन आगमों में देखी जाती है जिनके रचयिता कोई स्थविर या आचार्य माने जाते हैं। नन्दी जैसे परवर्ती अर्द्धमागधी आगम ग्रन्थों में तथा शौरसेनी आगम साहित्य के ग्रन्थों में मुख्यतया इस प्रकार की शैली परिलक्षित होती है। ___ 'देवेन्द्रस्तव' की वर्णन शैली भी इसी प्रकार की है। किन्तु इस ग्रन्थ की एक विशेषता यह है कि इसमें महावीर की स्तुति के पश्चात् समग्र विषय-वस्तु का विवेचन श्राविका की जिज्ञासा के समाधान के रूप में श्रावक द्वारा करवाया गया है। अतः इसमें जिज्ञासा समाधानपरक और स्तुतिपरक दोनों ही शैलियों का मिश्रण देखा जाता है। जिज्ञासा-शैली की दृष्टि से सम्भवतः यही एक मात्र ऐसा ग्रन्थ है, जिसमें विषयवस्तु का विवरण तीर्थंकर के मुख से अथवा आर्य सुधर्मा या गौतम के मुख से न कहलवाकर श्रावक के मुख से कहलवाया गया है / Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xxiii .) वस्तुतः इसके पीछे एक रहस्य प्रतीत होता है। यद्यपि भगवती, सूर्यप्रज्ञप्ति आदि में देवों से सम्बन्धित विवरण महावीर के श्रीमुख से ही कहलवाये गये / गौतम के पूछने पर महावीर ने यह कहा, ऐसा कह करके आर्य सुधर्मा, आर्य जम्बू को कहते हैं / तो फिर आखिर ऐसा क्यों हुआ कि 'देवेन्द्रस्तव' में यह विवरण एक श्रावक प्रस्तुत करता है ? हमारे विचार से चंकि 'देवेन्द्रस्तव' एक स्तुतिपरक ग्रन्थ था अतः महावीर अपने श्रीमुख से अपनी स्तुति कैसे करते ? पूनः किसी काल-विशेष तक आध्यात्मिक साधना प्रधान श्रमण इस प्रकार देवों को स्तुति नहीं करते होंगे, अतः आचार्य ऋषिपालित ने यह सोचा होगा कि इसे महावीर या गणधर के मुख से प्रस्तुत नहीं करवा करके श्रावक के मुख से ही प्रस्तुत करवाया जाये। पुनः जब ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही देवेन्द्रों को तीर्थंकर की स्तुति करने वाला कह दिया गया तो फिर स्वयं तीर्थंकर अपने मुंह से अपनी स्तुति करने वाले का विवरण कैसे प्रस्तुत करते ? साथ ही 'देवेन्द्रस्तव' की इस शैली से ऐसा फलित होता है कि किसी समय तक खगोल-भूगोल सम्बन्धी मान्यताओं को लौकिक मान्यता मान कर ही जैन परम्परा में स्थान दिया जाता रहा होगा। अतः इसका विवरण तीर्थकर या आचार्य द्वारा न करवा करके श्रावक के द्वारा प्रस्तुत किया गया / यदि हम 'देवेन्द्रस्तव' की शैली के आधार पर इस तथ्य को स्वीकार कर लें कि ये लौकिक मान्यताएं थीं तो सूर्य-प्रज्ञप्ति आदि खगोल और ज्योतिष विषयक आगमों के कुछ पाठों को लेकर आधुनिक विज्ञान से जो विसंगति देखी जाती है अथवा जिनके कारण जैन परम्परा की अहिंसा भावना खंडित होती प्रतीत होती है, उन सबकी लौकिक मान्यता के रूप में संगतिपूर्ण व्याख्या की जा सकती है। ___ हमारी दृष्टि में अध्यात्म प्रधान और नैतिक आदर्शों के प्रवक्ता तीर्थंकर महावीर का उन सब लौकिक मान्यताओं से बहुत अधिक सम्बन्ध नहीं रहा होगा, यह तो परवर्ती आचार्यों का ही प्रयत्न होगा कि उन्होंने जैन आगम साहित्य को खगोल-भूगोल आदि विभिन्न लौकिक विषयों से समृद्ध करने के प्रयत्न में लौकिक मान्यताओं को भी जैन आगमों में समाविष्ट कर लिया, अन्यथा इन सब बातों का अध्यात्म एवं चरण-गुण प्रधान जैनधर्म से सीधा-सीधा कोई सम्बन्ध नहीं रहा था। 'देवेन्द्रस्तव' की Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xxiv ) यह विशिष्ट शैली हमें उन सब समस्याओं से बचा लेती है और खगोलभूगोल सम्बन्धी विवरणों में जो विसंगति परिलक्षित होती है उसके लिए तीर्थंकर की वाणी उत्तरदायी नहीं बनती है। पुनः आज भी मूर्तिपूजक श्वेताम्बर समाज में एक वर्ग जिसे 'त्रिस्तु- . तिक' (तीन-थुई) के नाम से जाना जाता है, क्षेत्रपाल आदि देवों की स्तुति को षड्वश्यक की साधना में अनिवार्य नहीं मानता और उसे आगम विरुद्ध कहता है। शायद यही दृष्टि प्राचीनकाल में भी रही होगी और इसीलिए 'देवेन्द्रस्तव' को श्रावक के मुख से ही कहलवाया गया। 'देवेन्द्रस्तव' को यह शैली उसी युग में सम्भव थी जब अध्यात्म और नैतिकता प्रधान जैन धर्म में लौकिक मान्यताओं का प्रवेश तो हो रहा था, किन्तु उन्हें तीर्थंकर प्रणीत नहीं कहा जा रहा था। इस प्रकार भाषा-शैली की दृष्टि से इसकी विशेषताओं को देखते हुए इसे ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दो का ग्रन्थ मानने में विद्वानों को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। ___ यदि हम विषय-वस्तु की दृष्टि से 'देवेन्द्रस्तव' का.काल निर्धारण करना चाहें तो हमें यह विचार करना होगा कि 'देवेन्द्रस्तव' की विषयवस्तु क्या है, वह किस काल की हो सकती है तथावह किन-किन आगम ग्रन्थों में पायी जाती है ? सर्वप्रथम यह तो स्पष्ट ही है कि 'देवेन्द्रस्तव' में भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक इन चार प्रकार के देवों, उनके इन्द्रों, निवास-क्षेत्रों, भवनों, निवासक्षेत्र एवं भवनों के आकार-प्रकारों तथा इन देवों और इन्द्रों की आय, शक्ति, ज्ञान-सामर्थ्य आदि का विवेचन किया गया है। साथ ही साथ ज्योतिष्क देवों की गति सम्बन्धी चर्चा भी है जो सूर्यप्रज्ञप्ति के अनुरूप ही है / सूर्यप्रज्ञप्ति की ज्योतिष्क सम्बन्धी मान्यताओं के आधार पर विद्वानों ने उसका काल ईस्वी पूर्व तीसरी शताब्दी के आसपास का माना है। चंकि 'देवेन्द्रस्तव' में भी वे ही मान्यताएं प्रस्तुत की गई हैं, अतः वह भी उसका समकालीन या कुछ परवर्ती माना जा सकता है। हमें 'देवेन्द्रस्तव' की अधिकांश गाथाएँ अर्थात् तीन सौ में से लगभग आधी गाथाएं सूर्यप्रज्ञप्ति, स्थानांग, प्रज्ञापना, समवायांग आदि में यथावत् रूप से अथवा किञ्चित् पाठान्तरों के साथ मिली हैं, जिसका विस्तृत तुलनात्मक विवरण हमने इसी प्रस्तावना के अन्त में दिया है। गाथाओं की यह समानता हमारे सामने दो प्रतिपत्तियाँ प्रस्तुत करती हैं, या तो 'देवेन्द्रस्तव' से ये गाथाएँ इन आगम ग्रन्थों में गयी हों या फिर Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xxv ) आगम ग्रन्थों से ये गाथाएँ 'देवेन्द्रस्तव' में ली गयी हो / यद्यपि यह एक कठिन और विवादास्पद प्रश्न हो सकता है किन्तु फिर भी हमारी दृष्टि में कुछ तथ्य ऐसे हैं जिनसे यह फलित होता है कि ये गाथाएँ 'देवेन्द्रस्तव' से ही आगम ग्रन्थों में गयी हैं। इस सम्बन्ध में हम विद्वानों से गम्भीर चिन्तन की अपेक्षा करते हैं और यदि वे अन्य कोई प्रमाण प्रस्तुत कर सके तो हमें अन्यथा मानने में भी कोई विप्रतिपत्ति नहीं होगी। किन्तु हमारा जो यह मानना है कि ये गाथाएँ 'देवेन्द्रस्तव' से इन आगम ग्रन्थों में गयी हैं, निराधार नहीं है और विद्वानों को अन्यथा निर्णय लेने के पूर्व उन आधारों पर विचार कर लेना चाहिए (1) प्रथम तो यह कि सूर्यप्रज्ञप्ति, प्रज्ञापना, स्थानांग, समवायांग ये सभी ग्रन्थं गद्यात्मक शैली के हैं और इनमें से अधिकांश में तो "गाहाओ" कहकर ही इन गाथाओं को प्रस्तुत किया गया है / सामान्यतया गद्यात्मक ग्रन्थ में उस विषय से सम्बन्धित गाथाओं को 'गाहाओ' लिख कर कहीं से अवतरित ही किया जाता रहा है। चूंकि यहाँ भी वे गाथाएँ अवतरित की गयी हैं अतः इन गाथाओं का रचना-काल इन ग्रन्थों से पूर्व ही मानना चाहिए। यदि हम गाथाओं को परवर्ती मानते हैं तो यह मानना होगा कि आगे चलकर ये गाथायें उन ग्रन्थों में सम्मिलित कर ली गयी हैं। . ( 2 ) जिन ग्रन्थों में ये गाथाएँ मिली हैं, उनमें से सूर्यप्रज्ञप्ति को छोड़कर स्थानांग, समवायांग, प्रज्ञापना, जीवाभिगम आदि सभी को विद्वानों ने ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी या उसके पश्चात्कालीन रचना माना है / स्थानांग और समवायांग तो परवर्ती संकलन ग्रन्थ हैं / स्थानांग में वीर निर्वाण के 584 वर्ष पश्चात् हुए निह्नवों का तथा ई० पू० प्रथम शती के गणों का उल्लेख होने से यह ई० सन् प्रथम शती के पूर्व की रचना नहीं माना जा सकता। इसी प्रकार प्रज्ञापना के कर्ता आर्य श्याम कल्पसत्र की स्थविरावली के अनुसार ऋषिपालित से परवर्ती हैं अतः सम्भावना यही है कि 'देवेन्द्रस्तव' से ही ये गाथायें इनमें गयी हैं। हो सकता है कि सूर्यप्रज्ञप्ति में इन्हें बाद में सम्मिलित किया गया हो। (3) पुनः जहाँ 'देवेन्द्रस्तव' एक सुव्यवस्थित रचना है वहाँ दूसरे आगम ग्रन्थों में प्रसंगानुसार ये गाथाएं समाहित की गयी प्रतीत होती हैं / इन गाथाओं को भाषा-शैली से भी ऐसा लगता है कि यह एक ही व्यक्ति और एक ही काल को कृति है, जबकि जिन आगमों में ये गाथाएँ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xxvi ) उपलब्ध होती हैं, उनमें स्थानांग आदि ऐसे हैं जिनमें भिन्न-२ कालों की . विषय-वस्तु का संकलन होता रहा है। संभावना यही है कि 'देवेन्द्रस्तव' से, जो किसी समय एक बहुप्रचलित स्वाध्यायग्रन्थ रहा होगा, इन परवर्ती आगम ग्रन्थों का निर्माण करते समय इसकी गाथाएँ यथाप्रसंग अवतरित कर ली गयी होगी। साथ ही यह कम हो विश्वसनीय लगता है कि अनेक ग्रन्थों से गाथाओं का संकलन करके यह ग्रन्थ बनाया गया होगा। 'देवेन्द्रस्तव' का एक व्यक्तिकृत और एक काल की रचना होना यही सिद्ध करता है कि गाथाएँ इसी से अन्य आगम ग्रन्थों में गयी हैं। इस भूमिका के अन्त में जो हमने तुलनात्मक विवरण दिया है विद्वानों से अपेक्षा है कि वे इसका अध्ययन कर इस सत्य को समझने का प्रयास करेंगे। ग्रन्थकर्ता का काल, ग्रन्थ की विषय-वस्तु तथा इस ग्रन्थ की गाथाओं का अन्य ग्रन्थों में पाया जाना यही सिद्ध करता है कि 'देवेन्द्रस्तव' का रचना काल ईस्वीपूर्व प्रथम शताब्दी के लगभग ही रहा होगा। - इस कालनिर्णय के प्रसंग में विषय-वस्तु सम्बन्धी विवरण में एक ही आपत्ति प्रस्तुत की जा सकती है, वह यह कि 'देवेन्द्रस्तव' में सिद्धों के स्वरूप सम्बन्धी जो गाथाएँ हैं उनमें एक गाथा में केवलो को दर्शन और ज्ञान क्रमपूर्वक ही होता है, युगपद् नहीं, यह मान्यता सिद्ध की गयी है। केवली के दर्शन और ज्ञान के क्रमपूर्वक और युगपद् होने के प्रश्न को लेकर जैन परम्परा में महत्त्वपूर्ण विवाद रहा है / जहाँ आगमिक परम्परा दर्शन और ज्ञान को क्रमपूर्वक हो मानती है, दिगम्बर परम्परा उन्हें युगपद् मानती है। इस विवाद को समन्वित करने का प्रयत्न आचार्य सिद्धसेन ने सर्वप्रथम अपने ग्रन्थ "सन्मतितर्क" में किया था। 'देवेन्द्रस्तव' के कर्ता ने बलपूर्वक यह बात कही है कि केवली को दर्शन और ज्ञान क्रमपूर्वक ही होता है। इससे ऐसा लगता है कि उसके सामने अन्य मान्यता भी प्रस्तुत रही होगी। परन्तु अगर उसके सामने अन्य मान्यता रही होती, तो वह पहले उनका उल्लेख करता और फिर अपने मत की पुष्टि करता, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया / पुनः यह क्रम-वादकी मान्यता आगमिक एवं प्राचीन है। हो सकता है कि उस काल तक विवाद प्रारम्भ हो गया होगा और 'देवेन्द्रस्तव' के कर्ता ने उसी प्रसंग में बलपूर्वक अपने मत को प्रकट किया होगा। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xxvil ) अतः इस आगमिक मान्यता की उपस्थिति से 'देवेन्द्रस्तव' परवर्ती काल का नहीं माना जा सकता है, क्योंकि आगमिक काल में यह अवधारणा तो अस्तित्व में आ ही गयी थी। पुनः सिद्धों का विवरण देने वाली सभी गाथाएँ प्रज्ञापना और देविदत्थओ में समान रूप से मिलती हैं, केवल यही एक मात्र गाथा है, जो उसमें नहीं मिलती है, अतः प्रज्ञापना में लिये जाने के पूर्व भी यह गाथा देविदत्थओ में नहीं थी। अतः यह बाद में प्रक्षिप्त की गई होगी। पुनः देवताओं के संदर्भ में जो विस्तृत चर्चा इस ग्रन्थ में है उनमें से कुछ विवरण सम्बन्धी ऐसी बातें भी हैं जो लगभग इसी काल के हिन्दू व बौद्ध ग्रन्थों में भी पायी जाती है, जिन पर इसके विषय-वस्तु की तुलना के प्रसंग में विचार करेंगे। विषय-वस्तु:--'देवेन्द्रस्तव' में बत्तीस इन्द्रों का क्रमशः विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है। इसमें किसी संस्करण में 307 व किसी संस्करण में 311 गाथाएं प्राप्त होती हैं। ग्रन्थ का प्रारम्भ ऋषभ से लेकर महावीर तक की स्तुति से किया गया है। तत्पश्चात् किसी श्रावक की पत्नी अपने पति से बत्तीस देवेन्द्रों के विषय में प्रश्न पूछती है कि ये बत्तीस देवेन्द्र कौन हैं ? कहाँ रहते हैं ? उनके भवन कितने हैं ? और उनका स्वरूप क्या है ? (गाथा 1 से 11 तक) प्रत्युत्तर में वह श्रावक भवनपतियों, वाणव्यंतरों ज्योतिष्कों, वैमानिकों एवं अन्त में सिद्धों का वर्णन करता है। अब हम क्रमशः इनका विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं। सर्वप्रथम 20 भवनपतियों का जो वर्णन किया गया है उसे निम्नांकित सारिणी से समझा जा सकता है ( गाथा 15 से 50 ) / देखिये-सारणी सं० 1 / वाणव्यंतर-पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग और गन्धर्व ये आठ प्रकार के वाणव्यन्तर देव कहे गये हैं। इनके काल, महाकाल, सुरूप, प्रतिरूप, पूर्णभद्र, माणिभद्र, भीम, महाभीम, किन्नर, किंपुरुष, सत्पुरुष, महापुरुष, अतिकाय, महाकाय, गीतरति, गीतयश आदि सोलह इन्द्र कहे गये हैं। ये देव ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक किसी भी लोक में उत्पन्न हो सकते हैं। इनकी कम से कम आयु दस हजार वर्ष और अधिकतम आयु एक पल्योपम कही गयी है / (गाथा 67 से 80) ज्योतिषिक-चन्द्र, सर्य, तारागण, नक्षत्र और ग्रह ये पांच ज्योतिषिक देव कहे गये हैं। यहीं पर चन्द्र, सूर्य का विस्तार, इनकी संख्या, उनके विमान और आयाम-विष्कम्भ का वर्णन किया गया है / (गाथा 81 से 93) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारिणी-१ भवनपति इन्द्रों के नाम दक्षिण दिशा उत्तर दिशा के इन्द्र के इन्द्र भवन दक्षिण दिशा के भवन उत्तर दिशा के भवन सामानिक . निवास स्थान द० दि० उ० दि० ) नागकुमार असुरकुमार सुपर्णकुमार चमरेन्द्र धरणेन्द्र वेणुदेव असुरदेव भूतानन्द वेणुदालि 34 लाख 44 लाख 38 लाख 30 लाख 40 लाख 34 लाख HAYY पूर्ण द्वीपकुमार उदधिकुमार दिशाकुमार वायुकुमार ( वशिष्ठ - जलप्रभ अमितवाहन प्रभञ्जन जलकान्त अमितगति वेलम्ब 64 हजार 60 हजार अरूणवरसमुद्र अरूणवरसमुद्र ___ मनुष्योत्तर पर्वत अरूणवर द्वीप अरूणवरसमुद्र अरूणवरद्वीप मनुष्योत्तर 40 लाख 40 लाख 40 लाख 50 लाख 36 लाख 36 लाख 36 लाख 46 लाख पर्वत स्तनितकुमार विद्युतकुमार अग्निकुमार घोष हरिकान्त अग्निशिख महाघोष "हरिस्सह अग्निमानव 40 लाख 40 लाख 40 लाख 36 लाख 36 लाख 36 लाख अरूणवर द्वीप माल्यवत् पर्वत अरूणवर द्वीप Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xxix ) चन्द्र और सूर्य के विषय में इसमें विस्तार से चर्चा पायी जाती है। उनको गति के बारे में कहा गया है कि सूर्य चन्द्रमा से, ग्रह सूर्य से, नक्षत्र ग्रहों से और तारे नक्षत्रों से तेज गति करने वाले होते हैं ( गाथा 94 से 96) यहीं पर शतभिषज, भरणी, आर्द्रा, आश्लेषा, स्वाति और ज्येष्ठा ये छः नक्षत्र कहे गये हैं, जो पन्द्रह मुहर्त संयोग वाले कहे गये हैं। तीन उत्तरानक्षत्र और पुर्नवसु, रोहिणी और विशाखा-ये छः नक्षत्र चन्द्रमा के साथ पैतालिस मुहर्त का संयोग करते हैं। इसी प्रकार अन्य नक्षत्रों के चन्द्र-सूर्य संयोगों का उल्लेख हुआ है ( गाथा 97 से 107 ) / . सूर्य, चन्द्र आदि ज्योतिषिक देवों की संख्या को निम्न सारिणी से आसानी से समझा जा सकता है ( गाथा 108 से 129) चन्द्र सूर्य नक्षत्र ग्रह तारा ( क्रोडा कोडी में) जम्बूद्वीप - 2 लवणसमुद्र 4 धातकीखण्ड 12 कालोदधि समुद्र 42 पुष्कर द्वीप 144 अर्द्धपुष्कर द्वीप 72 मनुष्यलोक 132 4 12 42 144 72 112 56 176 112 352 336 1056 1176 3696 . 4022 12672 / / 2016 6336 3696 11616 133950 267900 803700 2812950 9644400 4822200 8840700 - इसके बाद ज्योतिषिकों के पिटक, पंक्तियाँ, मण्डल, उनका ताप क्षेत्र, उनकी गति आदि का वर्णन किया गया है। तत्पश्चात् बताया गया है कि चन्द्रमा की हानि और वृद्धि किस प्रकार होती है। यहां कहा गया है कि शुक्ल पक्ष के पन्द्रह दिनों में चन्द्रमा का बांसठवां-बासठवां भाग राहु से अनावृत होकर -प्रतिदिन बढ़ता है और कृष्णपक्ष के उतने ही समय में राहु से अनावृत्त होकर घटता जाता है, इस प्रकार चन्द्रमा वृद्धि को प्राप्त होता है और इसी प्रकार चन्द्रमा का ह्रास होता है। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xxx ) वैमानिक देव-इसके बाद वैमानिक देवों के बारह भेदों ग्रेवेयक देवों के 9 भेदों और अनुत्तर वैमानिक देवों के पाँच भेदों का विस्तार से वर्णन किया गया है। विशेषरूप से इनके विमान, स्थिति, लेश्या, ऊँचाई, गंध, कामक्रीडा, अवधिज्ञान सीमा, आहार ग्रहण करने की इच्छा, उनके प्रासाद, प्रासादों का वर्ण आदि विवरण प्रस्तुत किया गया है, जिसे निम्न सारणियों द्वारा आसनी से समझा जा सकता है (गाथा 162 से 276) इन्द्रों के नाम विमानों का पृथ्वी की विमान संख्या प्रत्येक विमान .. आधार मोटाई में प्रासादों की (योजन में) संख्या सौधर्म ईशान सनत्कुमार माहेन्द्र ब्रह्म लान्तक महाशुक्र सहस्रार TIT 600 700 32 लाख , 500 28 लाख . 500 12 लाख 8 लाख 4 लाख 50 हजार 40 हजार 6 हजार 900. 200 900 150 900 700. घनोदधि 2700 घनोदधि 2700 घनवात 2600 घनवात 2600 घनवात 2500. अवकाशान्तर 2500 अवकाशान्तर 2400 2400 2300 2300 2300 2300 2200 2100 800 00 आनत 200 प्राणत 200 :::::. आरण अच्युत 900 ग्रेवेयक अनुत्तरदेव 1000 1100 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारिणी-३ इन्द्रों के . प्रासादों का वर्ण . नाम आयु (स्थिति) ऊँचाई लेश्या अवधि ज्ञान (सागरोपम) (रत्नि में) (मनोवृति) की सीमा आहार ग्रहण काम-क्रीडा करने की इच्छा का माध्यम (हजार वर्षों में) 2 शरीर के द्वारा 7 तेजस् पहली नरक ईशान 7 तेजस् पहली नरक 2 से कुछ अधिक , ( xxxi ) 6 کی दूसरी नरक पद्म i, 7 स्पर्श के द्वारा 8 7 से कुछ अधिक , सौधर्म काला, नीला, लाल, पीला, . 2 श्वेत काला, नीला, लाल, पीला, 2 से कुछ श्वेत अधिक सनत्कुमार नीला, लाल, पीला, श्वेत 7 माहेन्द्र , , , , 7 से कुछ __ अधिक ब्रह्म लाल, पीला, श्वेत लान्तक लाल, पीला, श्वेत महाशुक्र पीला, श्वेत सहस्रार पीला, श्वेत 18 आनत وں तीसरी नरक د रूप के द्वारा د " स्वर के द्वारा مر 10 14 17 18 19 مر चौथी नरक " पांचवीं नरक . m मन के द्वारा Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासादों का वर्ण इन्द्रों के नाम प्राणत आरण आयु (स्थिति) ऊँचाई लेश्या अवधि ज्ञान आहार ग्रहण काम क्रीड़ा (सागरोपम) (रत्नि में) (मनोवृत्ति) की सीमा करने की इच्छा का माध्यम (हजार वर्षों में) 20 छठी नरक 21 22 सातवीं नरक काम क्रीड़ा का - अभाव सम्पूर्ण लोक 33 काम-क्रीड़ा का नाड़ी अभाव अच्युत ग्रेवेयक ( xxxii ) अनुत्तरदेव , Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xxxiii ) सिद्धशिला-अन्त में सिद्धशिला पृथ्वी का वर्णन किया गया है जो सर्वार्थसिद्ध विमान के सबसे ऊंचे स्तूप के अन्त से 12 योजन ऊपर है। वह 45 लाख योजन लम्बी चौड़ी है और परिधि में यह 14230249 योजन से कुछ अधिक है। . इस पर सिद्धों का निवास है। वे सिद्ध वेदनारहित, ममतारहित, आसक्तिरहित, शरीररहित, अनाकार दर्शन और साकार ज्ञान वाले होते हैं / इनकी उत्कृष्ट अवगाहना 333 धनुष और जघन्य अवगाहना एक रत्नि आठ अंगुल कुछ अधिक है (गाथा 277 से 306) / ' अन्त में अरिहन्तों की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए ऋषिपालित कहते हैं कि सभी भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देव अरिहन्तों की वन्दना व स्तुति करने वाले ही होते हैं। विषय-वस्तु की तुलना : 'देवेन्द्रस्तव' की यह विषय वस्तु आगम साहित्य, तिलोयपण्णत्ति और . अन्य प्रकीर्णकों में कहाँ उपलब्ध है इसका तुलनात्मक विवरण निम्नानुसार है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविंदत्थओ ( xxxiv ) दो भवणवईइंदा चमरे 1 वइरोयणे 2 य असुराणं 1 / दो नागकुमारिंदा धरणे 3 तह भूयणंदे 4 य 2 // 15 // दो सुयणु ! सुवण्णिदा वेणूदेवे 5 य वेणुदाली 6 य 3 / दो दीवकुमारिंदा पुण्णे 7 य तहा वसिठे 8 य 4 // 16 // दो उदहिकुमारिंदा जलकते 9 जलपमे 10 यं नामेणं 5 / अमियगइ११ अमियवाहण१२ दिसाकुमाराण दोइंदा६ // 17 // दो वाउकुमारिंदा वेलंब 13 पभंजणे 14 य नामेणं. 7 / दो थणियकुमारिंदा घोसे 15 य तहा महाघोसे 16 // 8 // 18 // दो विज्जुकुमारिंदा हरिकंत 17 हरिस्सहे 18 य नामेणं 9 / अग्गिसिह१९ अग्गिमाणव२० हुयासणवई वि दो इंदा१०॥१९॥ चमर-वइरोयणाणं असुरिंदाणं महाणुभागाणं / / तेसि भवणवराणं चउसट्टिमहे सयसहस्सा / / 21 / / नागकुमारिंदाणं भूयाणंद-धरणाण दोण्हं पि / तेसिं भवणवराणं चुलसीइमहे सयसहस्सा // 22 // दो सुयणु ! सुवण्णिदा वेणूदेवे य वेणुदाली य / तेसिं भवणवराणं बावतरि मो सयसहस्सा // 23 // Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xxxv ) स्थानांग सूत्र : दो असुरकुमारिंदा पण्णत्ता, तंजहा-चमरे चेव, बले चेव // दो णागकुमारिंदा पण्णत्ता, तंजहा-धरणे चेव, भूयाणंदे चेव / / दो सुवण्णकुमारिंदा पण्णता, तंजहा-वेणुदेवे चेव, वेणुदाली चेव // दो विज्जुकुमारिंदा पण्णत्ता, तंजहा-हरिच्चेव, हरिस्सहे चेव // दो अग्गिकुमारिंदा पण्णत्ता, तंजहा-अग्गिसिहे चेव, अग्गिमाणवे चेव // दो दीवकुमारिंदा पण्णत्ता, तंजहा-पुण्णे चेव, विसिढे चेव // दो उदहिकुमारिंदा पण्णत्ता, तंजहा-जलकते चेव, जलप्पभे चेव॥ दो दिसाकुमारिंदा पण्णता, तंजहा-अमियगती चेव, अमितवाहणे चेव // दो वायुकुमारिंदा पण्णत्ता, तंजहा-लंबे चेव, पभंजणे चेव // ___ दो थणियकुमारिंदा पण्णता, तं जहा-घोसे चेव, महाघोसे चेव // ' समवायांग सूत्र : चउसटुिं असुरकुमारावाससयसहस्सा पण्णत्ता। चमरस्त णं रन्नो चउट्ठि सामाणियसाहस्सीओ पण्णत्ताओ॥ चोरासीइं. नागकुमारावाससयसहस्सा पण्णत्ता। चोरासीइं पन्नगसहस्साई पण्णत्ता। चोरासीइं जोणिप्पमुहसयसहस्सा . पण्णत्ता। बावत्तरि सुवन्नकुमारावाससयसहस्सा पण्णत्ता। 1. (क) स्थानांगसूत्र-मुनि मधुकर, पृ० 78-79 सूत्र 353 से 362 तक (ख) तिलोय पण्ण त्ति-महा०, 3, गाथा 14-16 2. (क) समवायांगसूत्र-मुनि मधुकर, पृ० 124, सूत्र 325. ... (ख) तिलोयपण्णत्ति-महा० 3 गाथा 9-11: 3. वही, पृ० 143, सूत्र-३९६. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ ( xxxvi ) वाउकुमारिंदाणं वेब-पभंजणाण दोण्हं पि / तेसिं भवणवराणं छन्नवइमहे सयसहस्सा // 24 // चोवट्ठी असुराणं, चुलसीई चेव होइ नागाणं / .. बावत्तरी सुवण्णाण, वाउकुमराण छन्नउई // 25 // दीव-दिसा-उदहीणं विज्जुकुमारिंद-थणिय-मग्गीणं / छण्हं पि जुवलयाणं छावत्तरि मो सयसहस्सा // 26 // चउतीसा चोयाला अट्टत्तीसं च सयसहस्साई। चत्ता पन्नासा खलु नाहिणओ हुँति भवणाई // 41 // तीसा चत्तालीसा चउतीसं चेव संयसहस्साइं / छत्तीसा छायाला उत्तरओ हुँति भवणाई // 42 // पिसाय१ भूया२ जक्खा३ य रक्खसा४ किन्नरा५ य किंपुरिसा 6 / महोरगा 7 य गंधव्वा 8 अट्ठविहा वाणमंतरिया // 67 / / काले 1 य महाकाले 2 / 1 सुरूव 3 पडिरूव 4 / 2 पुन्नभद्दे 5 य / अमरवइ माणिभद्दे 6 / 3 भीमे 7 य तहा महाभीमे 7 / 4 // 69 / / Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xxxvii ) लवणस्स समुदस्स बावत्तरि नागसाहस्सीओ बहिरियं वेलं धारंति // ' वायुकुमाराणं छण्णउई भवणावाससयसहस्सा पण्णत्ता // 2 प्रज्ञापना : चोवर्द्वि असुराणं 1 चुलसीती चेव होति जागाणं 2 / बावरि सुवण्णे 3 वाउकुमाराण छण्णउई 4 // दीव-दिसा-उदहीणं विज्जुकुमारिद-थणिय-मग्गीणं / छण्हं पि जुअलयाणं छावत्तरिमो सतसहस्सा 10 // चीत्तीसा 1 चोयाला 2 अट्ठत्तीसं च सयसहस्साई 3 / पण्णा 4 चत्तालीसा 5-10 दाहिणओ होति भवणाई॥ तोसा 1 चत्तालीसा 2 चोत्तीसं चेव सयसहस्साई 3 // छायाला . 4 छत्तीसा 5-10 उत्तरओ होंति भवणाई // पिसाया 1 भूया 2 जक्खा 3 रक्खसा 4 किन्नरा 5 किंपुरिसा 6 / भुयगवइणो य महाकाया 7 गंधव्वगणा य निउणगंधव्वगीत रइणो 8 / काले य महाकाले 1 सुरूव पडिरूव 2 पुण्णभद्दे य / अमरवइ.माणिभद्दे 3 भीमे य तहा महाभीमे 4 // - 1. वही, पृ. 930, सूत्र-३५३. . 2. वही, पृ० 155, सूत्र-४३३. .. 3. प्रज्ञापनासूत्र-मधुरमुनि, द्वितीय स्थान पद पृ० 160, सूत्र 178 गाथा .. 138-139. 4. वही पृ० 160, सूत्र-१८७, गाथा-१४०-१४१. Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्यो ( xxxviit) किन्नर 9 किंपुरिसे 10 खलु 5 सप्पुरिसे 11 चैव तह महापुरिसे 12 / 6 / अइकाय 13 महाकाए 14 / 7 गीयरई 15 चेव गीयजसे - 16 / 8 // 7 // सन्निहिए 1 सामाणे 211 धाय 3 विधाए 4 / 2 इसी .. 5 य इसिवाले 6 / 3 / इस्सर 7 महिस्सरे या 8 / 4 हवइ सुवच्छे 9 _ विसाले य 105 // 71 // हासे 11 हासरई वि य 12 / 6 सेए य 13 तहा भवे महासेए 14 / 7 / . पयए 15 पययवई वि य 167 नेयव्वा आणुपुव्वीए // 72 // चंदा 1 सूरा 2 तारागणा 3 य नक्खत्त 4 गहगण समग्गा 5 / पंचविहा जोइसिया, ठिई वियारी य ते भणिया // 81 // अद्धकविटुगसंठाणसंठिया फालियामया रम्भा / जोइसियाण विमाणा तिरियंलोए असंखेज्जा // 82 / / छप्पन्नं खलु भागा विच्छिन्नं चंदमंडलं होइ / अडवीसं च कलाओ बाहल्लं तस्स बोद्धव्वं // 87 // Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xxxix ) किण्णर किंपुरिसे खलु 5 सप्पुरिसे खलु तहा महापुरिसे 6 / अइकाय महाकाए 7 गोयरई चेव गीतजसे 8 / सण्णिहिया सामाणा 1 धाय विधाए 2 इसी य इसिपाले 3 / ईसर महेसरे या 4 हवइ सुवच्छे विसाले य 5 // हासे हासरई वि य 6 सेते य तहा भवे महासेते 7 / पयते पययपई वि य 8 नेयव्वा आणुपुव्वीए / ' जोइसिया पंचविहा पन्नत्ता / तंजहा चंदा 1 सूरा 2 / गहा 3 नक्खत्ता 4 तारा 5 // अद्धकविटुग संठाणसंठिता सव्वफलियामया। जोइसियाणं देवाणं तिरियमसंखेज्जा जोइसियविमाणावाससतसहस्सा। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति : छप्पणं खलु-भाए-विच्छिण्णं चंदमंडलं होइ / अट्ठावीसं भाए बाइल्लं तस्स बोद्धव्वं // - 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र--मुनि मधुकर, पृ० 165, 168, 169. (ख) तिलोयपण्णत्ति--महा० 3 गाथा 25, 34-49. . 2. (क) प्रज्ञापनासूत्र-मुनि मधुकर, पृ० 112, सूत्र-१४२(i). . (ख) तिलोयपण्णत्ति महा० 7, गाथा 7. 3. वही, पृ० 170, सूत्र-१९५ (i) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्यो (x) अडयालीसं भागा विच्छिन्नं सूरमंडलं होइ / चउवीसं च कलाओ बाहल्लं तस्स बोद्धव्वं // 88 // अद्धजोयणिया उ गहा, तस्सद्धं चेव होइ नक्खत्ता / नक्खत्तद्धे तारा, तस्सऽद्धं चैव बाहल्लं // 89 // चंदेहि उ सिग्घयरा सूरा, सूरेहिं तह गहा सिग्या / नक्खत्ता उ गहेहि य, नक्खत्तेहिं तु ताराओ // 94 // सव्वऽप्पगई चंदा, तारा पुण होंति सव्वसिग्धगई / एसो गईविसेसो जोइसियाणं तु देवाणं // 95 // अप्पिड्ढिया उ तारा, नक्खत्ता खलु तओ महिड्ढियए / नक्खत्तेहिं तु गहा, गहेहिं सूरा, तओ चंदां // 16 // पंचेव धणुसयाइ जहन्नयं अंतरं तु ताराणं / दो चेव गाउयाइ निव्वाघाएण उक्कोसं // 19 // दोन्नि सए छाव? जहन्नयं अंतरं तु ताराणं / बारस चेव सहस्सा दो बायाला य उक्कोसा // 10 // Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (xii ) अडयालीसं भाए, वित्थिण्ण सूरमंडलं होइ / चउवीसं खलु भाए, बाहल्लं तस्स बोद्धव्वं // दो कोसे अगहाणं, णक्खताण तहवइ तस्सद्ध / तस्सद्ध ताराणं तस्सद्धं चेव बाहल्ले // ' सूर्यप्रज्ञप्ति : चंदोहितो सिग्घगइ सूरे सूरेहितो गहा सिग्घगई / गहेहितो णक्खत्ता सिग्घगई, णक्खत्तेहितो तारा सिग्धगइ, सव्वप्पंगइ चंदा सव्वसिंग्यगइ तारा / महड्ढिया वा ताराहिंतो महिड्ढिया णक्खत्तेहितो गहा महिड्ढिया गहेहितो सूरा महिड्ढिया सूरेहितो चंदा महिड्ढिया सव्वप्पड्ढिया तारा सव्वमहिड्ढिया चंदा // 2 . जीवाभिगमसूत्र : से जहन्नेणं पंचधणुसयाई उक्कोसेणं दो गाउयाई तारारूव जाव अंतरे पन्नत्ते। . - जहन्नेणं दोण्णि य छावटे जोयणसए उक्कोसेणं बारस जोयणसहस्साई दोणि य बायाले जोयणसए तारारूवस्सरय अबाहाए अंतरे पन्नत्तरे 1. जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति, सातवाँ-वक्षकार, सूत्र 165. गणितानुयोग-मुनि कन्हैयालाल 'कमल', पृ०-४४७ से उद्धृत 2. सूर्यप्रज्ञप्ति-घासीलाल जी मुनि, प्राभृत-१८ सूत्र 95. 3. जोवाभिगम सूत्र-मुनि घासीलाल जी, पृ० 995, सूत्र-११६. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविवत्पको (xiil) . एयस्स चंदजोगो सत्तट्टि खंडिओ अहोरत्तो। ते हुंति नव मुहुत्ता सत्तावीसं कलाओ य / / 101 // सयभिसया भरणीओ अद्दा अस्सेस साइ जेट्ठा य। एए छ न्नक्खत्ता पन्नरसमुहुत्तसंजोगा // 102 // तिन्नेव उत्तराइ पुणव्वसू रोहिणी विसाहा य / एए छ न्नक्खत्ता पणयालमुहुत्तसंजोगा // 103 // अवसेसा नक्खत्ता पनरस या होति तीसइमुहुत्ता / चंदम्मि एस जोगो नक्खत्ताणं मुणेयव्वो // 104 // अभिई छच्च मुहत्ते चत्तारि य केवले अहोरत्ते। सूरेण समं वच्चइ एत्तो सेसाण वुच्छामि // 105 / / सयभिसया भरणीओ अद्दा अस्सेस साइ जेट्ठा य / वच्चंति छऽहोरत्ते एक्कावीसं मुहुत्ते य / / 106 / / तिन्नेव उत्तराई पुणव्वसू रोहिणी विसाहा य / वच्चंति मुहुत्ते तिन्नि चेव वीसं अहोरत्ते // 107 // अवसेसा नक्खत्ता पण्णरस वि सूरसहगया जंति / बारस चेव मुहुत्ते तेरस य समे अहोरत्ते // 108 // Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (III) सूर्यप्रज्ञप्ति : .. णव मुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तट्ठिभागे मुहुत्तस्स चंदेण सद्धि जोएइ पण्णरस मुहुत्ताइ तीसमुहत्ताइ पणयालीस मुहुत्ताइ मणितव्वाईजाव उत्तरासादा। एवं अहोरत्ता छ एक्कवीसं मुहुत्ता य तेरस अहोरत्ता बारस मुहुत्ता य वीसं अहोरत्ता तिण्णि मुहुत्ता य सव्वे भणियव्वा / ' '. (क) सूर्यप्रज्ञप्ति-मुनि घासीलाल जी, भाग 2, सूच-८४. (ख) ज्योइसकरण्डग पइण्णय-गाथा 127-137. Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्यो ( xliv ) दो चंदा, दो सूरा, नक्खत्ता खलु हवंति छप्पन्ना / छावत्तरं गहसयं जंबुद्दीवे वियारी णं // 109 // एक्कं च सयसहस्सं तित्तीसं खलु भवे सहस्साइ। नव य सया पण्णासा तारागणकोडिकोडीणं // 110 // चत्तारि चेव चंदा, चत्तारि य सूरिया लवणतोए। बारं नक्खत्तसयं, गहाण तिन्नेव बावन्ना // 111 // दो चेव सयसहस्सा सत्तट्टि खलु भवे सहस्सा उ / नव य सया लवणजले तारागणकोडिकोडीणं // 112 // चउवीसं ससि-रविणो, नक्खत्तसया य तिण्णि छत्तीसा। एक्कं च गहसहस्सं छप्पन्नं धायईसंडे // 113 // अठेव सयसहस्सा तिण्णि सहस्सा य सत्त य सयाइ / धायइसंडे दीवे तारागणकोडिकोडीणं // 114 // बायालीसं चंदा बायालीसं च दिणयरा दित्ता। कालोदहिम्मि एए चरंति संबद्धलेसाया // 115 // नक्खत्तसहस्सं एगमेव छावत्तरं च सयमन्नं / छच्च सया छन्नउया महग्गहा तिन्नि य सहस्सा // 116 // अट्ठावीसं कालोदहिम्मि बारस य सहस्साई। नव य सया पन्नासा तारागणकोडिकोडीणं // 117 // Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xiv ) यूर्यप्रज्ञप्ति : दो चंदा दो सूरा णक्खत्ता खलु हवंति छप्पण्णा / बावत्तरं गहसयं जंबुद्दीवे विचारीणं // एगं च सयसहस्सं तित्तीसं च खलु भवे सहस्साई / णव य सया पण्णासा तारागण कोडिकोडी णं / / चत्तारि चेव चंदा चत्तारि य सूरिया लवणतोये / बारस णक्खत्तसयं गहाण तिण्णेव बावण्णा / / दोच्चेव सयसहस्सा सत्तट्ठि खलु भवे सहस्साई / णव य सया लवणजले तारागण कोडिकोडीणं // चउवीसं ससिरविणो णक्खत्तसया त तिण्णि छत्तीसा। एगं च गहसहस्सं छप्पण्णं धातई संडे / / अट्ठव सयसहस्सा तिण्णि सहस्साई सत्त य सयाई। . धातई दीवे तारागण कोडिकोडीणं // बयालीसं चंदा बयालीसं च दिणयरा दित्ता / कालोदधिमि एए चरंति, संबद्धलेस्सागा // णक्खत्तसहस्सं एगमेव छावत्तरं च सयमण्णं / छच्च सयाछण्णउया महग्गहा तिण्णि य सहस्सा / / अट्ठावीस कालोदहिमि बारसयसहस्साई / णव य सया पण्णासा तारागण कोडिकोडीणं / / Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ ( xlvi ) चोयाल चंदसयं, चोयालं चेव सूरियाण सयं / पोक्खरवरम्मि एए चरंति संबद्धलेसाया // 118 // चत्तारिं च सहस्सा बत्तीसं चेव होंति नक्खत्ता। छच्च सया बावत्तर महग्गहा बारस सहस्सा. // 119 / / छन्नउइ सयसहस्सा चोयालीसं भवे सहस्साइ। . चत्तारि तह सयाई तारागणकोडिकोडीणं // 120 // बावत्तरि च चंदा, बावत्तरिमेव दिणयरा दित्ता।.. पुक्खरवरदीवड्ढे चरंति एए पगासिंता // 121 // तिण्णि सया छत्तीसा छच्च सहस्सा महग्गहाणं तु / नक्खत्ताणं तु भवे सोलाणि दुवे सहस्साणि // 122 // अडयालसयसहस्सा बावीसं खलु भवे सहस्साइ। दो य सय पुक्खरद्धे तारागणकोडिकोडीणं // 122 // बत्तीसं चंदसयं 132, बत्तीस चेवं सूरियाण सयं // 123 // सयलं मणुस्सलोयं चरंति एए पयासिंता // 124 // एक्कारस य सहस्सा छप्पि य सोला महग्गहसया उ 11616 // छ च्च सया छन्नउआ नक्खत्ता तिण्णियसहस्सा 3696 // 125 // अट्ठासीइ चत्ताइ सयसहस्साई मणुयलोगम्मि / सत्त य सया अणूणा तारागणकोडिकोडीणं / / 126 / / एसो तारापिंडो सव्वसमासेण मणुयलोगम्मि। . बहिया पुण ताराओ जिणेहिं भणिया असंखेजा // 127 / / Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xlvii ) चोत्तालं चंदसयं चोत्तालं चेव सूरियाणसयं / पोक्खरवरदीवम्मि च चरंति एए पभासंता / / चत्तारि सहस्साइं छत्तीसं चेव हुँति णक्खत्ता / छच्च सया बावत्तर महग्गहा बारससहस्सा।।' छण्णउति सयसहस्सा चोत्तालीसं खलु भवे सहस्साई / चत्तारि य सया खलु तरागणकोडिकोडीणं // बावत्तरिं च चंदा बावत्तरिमेव दिणकरा दित्ता / पुक्खरवरदीवद्धे चरंति एए पभासेंता // तिण्णि सया छत्तीसा, छच्च सहस्सा महग्गहाणं तु / णक्खत्ताणं तु भवे, सोलाई दुवे सहस्साई // अडयालसयसहस्सा बावीसं खलु भवे सहस्साई / दोउ सूरे पुक्खर तारागण कोडिकोडीणं / / बत्तीसं चंदसयं बत्तीसं चेव सूरियाण सयं / सयलं मणुसलोयं चरंति एए पमासेता // एक्कारस सयसहस्सा छप्पिय सोला महग्गहाणं तु / छच्च समा छण्णउया णक्खत्ता तिण्णि य सहस्सा // अट्ठासीई चत्ताइ सयसहस्साइ मणुयलोगंमि | सत्तयसया अणूणा तारागण कोडिकोडोणं / एसो तारापिंडो सव्व समासेण मणुयलोयंमि / बहित्ता पुण ताराओ जिणेहिं भणिया असंखेज्जाओ। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ | xlviii) एवइयं तारग्गं जं भणियं तह य मणुयलोगम्मि / चार कलंबुयापुप्फसंठियं जोइसं चरइ // 128 // रवि-ससि-गह-नक्खत्ता एवइया आहिया मणुयलोए / जेसिं नामा-गोयं न पागया पनवेइति // 129 // छावढेि पिडयाई चंदाऽऽइच्चाण मणुयलोगम्मि / दो चंदा दो सूरा य होंति एक्केक्कए पिडए // 130 // छावढि पिडयाइ नक्खत्ताणं तु मणुयलोगम्मि। छप्पन्नं नक्खत्ता य होंति एक्केक्कए पिडए // 131 // छावढी पिडयाई महग्गहाणं तु मणुयलोगम्मि / छावत्तरं गहसयं च होइ एक्केक्कए पिडए // 132 // चत्तारि य पंतीओ चंदाऽऽइच्चाण मणुयलोगम्मि / छावट्ठि छाव४ि च होई इक्किक्किया पंती // 133 // छप्पन्नं पंतीओ नक्खत्ताणं तु मणुयलोगम्मि / छावट्ठि छावद्धिं च होइ . इक्किक्किया पंती // 134 // छावत्तरं गहाणं पंतिसयं होइ मणुयलोगम्मि। छावर्द्वि छावटुिं च होइ इक्किक्किया पंती // 135 // ते मेरुमणुचरंती पयाहिणावत्तमंडला सव्वे / अणवट्ठिएहिं जोएहिं चंद-सूरा गहगणा य // 136 // नक्खत्त-तारयाणं अवट्ठिया मंडला मुणेयव्वा / ते वि य पयाहिणावत्तमेव मेरुं अणुचरंति // 137 // Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xlix ) एवइयं तारग्गं जं भाणियं माणुसंमि लोगंमि / चारं कलंबुयापुप्फ संठितं जोतिसं चरइ / रविससिगहणक्खत्ता एवइया आहिया मणुयलोए / जेसि णामागोत्तं ण पागया पण्णवेहिति // छावढेि पिडगाई चंदादिच्चाण मणुयलोयंमि / दो चंदा दो सूरा य हुंति एक्केक्कए पिडए / छावट्टि पिडगाइं णक्खत्ताणं तु मणुयलोमि / छप्पण्णं णक्खत्ता हुंति एक्केक्कए पिडए / छावढि पिडगाई महागहाणं तु मणुयलोयंमि / छावत्तरं गहसयं होइ एक्केक्कए पिडए / चत्तारि य पंतीओ चंदाइचाण मणुयलोयम्मि / छावढि छाढ़ि च होइ एक्किकिया पंती // छप्पण्णं पंतिओ णवखत्ताणं तु मणुयलोमि / छावट्टि छाढ़ि हवंति एक्कक्किया पंती / / छावत्तरं गहाणं पंतिसयं हवइ मणुयलोयंमि / छावढि छावढि हवइ य एक्केक्किया पंती // ते मेरुयणुचरंता, पदाहिणावत्तमंडला सव्वे / अणवट्ठियजोगेहिं चंदा सूरा गहगणा य // णक्खत्त तारगाणं अवट्ठिया मंडलामुणेयव्वा / तेऽविय पयाहिणावत्तमेव मेलं अणुचरंति / / Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ रयणियर-दिणयराणं उड्ढमहे एव संकमो नत्थि / मंडलसंकमणं पुण अभितर बाहिरं तिरियं / / 138 // रयणियर-दिणयराणं नक्खत्ताणं च महगहाणं च / चारविसेसेण भवे सुह-दुक्खविही मणुस्साणं // 139 / / तेसि पविसंताणं तावक्खेत्तं तु वड्ढए नियमा। तेणेव कमेण पुणो परिहायइ निक्खमिताणं / / 140 // तेसि कलबुयापुप्फसंठिया होंति तावखेत्तमुहा। अंतो य संकुला बाहिं वित्थडा चंद-सूराणं / / 141 // केणं वड्ढइ चंदो ? परिहाणी वा वि केण चंदुस्स ? / कालो वा जोण्हा वा केणऽणुभावेण चंदस्स ? // 142 // किण्हं राहु विमाणं निच्चं चंदेण होइ अविरहियं / चउरंगुलमप्पत्तं हिट्ठा चंदस्स तं चरइ // 143 // बावढि बावढि दिवसे दिवसे तु सुक्कपक्खस्स / जं परिवड्ढइ चंदो, खवेइ तं चेव कालेणं // 144 // पन्नरसइभागेण य चंदं पन्नरसमेव संकमइ। . पन्नरसइभागेण य पुणो वि तं चेव पक्कमइ // 145 // एवं वड्ढइ चंदो, परिहाणी एव होइ चंदस्स / कालो वा जोण्हा वा तेणऽणूभावेण चंदस्स // 146 // Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणियरदिणयराणं उद्धं च अहेव संकमो नत्थि / मंडलसंकमणं पुण सभंतर बाहिरंतिरिए / रयणियरदिणयराणं, णक्खत्ताणं महग्गहाणं च / चारविसेसेण भवे सुहदुक्खविही मणुस्साणं / / तेसिं पविसंताणं तावक्खेत्तं तु वड्ढए णिययं / तेणेव कमेण पुणो परिहायति णिक्खमंताणं // तेसि कलंबुया पुष्फसंठिया हुंति तापक्खेत्तपहा / अंतो य संकुडा बाहिं वित्थडा चंदसूराणं / ' केणं वड्ढइ चंदो, परिहाणी केण हुंति चंदस्स / कालो वा जोण्हो वा, केणाणुभावेण चंदस्स || किण्हं राहु विमाणं णिच्चं चंदेण होइ अविरहितं / चतुरंगुलमसंपत्तं हिच्चा चंदस्स ते चरइ॥ बाढिं बावढेि दिवसे दिवसे तु सुक्कपक्खस्स / जं परिवड्ढइ चंदी खवेइ तं चेव कालेणं // पण्णरस भागेण य चंदं पण्णरसमेव तं वरइ / पण्णरसइ भागेण य पुण्णो वि तं चेव पक्कमइ / एवं वड्ढइ चंदो परिहाणी एव होइ चंदस्स / कालो वा, जुण्हो वा, एवाऽणुभावेण होई चंदस्स // 2 1. सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र--मुनि घासीलाल जी, भाग 2, पृ० 943-959. 2. सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र-मुनि घासीलाल जी, भाग 2 पृ० 963-967. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ ( lii ) अंतो मणुस्सखेत्ते हवंति चारोवगा य उववण्णा / पंचविहा जोइसिया चंदा सूरा गहगणा य / / 147 // तेण परं जे सेसा चंदाऽऽइच्च-गह-तार-नक्खत्ता / नत्थि गई, न वि चारो, अवट्ठिया ते मुणेयव्वा / / 148 // एए जंबुद्दीवे दुगुणा, लवणे चउग्गुणा होति / कालोयणा ( ? लावणगा य) तिगुणिया ससि सूरा धायईसंडे // 149 // दो चंदा इह दीवे, चत्तारि य सागरे लवणतोए। धायइसंडे दीवे बारस चंदा य सूरा य // 150 // धायइसंडप्पभिई उद्दिवा तिगुणिया भवे चंदा / आइल्लचंदसहिया अणंतराणंतरे खेत्ते // 151 // रिक्ख-ग्गह-तारग्गं दीव-समुद्दे जइच्छसे नाउं / तस्स ससीहि उ गुणियं रिक्ख-ग्गह-तारयग्गं तु // 152 // बहिया उ माणुसनगस्स चंद-सूराणऽवट्ठिया जोगा। चंदा अभिईजुत्ता, सूरा पुण होंति पुस्सेहिं // 153 // चंदाओ सूरस्स य सूरा चंदस्स अंतरं होइ / पण्णास सहस्साइं (तु) जोयणाणं अणूणाई // 154 / / सूरस्स य सूरस्स य ससिणो ससिणो य अंतरं होइ / बहिया उ माणुसनगस्स जोयणाणं सयसहस्सं // 155 // Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( lili ) जोवाभिगम सूत्र : अंतो मणुस्सखेत्ते हवंति चारोवगा य उववण्णा / पंचविहा जोइसिया चंदा सूरा गहा गणा य // तेण परं जे सेसा चंदाइच्चा गहतार नक्खत्ता। नत्थि गई न वि चारो अवट्ठिया ते मुणेयव्वा / / दो दो जम्बूदीवे ससिसूरा दुगुणिया भवे लवणे / लावणिगाय तिगुणिया ससिसूरा धायइसंडे // दो चंदा इह दीवे चत्तारि य सागरे लवणतोए / धायइसंडे दीवे बारस चंदा य सूरा य / / धायइसंडप्पभिई उद्दिढ तिगुणिया भवे चंदा / आइल्लचंदसहिया अणंतराणंतरे खेत्ते / / रिक्खंग्गहतारग्गं दीव समुद्दे जहिच्छसे नाउं। तस्स ससीहि गुणियं रिक्खग्गह तारगाणं तु / / बहियाओ माणुसनगस्स चंदसूराणं अवट्ठिया जोगा। चंदा अभीइजुत्ता सूरा पुण होंति पुस्सेहिं // चंदातो सूरस्स य सूरा चंदस्स अंतरं होइ / पन्नास सहस्साइं तु जोयणाणं अणणाई // सूरस्स य सूरस्स य ससिणो य अंतरं होइ / जोयणाणं सयसहस्सं वहियाओ मणुस्स-नगस्स / / Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ ( liv ) सूरंतरिया चंदा, चंदंतरिया य दिणयरा दित्ता / चित्तंतरलेसागा सुहलेसा मंदलेसा य // 156 // अट्ठासीइ च गहा, अट्ठावीसं च होंति नक्खत्ता। एगससीपरिवारो, एत्तो ताराण वोच्छामि // 157 // छावद्विसहस्साई नव चेव सयाई पंचसयराई। एगससीपरिवारो तारागणकोडिकोडीणं // 158 // भवणभइ-वाणमंतर-जोइसवासीठिई मए कहिया / कप्पवई वि य वोच्छं बारस इदे महिड्ढीए // 162 / / पढमो सोहम्मवई 1 ईसाणवई उ भन्नए बीओ 2 / तत्तो सणंकुमारो हवइ 3 चउत्थो उ माहिंदो 4 // 163 // पंचमओ पुण बंभो 5 छटो पुण लंतओऽत्थ देविंदो 6 / सत्तमओ महसुक्को 7 अट्ठमओ भवे सहस्सारो८॥ 164 // नवमो य आणइंदो 9 दसमो पुण पाणओऽत्थ देविंदो 10 / आरण एक्कारसमो 11 बारसमो अच्चुओ इंदो 12 // 165 // किण्हा-नीला-काऊ-तेऊलेसा य भवणं-वंतरिया। जोइस-सोहम्मीसाणे तेउलेसा मुणेयव्वा // 191 // कप्पे सणंकुमारे माहिदे चेव बंभलोगे य। एएसु पम्हलेसा, तेण परं सुक्कलेसा उ // 192 // कणगत्तयरत्ताभा सुखसभा दोसु होति कप्पेसु / तिसु होंति पम्हगोरा, तेण परं सुक्किला देवा // 193 // Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 7 ) सूरं तरिया चंदा चंदं तरिया य दिणयरा दित्ता। चित्तंतर लेसागा सुहलेसा मंदलेस्सा य // अट्ठासीइं च गहा, अट्ठावीसं च होंति नक्खत्ता / एगससी परिवारो एत्तो ताराण वोच्छामि || छावदि सहस्साइं नव चेव सयाइं पंचसयाई / / एगससी परिवारो तारागणकोडिकोडीणं // ' प्रज्ञापना : सोहम्मीसाण-सणंकुमार-माहिंद-बंभलोग-लंतग-महासुक्क-सहस्सारआणय-पाणय-आरण-ऽच्चुय-गेवेज्जगा-ऽणुत्तरोववाइया देवा / सिद्धान्तसार : सौधर्मेशानयोः पीतलेश्या देवा भवन्त्यमी / 2 सनत्कुमारमाहेन्द्रा पीतपादिलेश्यकाः // ब्रह्मब्रह्मोत्तरे कल्पे लांतवे च तथा पुनः / कापिष्ठे सर्वदेवाः स्युः पद्मलेश्याः समन्ततः॥ शुक्रे चापि महाशुक्रे शतारे सर्वसुन्दरे / सहस्त्रारे च देवानां पद्मशुक्ला हि सा पुनः // आनतादच्युतान्तेषु शुक्ललेश्या दिवौकसः / महाशुक्लैकलेश्याः स्युस्ततो यावदनुत्तरम् // 1. जीवाभिगमसूत्र-मुनि घासीलाल जी, भाग 3, पृ० 755-763. 2. प्रज्ञापना- मुनि मधुकर, पृ० 172. 3. सिद्धान्तसार--हीरालाल जैन, पृ० 198. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्यो ( lvi ) भवणवइ-वाणमंतर-जोइसिया होंति सत्तरयणीया। कप्पवईण य सुंदरि ! सुण उच्चत्तं सुरवराणं // 194 // सोहम्मे ईसाणे य सुरवरा होंति सत्तरयणीया / दो दो कप्पा तुल्ला दोसु वि परिहायए रयणी // 195 // भवणवइ-वाणमंतर-जोइसिया हुँति कायपवियारा / कप्पवईण वि सुंदरि ! वोच्छं पवियारणविही उ // 199 // सोहम्मीसाणेसुं च सुरवरा होंति कायपवियारा / सणंकुमार-माहिदेसु फासपवियारया देवा // 200 // बंभे लंतयकप्पे य सुरवरा होति रूवपवियारा / महसुक्क सहस्सारेसु सद्दपवियारया देवा // 201 // आणय-पाणयकप्पे आरण तह अच्चुएसु कप्पम्मि। देवा मणपवियारा परओ पवियारणा नत्थि // 202 // आवलियाइ विमाणा वट्टा तंसा तहेव चउरंसा। पुप्फावकिण्णया पुण अणेगविहरूव-संठाणा // 209 // Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( Ivii) ज्योतिष्काणा च सप्तैव धनूषि कथितं वपुः // ' सौधर्मेशानयोः सप्तहस्तो देहो निगद्यते / आ ऐशानान्मता देवाः सङक्लिष्टपरिणामतः / कायेनैव प्रवीचारं प्रकुर्वाणा मनुष्यवत् // सानत्कुमारमाहेन्द्रद्वये देवा भवन्त्यमो / दिव्यदेवाङ्गनास्पर्शमात्रेणापि सुनिर्वृताः / ततः कापिष्टपर्यन्ते देवीविलोकनात् / / परमं सुखमायान्ति बहुपुण्यमनोरमाः // आसहस्रारमत्यन्तमधुरस्वरमात्ततः। देवीनां सौख्यमञ्चन्ति देवा दिव्याङ्गधारिणः // . अच्युतान्तेषु सर्वेषु तदूर्ध्व स्मरणादपि / देवीणां दिव्यरुपाणां सुखिनः सर्वदेव ते // 3 नोवाभिगमसूत्र : आवलिया सुविमाणा वट्टा तंसा तहेव चउरंसां / / पुप्फावकिण्णगापुण अणेगविहरूव संठाणा // 4 1. सिद्धान्तसार-होरालाल जैन, पृष्ट 197 2. वही, पृष्ठ 197 3. सिद्धान्तसार-हीरालाल जैन, पृ० 197 / 4. जीवात्र-मुभिगम लालसूनि घासी जी पृ० 1067 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्ओ ( lviii) सक्कीसाणा पढमं दोच्चं च सणंकुमार-माहिंदा / तच्चं च बंभ-लंतग सुक्क-सहस्सारय चउत्थि // 234 // आणय-पाणयकप्पे देवा पासंति पंचमि पुढवि। ... तं चेव आरण-ऽच्चुय ओहिन्नाणेण पासंति // 235 // छट्ठि हिट्ठिम-मज्झिमगेवेज्जा सत्तमि च उवरिल्ला / संभिन्नलोगनालिं पासंति अणुत्तरा देवा // 236 // सत्तावीसं जोयणसयाई पुढवीण होइ बाहल्लं / सोहम्मीसाणेसुं रयणविचित्ता य सा पुढवी // 241 // Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( lix ) सिद्धान्तसार : सौधर्मशानदेवानामवधिः प्रथमावनिः। सनत्कुमारमाहेन्द्राः जानत्याशर्कराप्रभम् // 130 / ब्रह्मब्रह्मोत्तरे कल्पे लान्तवे तस्य चापरे / दिव्यावधिर्भवव्येषाभातृतीयावधिर्महान् // 131 / / आसहस्त्रारमेतेभ्यो जायतेऽवधिरूत्तमः / चतुर्थ नरकं तावदभिव्याप्नोति निर्मलः // 132 // . आनते प्राणते देवाः पश्यन्त्यवधिनापुरः / पंचमं नरकं यावद्विशुद्धत्तरभावतः // 133 // आरणाच्युतदेवानां षष्ठी पर्यन्त इष्यते / ग्रेवेयकेषु सर्वेषु सप्तम्या विधितोऽवधिः / / 134 // समवायांगसूत्र : सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु विमाणपुढवी सत्ताबीसं जोयणसयाई बाहल्लेणं पण्णत्ता / 1. सिद्धान्तसार हीरालाल जैन-जीवराज जैन ग्रन्थमाला-शोलापुर 2. समवायांग सूत्र -मुनि मधुकर समवाय 27, पृ० 77 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्यो (ix) छव्वीस जोयणसया पुढवीणं ताण होइ बाहल्लं / सणंकुमार-माहिदे रयणविचित्ता य सा पुढवी // 253 // चउवीस जोयणसयाई पुढवीणं तासि होइ बाहल्लं। सुक्के य सहस्सारे रयणविचित्ता य सा पुढवी // 261 // तेवीस जोयणसयाई पुढवीणं तासि होइ बाहल्लं / आणय-पाणयकप्पे आरण-ऽच्चुए रयणविचित्ता उ सा पुढवी // 265 // बावीस जोयणसयाई पुढवीणं तासि होइ बाहल्लं / गेवेजविमाणेसुं, रयणविचित्ता उ सा पुढवी // 269 // इगवीस जोयणसयाइ पुढवीणं तासि होइ बाहल्लं। पंचसु अणुत्तरेसुं, रयणविचित्ता उ सा पुढवी // 273 // जीवाभिगमसूत्र में यह वर्णन आंशिक कहिं पडिहया सिद्धा ? कहिं सिद्धा पइट्ठिया ? / कहिं बोंदि चइत्ताणं कत्थ गंतूण सिज्झई ? // 285 // अलोए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पइट्ठिया / इहं बोंदि चइत्ताणं तत्थ गंतूण सिज्झई // 286 // जं संठाणं तु इहं भवं चयंतस्स चरिमसमयम्मि। आसी य पएसघणं तं संठाणं तहिं तस्स // 287 // Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( lxi ) जीवाभिगमसूत्र : सणंकुमारमाहिदेसु छव्वीसं जोयणसयाई बंभलतए पंचवीसं / महासुक्कसहस्सारेसु चउवीसं / आणयपाणयारणाच्चुएसु तेवीसं सयाई / गेविज्जविमाणपुढवी बावीसं। अणुत्तरविमाणपुढवो एक्कवीसं जोयणसयाई बाहल्लेणं / ' प्रज्ञापनासूत्र : कहिं पड़िहता सिद्धा ? कहिं सिद्धा पइट्ठिता ? | कहिं बोंदि चइत्ता णं ? कहिं गंतूण सिज्झई / / अलोए पडिहता सिद्धा, लोयग्गे य पइट्ठिया / इह बोंदि चइत्ता णं तत्थ गंतूण सिज्झई // जं संठाणं तु इहं भवं चयंतस्स चरिमसमयम्मि / आसी य पदेसघणं तं संठाणं तहिं तस्स // 1. जीवाभिगम सूत्र-मुनि घासीलालजी, पृ० 1054 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविंदत्थओ ( lxii ) दीहं वा हुस्सं वा जं संठाणं हवेज चरिमभवे / तत्तो तिभागहीणा सिद्धाणोगाहणा भणिया // 288 // तिन्नि सया तेत्तीसा धणुत्तिभागो य होइ बोधव्वो। एसा खलु सिद्धाणं उक्कोसोगाहणा भणिया // 289 // .. चत्तारि य रयणीओ रयणितिभागूणिया य बोधव्वा। एसा खलु सिद्धाणं मज्झिमओगाहणा भणिया // 290 // एक्का य होइ रयणी अट्ठव य अंगुलाई साहीया। एसा खलु सिद्धाणं जहण्ण ओगाहणा भणिया // 291 // ओगाहणाइ सिद्धा भवत्तिभागेण हुंति परिहीणा / संठाणमणित्थंत्थं जरा-मरणविप्पमुक्काणं // 292 // जत्थ य एगो सिद्धो तत्थ अणंता भवक्खयविमुक्का। अन्नोन्नसमोगाढा पुट्ठा सव्वे अलोगते // 293 / / असरीरा जीवघणा उवउत्ता सणे य नाणे य / सागारमणागारं लक्खणमेयं तु सिद्धाणं // 294 / / फुसइ अणंते सिद्धे सव्वपएसेहिं णियमसो सिद्धो / ते वि असंखेजगुणा देस-पएसेहिं जे पुट्ठा // 295 // केवलनाणुवउत्ता जाणंती सव्वभावगुण-भावे / पासंति सव्वओ खलु केवलदिट्ठीहऽणंताहिं // 296 // Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( lxiii ) दोह वा हस्सं वा जं चरिमभवे हवेज्ज संठाणं / तत्तो तिभागहीणा सिद्धाणोगाहणा भणिया / तिण्णि सया तेत्तीसा धणुत्तिभागो य होति बोधव्वो। एसा खलु सिद्धाणं उक्कोसोगाहणा भणिया / / चत्तारि य रयणोओ रयणितिभागणिया य बोद्धव्वा / एसा खलु सिद्धाणं मज्झिम ओगाहणा भणिया / / एगा य होइ रयणी अटेव य अंगुलाई साहीया / एसा खलु सिद्धाणं जहण्ण ओगाहणा भणिता // ओगाहणाए सिद्धा भवत्तिभागेण होंति परिहीणा / संठाणमणित्थंथं जरा-मरणविप्पमुक्काणं // जत्थ य एगो सिद्धो तत्थ अणंता भवक्खयविमुक्का। अण्णोण्णसमोगाढा पुट्टा सव्वे वि लोयते // असरीरा जीवघणा उवउत्ता दसणे य नाणे य / सागारमणागारं लक्खणमेयं तु सिद्धाणं // फुसइ अणंते सिद्धे सव्वपएसेहिं नियमसो सिद्धा / ते वि असंखेज्जगुणा देस-पदेसेहिं जे पुट्ठा / / केवलणाणुवउत्ता जाणंती सव्वभावगुण-भावे / पासंति सव्वतो खलु केवलदिट्ठीहऽणंताहिं / सुरगणसुहं समत्तं सव्वद्धापिडितं अणंतगुणं / न वि पावे मुत्तिसुहं णंताहिं वि वग्गवग्गूहिं / / न वि अत्थि माणुसाणं तं सोक्खं न वि य सव्वदेवाणं / जं सिद्धाणं सोक्खं अव्वावाहं उवगयाणं / / सिद्धस्स सुहो रासी सव्वद्धापिंडितो जइ हवेज्जा / सोऽणंतवग्गभइतो सव्वागासे ण माएज्जा / जह णाम कोइ मेच्छो णगरगुणे बहुविहे वियाणंतो। न चएइ परिकहेउ उवमाए तहिं असंतीए / Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थो ( lxiv ) सुरगणसुहं समत्तं सव्वद्धापिडियं अणंतगुणं / न वि पावइ मुत्तिसुहं गंताहिं वग्गवग्गूहि // 298 // न वि अत्थि माणुसाणं तं सोक्खं न वि य सव्वदेवाणं / * जं सिद्धाणं सोक्खं अव्वाबाहं उवगयाणं // 299 // . सिद्धस्स सुहो रासी सव्वद्धापिंडिओ जइ हविजा / णंतगणवग्गभइओ सव्वागासे न माएज्जा // 300 // जह नाम कोइ मिच्छो नयरगुणे बहुविहे वियाणंतो। न चएइ परिकहेउं उवमाए तहिं असंतीए // 301 // इअ सिद्धाणं सोक्खं अणोवमं, नत्थि तस्स ओवम्म / किंचि विसेसेणित्तो सारिक्खमिणं सुणह वोच्छं // 302 // जह सव्वकामगुणियं पुरिसो भोत्तूण भोयणं कोई। तण्हा-छुहाविमुक्को अच्छिज्ज जहा अमियतित्तो // 303 // इय सव्वकालतित्ता अउलं निव्वाणमुवगया सिद्धा। सासयमव्वाबाहं चिट्ठति सुही सुहं पत्ता // 304 / / सिद्ध त्ति य बुद्ध ति य पारगय त्ति य परंपरगय त्ति / उम्मुक्ककम्मकवया अजरा अमरा असंगा य // 305 // निच्छिन्नसव्वदुक्खा जाइ-जरा-मरण-बंधणविमुक्का। 'सासयमव्वाबाहं अणुहुंति सुहं सयाकालं // 306 // Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( lxv ) इय सिद्धाणं सोक्खं अणोवमं, पत्थि तस्स ओवम्मं / किञ्चि विसेसेणेत्तो सारिक्खमिणं सुणह वोच्छं / जह सव्वकामगुणितं पुरिसो भोत्तूण भोयणं कोइ / तण्हा-छुहाविमुक्को अच्छेज्ज जहा. अमियतित्तो // इय सव्वकालतित्ता अतुलं जेव्वाणमुवगया सिद्धा। सासयमव्वाबाहं चिटुंति सुही सुहं पत्ता / / सिद्ध त्ति य बुद्ध ति य पारगत ति य परंप रगत त्ति / उम्मुक्ककम्मकवया अजरा अमरा असंगा य // णित्थिण्णसव्व दुक्खा जाति-जरा-मरणबंधणविमुक्का / . . अव्वाबाहं सोक्खं अणुहुंती सासयं सिद्धा / / ' 1. क. प्रज्ञापना-मुनि मधुकर, सूत्र-१५९-१७९ / ख. तित्थोगाली इण्णयं-गाथा 1226 से 1255 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( lxvi ) बौद्ध धर्म में देवों को अवधारणा ___ बौद्ध धर्म में प्राणियों को नारक, तिर्यञ्च, प्रेत, मनुष्य और देवता इन पांच विभागों में वर्गीकृत किया गया है। तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हम यह पाते हैं कि जहां जैन परम्परा में प्रेत, असुर आदि को देव निकाय में वर्गीकृत किया गया है वहां बौद्ध परम्परा उन्हें स्वतन्त्र निकाय के रूप में प्रस्तुत करती है। यद्यपि उनकी शक्ति आदि के विषय में देवों के समान ही उल्लेख प्राप्त होता है। इस प्रकार तुलनात्मक दष्टिं से देवनिकाय की चर्चा के प्रसंग में बहत अधिक अन्तर नहीं रह जाता है। बौद्ध परम्परा लोक को अपायभूमि, कामसुगतभूमि, रूपावचरभूमि और अरूपावचरभूमि ऐसे चार भागों में वर्गीकृत करती है। जैन परम्परा से तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर, जो जेनों का अधोलोक है वह बौद्धों की कामावचर अपाय भूमि है, जो जैनों का तिर्यक् या मध्यलोक है वही बौद्धों की कामसुगति भूमि है, जनों ने जिसे ऊर्ध्व लोक कहा है वह बौद्धों की रूपावचर भूमि है और जैनों का जो सिद्ध लोक या लोकाग्र है वही बौद्धों के अनुसार अरूपावचर भूमि है। यद्यपि यहां एक महत्त्वपूर्ण अन्तर यह है कि जहां बौद्ध-परम्परा इस अरूपावचर भूमि को भी ऐसे देवों का निवास मानती हैं जो रूप रहित मात्र एक चेतना प्रवाह है, वहीं जैनपरम्परा इसे निर्वाण या मोक्ष प्राप्त आत्माओं का निवास स्थान मानती है। बौद्ध परम्परा में इसके सम्बन्ध में कोई स्पष्ट अवधारणा नहीं है कि सिद्ध अस्तित्व रखता है या नहीं, अगर रखता है तो कहां? यहां हम इस समस्त विवेचन में विस्तार से चर्चा नहीं करके देव-निकाय के सम्बन्ध में ही तुलनात्मक दृष्टि से विचार करेंगे। जिस प्रकार जैन मान्यतानुसार देव-निकाय के प्राणी अधो, ऊर्ध्व और मध्य तीनों लोकों में निवास करते हैं, उसी प्रकार बौद्ध परम्परा में भी यदि हम प्रेतों को देव-निकाय का अंग मान ले तो यहाँ भी इस वर्ग का निवास कामावचर अपाय भूमि (अधोलोक ) कामावचरसुगत भूमि (मध्य लोक ), रूपावचर भूमि (ऊर्ध्वलोक) और अरूपावचर भूमि (सिद्ध लोक ) में पाया जाता है। यहां यह स्मरण रखना चाहिए कि अरूपावचर भूमि में जिन देवों की कल्पना की गयी है वे वस्तुतः जैनों के सिद्धों के अनुरूप अरूपो और शुद्ध चेतना मात्र है, अन्तर केवल यह है Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( lxvii ) कि बौद्धों के अनुसार ये देव बिना मनुष्य-लोक में जन्म लिये आयु पूर्ण होने पर निर्वाण प्राप्त कर लेते है, जबकि जैनों के अनुसार सिद्ध आत्माएं निर्वाण प्राप्त ही हैं। जैनों ने जिसे व्यंतरदेव कहा है बौद्ध परम्परा में उन्हें प्रेत कहा गया है। जैनों के अनुसार ये असुरनिकाय और व्यंतरदेव अधोलोक में निवास करते हैं उसी प्रकार बौद्धों के अनुसार भी प्रेत अधोलोक में ही निवास करते हैं। जैनों ने जहां इस निकाय के विविध इन्द्रों की कल्पना की है वहां बौद्ध परम्परा में प्रेतों का राजा यम माना गया है जिसका निवास स्थान जम्बूद्वीप से पाँच सौ योजन नीचे माना गया है। जैन परम्परा में भवनपति देवों का जो उल्लेख है वैसा उल्लेख बौद्ध परम्परा में नहीं मिलता है, किन्तु बौद्ध परम्परा में कामधातु देवों के मुख्य रूप से भूमिवासी और विमानवासी ऐसे दो विभाग किये गये हैं। भूमिवासी देवों को कल्पना जैनियों के भवनवासी देवों के निकट तो है परन्तु मुख्य अन्तर यह है कि भवनपति देवों के कुछ आवास अधोलोक में माने गये हैं वहां बौद्धों के अनुसार भूमिवासी देवों के आवास सुमेरु की श्रेणियों पर माने गये हैं। बौद्धों में भूमिवासी देवों के मुख्य रूप से चातुर्माहाराजिक और त्रायस्त्रिशक दो प्रकार किये गये हैं पुनः चातुर्माहाराजिक देवों के करीट पानी, मालाधर, सदामद तथा चार माहरा जक ये चार प्रकार किये गये हैं / भूमिवासी देवों का दूसरा वर्ग त्रायस्त्रिशक देव है / ये तैंतीस देव अपने पार्षदों सहित सुमेरुपर्वत पर निवास करते हैं। बौद्ध विचारकों के अनुसार ये त्रायस्त्रिशक देव सुमेरुशिखर, जो 80 हजार योजन विस्तृत है उन पर और इसकी उपदिशाओं में पाँच सौ योजन ऊंचे विशाल कूट हैं जिनमें व्रजवाणी नामक यक्ष निवास करते हैं। शिखर के मध्य में देवराज शक्र की सुदर्शन नामक राजधानी बताई गयी है जहाँ शक्र का 250 योजन विस्तृत वैजयन्त नामक भवन बताया गया है। हम देखते हैं कि जहाँ जैनों के अनुसार शक और त्रायस्त्रिंशक को विमानवासी देव माना गया है वहाँ बौद्ध परम्परा उन्हें भूमिवासी देव मानती है। पुनः बौद्धों के अनुसार चातुर्माहाराजिक देवों का ही एक वर्ग सूर्य,चन्द्र और तारा विमानों में निवास करता है जबकि जैन परम्परा में ज्योतिष्क देवों का एक स्वतन्त्र वर्ग माना गया है / यद्यपि बौद्ध परम्परा में चन्द्र, सूर्य Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ixviii ) और तारकों का उल्लेख उपलब्ध है परन्तु अभिधर्मकोश में नक्षत्रों का उल्लेख नहीं है। बौद्धों के अनुसार चन्द्र, सूर्य और तारक मेरु के चारों ओर भ्रमण करते हैं और उनकी गति युगन्धर के शिखर के समतल पर होती है / पुनः बौद्धों के अनुसार चन्द्रबिम्ब 50 योजन का एवं सूर्यबिम्ब 51 योजन का माना गया है। तारकों में सबसे छोटा विमान एक कोश परिमाण एवं सबसे बड़ा विमान 16 योजन का माना गया है। सूर्य के विमान के अधर और बाह्य में एक तेजस् चक्र होता है वहां चन्द्र विमान के अधर और बाह्य में एक आभा चक्र होता है / जिसके फलस्वरूप क्रमशः प्रकाश और ज्योत्स्ना होती है। जैनों की तरह बौद्धों में इनकी विस्तृत संख्या का उल्लेख नहीं मिलता है, बौद्ध परम्परा में मात्र यह कहा गया है कि चतुर्दीप में एक चन्द्र और एक सूर्य होता है। चन्द्रबिम्ब के विकल होने के कारणों के सम्बन्ध में जहाँ जैन-परम्परा इसकी विकलता का कारण राहु के विमान को मानती है, वहाँ बौद्ध परपरा चन्द्र-सूर्य विमान के सान्निध्य को ही इसका कारण मानती है। इनके अनुसार जब चन्द्र-विमान सूर्य-विमान के सान्निध्य में आता है तब सूर्य का आतप चन्द्र-विमान पर पड़ता है अतः ऊपर पार्श्व मे छाया पड़ती है और मण्डल विकल दिखाई देने लगता है। अभिधर्मकोश में कहा है कि चन्द्र का बाह्य योग ऐसा है कि चन्द्र कभी पूर्ण व कभी विकल दिखाई पड़ता है। यहीं पर दिन और रात्रि के घटने बढ़ने का कारण भी बताया गया है। इस प्रकार तुलनात्मक रूप से हम यह पाते हैं कि जैनों की सूर्य-चन्द्र आदि के गति की कल्पना और चन्द्रमा की विकलता में राहु के विमान को उत्तरदायी बताना यह प्राचीन काल की अवधारणा है। ज्योतिष्क देवों के ऊपर विमानवासी देवों की स्थिति मानी गई है। बौद्ध परम्परा के अनुसार कामधातु के विमानवासी देव चार प्रकार के माने गये हैं-याम, तुषित निर्माणरति और परनिर्मितवशवतिन / इस प्रकार कामावचरसुगतिभूमि के चातुर्माहाराजिक व त्रायस्त्रिशक ये दो भूमिवासो और शेष चार विमानवासा ये छः प्रकार माने गये हैं। इन्हें कामधातु देव इसलिए कहा गया है कि ये काम-वासना की संतुष्टि सामान्यतया विभिन्न उपायों से करते हैं / चातुर्माहाराजिक व त्रास्त्रिशक देव का मैथुन मनुष्यों के समान द्वन्द्व समापत्ति से होता है और शक का अभाव होने से वायु ही निर्गत कर परिदाह विगम करते हैं, शेष चार में से याम आलि Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ixix ) ङ्गन से, तुषित पाणिग्रहण से, निर्माणरति हास-परिहास से तथा परनिर्मितवशवर्तिन देखने मात्र से कामवासना सम्बन्धी परिदाह का विगम करते हैं। ___ इस प्रकार देवों को काम वासना को सन्तुष्टि में दोनों परम्पराओं में बहत कुछ समानताएं हैं और दोनों के अनुसार वैमानिक देवों तक काम वासना की उपस्थिति मानी गयी है। यद्यपि वैमानिक देवों के भेदों आदि को लेकर दोनों में मतभेद हैं / जहां बौद्ध परम्परा में केवल चार प्रकार के वैमानिक देव माने गये हैं वहां जैन परम्परा में श्वेताम्बरों के अनुसार 12 और दिगम्बरों के अनुसार 16 भेद माने गये हैं। जिस प्रकार जैन परम्परा अवेयक और अनुत्तर विमान में कामवासना की उपस्थिति नहीं मानती है, उसी प्रकार बौद्ध परम्परा भी रूपावचर देवों में कामवासना की उपस्थिति नहीं मानती है। रूपधातु देवों के अन्तर्गत 17 भेद माने गये हैं इनमें अन्त के पांच शुद्धावासिक कहे गये हैं। जिस प्रकार जैनों में ग्रेवेयकों के तीन-तीन वर्गमाने गये हैं, उसी प्रकार बौद्धों में प्रथम ध्यान, द्वितीय ध्यान और तृतीय ध्यान में प्रत्येक के तीनतीन भेद किये गये हैं / यद्यपि चतुर्थ ध्यान में तीन भेदों के अतिरिक्त पांच शुद्धावासिक भी माने गये हैं। इस प्रकार नाम आदि को तो दोनों परम्पराओं में भिन्नता है परन्तु अवधारणा को दृष्टि से कुछ समानता दृष्टिगोचर होती है। ___ रूपधातू देवों के शरीर की लम्बाई और आयष्य को लेकर दोनों परम्पराओं में कोई समानता नहीं है / किन्तु यह अवश्य देखा जाता है कि क्रमशः ऊपर के देवों की आयु नीचे के देवों की अपेक्षा अधिक होती है। लम्बाई के दष्टिकोण को लेकर दोनों में भिन्न दृष्टिकोण देखे जाते हैं, जैन परम्परा में क्रमशः ऊपर के देवों की लम्बाई कम होती जाती है वहां बौद्ध परम्परा में बढ़ती जाती है। हाँ ! दोनों में यह एक समानता है कि दोनों के अनुसार देव उपपादुक या औपपातिक ही होते हैं। बौद्ध परम्परा में देवों की उत्पत्ति माता-पिता की जंघाओं पर बताई गयी है वहाँ जेन परम्परा में प्रत्येक विमान में एक ही शय्या से उत्पत्ति मानी गयी है। देवों की इन अवधारणाओं में सबसे महत्त्वपूर्ण भिन्नता यह है कि बौद्ध परम्परा आरूप्यधातु देवों की उपस्थिति भी मानती है। उसके अनुसार Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( lxx ) ये देव अरूपी होते हैं। इनमें देवों या सत्त्वों की चार ध्यान भूमियां मानी . गयी हैं। 1. आकाशानन्त्यायतन 2. विज्ञानानन्त्यायतन .. 3. अकिंचनन्त्यायतन 4. नैवसंज्ञानासंज्ञायतन इन भूमियों के सुखों की इच्छा रखते हए यदि सत्त्व कुशल धर्म और ध्यान को सम्पन्न करता है तो वह अरूपलोक के सुखों का उपभोग करता है। इस अरूपलोक की चतुर्थ भूमि नैवसंज्ञानासंज्ञायतन तक ही सम्भव है, इसलिए इसे लोकाग्र कहा गया है / तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हम यह पाते हैं कि यह स्थिति जैनों की अरूपी सिद्ध-आत्मा के समान ही है। जिस प्रकार सिद्धात्मा अनन्त सुख का भोग करती हुई लोकान में स्थित रहती है, उसी प्रकार यहाँ भो सत्त्व मात्र चेतना-प्रवाह रूप होकर लोकान पर निवास करता है। अन्तर मात्र यही है कि जहाँ जैनों के अनुसार सिद्ध गति में आत्मा की स्थिति अनन्तकाल तक की होती है, वहाँ बौद्धों में इसे एक सीमित काल तक ही माना है / यद्यपि बौद्धों की मान्यता यह है कि इस काल-स्थिति के समाप्त होने पर वह चित्तसन्तति निर्वाण को प्राप्त कर लेती है, उसे पुनः मनुष्यलोक में जन्म नहीं लेना होता है। अतः इसकी स्थिति जैनों के सर्वार्थसिद्ध विमान से भी भिन्न है / चूंकि बौद्ध परम्परा में निर्वाण का निर्वचन उपलब्ध नहीं है और न यह बताया गया है कि निर्वाण प्राप्त सत्त्व का क्या होता है ? इसलिए जेनों के सिद्धों की स्थिति के अनुरूप इसमें कोई अवधारणा उपलब्ध नहीं है। इस प्रकार जैन और बौद्ध परम्परा में देवनिकाय की अवधारणा को लेकर अनेक बातों पर विचार किया गया है, जिनमें कुछ प्रश्नों पर परस्पर समानता और कुछ प्रश्नों पर असमानता पायी जाती है। प्रस्तुत भूमिका में हमने जैन परम्परा की अवधारणा को जहाँ देवेन्द्रस्तव के आधार पर वणित किया है, वहीं बौद्ध परम्परा के लिए हमने अभिधर्मकोश के लोक-निर्देश नामक तृतीय स्थान को आधार बनाया है। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( lxxi ) इसी प्रकार हिन्दु, ईसाई और इस्लाम धर्मों में भी देवताओं और स्वर्ग की अवधारणाएं की गयी हैं, फिर भी विस्तार-भय से इन सबकी चर्चा में जाना यहाँ संभव नहीं है / हम यहाँ केवल इतना ही कहना चाहेंगे कि जैन परम्परा ने अन्य धर्म परम्पराओं के समान ही देवों की अवधारणा पर विस्तृत विवेचन किया है। फिर भी हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि जैन परम्परा के अनुसार देवयोनि को प्राप्त करना जीवन का साध्य नहीं है। जीवन का साध्य तो निर्वाण की प्राप्ति है। यद्यपि देव योनि को श्रेष्ठ माना गया है किन्तु जैनों की अवधारणा यह है कि निर्वाण की प्राप्ति देव योनि से न होकर मनुष्य-योनि से होती है। अतः मनुष्य ही सर्वश्रेष्ठ प्राणी है और वह अपनी साधना के द्वारा उस अर्हत् अवस्था को प्राप्त कर सकता है, जिसकी देवता भी वन्दना करते हैं। 24 नवम्बर, 1988 . प्रो० सागरमल जैन डॉ० सुभाष कोठारो Page #73 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविंदत्यत्रो ( देवेन्द्रस्तव ) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिइसिवालियथेरविरइओ . देविदत्थओ [पत्थावणा] अमर-नरवंदिए वंदिऊण उसभाइए जिणवरिंदे / वीरवरपच्छिमंते तेलोक्कगुरू' गुणाइन्ने // 1 // कोइ पढमे पओसम्मि सावओ समयनिच्छयविहिण्णू / वन्नेइ थयमुयारं जियमाणे वद्धमाणम्मि // 2 // तस्स थुणंतस्स जिणं सामइयकडा पिया सुहनिसन्ना। पंजलिउडा अभिमुहो सुणइ थयं वद्धमाणस्स // 3 // [वद्धमाणजिणत्थवों ] इंदविलयाहिं तिलयरयणंकिए लक्खणंकिए सिरसा / पाए अवगयमाणस्स वंदिमो. बद्धमाणस्स // 4 // विणयपणएहि सिढिलमउडेहि अपडिय(?म)जसस्स देवेहिं / पाया पसंतरोसस्स वंदिया वद्धमाणस्स // 5 // बत्तोसं देविंदा जस्स गुणेहिं उवहम्मिया: बाढं / तो तस्स चिय च्छेयं पायच्छायं उवेहामो // 6 // 1. °रू पणमिऊणं प्र० हं० सा० // 2. मउलेहि पडियजस हं० // 3. वंदिमो व प्र० हं० सा० // 4. °या छाहं / तस्स हियवच्छायं पाय° सं० / °या बायं / नो तस्स वि य च्छेयं पाय प्र० / °या छायं / ता तस्स विया छायं पाय हं०॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्र को स्तुति [प्रस्तावना ] 1.3. त्रैलोक्य के गुरु, गुणों से परिपूर्ण, देवताओं और मनुष्यों द्वारा पूजित, ऋषभ प्रभृति जिनवरों तथा अन्तिम ( तीर्थंकर ) महावीर को नमस्कार करके निश्चय हो आगम का विज्ञ कोई श्रावक संध्याकाल के प्रारम्भ में, जिनके द्वारा अहंकार जीत लिया गया (है), (ऐसे वर्धमान की) मनोहर स्तुति करता है, (और) उस स्तुति करते हुए (श्रावक की पत्नी) सुखपूर्वक सामने बैठी हुई, समभाव ( सामायिक ) से युक्त दोनों हाथों को ( जोड़कर ) ( उस ) वर्धमान की स्तुति की सुनती है। [ वर्धमान जिनेन्द्र की स्तुति] 4. तिलकरूपी रत्न और सौभाग्यसूचक चिह्न से अलंकृत इन्द्र की पत्नियों के साथ हम भी, जिन्होंने अहंकार को नष्ट कर दिया है, ऐसे वर्धमान के चरणों में मस्तक को झुकाकर नमस्कार करते हैं / . 5. विनय से प्रणाम करने के कारण शिथिल हो गये हैं मुकुट ( जिनके ), ( ऐसे ) देवों के द्वारा अद्वितीय यश वाले ( तथा ) क्रोध को शान्त करने वाले वर्धमान के चरण वन्दित किये गये / 6. जिनके गुणों के द्वारा बत्तीस देवेन्द्र पूरी तरह से पराजित कर दिये गये हैं, ( इसलिए ) उनके कल्याणकारो चरणों के सौंदर्य का ( हम ) ध्यान करते हैं। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ [बत्तीसदेविंदसरूवाइविसया पुच्छा ] 'बत्तीसं देविंद'त्ति भणियमित्तम्मि सा पियं भणइ। अंतरभासं' ताहे (?ता ह) काहामी कोउहल्लेणं // 7 // . कयरे ते बत्तीसं देविदा ? को व कत्थ परिवसइ ? / केवइया कस्स ठिई ? को भवणपरिग्गहो कस्स ? // 8 // केवइया व विमाणा ? भवणा ? नगरा व हुंति केवइया ? / पुढवीण व बाहल्लं? उच्चत ? विमाणवन्नो वा ? // 9 // के केणाऽऽहारंति व कालेणुक्कोस मज्झिम जहण्णं ? / . उस्सासो निस्सासो ओहीविसओ व को केसिं ? // 10 // विणओवयारउवहम्मियाइ हासरसमुव्वहंतीए'। पडिपुच्छिओ पियाए भणइ, सुयणु ! तं निसामेह // 11 // . [बत्तीसदेविंदसरूवाइविसयं उत्तरं ] सुयणाणसागराओ सुणिउं पडिपुच्छणाई जं लद्धं / सुण' वागरणावलियं नामावलियाइ इंदाणं / / 12 / / सुण वागरणावलियं रयणं व पणामियं च वीरेहिं / तारावलि व्व धवलं हियएण पसन्नचित्तेणं // 13 // [भवणवइदेवाहिगारो] रयणप्पभापुढवीनिकुडवासी सुतणु ! तेउलेसागा / वीसं विकसियनयणां' भवणवई मे निसामेह // 14 // 1. भासं हावं का सं० // 2. काहेमो प्र० हं० सा० // 3. हासवसमु प्र० हं० सा० // 4. °च्छिए पि° सा० // 5. पुण प्र० सा० // 6. °वलियं च इं" सं०॥ 7. °प्पभाइकुडनिकुड° प्र० सा० / 'प्पमाइपुढनिकुड हं० // 8. °लेस्सागा सं० // ९.°णा समदिट्टी सव्वदेविंदा सापा० // Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रस्तव बित्तीस देवेन्द्रों के स्वरूप विषयक प्रश्न ] 7. वह ( श्रावक पत्नी अपने ) प्रिय को कहती है-इस प्रकार इसमें जो बत्तीस देवेन्द्र कहे गये हैं, ( उनके सम्बन्ध में भी, मेरी ) जिज्ञासावश ( आप ) विशेष व्याख्या करें। 8. वे बत्तीस देवेन्द्र कौन से हैं ? कोन कहाँ रहता है ? किसकी कितनी स्थिति है ? (और ) किसका क्या भवन-परिग्रह है ? 9. ( किसके ) कितने देवयान हैं ? ( कितने ) भवन हैं ? और (कितने ) नगर हैं ? कितनी पृथ्वी की स्थूलता ( मोटाई ) है ? (कितनी) ऊँचाई है ? और विमान के वर्ण ( कैसे ) हैं ? 10. उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य काल में कौन कितना आहार करते हैं और उच्छ्वास, निःश्वास ( की प्रक्रिया क्या है ? एवं किसमें कितना) अवधिविषयक ज्ञान (है) ? 11. ( जिसके द्वारा) शिष्टाचार व उपचार दूर कर दिये गये हैं, : ( उस ) हास्यरस को समाप्त करती हुई प्रिया के द्वारा पूछे गये ( प्रश्न के प्रत्युत्तर में ) ( पति ) कहता है, हे सुतनु ! उसको सुनो। [ बत्तीस देवेन्द्रों के स्वरूप विषयक उत्तर ] 12. ( तुम्हारे ) प्रश्न के उत्तर के रूप में श्रुतज्ञान रूपी सागर से जो विश्लेषण उपलब्ध (है), ( उसमें से ) इन्द्रों को नामावली को सुनो। .. 13. वीरों के द्वारा प्रणाम किये हुए, ( उस ) विश्लेषणात्मक ( ज्ञान.. रूपी ) रत्न को, ( जो ) तारागणों की पक्तियों की तरह शुद्ध (है), ( उसे ) प्रसन्न चित्त हृदय से ( तुम ) सुनो। 14. हे विकसित नयनों वाली सुन्दरी ! रत्नप्रभा पृथ्वी में रहने वाले, तेजोलेश्या से युक्त बोस भवनपति देवों ( के नामों) को मुझसे श्रवण करो। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ [ बीस भवणवइइंदा] दो भवणवईइदा चमरे' 1 वइरोयणे 2 य असुराणं 1 / दो नागकुमारिंदा धरणे 3 तह भूयणंदे 4 य 2 // 15 // दो सुयणु ! सुवण्णिदा वेणूदेवे 5 य वेणुदाली 6 य 3 / दो दीवकुमारिंदा पुण्णे 7 य तहा वसिढे 8 य 4 // 16 // दो उदहिकुमारिंदा जलकंते 9 जलपभे 10 य नामेणं 5 / अमियगइ 11 अमियवाहण 12 दिसाकुमाराण दो इंदा 6 // 17 // दो वाउकुमारिंदा वेलंब 13 पभंजणे 14 य नामेणं 7 / दो थणियकुमारिंदा घोसे 15 य तहा महाघोसे 16 / 8 // 18 // दो विज्जुकुमारिंदा हरिकंत 17 हरिस्सहे 18 य नामेणं 9 / अग्गिसिह १९अग्गिमाणव२०हुयासणवई वि दो इंदा१० // 19 // एए वियसियनयणे ! वीसं वियसियजसा मए कहिया / भवणवरसुहनिसन्ने, सुण भवणपरिग्गहमिमेसि // 20 // [भवणवइइंदाणं भवणसंखा] चमर-वइरोयणाणं असुरिंदाणं महाणुभागाणं / तेसि भवणवराणं चउसट्ठिमहे सयसहस्सा // 21 // नागकुमारिदाणं भूयाणंद-धरणाण दोण्हं पि / तेसिं भवणवराणं चुलसीइमहे सयसहस्सा // 22 / / 1. चमरिंद 1 बलिंदर असुरनिकायं च 1 / सापा० // 2. °दा भूयाणंदे३ य धरणे४ य 2 प्र० हं० सा० // 3. वायकु सं०॥ 4. °यणे ! दसदिसिविय प्र० सा० // 5. °द-वरदाण दो' सं० / द-वरण्हाण दो हं० / / Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रस्तव [ बोस भवनपति इन्द्र ] 15. असुरों के दो भवनपति इन्द्र हैं-(१) चमरेन्द्र और (2) असुरदेव। उसी तरह से दो नागकुमार इन्द्र हैं-(३) धरणेन्द्र और (5) भूतानन्द / 16. हे सुन्दरी ! दो सुपर्ण इन्द्र हैं-(५) वेणुदेव और (6) वेणुदालि / उसी तरह दो द्वीपकुमार इन्द्र हैं-(७) पूर्ण और (8) वरिष्ठ / 17. दो उदधिकुमार इन्द्र हैं-(९) जलकान्त और (10) जलप्रभ / ( उसी तरह ) (11) अमितगति और (12) अमितवाहन नामक दो दिशाकुमारों के इन्द्र हैं। 18. दो वायकुमार इन्द्र (हैं)-(१३) वेलम्ब और (14) प्रभजन / उसी प्रकार (15) घोष और (17) महाघोष नामक दो स्तनितकुमारों के इन्द्र (हैं)। 19. दो विद्युतकुमार इन्द्र (हैं)-(१७) हरिकान्त और (18) हरिस्सह / ( उसी प्रकार ) (19) अग्निशिख और (20) अग्निमानव नामक दो अग्निपति इन्द्र (है)। ... 20. हे विकसित यश एवं विकसित नयनों वाली! सुखपूर्वक भवन में बैठी हुई, ( पूर्व में ) मेरे द्वारा जो ये बीस ( इन्द्र ) कहे गये हैं, ___ इनके भवन-परिग्रह के सम्बन्ध में सुनो। . . [भवनपति इन्द्रों की भवन संख्या ] 21. उन चमरेन्द्र, वैरोचन ( और ) असुरेन्द्र महानुभावों के श्रेष्ठ भवनों की ( संख्या ) चौसठ लाख (है) (और वे आकार-प्रकार में) विस्तीर्ण 22. उन भूतानन्द, धरण नामक दोनों नागकुमार इन्द्रों के श्रेष्ठ भवनों की ( संख्या ) चौरासी लाख (है) (और वे भी आकार-प्रकार में ) विस्तीर्ण ( हैं)। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ दो सुयणु ! सुवण्णिदा वेणूदेवे य वेणुदाली य / तेसिं भवणवराणं बावत्तरि मो सयसहस्सा // 23 // वाउकुमारिंदाणं वेलब-पभंजणाण दोण्हं पि। तेसिं भवणवराणं छन्नवइमहे सयसहस्सा // 24 // चोवट्ठी' असुराणं, चुलसीई चेव होइ नागाणं / .. बावत्तरी सुवण्णाण, वाउकुमराण छनउई // 25 // दीव-दिसा-उदहीणं विज्जुकुमारिंद-थणिय-मग्गीणं / छण्हं पि. जुवलयाणं छावत्तरि मो सयसहस्सा // 26 // . एक्केक्कम्मि य जुयले नियमा छावत्तरि सयसहस्सा / सुंदरि ! लीलाए ठिए ! ठिईविसेसं निसामेहि // 27 // [भवणवईइंदाणं ठिई आउयं च] चमरस्स सागरोवम सुंदरि ! उक्कोसिया ठिई भणिया। साहीया बोद्धव्वा बलिस्स वइरोयणिदस्स // 28 // जे दाहिणाण इंदा चमरं मोत्तूण सेसया भणिया / पलिओवमं दिवड्डं ठिई उक्कोसिया तेसि // 29 // जे उत्तरेण इंदा बलि पमोत्तूण सेसया भणिया / पलिओवभाइ दोण्णि उ देसूणाई ठिई तेसि // 30 // एसो वि ठिइविसेसो सुंदररूवे ! विसिट्ठरूवाणं / . भोमिजसुरवराणं सुण अणुभागे सुनयराणं // 31 // [भवणवईणं ठाणं, भवणाणं आगारोच्चत्ताइ] जोयणसहस्समेगं ओगाहित्तूण भवण-नगराई। रयणप्पभाइ सब्वे एक्कारस जोयणसहस्से // 32 // 1. चउसट्ठी हं० सा० // 2. सुण अण्णं किंचि सेसं पि // 31 // 20 // Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रस्तव 23. हे सुन्दरी ! दो सुपर्ण इन्द्र-वेणुदेव और वेणुदालि और उनके भवनों की ( संख्या ) बहत्तर लाख (है)। 24. उन वेलम्ब और प्रभंजन नामक दोनों वायुकुमार-इन्द्रों के श्रेष्ठ भवनों की ( संख्या ) छियानबे लाख ( हैं और वे भी आकार-प्रकार में) विस्तीर्ण (हैं)। 25-26-27. इस प्रकार असुरों के चौसठ ( लाख ), नागकुमारों के चौरासी ( लाख ), सुवर्ण कुमारों के बहत्तर ( लाख ), वायुकुमारों के छियानबे ( लाख ), द्वीपकुमार, दिशाकुमार, उदधिकुमार, विद्युत्कुमार स्तनितकुमार और अग्नि (कुमार) ( इन ) छहों युगलों के (प्रत्येक के ) छिहत्तर-छिहत्तर लाख ( भवन हैं ) / हे लीला में स्थित सुन्दरी ! अब इन ( युगलों ) की स्थिति-विशेष को क्रमपूर्वक सुनो। ... [ भवनपति इन्द्रों की स्थिति और आयु] 28. हे सुन्दरी ! चमरेन्द्र की उत्कृष्ट आयु-स्थिति ( एक ) सागरोपम कही गयो (है) / यही ( आयु-स्थिति ) बलि ( और ) वैरोचन इन्द्र को भी समझी जानी चाहिए। 29. चमरेन्द्र को छोड़कर, शेष जो दक्षिण दिशा के इन्द्र बताये गये (हैं), उनकी उत्कृष्ट आयु-स्थिति डेढ़ पल्योपम (है)। ____30. बलि को छोड़कर शेष जो उत्तर दिशा में (स्थित ) इन्द्र कहे गये हैं, उनकी आयु-स्थिति कुछ कम दो पल्योपम (है)। .31. यह सब आयु-स्थिति का विवरण (है), अब तुम उत्तम भवनवासो देवों के सुन्दर नगरों के माहात्म्य को भी सुनो। [भवनपति इन्द्रों के स्थान, भवन एवं आकृति ] 32. सम्पूर्ण रत्नप्रभा ( पृथ्वी ) ग्यारह हजार योजन (है), ( उसमें ) एक हजार योजन उपरान्त भवनपतियों के नगर बने हुए हैं। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविंदत्थओ अंतो चउरंसा खलु, अहियमणोहरसहावरमणिज्जा / बहिरओ चिय वट्टा, निम्मलवइरामया सव्वे / / 33 / / उक्किन्नंतरफलिहा अभितरओ उ भवणवासीणं / भवण-नगरा विरायंति कणगसुसिलिट्ठपागारा // 34 // वरपउमकण्णियासंठिएहि' हिट्ठा सहावलठेहिं / सोहिंति पइट्ठाणेहिं विविहमणिभत्तिचित्तेहिं // 35 // चंदणपयट्ठिएहि य आसत्तोसत्तमल्ल-दामेहिं / दारेहि पुरवरा ते पडागमालाउला रम्मा // 36 // अद्वैव जोयणाई उव्विद्धा होंति ते दुवारवरा / धूमघडियाउलाइं कंचणघंटापिणद्धाणि // 37 // जहिं देवा भवणवई वरतरुणीगीय-वाइयरवेणं / निच्चसुहिया पमुइया गयं पि कालं न याणंति // 38 // [दक्षिणोत्तरभवणवइइदाणं भवणसंखा ] चमरे धरणे तह वेणुदेव पुण्णे य होइ जलकंते / अमियगई वेलंबे घोसे य हरी य अग्गिसिहे // 39 // कणग-मणि-रयणथूभियरम्माइं सवेइयाइं भवणाई। एएसिं दाहिणओ, सेसाणं उत्तरे पासे // 40 // चउतीसा' चोयाला अट्टत्तीसं च सयसहस्साई / चत्ता पन्नासा खलु दाहिणओ हुति भवणाइं // 41 // 1. °यामंडियाहिं हिट्ठा प्र० सा० // 2. °णदामोवणद्धाणि प्र० हं० सा० // 3. °सा चउयाला हं० / °सा अडयाला प्र०, अशुद्धोऽयं पाठः // . Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रस्तव 33. ये सभी भवन भीतर से चतुष्कोण, बाहर से गोलाकार, स्वाभाविक रूप से अत्यन्त सुन्दर, रमणीय, निर्मल ( तथा ) वज्र रत्नों से बने हुए (है)। 34. भवनवासियों के भवनों के भीतर स्फटिक मणियाँ जड़ी हुई हैं, (और ) इन भवन नगरों के प्राकार स्वर्ण से बने हुए हैं)। - 35. श्रेष्ठ कमल की पंखुड़ियों पर स्थित वे भवन विविध मणियों से शोभित स्वभावतः मनोहारी ( प्रतीत होते हैं ) / ___36. चिरकाल ( तक न मुरझाने वाली ) पुष्पमालाओं (और) चंदन से बने हुए दरवाजों से (युक्त) उन ( नगरों ) के ऊपरी भाग पताकाओं की मालाओं से संकुल (हैं, जिससे) वे श्रेष्ठ नगर रमणीय (हैं)। 37. वे श्रेष्ठ द्वार आठ योजन ऊँचे हैं और उनके शीर्ष भाग लाल कलशों से ( सज्जित हैं और उन पर ) सोने के घण्टे बंधे हुए (होते हैं ) / 38. जिम ( भवनों) में भवनपति देव श्रेष्ठ तरुणी के गीत और वाद्यों की आवाज के कारण नित्य सुखयुक्त व प्रमुदित ( रहते हुए ) व्यतीत हुए समय को भी नहीं जानते (है)। [दक्षिणोत्तर भवनपति इन्द्रों को भवन संख्या ] 39. चमरेन्द्र, धरणेन्द्र, वेणुदेव, पूर्ण, जलकान्त, अमितगति, वेलम्ब, घोष, हरि एवं अग्निशिख (-यह भवनपति इन्द्रों का समूह है)। 40. इन ( भवनपति इन्द्रों ) के, मणिरत्नों से जटित स्वर्ण स्तम्भ एवं रमणीय लतामण्डप युक्त, भवन दक्षिण दिशा की ओर ( होते हैं ) उत्तर दिशा ( और उसके ) आस पास शेष ( इन्द्रों) के (भवन होते हैं)। 41. दक्षिण दिशा की ओर ( असुरकुमारों के ) चौंतीस लाख, ( नागकुमारों के ) चवालीस लाख, ( सुपर्णकुमारों के ) अड़तालीस लाख, ( तथा द्वीप, उदधि, विद्युत, स्तनित व अग्निकुमारों के ) चालीस लाख, ( और वायुकुमारों के ) पचास लाख भवन होते हैं। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ तोसा चत्तालीसा चउतोसं चेव सयसहस्साई। छत्तीसा छायाला उत्तरओ हुँति भवणाई // 42 // [भवणवईइदाणं परिवारो] भवण-विमाणवईणं तायत्तीसा य लोगपाला य / सव्वेसि तिन्नि परिसा, सामाण चउग्गुणाऽऽयरक्खा उ // 43 // चउसट्ठी सट्ठी खलु छच्च सहस्सा तहेव चत्तारि / भवणवइ-वाणमंतरं-जोइसियाणं च सामाणा // 44 / / पंचऽग्गमहीसीओ' चमर-बलीणं हवंति नायव्वा / सेसयभवणिंदाणं छच्चेव य अग्गमहिसीओ // 45 // [भवणवईइदाणं आवासा उप्पायपव्वया य] दो चेव जंबुदीवे, चत्तारि य माणुसुत्तरे सेले / छ' च्चाऽरुणे समुद्दे, अट्ठ य अरुणम्मि दोवम्मि // 46 // जन्नामए समुद्दे दीवे वा जम्मि होंति आवासा / तन्नामए समुद्दे दीवे वा तेसि उप्पाया / / 47 // असुराणं नागाणं उदहिकुमाराण हुंति आवासा / 'अरुणवरम्मि समुद्दे तत्थेव य तेसि उप्पाया / / 48 // 1. महिस्सीओ सं० // 2. अत्र पूज्यश्रीसागरानन्दसूरिसम्पादिते प्रकीर्णकदशके "छ ब्वारुणे समुद्दे" इति यः पाठो मुद्रितोऽस्ति सलिपिभ्रान्तिजनितो ज्ञेयः, स्थानाङ्गसूत्रे 728 सूत्रटीकायां श्रीमद्भिरभयदेवसूरिपादः असुरादीनाभावासोत्पातपर्वता. नामरुणोदसमुद्र एवास्तित्वस्य निर्देशात् पत्र 482 पृ० 2 / अपि च तत्र टीकायाम् "असुराणं नागाणं०" "दीव दिसा-उदहोणं०" इत्येतद् 48-49 गाथायुगलमपि श्रीमता टीकाकृता प्रमाणत्वेनोद्धृतमस्ति, तत्र 48 गाथोत्तरार्द्धम् "अरुणोदए समुद्दे तत्थैव य तेसि उप्पाया" इत्येव वर्तते पत्र 483 पृ० 2 // 3. अत्र "अरुणवरस्मि समुद्दे" इति शुद्धः पाठः सं० प्रतावेव उपलब्धः / प्र० हं० प्रभृतिष्वादशेषु "अरुणवरे दीवम्मि य" इति पाठो दृश्यते, किन्तु नायं Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रस्तव 42. उत्तर दिशा की ओर ( असुरकुमारों के ) तीस लाख, ( नागकुमारों के ) चालीस लाख, ( सुपर्णकुमारों के ) चौंतीस लाख, (वायुकुमारों के) छियालीस लाख, (और द्वीप, उदधि, विद्युत, स्तनित एवं अग्नि-इन पांच कुमारों के ) (प्रत्येक के ) छत्तीस लाख भवन होते हैं। 43. सभी भवनपति एवं वैमानिक इन्द्रों की तीन परिषदें ( होती हैं ), इन सभी के प्रायस्त्रिशक, लोकपाल एवं सामानिक ( देव होते हैं / ( सामानिक देवों से ) चार गुणा अंगरक्षक ( देव ) होते हैं। 44. (दक्षिण दिशा के) भवनपतियों के चौसठ हजार उत्तर दिशा के भवनपतियों के ) साठ हजार, वाणव्यंतरों के छः हजार और ज्योतिषी इन्द्रों के चार हजार सामानिक ( देव कहे गये हैं ) / 45. इस प्रकार चमरेन्द्र एवं बलि की पांच अग्रमहिषियाँ (पटरानियाँ) जाननी चाहिए। शेष भवनपतियों की छः अग्रमहिषियाँ (पटरानियाँ ) होती हैं। [भवनपति इन्द्रों के आवास ] 46. इसी प्रकार जम्बूद्वीप में दो, मनुष्योत्तर पर्वत में चार, अरुण समुद्र में छः और अरुणद्वीप में आठ ( भवनपति इन्द्रों के आवास हैं ) / 47. जिस नाम के समुद्र या द्वीप में जिनके आवास ( होते हैं ), उसी नाम के समुद्र या द्वीप में उनकी उत्पत्ति होती है / ___ 48. असुर, नाग एवं उदधिकुमारों के आवास श्रेष्ठ अरुण समुद्र में ( होते हैं ) और उन्हीं में उनकी उत्पत्ति होती ( है ) / Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ दीव-दिसा-अग्गीणं थणियकुमाराण होंति आवासा / अरुणवरे' दीवम्मि य, तत्थेव य तेसि उप्पाया // 49 / / वाउ-सुवण्णिदाणं एएसिं माणुसुत्तरे सेले / हरिणो हरिस्सहस्स य विज्जुप्पभ-मालवंतेसु / / 50 // . [भवणवईईदाणं बल-वीरिय-परक्कमा ] . . . एएसिं देवाणं बल-विरिय-परक्कमो उ जो जस्स / . ते सुंदरि ! वण्णे हं जहक्कम आणुपुब्वीए // 51 // जाव य जंबुद्दोवो जाव य चमरस्स चमरचंचा उ / असुरेहिं असुरकण्णाहिं अस्थि विसओ भरेतुं जे // 52 // तं चेव समइरेगं बलिस्स वइरोयणस्स बोद्धव्वं / असुरेहिं असुरकण्णाहिं तस्स विसओ भरेउं जे / / 53 // धरणो वि नागराया जंबुद्दीवं फडाइ छाइज्जा / तं चेव 'समइरेगं भूयाणंदे वि बोद्धव्वं // 54 // 'गरुलिंद वेणुदेवो जंबुद्दीवं 'छएज्ज पक्खणं / तं चेव समइरेगं वेणूदालिम्मि बोद्धन्वं // 55 // पुण्णो वि जंबुद्दीवं पाणितलेणं छएज एक्केणं / तं चेव समइरेगं हवइ वसिद्ध वि बोद्धव्वं / / 56 // एक्काए जलुम्मीए जंबुद्दोवं भरेज जलकंतो। तं चेव समइरेगं जलप्पभे होइ बोद्धव्वं // 57 // पाठो जिनागमसम्मतः, वरुण श्रीआगमोद्धारकसम्पादितायामावृत्तौ वरुणवरे दीवस्मी इति यः पाठो मुद्रितोऽस्ति स लिपिभ्रमजनितोऽवबोद्धव्यः / / 1. अरुणवरम्मि समुद्दे सं०, लेखकभ्रान्तिजोऽयमशुद्धः पाठः // 2. अहक्कम प्र० हं० सा० // 3. °ण्णाहिं तस्स वि° प्र० सा० // 4. समयरेगं बलिस्स वयरो सं० हं० // 5. गरुलो वि वे' प्र. सा० // 6-7. ठएज्ज सं०॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रस्तव 49. द्वीपकुमारों, दिशाकुमारों, अग्निकुमारों और स्तनितकुमारों के आवास अरुणवरद्वीप में ( होते हैं ) और उन्हीं में उनकी उत्पत्ति होती हैं। 50. वायुकुमार और सुवर्णकुमार इन्द्रों के आवास मनुष्योत्तर पर्वत पर ( होते हैं ) / हरि और हरिस्सह देवों के ( आवास ) विद्युत्प्रभ ( और ) माल्यवंत पर्वतों पर ( होते हैं ) / _ 51. हे सुंदरी! इन ( भवनपति ) देवों में जिसका जो बल-वीर्यपराक्रम (है); मैं उसका यथाक्रम से आनुपूर्वी पूर्वक वर्णन करता हूँ। __52. असुर और असुर कन्याओं के द्वारा जो स्वामित्व के लिए विषय है, उसका क्षेत्र जम्बूद्वीप और चमरेन्द्र की चमरचंचा राजधानी पर्यन्त (है)। . 53. असुर और कन्याओं के द्वारा, जो स्वामित्व के लिए विषय है, वही स्वामित्व बलि और वैरोचन के लिए समझा जाना चाहिए / 54. धरण एवं नागराज जम्बूद्वीप को फण के द्वारा आच्छादित कर सकते हैं। उनके समान ही अतिशय भूतानन्द में भी जानना चाहिए। 55. गरुडेन्द्र व वेणुदेव पंख के द्वारा जम्बूद्वीप को आच्छादित कर सकते हैं। उनके समान ही अतिशय वेणूदालि में भी जानना चाहिए। 56. पूर्ण भी एक हथेली के द्वारा जम्बूद्वीप को आच्छादित कर सकता है। उसके समान ही अतिशय वशिष्ठ में जानना चाहिए। 57. जलकान्त एक जलतरंग द्वारा जम्बूद्वीप को भर सकता है। उसके समान ही अतिशय जलप्रभ में जानना चाहिए / Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ अमियगइस्स वि विसओ जंबुद्दीवं तु पायपण्हीए। कंपेज निरवसेसं, इयरो पुण तं समइरेगं // 58 // एक्काए वायगुंजाए जंबुद्दीवं भरेज वेलंबो। तं चेव समइरेगं पभंजणे होइ बोद्धव्वं // 59 // घोसो वि जंबुद्दीवं सुंदरि ! एक्केण थणियसद्देणं / . . बहिरीकरिज सव्वं, इयरो पुण तं समइरेगं // 60 // एक्काए विज्जुयाए जंबुद्दीवं हरी पयासेज्जा / तं चेव समइरेगं हरिस्सहे होइ बोद्धव्वं // 61 / / एक्काए अग्गिजालाए जंबुद्दोवं डहेज अग्गिसिहो / तं चेव समइरेगं माणवए होइ बोद्धव्वं / / 62 / / तिरियं तु असंखेज्जा दीव-समुद्दा सएहिं रूवेहिं / अवगाढा उ करिजा सुंदरि ! एएसि एगयरो // 63 // पभू अन्नयरो इंदो जंबुद्दीवं तु वामहत्थेणं / छत्तं जहा धरेजा अयत्तओ मंदरं पित्तुं // 64 // जंबुद्दीवं काऊण छत्तयं, मंदरं च से दंडं / पभू अन्नयरो इंदो, एसो तेसिं बलविसेसो // 65 // एसा भवणवईणं भवणठिई वन्निया समासेणं / सुण वाणमंतराणं भवठिई आणुपुवीए // 66 // [वाणमंतराणं अट्ठ भेया ] पिसाय 1 भूया 2 जक्खा 3 य रक्खसा 4 किन्नरा 5 य किंपुरिसा 6 / महोरगा 7 य गंधव्वा 8 अविहा वाणमंतरिया // 67 / / 1. अत्र वाणमंतर शब्देन व्यन्तर-वानव्यन्तरसङ्ग्रहो ज्ञातव्यः // Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17 देवेन्द्रस्तव __58. अमितगति के लिए ( कहा गया है कि वह ) सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को पैर की एड़ी से कंपा सकता है / पुनः ( यही ) अतिशय अन्य ( अर्थात् अमितवाहन में भी जानना चाहिए ) / 59. वेलम्ब भी एक वायु के गुंजन के द्वारा जम्बूद्वीप को भर सकता है / उसके समान ही अतिशय प्रभञ्जन में जानना चाहिए / 60. हे सुंदरी ! घोष एक मेघ गर्जन के शब्द के द्वारा जम्बूद्वीप में सबको बहरा कर सकता है। पुनः यही अतिशय अन्य ( अर्थात् महाघोष में भी जानना चाहिए ) / 61. हरि एक विद्युत (प्रकाश ) के द्वारा जम्बूद्वीप को प्रकाशित कर सकता है। उसके समान ही अतिशय हरिस्सह में भी जानना चाहिए / 62. अग्निशिख एक अग्नि की ज्वाला के द्वारा जम्बूद्वीप को जला सकता है / उसके समान ही अतिशय माणवक में भी जानना चाहिए / 63. हे सुंदरी ! तिर्यक् लोक में असंख्यात द्वीप और समुद्र हैं / इनमें से कोई भी एक ( इन्द्र ) स्वयं के रूपों के द्वारा ( इन-द्वीप समुद्रों को ) व्याप्त कर सकता है। 64. कोई भी समर्थ इन्द्र जम्बूद्वीप को बायें हाथ से छत्र की तरह धारण कर सकता है और ( ऐसे ही ) मंदराचल पर्वत को भी बिना परिश्रम से ग्रहण करने में ( समर्थ होता है)। 65. कोई एक शक्तिशाली इन्द्र जम्बूद्वीप को छाता करके और मंदार पर्वत को उसका दण्ड ( बना सकता है ); यह उन ( सब इन्द्रों) का बल विशेष है। 66. संक्षेप से यह भवनपतियों के भवन की स्थिति कही गयी है / (अब ) यथाक्रम से वाणव्यंतरों के भवनों की स्थिति सूनों। [वाणव्यंतरों के आठ भेद] 67. पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग-गंधर्व और (ये) वाणव्यंतर (देवों के) आठ प्रकार ( हैं ) / 2 . Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ एते उ समासेणं कहिया भे वाणमंतरा देवा / पत्तेयं पि य वोच्छं सोलस इदे महिड्ढीए // 68 // 1 [वाणमंतराणं सोलस इंदा] काले१ य महाकाले 2 / 1 सुरूव 3 पडिरूव 4 / 2 पुन्नभद्दे५ य / अमरवइ माणिभद्दे 6 / 3 भीमे 7 य तहा महाभीमे 8 / 4 // 69 // किन्नर 9 किंपुरिसे 10 खलु 5 सप्पुरिसे 11 चेव तह महापुरिसे 12 / 6 / अइकाय 13 महाकाए 1417 गीयरई 15 चेव गीयजसे 1618 // 70 // [वाणमंतराणं अवंतरभेया अट्ट] [अणपन्नी 1 पणपन्नी 2 इसिवाइय 3 भूयवाइए 4 चेव।। कंदी 5 य महाकंदी 6 कोहंडे 7 चेव पयए. 8 य // ] [वाणमंतराणं अट्ठण्हमवंतरभेयाणं सोलस इंदा]. सन्निहिए 1 सामाणे 261 धाय 3 विधाए 4 / 2 इसी 5 य - इसिवाले 6 / 3 / इस्सर 7 महिस्सरे या 8 / 4 हवइ सुवच्छे 9 विसाले य 105 // 7 // हासे 11 हासरई वि य 12 / 6 सेए य 13 तहा भवे महासेए - 14 / 7 / पयए 15 पययवई वि य 16 / 8 नेयव्वा आणपुवीए // 72 // [वंतर-वाणमंतराणं भवण-ठाण-ठिइआइ ] उड्ढमहे तिरियम्मि य वसहिं 'उववेति वंतरा देवा / भवणा पुणऽण्ह रयणप्पभाए उवरिल्लए कंडे // 73 // एक्केक्कम्मि य जुयले नियमा भवणा वरा असंखेज्जा / संखिज्जवित्थडा पुण, नवरं एतऽत्थ नाणतं / / 74 / / 1. ओविति सा०॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रस्तव 68. ये वाणव्यंतर देव मेरे द्वारा संक्षेप से कहे गये हैं। अब एक-एक करके ( इनके ) सोलह इन्द्रों और उनकी ऋद्धि को कहूंगा। 69.70. 1 काल, 2 महाकाल, 3 सुरूप, 4 प्रतिरूप, 5 पूर्णभद्र, 6 माणिभद्र, 7 भीम, 8 महाभीम, 9 किन्नर, 10 किंपुरुष, 11 सत्पुरुष, 12 महापुरुष, 13 अतिकाय, 14 महाकाय, 15 गीतरति और 16 गीतयश (-ये वाणव्यंतर इन्द्र कहे गये हैं)। .. [वाणव्यंतरों के आठ अन्तर भेद ] [ अनपणि, पणपर्षि, ऋषिवावित, भूतवादित ..कन्दित, महाकन्दित, कूष्माण्ड, और पतंगदेव ] [वाणव्यंतरों के आठ अन्तर भेदों के सोलह इन्द्र ] .71-72. सन्निहित 1, सामान 21, धाता 3, विधाता 4 / 2, ऋषि 5, ऋषिपाल 63, ईश्वर 7, महेश्वर 8 / 4, सुवत्स 9, विशाल 105, हास 11, हासरति 1226, श्वेत 13, महाश्वेत 1417, पतंग 15, पतंगपति 16 // 8 ( ये आठ वाणव्यंतर देवों के भेद है और ) अनुक्रम से (प्रत्येक के ) (दो-दो इन्द्र) जानने चाहिए। [व्यंतर और वाणव्यंतरों के भवन स्थान और स्थिति] . 73. व्यंतर देव अवं, अधो और तिर्यक् लोक में उत्पन्न होते हैं और निवास करते हैं। पुनः इनके भवन रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपरी खण्ड में ( हैं)। 74. एक-एक युगल में नियम से अंसख्यात श्रेष्ठ भवन हैं। ये संख्यात (योजन) विस्तार वाले हैं / (उनके) विविध भेद को ( कहता हूं)। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ जंबुद्दीवसमा खलु उक्कोसेणं भवंति भवणवरा। / खुड्डा खेत्तसमा वि य विदेहसमया य मज्झिमया // 75 / / . जहिं देवा वंतरिया वरतरुणीगीय-वाइयरवेणं / निच्चसुहिया पमुइया गयं पि कालं न याणंति / / 76 / / काले सुरूव पुण्णे भीमे तह किन्नरे य सप्पुरिसे / अइकाए गीयरई अढते होंति दाहिणओ / / 77 / / मणि-कणग-रयणथूभिय जंबूणयवेइयाइं भवणाइ। एएसिं दाहिणओ, सेसाणं उत्तरे पासे // 78 // दसवाससहस्साई ठिई जहन्ना उ वंतरसुराणं / पलिओवमं तु एक्कं ठिई उ उक्कोसिया वेसिं // 79 // एसा वंतरियाणं भवणठिई वनिया समासेणं / सुण जोइसालयाणं आवासविहिं .सुरवराणं // 80 // [पंचविहा जोईसियदेवा ] चंदा 1 सूरा 2 तारागणा 3 य नवखत्त 4 गहगणसमग्गा 5 // पंचविहा जोइसिया, ठिई वियारी य ते भणिया // 81 / / [जोइसियदेवाणं ठाणाई विमाणसंखा, विमाणाणं आयामबाहल्लपरिरयाइ विमाणवाहगआभिओगा देवा य]. अद्धकविट्ठगसंठाणसंठिया फालियामया रम्मा / जोइसियाण विमाणा तिरियंलोए असंखेज्जा // 82 // धरणियलाओ समाओ सत्तहिं नउएहिं जोयणसएहिं / हेट्ठिल्लो होइ तलो, सूरो पुण अट्टहिं सएहिं // 83 // Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रस्तव 75. वे उत्कृष्ट ( आकार के भवन ) जम्बूद्वीप के समान, छोटे ( आकार के भवन ) ( भरत ) क्षेत्र के समान और मध्यम आकार के श्रेष्ठ भवन विदेह क्षेत्र के समान ( होते हैं ) / 76. जिनमें व्यंतरदेव श्रेष्ठ तरुणियों के गीत और वाद्यों की आवाज के कारण नित्य सुख-युक्त व प्रमुदित (रहते हुए) व्यतीत हुए काल को भी नहीं जानते हैं। 77. उसी तरह काल, सुरूप, पूर्ण, भीम, किन्नर, सत्पुरुष, अतिकाय, गीतरति, ये आठ ( इन्द्र ) दक्षिण दिशा की और होते हैं। 78. मणि, स्वर्ण और रत्नों के स्तूप और सोने की वेदिका से युक्त इनके भवन दक्षिण दिशा को ओर होते हैं और शेष (व्यंतर इन्द्रों के भवन) उत्तर दिशा के पार्श्व में ( होते हैं ) / 79. व्यंतर देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष ( है ) ( और ) उनकी उत्कृष्ट स्थिति एक पल्योपम ( है ) / 80. इस प्रकार व्यंतर देवों के भवन और स्थिति संक्षेप से कही गयी / ( है.) ( अब ) श्रेष्ठ ज्योतिष्क देवों के आवास के विवरण को सुनो। [पाँच प्रकार के ज्योतिष्क देव] .. 81. चन्द्र, सूर्य, तारागण, नक्षत्र और ग्रहगण समूह ( ये सब ) पांच प्रकार के ज्योतिषी देव कहे गये ( हैं ) ( अब ) उनकी स्थिति और गति ( कही जायगी)। . [ज्योतिषी देवों के स्थान, विमान-संख्या, विमानों की लम्बाई, .. मोटाई, परिधि, विमानवाहक व किंकर देव] . 82. तिर्यक् लोक में ज्योतिषियों के अर्द्धकपित्थ फल के आकारवाले, स्फटिक रत्नमय, रमणीय असंख्यात विमान ( हैं ) / ___83. ( रत्नप्रभा पृथ्वी के ) सम भूभाग से सात सौ नब्बे योजन (ऊंचाई तक का तल ) निम्न तल होता है / पुनः (उस सम भूभाग से ) सूर्य आठ सौ ( योजन ) ऊपर ( है ) / Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविंदत्यओ अट्ठसए आसीए चंदो तह चेव होइ उवरितले। एगं दसुत्तरसयं बाहल्लं जोइसस्स भवे // 84 // एगद्विभाग काऊण जोयणं तस्स भागछप्पण्णं / चंदपरिमंडलं खलु, 'अडयालीसा य सूरस्स // 85 // जहिं देवा जोइसिया वरतरुणीगीय-वाइयरवेणं / निच्चसुहिया पमुइया गयं पि कालं न याणंति // 86 // छप्पन्नं खलु भागा विच्छिन्नं चंदमंडलं होइ / अडवीसं च कलाओ बाहल्लं तस्स बोद्धव्वं // 87 // अडयालीसं भागा विच्छिन्नं सूरमंडलं होइ। चउवीसं च कलाओ बाहल्लं तस्स बोद्धव्वं // 88 // अद्धजोयणिया उ गहा, तस्सऽद्धं चेव होइ नक्खत्ता / नक्खत्तद्धे तारा, तस्सऽद्धं चेव बाहल्लं // 89 // जोयणमद्धं तत्तो य गाउयं पंच धणुसया होति / गह-नक्खत्तगणाणं तारविमाणाण विक्खंभो // 90 // जो जस्स उ विखंभो, तस्सऽद्धं चेव होइ बाहल्लं / तं तिगुणं सविसेसं तु परिरओ होइं बोद्धव्यो // 91 / / 1. अडयाला होइ सूरस्स प्र० सा० // 2. जस्सा वि° सा०॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रस्तव 84. उसी प्रकार ( उस सम भूभाग से ) आठ सौ अस्सी (योजन के) ऊपरी तल पर चन्द्रमा होता है / इस प्रकार ज्योतिष्क देवों का (ऊंचाई की अपेक्षा से ) विस्तार क्षेत्र एक सौ दस ( योजन ) होता है। 85. एक योजन के इकसठ भाग करके उस ( इकसठ भाग में से) छप्पन भाग (जितना) चन्द्रपरिमंडल ( होता है ) और सूर्य का ( आयामविष्कम्भ ) अड़तालीस ( भाग जितना होता है ) / 86. जिसमें ज्योतिषी देव श्रेष्ठ तरुणियों के गीत और वाद्यों की आवाज के कारण नित्य सुख-युक्त व प्रमुदित (रहते हुए) व्यतीत हुए काल को भी नहीं जानते हैं। 87. ( एक योजन के इकसठ भाग में से ) छप्पन भाग विस्तार वाला चन्द्रमण्डल होता है, और ( इकसठ भाग में से ) अट्ठाईस भाग ( जितनी ) उसकी मोटाई जाननी चाहिए। 88. ( एक योजन के इकसठ भाग में से ) अड़तालीस भाग विस्तार वाला सूर्य मण्डल होता है और (इकसठ भाग में से) चौबीस भाग (जितनी) उसकी मोटाई जाननी चाहिए। 89. ग्रह आधे योजन ( आयाम-विष्कम्भ वाले हैं ) उसके आधे नक्षत्र ( समूह ) होते हैं, नक्षत्र से आधे तारा ( समूह होते हैं) और ( उनका जो विस्तार है उससे ) आधी ( उनकी ) मोटाई ( होती है ) / .90: एक योजन का आधा दो कोस ( होता है ), उसमें पांच सो धनुष होते हैं / ( यह ) ग्रह-नक्षत्र-समूह और तारा-विमानों का विस्तार (है)। 91. जिसका जो आयाम-विष्कम्भ ( विस्तार ) है, उसका आधा ही बाहल्य होता है और उससे तीन गुना अधिक परिधि होती है (इस प्रकार) जानना चाहिए। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविंदत्थओ सोलस चेव सहस्सा अट्ठ य चउरो य दोन्नि य सहस्सा / जोइसियाण विमाणा वहंति देवाऽभिओगा उ // 92 // पुरओ वहंति सीहा, दाहिणओ कुंजरा महाकाया। पच्चत्थिमेण वसहा, तुरगा पुण उत्तरे पासे // 93 // - [जोइसियाणं गतिपमाणं इड्ढी य] . .. चंदेहि उ सिग्घयरा सूरा, सूरेहिं तह गहा सिग्घा / नक्खत्ता उ गहेहि य, नक्खत्तेहिं तु ताराओ // 94 // सव्वऽप्पगई चंदा, तारा पुण होंति सव्वसिग्घगई। एसो गईविसेसो जोइसियाणं तु देवाणं // 95 / / अप्पिड्ढिया उ तारा, नक्खत्ता खलु तओ महिड्ढियए। नक्खत्तेहिं तु गहा, गहेहिं सूरा, तओ चंदा // 96 // [ जोइसियाणं ठाणकमो अंतरमाणं च ] सवभितरऽभीई, मूलो पुण सव्वबाहिरो होइ' / सव्वोवरिं च साई, भरणी पुण सव्वहिट्ठिमया // 97 / / सव्वे गह-नक्खत्ता मज्झे खलु होंति चंद-सूराणं / / हिट्ठा समं च उप्पि ताराओ चंद-सूराणं // 98 // पंचेव धणुसयाई जहन्नयं अंतरं तु ताराणं / दो चेव गाउयाई निव्वाघाएण उक्कोसं // 99 // दोन्नि सए छावठे जहन्नयं अंतरं तु ताराणं / बारस चेव सहस्सा दो बायाला य उक्कोसा // 10 // 1. भमइ प्र० हं० सा॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रस्तव ___92. ज्योतिषियों के ( चन्द्र-सूर्य विमानों का वहन ) सोलह हजार ( देव करते हैं ), ( ग्रह विमानों का वहन ) आठ हजार ( देव करते हैं ), ( नक्षत्र विमानों का वहन ) चार हजार ( देव करते हैं ) और ( ताराविमानों का वहन ) दो हजार देव करते हैं। ___ 93. (वे विमानवाहक देव) पूर्व में सिंह, दक्षिण की ओर विशालकाय हाथी, पश्चिम दिशा में बैल और उत्तर दिशा में घोड़े ( का आकार ग्रहण करके विमान ) वहन करते हैं। [ज्योतिषियों की गति का प्रमाण व ऋद्धि] 94. सूर्य चन्द्रमा से तेज चलने वाले (हैं), उसी प्रकार ग्रह सूर्य से तेज चलने वाले (हैं) नक्षत्र ग्रहों से और तारें नक्षत्रों से ( तेज चलने वाले हैं)। 95. चन्द्रमा सबसे अल्प गति (वाले हैं) (और) तारें सबसे तेज गति (वाले हैं)। यह गतिविशेष ज्योतिष्क देवों को (कही गयो है)। . 96. तारें अल्प ऋद्धि (वाले होते हैं) निश्चय ही उससे महान ऋद्धि (वाले) नक्षत्र (होते हैं)। इसी तरह ग्रह नक्षत्रों से (महान् ऋद्धि वाले हैं और) ग्रहों से सूर्य और चन्द्र (महान् ऋद्धि वाले हैं) / ज्योतिष्क देवों के स्थान को सीमा और आभ्यन्तर परिमाण] .. 97. सबसे भीतर अभिजित् नक्षत्र (है), सबसे बाहर मूल नक्षत्र (है)। सबसे ऊपर स्वाति नक्षत्र (है) और सबसे नीचे भरणी नक्षत्र (है)। - 98. निश्चय ही चन्द्रों व सूर्यों के मध्य में सभी ग्रह-नक्षत्र होते हैं / ... (और) चन्द्रों और सूर्यों के नीचे, बराबर व ऊपर तारें (होते हैं)। ____ 99. (बिना व्यवधान के) ताराओं का (परस्पर) कम से कम (जघन्य) अन्तर पांच सौ धनुष और अधिक से अधिक (उत्कृष्ट) अन्तर चार हजार धनुष (दो गव्युति) का होता है / 100. (व्यवधान की अपेक्षा से) ताराओं का अन्तर कम से कम (जघन्य) दो सौ छाछठ योजन और अधिक से अधिक (उत्कृष्ट) बारह हजार दो (सौ) बयालीस (योजन कहा गया है)। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ [तारा-चंदाणं नक्खत्त-चंदाणं नक्खत्त-सूराण य सहगतिकालमाणं] एयस्स चंदजोगो सत्तट्टि खंडिओ अहोरतो। ते हुति नव मुहुत्ता सत्तावीसं कलाओ य // 101 // सयभिसया भरणीओ अद्दा अस्सेस साइ जेट्ठा य / . एए छ नक्खत्ता पन्नरसमुहुत्तसंजोगा // 102 // तिन्नेव उत्तराइ पुणव्वसू-रोहिणी विसाहा य / एए छ नक्खत्ता पणयालमुहुत्तसंजोगा // 103 // अवसेसा नक्खत्ता 'पनरस या होति तीसइमुहुत्ता। चंदम्मि एस जोगो नक्खत्ताणं मुणेयव्वो // 104 // अभिई छच्च मुहुत्ते चत्तारि य केवले अहोरत्ते / सूरेण समं वच्चइ एत्तो सेसाण वुच्छामिः // 105 // सयभिसया भरणीओ अद्दा अस्सेस साइ जेट्टा य / वच्चंति छहोरत्ते एक्कावीसं मुहुत्ते . य // 106 / / तिन्नेव उत्तराई पुणव्वसू रोहिणी विसाहा य / वच्चंति मुहुत्ते तिन्नि चेव वीसं अहोरत्ते // 107 / / अवसेसा नक्खत्ता पण्णरस वि सूरसहगया जंति / बारस चेव मुहुत्ते तेरस य समे अहोरत्ते // 108 / / [जंबुद्दीवाईसु चंद-सूर-गहाईणं संखा] दो चंदा, दो सूरा, नक्खत्ता खलु हवंति छप्पन्ना / छावत्तरं गहसयं जंबुद्दीवे वियारी णं // 109 / / 1. पन्नरस होंति सं०॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रस्तव 27 . [ताराचन्द्र, नक्षत्रचन्द्र व नक्षत्रसूर्य का साथ गति काल परिमाण] 101. यह (जो) चन्द्रयोग (कहा गया है। इसकी सड़सठ खण्डित अहोरात्रि, नौ मुहूर्त और सत्ताईस कलाएं होती हैं। 102. शतभिषज्, भरणी, आर्द्रा, अश्लेषा, स्वाति और ज्येष्ठा (ये छः नक्षत्र हैं)। ये छः नक्षत्र पन्द्रह मुहूर्त संयोग (वाले कहे गये हैं)। 103. तीन उत्तरा नक्षत्र (-अर्थात् उत्तरा भाद्रपद, उत्तरा फाल्गुनी और उत्तराषाढा) तथा पूर्णवसु, रोहिणी और विशाखा, ये छः नक्षत्र (चन्द्रमा के साथ) पैतालिस मुहूर्त का संयोग (करते हैं)। 104. शेष पन्द्रह (नक्षत्र चन्द्रमा के साथ) तीस मुहूर्त का योग (करने वाले) होते हैं। यह चन्द्रमा के साथ नक्षत्रों का योग जानना चाहिए। ___105. अभिजित् नक्षत्र सूर्य के साथ चार अहोरात्रि और छः मुहूर्त एक साथ गमन करता है। इसी प्रकार शेष के सम्बन्ध में (मैं) कहता हूँ। 106. शतभिषज़, भरणी, आर्द्रा, अश्लेषा, स्वाति और ज्येष्ठा (ये छः नक्षत्र) छ: अहोरात्रि और इक्कीस मुहूर्त तक (सूर्य के साथ) भ्रमण करते हैं। 107. तीन उत्तरा नक्षत्र (अर्थात् उत्तरा भाद्रपद, उत्तरा फाल्गुनी 'और उत्तराषाढ़ा) तथा पुनर्वसु, रोहिणी और विशाखा, (ये छ: नक्षत्र) बीस अहोरात्रि और तीन मुहूर्त तक (सूर्य के साथ) भ्रमण करते हैं। 108. शेष पन्द्रह ही नक्षत्र, तेरह अहोरात्रि और बारह मुहूर्त सूर्य के साथ-साथ भ्रमण करते हैं। - 109. दो चन्द्र, दो सूर्य, छप्पन नक्षत्र, एक सौ छिहत्तर ग्रह, जम्बूद्वीप के ऊपर विचरण करने वाले हैं। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ एक्कं च सयसहस्सं तित्तीसं खलु भवे सहस्साई। नव य सया पण्णासा तारागणकोडिकोडीणं // 110 // . [13395000000000000000] चत्तारि चेव चंदा, चत्तारि य सूरिया लवणतोए / बारं नक्खत्तसयं, गहाण तिन्नेव बावन्ना // 111 // दो चेव सयसहस्सा सत्तट्ठि खलु भवे सहस्सा उ। .. नव य सया लवणजले तारागणकोडिकोडीणं // 112 // [26790000000000000000] चउवीसं ससि-रविणो, नक्खत्तसया य तिण्णि छत्तीसा। एक्कं च गहसहस्सं छप्पन्नं धायईसंडे // 113 // अट्ठव सयसहस्सा तिण्णि सहस्सा य सत्त य सयाइं / धायइसंडे दीवे तारागणकोडिकोडीणं // 114 // - [803700000000000000000] बायालीसं चंदा बायालीसं च दिणयरा दित्ता / कालोदहिम्मि एए चरंति संबद्धलेसाया // 115 // 'नक्खत्तसहस्सं एगमेव छावत्तरं च सयमन्नं / छच्च सया छन्नउया महग्गहा तिनि य सहस्सा // 116 // अट्ठावीसं 'कालोदहिम्मि बारस य सहस्साई / नव य सया पन्नासा तारागणकोडिकोडीणं // 117 // [281295000000000000000] 1. नक्खत्ताण सहस्सं एगं छावत्तरं सतं चऽनं सं० // 2. दहिम्मि ताराइ सयसहस्साइ / नव सं० / असमीचीनोऽयं पाठः / सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्रे मूलगतपाठसम एव पाठः / यद्यप्यत्र छन्दोऽपेक्षया मात्राद्वयत्रुटिरवश्यं दृश्यंते, किञ्चात्र पाठे काऽपि अर्थक्षतिनं दृश्यते इति मात्राद्वयत्रुटिः आर्याछन्दोभेदान्तरकल्पनया समाधेया सुधीभिरिति / अत्रार्याच्छन्दोऽपोत्थमनुसन्धीयते-दहिम्मि बारस य [?तह ] सहस्साई // Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रस्तव 110. एक लाख तैंतीस हजार नौ सौ पचास कोटाकोटि' तारागण (जम्बूद्वीप में) होते हैं। 111. लवण समुद्र (के ऊपर के क्षेत्र) में चार चन्द्र, चार सूर्य, एक सौ बारह नक्षत्र और इसी तरह तीन (सौ) बावन ग्रह (भ्रमण करते हैं)। 112. लवण समुद्र के ऊपर दो लाख सड़सठ हजार नौ सौ कोटाकोटि तारागण (भ्रमण करते हैं)। 113. धातकी खण्ड द्वीप में चौबीस चन्द्र और सूर्य (अर्थात् बारह चन्द्र और बारह सूर्य) तीन सौ छत्तीस नक्षत्र और एक हजार छप्पन ग्रह (होते हैं)। - 114. धातकी खण्ड द्वीप में आठ लाख तीन हजार सात सौ कोटाकोटि तारागण (होते हैं)। 115. इस कालोदधि समुद्र (के ऊपर के क्षेत्र) में किरणों से युक्त तेजस्वी बयालीस चन्द्र और बयालीस सूर्य विचरण करते हैं। . 116. (इसमें) एक हजार एक सौ छिहत्तर नक्षत्र और तीन हजार छ: सौ छियानबे सूर्य आदि ज्योतिष्क-देव (हैं)। ___ 117. कालोदधि समुद्र के ऊपर अट्ठाईस लाख बारह हजार नौ सौ पचास कोटाकोटि तारागण (होते हैं)। 1. करोड़ का करोड़ से गुणा करने पर जो संख्या आती है उसे कोटाकोटि कहा जाता है। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ चोयालं चंदसयं, चोयालं चेव सूरियाण सयं / पोक्खरवरम्मि एए चरति संबद्धलेसाया // 118 // चत्तारिं च सहस्सा बत्तीसं चेव होंति नक्खत्ता / छच्च सया बावत्तर महग्गहा बारस सहस्सा // 119 // छन्नउइ सयसहस्सा चोयालीसं भवे सहस्साई। चत्तारि' तह सयाइं तारागणकोडिकोडीणं // 120 // [96444000000000000000] बावत्तरि च चंदा, बावत्तरिमेव दिणयरा दित्ता। पुक्खरवरदीवड्ढे चरंति एए पगासिंता // 121 // तिण्णि सया छत्तीसा छ च्च सहस्सा महग्गहाणं तु / नक्खत्ताणं तु भवे सोलाणि दुवे सहस्साणि // 122 // अडयालसयसहस्सा बावीसं खलु भवे सहस्साई / / दो य सय पुक्खरद्धे तारागणकोडिकोडीणं // 123 // [482220000000000000000] बत्तोसं चंदसयं 132, बत्तीसं चैवं सूरियाण सयं१३२ / सयलं मणुस्सलोयं चरंति एए पयासिता // 124 // एक्कारस य सहस्सा छ प्पि य सोला महग्गहसया उ 11616 / छ च्च सया छन्नउआ नक्खत्ता तिण्णि यसहस्सा 3696 // 125 / / अट्ठासीइ चत्ताइ सयसहस्साई मणुयलोगम्मि / सत्त य सया अणूणा तारागणकोडिकोडोणं // 126 // [884070000000000000000 1. चत्तारी य सयाई प्र० सा० // 2. अडयालीसं लक्खा बावीसं प्र० हं० सा० // Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रस्तव 118. इस पुष्करवर द्वीप ( के ऊपर के क्षेत्र ) में किरणों से युक एक सौ चौवालीस चन्द्र और एक सौ चौवालीस सूर्यों का विचरण होता है। 119. पुष्करवर द्वीप पर चार हजार बत्तीस नक्षत्र और बारह हजार छः सौ बहत्तर सूर्य आदि ज्योतिष्क (महाग्रह) (होते हैं)। 120. इसी तरह (पुष्करवर द्वीप पर) छियानबे लाख चौवालीस हजार चार सौ कोटाकोटि तारागण होते हैं। 121. इस अर्द्धपुष्करवर द्वीप के ऊपर बहत्तर चन्द्र और बहत्तर तेजस्वी सूर्य प्रकाश करते हुए विचरण करते हैं / 122. (अर्द्धपुष्करवर द्वीप के ऊपर) छः हजार तीन सौ छत्तीस ग्रह और दो हजार सोलह नक्षत्र होते हैं। 123. अर्द्धपुष्करवर द्वीप के ऊपर निश्चय ही अड़तालीस लाख बाईस हजार दो सौ कोटाकोटि तारागण होते हैं / . 124. एक सौ बत्तीस चन्द्रमा हैं और एक सौ बत्तीस ही सूर्य (ऐसे हैं), (जो) समस्त मनुष्य लोक को प्रकाशित करते हुए विचरण करते हैं। 125. (मनुष्य लोक में) ग्यारह हजार छ: सौ सोलह महाग्रह (हैं) और तीन हजार छः सौ छियानबे नक्षत्र (हैं)। 126. मनुष्यलोक में अट्ठासी लाख चालीस हजार सात सौ कोटाकोटि तारागणों के (समूह) (है)। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ एसो तारापिंडो सव्वसमासेण मणुयलोगम्मि। बहिया पुण ताराओ जिणेहिं भणिया असंखेज्जा // 127 / / एवइयं तारग्गं जं भणियं तह य मणुयलोगम्मि / चारं. कलंबुयापुप्फसंठियं जोइसं चरइ // 128 / / रवि-ससि-गह-नक्खत्ता एवइया आहिया मणुयलोए। . .. जेसिं नामा-गोयं न पागया पन्नवेइति // 129 / / [जोइसियाणं पिडगाइ पंतीओ चंदाइपमाणं च] छावलुि पिडयाई चंदाऽऽइच्चाण मणुयलोगम्मि / दो चंदा दो सूरा य होंति एक्केक्कए पिडए // 130 // छावर्द्वि पिडयाइ नक्खत्ताणं तु मणुयलोगम्मि / छप्पन्नं नक्खत्ता य होंति एक्केक्कए पिडए // 131 // छावट्ठी पिडयाई महग्गहाणं तु मणुयलोगम्मि / छावत्तरं गहसयं च होइ एक्केक्कए पिडए // 132 / / चत्तारि य पंतीओ चंदाऽऽइच्चाण मणुयलोगम्मि / छावढि छावढि च होई' इक्किक्किया पंती // 133 / / छप्पन्नं पंतीओ नक्खत्ताणं तु मणुयलोगम्मि / छावटुिं छावर्द्वि च होइ इक्किक्किया पंती / / 134 // छावत्तरं गहाणं पंतिसयं होइ मणुयलोगम्मि। छाट्ठि छावद्धिं च होइ इक्किक्किया पंती // 135 // जोइसियाणं मंडला तावखेत्तं गई य] ते 'मेरुमणुचरंती पयाहिणावत्तमंडला सव्वे / अणवट्ठिएहिं जोएहिं चंद-सूरा गहगणा य // 136 / / 1. होइ एक्किक्कि पंतीए सं० // 2. मेरुमाणुसुत्तर पया' प्र० सा० // Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रस्तव 127. संक्षेप से मनुष्य लोक में यह नक्षत्र समूह (कहा गया है) और (मनुष्य लोक के) बाहर जिनेन्द्रों के द्वारा असंख्यात तारें कहे गये हैं / 128. इस प्रकार मनुष्य लोक में जो सूर्य आदि ग्रह कहे गये हैं वे कदम्ब वृक्ष के फूल के आकार (संस्थान) के समान विचरण करते हैं / 129. इस प्रकार मनुष्यलोक में सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र कहे गये हैं। जिनके नाम और गोत्र साधारण बुद्धि वाले (मनुष्य) नहीं कह सकते हैं / [ज्योतिषियों के पिटक और पंक्तियों से चन्द्रमा का परिमाण] 130. मनुष्य लोक में चन्द्रों और सूर्यों के छियासठ पिटक (समूह) होते हैं और एक-एक पिटक में दो चन्द्र और दो सर्य होते हैं। 131. मनुष्यलोक में नक्षत्रों के भी छियासठ पिटक होते हैं और एक-एक पिटक में छप्पन नक्षत्र होते हैं। ___ 132. मनुष्यलोक में सूर्य आदि ज्योतिष्कों के छियासठ पिटक हैं और एक-एक पिटक में एक सौ छिहत्तर ग्रह होते हैं। . . 133. मनुष्यलोक में चन्द्र और सूर्य की चार पंक्तियाँ होती हैं और जो एक-एक पंक्ति है (उसमें) छियासठ-छियासठ (चन्द्र और सूर्य) हैं / 134. मनुष्य लोक में नक्षत्रों की छप्पन पंक्तियां हैं और जो एक-एक पक्ति प्राप्त है. ( उसमें ) छियासठ-छियासठ ( चन्द्र और सूर्य ) हैं। ___135. मनुष्यलोक में ग्रहों की एक सौ छिहत्तर पंकि (समूह) है (और जो) एक-एक पंक्ति है ( उसमें ) छियासठ-छियासठ ( चन्द्र और सूर्य ) होते हैं। __136. चन्द्र, सूर्य और ग्रह समूह अस्थिर सम्बन्ध के कारण उस मेरुपर्वत की परिक्रमा करते हुए और सभी दाहिनी ओर से मण्डलाकार प्रदक्षिणा करते हैं। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविंदत्थओ नक्खत्त-तारयाणं अवट्ठिया मंडला मुणेयव्वा / ते वि य पयाहिणावत्तमेव मेरुं अणुचरंति // 137 // रयणियर-दिणयराणं उड्ढमहे एव संकमो नत्थि / मंडलसंकमणं पुण अभितर बाहिरं तिरियं // 138 // रयणियर-दिणयराणं नक्खत्ताणं च महगहाणं च / चारविसेसेण भवे सुह-दुक्खविही मणुस्साणं / / 139 / / तेसिं पविसंताणं तावक्खेत्तं तु वड्ढए नियमा / तेणेव' कमेण पुणो परिहायइ निक्खमिंताणं / / 140 / / तेसिं कलंबुयापुप्फसंठिया होंति तावखेत्तमुहा। अंतो य संकुला बाहिं वित्थडा चंद-सूराणं // 141 / / [चंदस्स हाणी वड्ढी य] केणं वड्ढइ चंदो ? परिहाणीश्वा विकेण चंदस्स?। कालो वा जोण्हा वा केणऽणुभावेण चंदस्स ? // 142 // किण्हं राहुविमाणं निच्चं चंदेण होइ अविरहियं / चउरंगुलमप्पत्तं हिट्ठा चंदस्स * तं चरइ // 143 // बावढि बावढेि दिवसे दिवसे तु सुक्कपक्खस्स / जं परिवड्ढइ चंदो, खवेइ तं चेव कालेणं // 144 // पन्नरसइभागेण य चंदं पन्नरसमेव संकमइ / पन्नरसइभागेण य पुणो वि तं चेव पक्कमइ // 145 // 1. व य क्कमेणं परि० प्र० सा० // 2. °हाणी केण होइ चंदस्य ? प्र० सा० // 3. चंकमई प्र० हं० सा० / तं वरइ सू० // 4. "वऽइक्कमइ हं० / °व वक्कमइ सू० // Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रस्तव 137. इसी प्रकार नक्षत्र और ग्रहों के नित्य-मण्डल भी जानने चाहिये और वे भी मेरुपर्वत के दाहिनी ओर से मण्डलाकार परिभ्रमण करते हैं / 138. चन्द्र और सूर्य की गति ऊपर और नीचे नहीं होती है / उनकी गति आभ्यान्तर, बाह्य, तिर्यक् व मण्डलाकार (होती है)। 139. चन्द्र, सूर्य नक्षत्र आदि ज्योतिष्कों के परिभ्रमण विशेष के द्वारा मनुष्यों के सुख-दुःख की गति होती है / 140. उन ज्योतिष्क देवों के निकट होते हुए तापमान (तापक्षेत्र) नियम से बढ़ता है और उसी प्रकार दूर होते हुए तापमान (तापक्षेत्र) कम होता है। 141. उनका ताप क्षेत्र कलम्बुक पुष्प के संस्थान के समान होता है और चन्द्र, सूर्य के (ताप क्षेत्र का संस्थान) अन्दर से संकुचित व बाहर से विस्तृत (है)। 142. किस कारण से चन्द्रमा बढ़ता है और किस कारण से चन्द्रमा क्षीण होता है अथवा किसके कारण से चन्द्रमा की ज्योत्स्ना (और) कालिमा (होती है) ? 144. राहू का कृष्ण विमान सदैव हो चन्द्रमा से सटकर चार अंगुल * * नीचे निरन्तर गमन करता है / - 144. शुक्लपक्ष के (पन्द्रह दिनों में) चन्द्र का बाँसठवां-बाँसठवां भाग (राहु से अनावृत्त होकर) प्रतिदिन बढ़ता है और (कृष्णपक्ष के) उतने हो समय में (राहु से आवृत्त होकर) घटता जाता है। ___ 145. चन्द्रमा के पन्द्रह भाग ( पन्द्रह दिनों में क्रमशः राहु के ) पन्द्रह .... भागों से अनावृत्त होते रहते हैं और (चन्द्रमा के पन्द्रह भाग पन्द्रह दिनों में राहु के ) पन्द्रह भागों से आवृत्त होते रहते हैं / Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ एवं वड्ढइ चंदो, परिहाणी एव होइ चंदस्स / कालो वा जोण्हा वा तेणऽणुभावेण चंदस्स // 146 // [जोइसियाणं चर-थिरविभागो] अंतो मणुस्सखेत्ते हवंति चारोवगा य उववण्णा। . .. पंचविहा जोइसिया चंदा सूरा गहगणा य // 147 / / तेण परं जे सेसा चंदाऽऽइच्च-गह-तार-नक्खत्ता। .. नत्थि गई, न वि चारो, अवट्ठिया ते मुणेयव्वा // 148 / / [जंबुद्दीवाईसु चंद-सूराईणं संखा अंतरं च] एए' जंबुद्दीवे दुगुणा, लवणे चउग्गुणा होति / कालोयणा(? लावणगा य) तिगुणिया ससि-सूरा धायईसंडे // 149 // दो चंदा इह दीवे, चत्तारि य सागरे लवणतोए / धायइसंडे दीवे बारस चंदा य सूरा य // 150 // धायइसंडप्पभिई उद्दिट्ठा तिगुणिया भवे चंदा / आइल्लचंदसहिया अणंतराणंतरे खेत्ते // 151 // रिक्ख-ग्गह-तारग्गं दीव-समुद्दे जइच्छसे नाउं / तस्स ससीहि उ गुणियं रिवख-ग्गह-तारयग्गं तु // 152 // 1. आदर्शेषु 149-150 गाथे क्रमव्यत्यासेन वर्तेते, किश्चार्थसौकर्याथे सूर्यप्रज्ञप्ति-- सूत्रानुसारेणात्र क्रमपरावृत्तिविहिताऽस्ति / एगे सा० / एवं सू० // Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रस्तव 37 146. इस प्रकार चन्द्रमा वृद्धि को प्राप्त होता है और ऐसे ही चन्द्रमा का ह्रास होता है। इसी कारण से कालिमा (कृष्ण पक्ष) और ज्योत्स्ना (शुक्ल पक्ष) (होते हैं)। (ज्योतिषियों को गति और स्थिर विभाग] 147. मनुष्य लोक में उत्पन्न और संचरण करने वाले चन्द्र, सूर्य, ग्रह-समूह आदि पांच प्रकार के ज्योतिषिक देव होते हैं / 148. इसके अतिरिक्त (मनुष्य क्षेत्र के बाहर) जो चन्द्र, सूर्य, ग्रह, तारें और नक्षत्र (हैं) न तो (उनको) गति होती है और न हो संचरण / अतः उन्हें अवस्थित (स्थिर) जानना चाहिए। [जम्बूद्वीप में चन्द्र सूर्यों को संख्या और अन्तर] 149. ये (चन्द्र-सूर्य) जम्बूद्वीप में द्विगुणित (अर्थात् दो चन्द्र और दो सूर्य), लवण समुद्र में चारगुना (अर्थात् चार चन्द्र और चार सूर्य) और लवण समुद्र से तोगुने (अर्थात् बारह) चन्द्र (और बारह) सूर्य धातकीखण्ड में प्राप्त होते हैं। 150. ( इस प्रकार ) (जम्बू) द्वीप में दो चन्द्र ( एवं दो सूर्य ), लवण समुद्र में चार ( चन्द्र और चार सूर्य ), धातकोखण्ड में बारह चन्द्र और (बारह) सूर्य होते हैं। . 151. धातकीखण्ड के आगे के क्षेत्र में (अर्थात् द्वीप-समुद्रों में) (सूर्यचन्द्रों की संख्या को पहले के द्वीप समुद्र की संख्या का) तीगुना करके तथा उसमें ( उसके ) पूर्व के चन्द्र और सूर्यों को संख्या मिलाकर जानना चाहिए। ____ 152. यदि (तुम) द्वीप और समुद्र में नक्षत्र, ग्रह (एवं) तारा (और इनके प्रमाण) को जानने की इच्छा रखते हो ( तो एक ) चन्द्र (परिवार की संख्या ) से गुणा करने पर (उन द्वीप-समुद्रों के ) नक्षत्र, ग्रह और ताराओं की संख्या ज्ञात हो जाती हैं)। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ बहिया उ माणुसनगस्स चंद-सूराणऽवट्ठिया जोगा। चंदा 'अभिईजुत्ता, सूरा पुण होंति 'पुस्सेहिं / / 153 / / चंदाओ सूरस्स य सूरा चंदस्स अंतरं होइ / पण्णास सहस्साई [तु] जोयणाणं अणूणाई // 154 // सूरस्स य सूरस्स य ससिणो ससिणो य अंतरं होइ / . . बहिया उ माणुसनगस्स जोयणाणं सयसहस्सं // 155 / / सूरतरिया चंदा, चंदंतरिया य दिणयरा दिता। चित्तंतरलेसागा सुहलेसा मंदलेसा य // 156 / / अट्ठासीइ च गहा, अट्ठावीसं च होंति नक्खत्ता / एगससीपरिवारो, एत्तो ताराण वोच्छामि // 157 // . छावद्विसहस्साई नव चेव सयाई पंचसयराइ। एगससीपरिवारो तारागणकोडिकोडीणं // 158 / / [जोइसियदेवाणं ठिई] वाससहस्सं पलिओवमं च सूराण सा ठिई भणिया 1 / पलिओवम चंदाणं वाससयसहस्समन्भहियं 2 // 159 // पलिओवम गहाणं 3 नक्खत्ताणं च जाण पलियद्धं 4 / पलियचउत्थो भागो ताराण वि सा ठिई भणिया 5 // 160 // पलिओवमट्ठभागो ठिई जहण्णा उ जोइसगणस्स / पलिओवममुक्कोसं वाससयसहस्समब्भहियं // 161 // 1. अभीइजुत्ता प्र० हं० सा० // 2. पूसेहिं सं०॥ 3. "रा ससिणो य अं° सा० // 4. "ट्ठासीयं च प्र० हं० सा० // Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रस्तव 39 . 153. मानुषोत्तर पर्वत के बाहर चन्द्र और सूर्य अवस्थित ( हैं ) / वहाँ चन्द्रमा अभिजित् नक्षत्र से (योग वाले) व सूर्य पुष्य नक्षत्रों से (योग वाले ) होते हैं। 154: (मनुष्य क्षेत्र से बाहर) सूर्य का चन्द्रमा से और चन्द्रमा का सूर्य से अन्तर पचास हजार योजन से कम नहीं होता है। .. __155. मानुषोत्तर पर्वत के बाहर चन्द्रमा का चन्द्रमा से और सूर्य का सूर्य से अन्तर एक लाख योजन का होता है। 156. चन्द्रमा से सूर्य अन्तरित है और प्रदीप्त सूर्य से चन्द्रमा अन्तरित है ( और वे ) अनेक वर्ण वाली किरणों वाले ( होते हैं ) ( चन्द्र मन्द किरणोंवाला (और) सूर्य आभायुक्त किरणों वाला (होता है)। . 157. एक चन्द्र परिवार के अट्ठासी ग्रह एवं अट्ठाईस नक्षत्र होते हैं / इसके पश्चात् तारों का (वर्णन) करता हूँ। 158. एक चन्द्र परिवार छियासठ हजार नौ सौ पचहत्तर क्रोडाक्रोडि तारागणों का (होता है)। .. [ज्योतिषिक देवों को स्थिति] - 159. सूर्यों की वह (आय) स्थिति एक हजार वर्ष पल्योपम कही गयी है और चन्द्रमा की (आयु-स्थिति) एक लाख वर्ष पल्योपम से अधिक .. (कही गयी हैं) ___ 160. ग्रहों की वह (आयु) स्थिति एक पल्योपम, नक्षत्रों की आधा फ्ल्योपम और तारों की एक पल्योपम का चतुर्थांश ( जितनी ) कही गयी है। 161. ज्योतिष्क (देवों) की जघन्य स्थिति पल्योपम का आठवाँ भाग .. (और) उत्कृष्ट (स्थिति) एक लाख पल्योपम वर्ष से अधिक (कही गयी है) Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ कप्पवेमाणियाणं बारस इंदा] भवणभइ-वाणमंतर-जोइसवासीठिई मए कहिया। कप्पवई वि या वोच्छं 'बारस इंदे महिड्ढीए / / 162 // पढमो सोहम्मवई 1 ईसाणवई उ भन्नए बीओ 2 / तत्तो सणंकुमारो हवइ 3 चउत्थो उ माहिंदो 4 // 163 // पंचमओ पुण बंभो 5 छटो पुण लंतओऽत्थ देविंदो 6 / / सत्तमओ महसुक्को 7 अट्ठमओ भवे सहस्सारो 8 // 164 // नवमो य आणइंदो 9 दसमो पुण पाणओऽत्थ देविंदो 10 / आरण एक्कारसमो 11 बारसमो अच्चुओ इंदो 12 // 165 // एए बारस इंदा कप्पवई कप्पसामिया भणिया। आणाईसरियं वा तेण परं नत्थि देवाणं // 166 / / [गेवेञ्जऽणुत्तरेसु इंदाभावो, अनलिंगि-दसणवावन्नाणं गेवेज पज्जंतुववायपरूवणं च ] तेण परं देवगणा सयइच्छियभावणाइ उववन्ना। गेविज्जेहिं न सक्का उववाओ अन्नलिंगेणं // 167 / / जे दंसणवावन्ना लिंगग्गहणं करेंति सामण्णे / तेसि पि य उववाओ उक्कोसो जाव गेवेज्जा // 168 / / [वेमाणियइंदाणं विमाणसंखा ] इत्थ किर विमाणाणं बत्तीसं वण्णिया सयसहस्सा / सोहम्मकप्पवइणो सक्कस्स महाणुभागस्स 1 // 169 // 1. साम्प्रतकाले आनतप्राणतयुगल-आरणाच्युतयुगलस्यैकैकेन्द्रसङ्कीर्तनाद् कल्पवै. मानिकानां 'दशैव इन्द्राः' इति प्रसिद्धिरस्ति / किश्चात्र प्रकोण के कल्पवैमानिकानां द्वादश इन्द्रा वय॑न्त इति समवधेयं जिनागमज्ञैरिति / Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रस्तव [कल्प वैमानिक देवों के बारह इन्द्र] 162. मेरे द्वारा ( यह ) भवनपति, वाणव्यंतर और ज्योतिषिक (देवों) की स्थिति कही गयो है / (अब) महान ऋद्धि वाले बारह कल्पपति इन्द्रों (के विवरण) को कहूँगा। 163. (तब वह इस प्रकार) कहने लगा-पहला सौधर्मपति, दूसरा ईशानपति इन्द्र, उसके बाद ( तीसरा ) सनत्कुमार और चतुर्थ माहेन्द्र ( इन्द्र ) है। 164. यहां पाचवाँ ब्रह्म, छठा लान्तक, सातवाँ महाशुक्र और आठवाँ सहस्रार देवेन्द्र होता है। 165. नवा आणत, दसवाँ प्राणत, ग्यारहवां आरण और बारहवाँ अच्युत इन्द्र ( होता है)। ... 166. . इस प्रकार ये बारह कल्पपति इन्द्र कल्पों के स्वामी कहे गये हैं। इनके अतिरिक्त देवों को आज्ञा देने वाला दुसरा कोई नहीं (है)। . [अनुत्तर विमान एवं प्रैवेयकों में इन्द्रों का अभाव; सम्यदर्शन से ध्युत एवं अन्यलिङ्गी को गैवेयक पर्यन्त उत्पत्ति का निरूपण] 167. ( कल्पवासी देवों के कार ) जो देवगण है, वे स्वशासित . भावनाओं से उत्पन्न होते हैं, क्योंकि ग्रेवेयक में अन्य रूप (दास भाव या स्वामी भाव ) से उत्पत्ति संभव नहीं ( हैं ) / .. .168. जो सम्यकदर्शन से गिरे हुए ( होकर भी जो ) श्रमण-लिङ्ग धारण करते हैं, उनकी भी उत्पति उत्कृष्ट ( रूप में ) ग्रैवेयक तक ही ( होती है ) / [वैमानिक इन्द्रों को विमान संख्या] 169. यहां सोधर्मकल्पपति शक महानुभाव के बत्तीस लाख विमानों का कथन किया गया (है)। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ ईसाणकप्पवइणो अट्ठावीसं भवे सयसहस्सा 2 / / बारस य सयसहस्सा कप्पम्मि सणंकुमारम्मि 3 // 170 / / अद्वैव सयसहस्सा माहिदम्मि उ भवंति कप्पम्मि 4 / चत्तारि सयसहस्सा कप्पम्मि उ बंभलोगम्मि 5 // 171 // इत्थ किर विमाणाणं पन्नासं लंतए सहस्साई 6 / . .. चत्ता य महासुक्के 7 छच्च सहस्सा सहस्सारे 8 // 172 / / आणय-पाणयकप्पे चत्तारि सयाऽऽरणऽच्चुए तिन्नि॥११-१२ / सत्त विमाणसयाई चउसु वि एएसु कप्पेसु // 173 // एयाई विमाणाई कहियाई जाई जत्थ कप्पम्मि / कप्पवईण वि सुंदरि ! ठिईविसेसे निसामेहि // 174 / / 1 [वेमणियइंदाणं ठिई ] . . दो सागरोवमाई सक्कस्स ठिई महाणुभागस्स 1 / साहीया ईसाणे 2 सत्तेव सणंकुमारम्मि 3 // 175 // माहिंदे साहियाइ सत्त य 4 दस चेव बंभलोगम्मि 5 / . चोड्स' लंतयकप्पे 6 सत्तरस भवे महासुक्के 7 // 176 // कप्पम्मि सहस्सारे अट्ठारस सागरोवमाइ ठिई 8 / आणय एगुणवीसा 9 वीसा पुण पाणए कप्पे 10 // 177 // पुण्णा य एक्कवीसा उदहिसनामाण आरणे कप्पे.११ / अह अच्चुयम्मि कप्पे बावीसं 'सागराण ठिई 12 // 178 // 1. चुद्दस लंतइकप्पे प्र० हं। चउदस लतइकप्पे सा० // 2. एगूणाऽऽणयकप्पे 9. प्र० हं० सा० // 3. सागरोवमाइं ठिई सं० // Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रस्तव 170. ईशान कल्पपति (इन्द्र) अठ्ठाईस लाख (विमानों के स्वामी) होते हैं और सनत्कुमार कल्प में बारह लाख (विमान होते हैं) / 171. इसी तरह माहेन्द्र कल्प में आठ लाख (विमान) होते हैं। (और) ब्रह्म लोक कल्प में चार लाख (विमान होते हैं)। 172. लान्तक पचास हजार विमानों के (स्वामी होते हैं), महाशुक्र चालीस (लाख विमानों के स्वामी होते हैं) और सहस्रार छः हजार (विमानों के स्वामी होते हैं ) / 173. आणत प्राणत कल्प में चार सौ ( विमान ), आरण अच्युत कल्प में तीन (सो विमान होते हैं, इस प्रकार) इन चार कल्पों में (400 + 300) सात सौ विमान होते हैं। 174. इस प्रकार हे सुन्दरी ! जिस कल्प में जितने विमान कहे गये (हैं), उ न(के) कल्पपति (देवों) की स्थिति विशेष को सुनो। [वैमानिक देवों की स्थिति] 175. (सौधर्म कल्प के इन्द्र) शक महानुभाग की स्थिति दो सागरोपम ( कही गयी है ), ( इसी प्रकार ) ईशान कल्प में दो ( सागरोपम से ) कुछ अधिक एवं सनत्कुमार में सात (सागरोपम की स्थिति कही गयी है)। ___ 176. माहेन्द्र में सात (सागरोपम से) कुछ अधिक ‘ब्रह्मलोक में दस सागरोपम, लान्तक कल्प में चौदह (सागरोपम) और महाशुक्र में सत्तरह * (सागरोपम की स्थिति) होती है / 177. (इसी प्रकार) सहस्रार कल्प में अठारह सागरोपम की स्थिति, आणत में उन्नीस और प्राणत कल्प में बीस (सागरोपम की स्थिति होती है)। 178. आरण कल्प में पूर्ण इक्कीस सागरोपम ( की स्थिति ) और अच्युत कल्प में बाइस सागरोपम की स्थिति होती है / Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ एसा कप्पवईणं कप्पठिई वणिया समासेणं / गेवेजऽणुत्तराणं सुण अणुभागं विमाणाणं // 179 // [गेवेञ्जगदेवाणं नाम-विमाणसंखा-ठिइआइ ] तिण्णेव य गेवेजा हिदिल्ला 1 मज्झिमा 2 य उवरिल्ला 3 / एक्केक्कं पि य तिविहं, एवं नव होति गेवेजा / / 180 // सुदंसणा 1 अमोहा 2 य सुप्पबुद्धा 3 जसोधरा 4 / . वच्छा 5 सुवच्छा 6 सुमणा 7 सोमणसा 8 पियदसणा 9 . // 181 // एक्कारसुतरं हेट्ठिमए, सत्तुतरं च मज्झिमए / सयमेगं उवरिमए, पंचेव अणुत्तरविमाणा // 182 // हेद्विमगेवेजाणं तेवोसं सागरोवमाई ठिई / एककेकमारुहिज्जा अट्ठहिं सेसेहिं नमियंगि ! // 183 // [अणुत्तरदेवाणं नाम-विमाण-ठाण-ठिइआइ] . विजयं 1 च वेजयंत 2 जयंत 3 मपराजियं 4 च बोद्धव्वं / सव्वट्ठसिद्धनामं 5 होइ चउण्हं तु मज्झिमयं // 184 / / पुव्वेण होइ विजयं, दाहिणओ होइ वेजयंतं तु / अवरेणं तु जयंतं, अवराइयमुत्तरे पासे / / 185 // एएसु विमाणेसु उ तेत्तोस सागरोवमाइं ठिई। सब्वट्ठसिद्धनामे अजहन्नुक्कोस तेत्तोसा // 186 // [गेवेजगाऽणुत्तरदेवविमाणाण आगारो] हेछिल्ला उवरिल्ला दो दो जुवलऽद्धचंदसंठाणा / पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिया मज्झिमा चउरो // . 187 / / Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रस्तव 179. यह कल्पपतियों के कल्पों की (आयु) स्थिति यथाक्रम से वर्णित की गयी (है)। अब अनुत्तर और ग्रैवेयक विमानों के विभाग को सुनो। 180. अधो, मध्यम और उर्ध्व ( ये ) तीन ग्रैवेयक ( हैं ) प्रत्येक के तीन प्रकार ( होते हैं ) इस प्रकार ग्रेवेयक नौ होते हैं। 181, सुदर्शन, अमोघ, सुप्रबुद्ध, यशोधर, वत्स, सुवत्स, सुमनस, सोमनस और प्रियदर्शन (ये नौ ग्रेवेयक देवों के नाम हैं)। 182. नीचे ( वाले ग्रेवेयकों ) में एक सौ ग्यारह, बीच (के ग्रैवेयकों) में एक सौ सात, ऊपर ( वाले प्रेवेयकों ) में एक सौ और अनुत्तरोपपातिक (देवों के) पांच विमान (कहे गये हैं ) / 183. हे नमिताङ्गि! सबसे नीचे वाले ग्रेवेयक देवों की ( आयु ) स्थिति तेईस सागरोपम ( होती है ) शेष आठ में ( यह स्थिति क्रमशः) एक-एक ( सागरोपम ) बढ़ती है। [अनुत्तर देवों के नाम, विमान, स्थान, स्थिति आदि) 184-185. विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित (ये चार विमान अनुत्तर देवों के जानने चाहिए ) ( इनमें से ) पूर्व दिशा की ओर वैजयन्त ( विमान ) होता है, पश्चिम दिशा की ओर जयन्त ( विमान और ) उत्तर दिशा के पार्श्व में अपराजित ( विमान होता है)। इन चारों के मध्य में सर्वार्थसिद्ध ( विमान ) होता है। 186. इन सब विमानों में ( देवों की) स्थिति तैंतीस सागरोपम * ' ( कही गयी है ) / सर्वार्थसिद्ध ( विमानों के देवों की स्थिति ) अजघन्य अनुत्कृष्ट (जघन्य और उत्कृष्ट भेद से रहित) तैंतीस (सागरोपम) (कही गयी है)। [अनुत्तर वेयक देव-विमानों के आगार] 187. नीचे ऊपर दो-दो कल्पयुगल आधे चन्द्र के आकार ( वाले हैं ) ( और ) बीच वाले चार (कल्प ) पूर्ण चन्द्र के आकार में स्थित ( हैं)। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ गेवेजावलिसरिसा गेवेज्जा तिण्णि तिण्णि आसन्ना / 'हुल्लुयसंठाणाई अणुत्तराई विमाणाई / / 188 // [वेमाणियदेवविमाणाणं पइट्ठाणं] घणउदहिपइट्ठाणा सुरभवणा दोसु होंति कप्पेसुं। . तिसु वाउपइट्ठाणा, तदुभयसुपइट्ठिया तिन्नि / / 189 / / तेण परं उवरिमया आगासंतरपइट्ठिया सव्वे / एस पइट्ठाणविही उड्ढं लोए विमाणाणं / / 190 / / [ देवाणं लेसाओ] किण्हा-नीला-काऊ-तेऊलेसा य भवण-वंतरिया। जोइस-सोहम्मोसाणे तेउलेसा मुणेयव्वा // 191 // कप्पे सणंकुमारे माहिंदे चेव बंभलोगे य। एएसु पम्हलेसा, तेण परं सुक्कलेसा उ // 192 / / कणगत्तयरत्ताभा सुरवसभा दोसु होंति कप्पेसु / तिसु होति पम्हगोरा, तेण परं सुक्किला देवा // 193 // [ देवाणं उच्चत्तं-ओगाहणा] भवणवइ-वाणमंतर-जोइसिया होंति सत्तरयणीया। कप्पवईण य सुंदरि ! सुण उच्चत्तं सुरवराणं // 194 // सोहम्मे ईसाणे य सुरवरा होंति सत्तरयणीया / दो दो कप्पा तुल्ला दोसु वि परिहायए रयणी // 195 // 1. दुल्लय हं० / दुल्लइ प्र० / दुल्लह सं० // 2. °णऽइं ! सुंदरि ! सा०॥ 3. सोहम्मीसाणसुरा हुंती सव्वे वि सत्त° हं० / सोहम्मोसाणंसुरा उच्चते हुति सत्त प्र० सा०॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रस्तव 188. तीन-तीन पंक्तियों में ग्रेवेयक देवों के विमान होते हैं। अनुत्तरोपपातिक देवों के विमान हुल्लक ( पुष्प ) के आकार वाले ( होते हैं ) / [वैमानिक देव विमानों के आधार] 189. (सौधर्म और ईशान) दोनों कल्पों में देवविमान घनोदधि पर प्रतिष्ठित (हैं), (सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्म इन) तीनों कल्पों में (देव विमान) वायु पर प्रतिष्ठित (हैं) और लान्तक, महाशुक्र और सहस्त्रार कल्प इन) तीनों (के विमान) (घनोदधि व घनवात) दोनों के आधार पर प्रतिष्ठित (हैं)। 190. उससे उत्तरवर्ती सभी (विमान) पर अवकाशान्तर पर प्रतिष्ठित (हैं)। उर्ध्व लोक में विमानों की यह आधार विधि (कही गयी है)। - [देवों की लेश्याएँ] 191. भवनपति और व्यन्तरिक (देवों में) कृष्ण, नोल, कापोत और तेजोलेश्या (होती है) / ज्योतिष्क, सौधर्म और ईशान (देव) में तेजोलेश्या कही गयी है। 192. इन सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्मलोक कल्प में पद्म लेश्या (होती है), इनके उपर के विमानों में शुक्ल लेश्या (होती है)। . 193. (सौधर्म व ईशान) दोनों कल्पों वाले देवों में वर्ण तपे हुए सोने जैसे होते हैं / (सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्म इन) तोनों (कल्पों के देवों का वर्ण) पद्म की तरह गोरा है और इनसे ऊपर (के देव) शुक्ल (वर्ण वाले होते हैं)। .. [देवताओं की ऊंचाई और अवगाहना] 194. भवनपति, वाणव्यन्तर और ज्योतिषिक (देवों को ऊँचाई) सात रनि (प्रमाण) होती हैं। हे सुन्दरो ! (अब) उत्कृष्ट कल्पपति देवों को ऊंचाई को सुनो। 195. सौधर्म व ईशान देव सात रत्नि (प्रमाण ऊँचाई वाले) होते हैं। दो-दो कल्प समान होते हैं और दो-दो में एक रत्नि नाप कम (होता जाता है)। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 देविदत्थओ गेवेज्जेसु य देवा रयणीओ दोन्नि होंति उच्चा उ। रयणी पुण उच्चत्तं अणुत्तरविमाणवासीणं // 196 // कप्पाओ कप्पम्मि 'उ जस्स ठिई सागरोवमऽब्भहिया / 'उस्सेहो तस्स भवे इक्कारसभागपरिहीणो // 197 / / जो य विमाणुस्सेहो "पुढवीण य जं च होइ बाहल्लं। / दोण्हं पि तं पमाणं बत्तीसं जोयणसयाइ॥ 198 / / ... [देवाणं पवीयारणा] भवणवइ-वाणमंतर-जोइसिया हुंति कायपवियारा / कप्पवईण वि सुंदरि ! वोच्छं पवियारणविही उ 199 // सोहम्मीसाणेसु च सुरवरा होंति कायपवियारा / सणंकुमार-माहिदेसु 'फासपवियारया देवा / / 200 // बंभे लंतयकप्पे य सुरवरा होंति 'रूवपवियारा / महसुक्क-सहस्सारेसु सद्दपवियारया देवा // 201 // आणय-पाणयकप्पे आरण तह अच्चुएसु कप्पम्मि / देवा मणपवियारा परओ पवियारणा नत्थि // 202 // [ देवाणं गंधो दिठ्ठी य] गोसीसाऽगुरु-केययपत्ता -पुन्नाग-बउलगंधा य। चंपय-कुवलयगंधा तगरेलसुगंधगंधा य // 203 // 1. य सं० / / 2. उस्सेहे तस्स भवे एक्कारसभागपरिहाणी हं० / उस्सेहे तस्स भवे एवकारसभागपरिहीणा सं० प्र०॥ 3. वीण इ जं प्र० / वीणं जं सा० // 4. परिया' सं०॥ 5. °साणेसुं सु° सं० विना / / 6. रूयपरिया सं० // 7. °रा तेण वरेणं अपवियारा हं० / °रा तेण परं तू अपवियारा प्र०॥ 8. पत्ते पु० सं० // Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रस्तव 196. अवेयकों में दो रनि प्रमाण ऊंचाई वाले देव होते हैं / अनुत्तर विमानवासी देवों की ऊंचाई एक रत्नि प्रमाण (होती है)। 197. एक कल्प से दूसरे कल्प (में देवों) की स्थिति (एक) सागरोपम से अधिक (होती है), और उस (कल्प) की ऊंचाई (उससे) ग्यारह भाग कम होती है। 198. विमानों की जो ऊंचाई है और (उनकी) पृथ्वी की जो मोटाई है, उन दोनों का प्रमाण बत्तीस सी योजन (होता है)। ... [ देवताओं की काम-क्रीडा] 199. भवनपति, वाणव्यंतर और ज्योतिषिक (देवों की) काम-क्रोड़ा शारीरिक होती है। हे सुन्दरी ! (अब) कल्पपतियों की कामक्रीड़ा विधि को कहूंगा। 200. सौधर्म व ईशान (कल्पों) में जो देव है, (उनकी) कामक्रीड़ा शरीर के द्वारा होती है और सनत्कुमार व माहेन्द्र (कल्पों) में (जो) देव (है, उनकी) कामक्रीडा स्पर्श के द्वारा (होती है)। 201. ब्रह्म और लान्तक कल्प में (जो) देव (हैं, उनकी) कामक्रीड़ा रूप के द्वारा होती हैं / महाशुक्र और सहस्रार (कल्पों) में (जो) देव (हैं), (उनकी) कामक्रीडा स्वर के द्वारा (होती है)। . 202. आणत, प्राणत कल्प में तथा आरण, अच्युत कल्प में (जो) देव (हैं, उनकी) मन के द्वारा कामक्रीड़ा (होती है) और जो दूसरे (देव है, उनके) कामक्रीड़ा नहीं होती है)। [देवताओं की गंध और दृष्टि ] . 203. गोशीर्ष, अगरू, केतकी के पत्ते, पुन्नाग का फूल, बकुल (पुष्प) की गंध, चंपक व कमल की गंध, और तगर आदि की सुंगध (देवताओं में होती है)। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ एसा णं गंधविही उवमाए वण्णिया समासेणं / दोट्ठीए वि य तिविहा थिर सुकुमारा य फासेणं // 204 // [आवलिय-पइण्णयविमाणाणं संखा अंतरं च ] तेवीसं च विमाणा चउरासीइ च सयसहस्साई। ... सत्ताणउइ सहस्सा उड्ढेलोए विमाणाणं 8497023 // 205 // अउणाणउइ सहस्सा चउरासीइ च सयसहस्साइ / एग्णयं दिवढं सयं च पुप्फावकिण्णाणं 8489149 // 206 // सत्तेव सहस्साइ सयाई चोवत्तराई अट्ठ भवे 7874 / आवलियाइ विमाणा, सेसा पुप्फावकिण्णा णं / / 207 // आवलियविमाणाणं तु अंत्तरं नियमसो असंखेनं। संखेजमसंखेज्जं भणियं पुप्फावकिन्नाणं / / 208 // [ आवलियाइविमाणाणं आगारा कमो य] आवलियाइ विमाणा वट्टा लंसा तहेव चउरंसा / पुप्फावकिण्णया पुण अणेगविहरूव-संठाणा / / 209 // वढें थ वलयगं पिव, तंसा सिंघाडयं पिव विमाणा / 'चउरंसविमाणा पुण अक्खाडयसंठिया भणिया // 210 // पढमं वट्टविमाणं, बीयं तंसं, तहेव चउरंसं / एगंतरचउरंस, पुणो वि वट्ट, पुणो तंसं // 211 // 1. एया णं सं० हं० // 2. °स्सा य सं०॥ 3. आवलियाइ विमाणाण अंतरं प्र० सा० // 4. °याय वि सं० // 5. पुण चउरंसविमाणा अ° प्र०॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रस्तव - 204. यह गंधविधि संक्षेप से उपमा के द्वारा कही गयी है / (देवता) दृष्टि की अपेक्षा से स्थिर और स्पर्श की अपेक्षा से सुकुमार (होते हैं)। [प्रकीर्णक विमानों को श्रेणी, संख्या और अंतर ] 205. उर्ध्व लोक में विमानों की (संख्या) चौरासी लाख सत्तानवे हजार तेईस (कही गयी है)। 206. (इनमें) पुष्प की आकृति वाले (विमानों की संख्या) चौरासी लाख नवासी हजार एक सौ उनपचास (कही गयी हैं)। 207. श्रेणी बद्ध विमान सात हजार आठ सौ चौहत्तर होते है / शेष विमान पुष्प कणिका की (आकृति वाले हैं)। 208. विमानों की पंक्ति का अन्तर निश्चय से असंख्यात (योजन कहा गया है) और पुष्प-कणिका (की आकृतिवाले विमानों का अंतर) . संख्यात-असंख्यात (योजन) कहा गया है / [ आवलिका विमानों का आकार और क्रम ] 209. आवलिका (प्रविष्ट) विमान गोलाकार, त्रिभुजाकार और चतुर्भूजाकार (तीन प्रकार के होते हैं), पुनः पुष्पकणिका की संरचना (वाले विमान) अनेक आकार के (कहे गये हैं)। 210. वर्तुलाकार विमान के आकार कंकण को तरह, तीन कोण वाले विमान शृङ्गाटक की तरह और चतुष्कोण वाले विमान अखाड़े के आकार वाले कहे गये हैं। ___ 211. पहले वर्तुलाकार विमान, उसके अनन्तर त्रिभुजाकार विमान, उसके बाद चार कोण वाले विमान (होते हैं) (फिर) एक अन्तर के (पश्चात्) पुनः चतुष्कोण, पुनः वर्तुलाकार और पुनः त्रिभुजाकार (वाले विमान होते हैं। - * एक रत्नि लगभग एक मुण्ड हाथ या 13 फुट के बराबर होती है / Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ वर्ल्ड वस्सुवरि, तंसं तंसस्स 'उप्परि होइ। चउरसे चउरंसं, उड्ढं तु विमाणसेढीओ // 212 / / ओलंबयरज्जूओ सव्वविमाणाण होंति समियाओ। उवरिम-चरिमंताओ हेट्ठिल्लो जाव चरिमंतो // 213 / / [कप्पवइविमाणाणं सरूवं] पागारपरिक्खिता वट्टविमाणा हवंति सव्वे वि / चउरंसविमाणाणं चउद्दिसिं वेइया भणिया // 214 / / जत्तो वट्टविमाणं तत्तो तंसस्स वेइया होइ / पागारो बोधव्वो अवसेसाणं तु पासाणं / / 215 / / जे पुण वट्टविमाणा एगदुवारां हवंति सव्वे वि। तिन्नि य तंसविमाणे, चत्तारि य होंति चउरंसे // 216 / / [ भवणवइ-वाणमंतर-जोइसियाणं भवण-नगर-विमाणसंखा ] सत्तेव य कोडीओ हवंति बावत्तरि सयसहस्सा / एसो भवणसमासो भोमेजाणं सुरवराणं // 217 / / तिरिओववाइयाणं रम्मा भोमनगरा असंखेज्जा / तत्तो संखेजगुणा जोइसियाणं विमाणा उ // 218 // [चउविहदेवाणं अप्पबहुत्तं] . थोवा विमाणवासी, भोमेज्जा वाणमंतर मसंखा / तत्तो संखेजगुणा जोइसवासी भवे देवा / / 219 // [वेमाणियदेवीणं विमाणसंखा ] पत्तेयविमाणाणं देवीणं छब्भवे सयसहस्सा / सोहम्मे कप्पम्मि उ, ईसाणे होंति चत्तारि // 220 / / 1. उप्परे सं० / उप्परं प्र० // 2. उवलंबयर' प्र०॥ 3. भोमेज्जाणं भवनपतीनामित्यर्थः / / Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रस्तव 212. विमानों की पंक्तियाँ वर्तुलाकार के ऊपर वर्तुलाकार, त्रिभुजाकार के ऊपर त्रिभुजाकार और चतुर्भुजाकार के अर चतुर्भुजाकार (होती हैं)। 213. सभी विमानों की अवलम्बन रज्जु पर से नीचे तक और एक छोर से दूसरे छोर तक समान होती हैं। [कल्पपति विमानों का स्वरूप ] 214. सभी वर्तुलाकार विमान प्राकार से घिरे हुए होते हैं। (और) चार कोण वाले विमान चारों दिशाओं में वेदिका (युक्त) कहे गये हैं। 215. जिधर वर्तुलाकार विमान होते हैं, उधर ही त्रिभुजाकार विमानों की वेदिका होती है, शेष पार्श्व भाग में प्राकार (होते हैं)। __216. सभी वर्तुलाकार विमान एक द्वार वाले होते हैं / त्रिभुजाकार विमान में तीन और चतुर्भुजाकार विमान में चार (दरवाजें) होते हैं / [भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषिक के भवन, नगर और विमान संख्या 217. भवनपति देवों के सात करोड़ बहत्तर लाख (भवन) होते हैं / यह भवनों का संक्षिप्त कथन (है)।। 218. तिर्यञ्च लोक में उत्पन्न होने वाले वाणव्यंतर देवों के असंख्यात भवन (होते हैं) उससे संख्यात गुणा (अधिक) ज्योतिषी देवों के विमान (होते हैं)। . . [चतुर्विध देवों का अल्पबहुत्व ] 219. विमानवासी देव अल्प (संख्यक हैं), (उनको अपेक्षा) व्यंतरदेव असंख्यात गुना (अधिक है), (उनसे) संख्यात गुना (अधिक) ज्योतिष्क देव हैं। [वैमानिक देवियों को विमानसंख्या ] 220. सौधर्म कल्प में देवियों के पृथक् विमानों की (संख्या) छ: लाख होती हैं और ईशान कल्प में चार लाख होती हैं। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 देविदत्थओ [ अणुत्तरदेवाणं विमाणसंखा सद्दाइअणुभागो य] पंचेवणुत्तराई' अणुत्तरगईहिं जाई दिट्ठाई। जत्थ अणुत्तरदेवा भोगसुहं अणुवमं पत्ता // 221 / / जत्थ अणुत्तरगंधा तहेव रूवा अणुत्तरा सदा / अच्चित्तपोग्गलाणं रसो य फासो य गंधो य // 222 // . . पप्फोडियकलिकलुसा पप्फोडियकमलरेणुसंकासा / वरकुसुममहुकरा इव २सुहमयरंदं निघोट्टति // 223 // वरपउमगंब्भगोरा सव्वेते एगगब्भवसहीओ। गब्भवसहीविमुक्का सुंदरि ! सुक्खं अणुहवंति // 224 // [देवाणं आहार-ऊसासा] तेत्तीसाए सुंदरि ! वाससहस्सेहिं होइ पुण्णेहिं / ४आहारो देवाणं अणुत्तरविमाणवासीणं / / 225 / / सोलसहि सहस्सेहिं पंचेहिं सएहिं होइ पुण्णेहिं / आहारो देवाणं मज्मिममाउं धरेताणं // 226 // दस वाससहस्साई जहन्नमाउं धरंति जे देवा। तेसि पि य आहारो चउत्थभत्तेण बोधव्वो // 220 / / संवच्छरस्स सुंदरि ! मासाणं अद्धपंचमाणं च / "उस्सासो देवाणं अणुत्तरविमाणवासीणं // 228 / / अट्ठमेहिं राइदिएहिं अट्ठहि य सुतणु ! मासेहिं / उस्सासो देवाणं मज्झिममाउं धरताणं / / 229 / 1. राणं अणु° सं० // 2. अप्फोडिय' हं० // 3. सुखमकरन्दं आस्वादयन्ति / / 4. आहारो बहि देवाऽणु सं० प्र०। आहारावहि देवाऽणु' हं० सा० // 5. पन्नेहिं सं० हं० // 6. ऊसासो सं० हं० // Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रस्तव [अनुत्तर देवों को विमान संख्या, शब्द और स्वभाव ] 221. पाँच प्रकार के अनुत्तर देव गति, जाति और दृष्टि की अपेक्षा से श्रेष्ठ हैं और अनुपम विषय-सुख को प्राप्त (करते है)। 222. (अनुत्तर विमानों में देवों के ) जिस प्रकार सर्वश्रेष्ठ गंध, रूप और शब्द होते हैं, उसी प्रकार अचित्त पुद्गलों के भी (सर्वश्रेष्ठ) रस, स्पर्श और गंध (होती है)। 223. जैसे भँवरा प्रस्फुटित. कलि, विकसित कमल रज और श्रेष्ठ कुसुम के मकरंद का सुखपूर्वक पान करता है (उसी प्रकार देव भी पौद्गलिक विषयों का सेवन करते हैं)। 224. हे सुन्दरी ! (वे सभी देवता) श्रेष्ठ कमल के समान गौर वर्ण वाले, एक ही उत्पत्ति स्थान में निवास करने वाले (अर्थात् जन्म लेने वाले होते हैं) ( और वे ) उस उत्पत्ति स्थान से विमुक्त होकर सुख का अनुभव करते हैं। [ देवों का आहार और उच्छ्वास ] 225. हे सुन्दरी ! अनुत्तर विमानवासी देवों की तैंतीस हजार वर्ष पूर्ण होने पर आहार (ग्रहण करने की इच्छा) होती है / . 226. मध्यवर्ती आयु को धारण करने वाले देव सोलह हजार पाँच . सौ वर्ष पूर्ण होने पर आहार ग्रहण करते हैं / 227. जो देव दस हजार वर्ष की आयु को धारण करते हैं, उनमें आहार एक-एक दिन के अन्तर से होता है। 228. हे सुंदरी ! एक वर्ष और साढ़े चार माह में अनुत्तरविमानवासी देवों के उच्छ्वास ( होता है ) / 229. हे सुतनु ! मध्यम आयु को धारण करने वाले देवताओं के आठ माह साढ़े सात रात-दिन के होने पर उच्छ्वास (होता है)। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ सत्तण्हं थोवाणं पुण्णाणं पुण्णयंदसरिसमुहे' ! / ऊसासो देवाणं जहन्नमाउं धरेताणं / / 230 / / जइसागरोवमाई जस्स ठिई तत्तिएहिं पक्खेहिं / ऊसासो देवाणं, वाससहस्सेहिं आहारो // 231 // आहारो ऊसासो एसो मे वन्निओ समासेणं / . .. सुहुमंतरा य नाहिसि सुंदरि ! अचिरेण कालेण / / 232 // [वेमाणियदेवाणं ओहिनाणविसओ ] एएसिं देवाणं विसओ ओहिस्स होइ जो जस्स / तं सुंदरि ! वण्णे हं अहक्कम आणुपुव्वोए // 233 / / सक्कीसाणा पढमं दोच्चं च सणंकुमार-माहिंदा / तच्चं च बंभ-लंतग सुक्क-सहस्सारय चउत्थिं // 234 / / आणय-पाणयकप्पे देवा पासंति पंचमि पुढवि / तं चेव आरण-ऽच्चुय ओहिनाणेण पासंति // 235 / / छट्ठि हिदिम-मज्झिमगेवेज्जा सत्तमि च उवरिल्ला / संभिन्नलोगनालिं पासंति अणुत्तरा देवा // 236 // संखेज्जजोयणा खलु देवाणं अद्धसागरे ऊणे / तेण परमसंखेजा जहन्नयं पन्नवीसं तु // 237 // तेण परमसंखेज्जा तिरियं दोवा य सागरा चेव / बहुययरं उवरिमया, उड्ढं तु सकप्पथूभाई // 238 // 1. °ण्णइंदस प्र० हं० / °ण्णइंदुस° सा० // 2. °वाणं ओही उ विसेसओ ऊ जो जस्स प्र० सा० / वाणं ओहिस्स विसेसो उ जो जस्स हं०॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 57 देवेन्द्रस्तव 230. हे चन्द्रमुखी ! जघन्य आयु को धारण करने वाले देवों का उच्छ्वास सात स्तोकों (काल का माप विशेष) के पूर्ण होने पर (होता है)। __231. देवताओं में जितनी सागरोपम की जिसकी स्थिति ( हैं ), उतने ही पक्षों में (वे) उच्छ्वास ( लेते है ) और उतने ही हजार वर्षो में ( उनको ) आहार (ग्रहण करने) की इच्छा ( होती है ) / 232. यह ( देवों के ) आहार और उच्छ्वास मेरे द्वारा ( संक्षेप में ) वर्णित किया गया / हे सुंदरी! अब शीघ्र इनके सूक्ष्म अन्तर को क्रमशः कहूंगा। 1 [वैमानिक देवों का अवधिज्ञान विषय ] 233. हे सुन्दरी ! इन देवों का जो विषय जितनी अवधि का होता है, उसका मैं आनुपूर्वी पूर्वक यथाक्रम से वर्णन करूंगा। 234-236. सौधर्म व ईशान देव (नोचे को ओर) पहले ( नरक तक को), सनत्कुमार और माहेन्द्र दूसरे (नरक तक को), ब्रह्म व लान्तक देव तीसरी ( नरकतक को ), शुक्र व सहस्त्रार चौथो ( नरकतक को) तथा आणत व प्राणत कल्प के देव पाँचवी ( नरक ) पृथ्वो तक को देखते हैं। और उसी प्रकार आरण व अच्युत ( देव भो ) (पांचवीं पृथ्वो तक को), नीचे व मध्यवर्ती ग्रैवेयक ( देव ) छठी (नरकतक को), उध्वं स्थित (अवेयक देव) सातवीं (नरकतक को) और (पाँच) अनुत्तर देव अवधिज्ञान से सम्पूर्ण लोक नाड़ी को देखते हैं। . 237. अर्द्धसागरोपम से कम ( आयु वाले ) देवों के ( अवधिज्ञान का विषय तिर्यक दिशा में ) संख्यात योजन ( होता है ), उससे अधिक पच्चीस ( सागरोपम की आयु वाले देवों के अवधिज्ञान का विषय भी) कम से कम संख्यात् योजन ( होता है ) / 238. उसके ऊपर की आयु वाले देव तिर्यक् दिशा में असंख्यात द्वीप और समुद्र ( तक जानते हैं ) / (अपने से) ऊपर सब अपने कल्प के स्तूपों ( की उँचाई तक जानते हैं ) / Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविंदत्थओ नेर य-देव-तित्यंकरा य ओहिस्सऽबाहिरा होति / पासंति सव्वओ खलु, सेसा देसेण पासंति / / 239 / / ओहिन्नाणे विसओ एसो मे वण्णिओ समासेणं / बाहल्लं उच्चतं विमाणवन्नं पुणो वोच्छं // 240 // [वेमाणियदेवाणं विमाण-आवास-पासाय-वय-ऊसाससरीराइ वण्णणं] सत्तावीसं जोयणसयाई पुढवीण' होइ बाहल्लं / सोहम्मीसाणेसु रयणविचित्ता य सा पुढवी // 241 // तत्थ विमाण बहुविहा पासाया य मणिवेइयारम्मा / वेरुलियथूभियागा रयणामयदामऽलंकारा // 242 // केइत्थऽसियविमाणा अंजणधाऊसमा सभावेणं / अद्दयरिट्ठयवण्णा' जत्थाऽऽवासा सुरगणाणं / / 243 // केइ य हरियविमाणा मेयगधाउसरिसा सभावेणं / मोरग्गीवसवण्णा जत्थाऽऽवासा सुरगणाणं // 244 // दीवसिहसरिसवण्णित्थ केइ जासुमण-सूरसरिवन्ना / हिंगुलुयधाउवण्णा' जत्थाऽऽवासा सुरगणाणं / / 245 // कोरिटधाउवण्णऽत्थ केइ फुल्लकणियारसरिवण्णा / हालिद्दभेयवण्णा जत्थाऽऽवासा सुरगणाणं / / 246 / / अविउत्तमल्लदामा निम्मलगत्ता सुगंधनीसासा / सव्वे अवट्ठियवया सयंपभा अणिमिसऽच्छा य // 247 // 1. °ण ताण बा प्र० सा० // 2. धाउसरिसा सभा हं० सा० // 3. दुस वण्णा सा० // 4. केई ह° सं० // 5. मरगयधाउ पु० // 6. वण्णित्वं सा // 7. °लगाया सुप्र० सा० // Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रस्तव 239. अबाह्य ( अर्थात् जन्मना ) अवधिज्ञान को (लिए हुए ) नारकीय, देव और तीर्थंकर होते हैं। वे पूरी तरह देखते हैं और शेष (अवधिज्ञान वाले) अंशों से देखते हैं / ___240. मेरे द्वारा संक्षेप से यह अवधिज्ञान विषयक वर्णन किया गया ( अब ) पुनः विमानों के रंग, मोटाई एवं ऊँचाई को कहूँगा। [वैमानिक देवों के विमान, आवास, प्रासाद, आयु, उच्छ्वास और देह आदि का वर्णन] 241. सत्ताईस सौ योजन पृथ्वी की मोटाई होती है। सौधर्म और ईशान ( कल्पों ) में वह पृथ्वी रत्नों से विचित्रित ( होती है ) / 242. सुन्दर मणियों की वेदिकाओं से युक्त, वैडूर्य मणियों की स्तूपिकाओं से युक्त, रत्नमय मालाओं और अलंकारों से युक्त, बहुत प्रकार के प्रासाद ( उस विमान में होते है ) / - 243. उसमें जो कृष्ण विमान (हैं ), ( वे ) स्वभाव से अंजन धातु के सदृश्य तथा मेष और काक के समान वर्ण वाले ( है ), जिनमें देवताओं का निवास ( है ) / . 244. उनमें जो हरे रंग वाले विमान ( हैं ), ( वे ) स्वभाव से मेदक धातु के सदृश्य तथा मोर की गर्दन के समान वर्ण वाले ( हैं ), जिनमें देवताओं का निवास ( है ) / 245. उनमें कोई दीपशिखा के रंगवाले ( विमान हैं वे ) जपा पुष्प एवं सूर्य के सदृश्य और हिङ्गुल धातु के समान वर्ण वाले ( हैं ) 'जिनमें देवताओं का निवास ( है ) / . ___246. उनमें जो कोई कोरण्ट धातु के समान रंग वाले ( विमान . हैं ), ( वे ) खिले हुए फूल की कणिका के सदृश्य और हल्दी के समान पीले रंग वाले ( है ), जिनमें देवताओं का निवास ( है ) / .. 247. ( ये देव समूह ) कभी न मुरझानेवाली मालाओं वाले, निर्मल देह वाले, सुगन्धित निःश्वास वाले, सभी अवस्थित वय वाले, स्वयं प्रकाशमान और अनिमिष आँखों वाले ( होते है ) / Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविंदत्थओ बावत्तरिकलापडिया उ देवा हवंति सव्वे वि / भवसंकमणे तेसिं पडिवाओ होइ नायव्वो // 248 / / कल्लाणफलविवागा सच्छंदविउव्वियाभरणधारी / आभरण-वसणरहिया हवंति साभावियसरीरा // 249 // 'वत्तुलसरिसवरूवा देवा एक्कम्मि ठिइविसेसम्मि। पच्चग्गहीणमहिया' ओगाहण-वण्णपरिणामाः // 250 // किण्हा नीला लोहिय हालिद्दा सुक्किला विरायंति / पचसए उविद्धा पासाया तेसु कप्पेसु // 251 // तत्थाऽऽसणा बहुविहा, सयणिज्जा य मणिभतिसयचित्ता।। विरइयवित्थडदूसा रयणामयदामऽलंकारा // 252 // 'छव्वीस जोयणसया पुढवोणं ताण होइ बाहल्लं / सणंकुमार-माहिदे रयणविचित्ता य सा पुढवी // 253 // "तत्थ विमाण बहुविहा पासाया य मणिवेइयारम्मा / वेरुलियथूभियागा रयणामयदामऽलंकारा // 254 // तत्थ य नीला लोहिय हालिद्दा सुक्किला विरायति / छ च्च सए उविद्धा पासाया तेसु कप्पेसु // 255 // तत्थाऽऽसणा बहुविहा, सयणिज्जा य मणिभत्तिसयचित्ता। विरइयवित्थडदूसा, रयणामयदामऽलंकारा // 256 // 1. बहुतुल० सं० हं० // 2. ०महिमा सा० // 3. उग्गाहण० प्र० // 4. परिमाणा प्र० सा० // 5. ०डभूसा प्र० हं० सा० // 6. 253 गाथातः 272 पर्यन्ता गाथाः सर्वेष्वप्यादर्शेषु अव्यवस्थिता एव वर्तन्ते, तथापि तद्गतान् पाठभेदानवलोक्य, सम्यगर्थसङ्गति चानुविचिन्त्य ता अत्र व्यवस्थिततया स्थापिताः सन्ति // 7. इयं गाया सर्वास्वपि प्रतिषु नास्ति / 8. 255 गायोतरार्वत आरभ्य 261 पर्यन्ता गाथाः संह० न सन्ति / Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रस्तव 248. सभी देवता बहत्तर कलाओं में पण्डित होते हैं। भवसंक्रमण की प्रक्रिया में उनका प्रतिपात होता है, यह जानना चाहिए ( यानि देवगति से च्युत हो अपने से निम्न जाति में ही जन्म लेते है ) / ___249. शुभ कर्म फल के उदय वाले ( उन देवों का ) स्वाभाविक शरीर वस्त्र व आभूषणों से रहित होता है / ( किन्तु वे ) अपनी इच्छानुरूप विकुर्वित ( वस्त्र और ) आभूषण धारण करनेवाले होते हैं / 250. ( वे देव ) महात्म्य, वर्ण, अवगाहना, परिमाण और आयुमर्यादा आदि स्थितिविशेष में सदैव गोल सरसों के समान एकरूप (होते हैं)। 251. उन कल्पों में काले, नीले, लाल, पीले और शुक्ल (वर्ण वाले ) पांच सौ ऊंचे प्रासाद शोभित होते हैं। 252. वहां पर सैकड़ों मणियों से जटित बहुत प्रकार के आसन, शम्याएँ, सुशोभित विस्तृत, वस्त्र-रत्नमय मालाएं और अलंकार (होते है)। ... 253. सनत्कुमार व माहेन्द्र कुमार ( कल्प ) में पृथ्वी की मोटाई छब्बीस सौ योजन होती है / वह पृथ्वी रत्नों से विचित्रित ( होती है ) / 254. सुन्दर मणियों की वेदिकाओं से युक्त, वैडूर्य मणियों की 'स्तूपिकाओं से युक्त, रत्नमय मालाओं और अलंकारों से युक्त बहुत प्रकार के प्रासाद ( उन विमानों में होते हैं ) / 255. वहाँ उन कल्पों में नीले, लाल, पीले और शुक्ल ( वर्ण वाले ) ___ छः सो ऊँचे प्रासाद शोभित होते हैं / 256. वहां पर सैकड़ों मणियों से जटित, बहुत प्रकार के आसन, शय्याएं, सुशोभित विस्तृत वस्त्र, रत्नमयमालाएँ और अलंकार (होते हैं)। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ पण्णावीसं जोयणसयाइ पुढवीण होइ बाहल्लं / बंभय-लंतयकप्पे रयणविचित्ता य सा पुढवी // 257 // 'तत्थ विमाण बहुविहा पासाया य मणिवेइयारम्मा। वेरुलियथूभियागा. रयणामयदामऽलंकारा / / 258 // लोहिय हालिद्दा पुण सुक्किलवण्णा य ते विरायंति। .. सत्तसए उविद्धा पासाया तेसु कप्पेसु // 259 // 'तत्थाऽऽसणा बहुविहा, सयणिज्जा य मणिभत्तिसयचित्ता / विरइयवित्थडदूसा, रयणामयदामऽलंकारा // 260 // चउवीस जोयणसयाई पुढवीणं तासि होइ बाहल्लं / सुक्के य सहस्सारे रयणविचित्ता य सा पुढवी // 261 // तत्थ विमाण बहुविहा पासाया य मणिवेइयारम्मा / वेरुलिय)भियागा, रयणामयदामऽलंकारा // 262 // हालिद्दभेयवण्णा सुक्किलवण्णा य ते विरायति / अट्ठसते उविद्धा पासाया तेसु कप्पेसु // 263 // तत्थाऽऽसणा बहुविहा, सयणिज्जा य मणिभत्तिसयचित्ता / विरइयवित्थडदूसा, रयणामयदामऽलंकारा // 264 // तेवीस जोयणसयाइ पुढवीणं तासि होइ बाहल्लं / आणय-पाणयकप्पे आरण-ऽच्चुए रयणविचित्ता उ सा पुढवी // 265 // 1. 258 गाथातः 261 पर्यन्ता गाथाः प्रतिषु न वर्तन्ते / किञ्चास्माभिरस्मिन् संशोधनेऽनङ्गीकृते ला० द० विद्यामन्दिरसत्के एकस्मिन्नादर्श एता गाथा उपलभ्यन्ते / श्रीमद्भिः सागरानन्दसूरिभिरपि एतादृशादर्शान्तरादेताः गाथा उपलब्धाः सन्ति / / 2. इयं गाथा कुत्राप्यादर्श न दृश्यते / Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रस्तव 257. ब्रह्म और लान्तक कल्प में पृथ्वी की मोटाई पच्चीस सौ योजन होती है / वह पृथ्वी रत्नों से विचित्रित ( होती है ) / 258. सुन्दर मणियों की वेदिकाओं से युक्त, वैडूर्य मणियों को स्तुपिकाओं से युक्त, रत्नमय मालाओं और अलंकारों से युक्त बहुत प्रकार के प्रासाद ( उन विमानों में होते हैं ) / 259. उन कल्पों में लाल, पीले व शुक्ल ( वर्ण वाले ) सात सौ ऊँचे प्रासाद शोभित होते हैं। 260. वहां पर सैकड़ों मणियों से जटित बहुत प्रकार के आसन, शय्याएं, सुशोभित विस्तृत वस्त्र, रत्नमय मालाएँ और अलंकार ( होते हैं)। 261. शुक्र व सहस्त्रार ( कल्प ) में पृथ्वी की मोटाई चौबीस सौ योजन होती हैं। वह पृथ्वी रत्नों से विचित्रित ( होती है)। ____ 262. सुन्दर मणियों की वेदिकाओं से युक्त, वैडूर्य मणियों की स्तूपिकाओं से युक्त, रत्नमय मालाओं और अलंकारों से युक्त बहुत प्रकार के प्रासाद ( उन विमानों में होते हैं ) / 263. उन कल्पों में पीले व शुक्ल (वर्ण वाले) आठ सौ ऊंचे प्रासाद शोभित होते हैं। 264. वहाँ पर सैकड़ों मणियों से जटित, बहुत प्रकार के आसन शय्याएँ, सुशोभित विस्तृत वस्त्र, रत्नमय मालाएं और अलंकार ( होते हैं)। 265. आणत और प्राणत कल में पृथ्वी को मोटाई तेवीस सौ योजन होती है / वह पृथ्वी रत्नों से विचित्रित ( होती है ) / Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थी तत्थ विमाण बहुविहा पासाया य मणिवेइयारम्मा / वेरुलियथूभियागा, रयणामयदामऽलंकारा // 266 / / संखंकसन्निकासा सव्वे दगरय-तुसारसरिवण्णा। नव य सते उविद्धा पासाया तेसु कप्पेसु // 267 / / तत्थाऽऽसणा बहुविहा, सर्याणज्जा य मणिभत्तिसयचित्ता। .. विरइयवित्थडदूसा, रयणामयदामऽलंकारा // 268 / / बावीस जोयणसयाइपुढवीणं तासि होइ बाहल्लं / गेवेजविमाणेसु, रयणविचित्ता उ सा पुढवी // 269 / / तत्य विमाण बहुविहा, पासाया य मणिवेइयारम्मा। वेरुलियथूभियागा, रयणामयदामऽलंकारा // 270 / / संखंकसन्निकासा सव्वे दगरय-तुसारसरिवण्णा / दस य सए उविद्धा पासाया ते विरायंति // 271 // •तत्थाऽऽसणा बहुविहा, सयणिज्जा य मणिभत्तिसयचित्ता। विरइयवित्थडदूसा, रयणामयदामऽलंकारा // 272 // इगवीस जोयणसयाइपुढवीणं तासि होइ बाहल्लं / पंचसु अणुत्तरेसुं, रयणविचित्ता उ सा पुढवी // 273 / / तत्थ विमाण बहुविहा, पासाया य मणिवेइयारम्मा। वेरुलियथूभियागा, रयणामयदामऽलंकारा / / 274 / / संखंकसन्निकासा, सव्वे दग रय-तुसारसरिवण्णा / इक्कारसउन्विद्धा, पासाया ते विरायंति // 275 / / 1. इयं गाथा कुत्राप्यादर्श नोपलभ्यते // Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रस्तव 266. सुन्दर मणियों की वेदिकाओं से युक्त, वैडूर्य मणियों की स्तुपिकाओं से युक्त, रत्नमय मालाओं और अलंकारों से युक्त बहुत प्रकार के प्रासाद ( उन विमानों में होते हैं ) / 267. उन कल्पों में शंख के समान और हिम के समान ( शुक्ल वर्ण वाले ) नौ सौ ऊँचे प्रासाद ( शोभित होते हैं ) / 268. वहाँ पर सैकड़ों मणियों से जटित, बहुत प्रकार के आसन शय्याएं, सुशोभित विस्तृत वस्त्र, रत्नमय मालाएं और अलंकार ( होते हैं)। ____ 269. ग्रैवेयक विमानों में बावीस सौ योजन पृथ्वी की मोटाई होतो है। वह पृथ्वी रत्नों से विचित्रित ( होती है ) / 270. सुन्दर मणियों की वेदिकाओं से युक्त, वैडूर्य मणियों की स्तूपिकाओं से युक्त, रत्नमय मालाओं और अलंकारों से युक्त बहुत प्रकार के प्रासाद ( उन विमानों में होते है ) / : 271. उन ( ग्रैवेयक कल्पों में ) शंख के समान और हिम के समान ( शुक्ल वर्ण वाले ) एक हजार ऊंचे प्रासाद शोभित होते हैं / 272. वहां पर सैकड़ों मणियों से जटित, बहुत प्रकार के आसन शय्यायें, सुशोभित विस्तृत वस्त्र, रत्नमय मालायें और अलंकार ( होते हैं)। . . 273. पांच अनुत्तर विमानों में इक्कीस सौ योजन पृथ्वी की मोटाई होती है। वह पृथ्वी रत्नों से विचित्रित ( होती हैं ) / ___ 274. सुन्दर मणियों की वेदिकाओं से युक्त, वैडूर्य मणियों की स्तूपिकाओं से युक्त, रत्नमय मालाओं और अलंकारों से युक्त बहुत प्रकार के प्रासाद ( उन विमानों में होते हैं ) / 275. उन ( अनुत्तर कल्पों में ) शंख के समान और हिम के समान (शुवल वर्ण वाले ) ग्यारह सौ ऊँचे प्रासाद शोभित होते हैं / Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ तत्थाऽऽसणा बहुविहा, सयणिज्जा य मणिभत्तिसयचित्ता।। विरइयवित्थडदूसा, रयणामयदामऽलंकारा / / 276 // [ईसिपब्भाराए सिद्धिसिलाए पुढवी ठाणं संठाणं पमाणं च सव्वट्ठविमाणस्स उ सव्वुवरिल्लाओ थूभियंताओ। ... बारसहि जोयणेहि इसिपब्भारा तओ पुढवी // 277 / / निम्मलदगरयवण्णा तुसार-गोखीर'-हारसरिवण्णा / भणिया उ जिणवरेहिं उत्ताणयछत्तसंठाणा // 278 // ... पणयालीसं आयाम-वित्थडा होइ सयसहस्साई। तं तिगुणं सविसेसं परीरओ होइ बोधव्वो // 279 // एगा जोयणकोडी बायालीसं च सयसहस्साई। तीसं चेव सहस्सा दो य सया अउणपन्नासा 14230249 // 280 // खेतद्धयविच्छिन्ना अट्ठव य जोयणाणि बाहल्लं / परिहायमाणी चरिमंते मच्छियपत्ताओ तणुययरी / / 281 // संखंकसन्निकासा नामेण सुदंसणा आमोहा य।। अज्जुणसुवण्णयमई उत्ताणयछत्तसंठाणा // 282 // [सिद्धाणं ठाणं संठाणं ओगाहणा फासणा य] ईसीपब्भाराए' उवरि खलु जोयणम्मि लोगंतो। तस्सुवरिमम्मि भाए सोलसमे सिद्धमोगाढे // 283 // 1. ०र फेणसरि० प्र० हं० सा० // 2. ०ए सोयाए जोय प्र. ह. सा०॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रस्तव 67 276. वहाँ पर सैकड़ों मणियों से जटित, बहुत प्रकार के आसन, शय्याएँ, सुशोभित विस्तृत वस्त्र, रत्नमय मालायें और अलंकार ( होते हैं)। [सिद्धशिला पृथ्वी के स्थान, संस्थान और प्रमाण ] 277. सर्वार्थसिद्ध विमान के सबसे ऊँचे स्तूप के अन्त से बारह योजन ऊपर इषत्प्राग्भारा पृथ्वी ( होती है ) / 278. ( जिनेन्द्रों के द्वारा वह पृथ्वी ) निर्मल जल कण, हिम, गो दुग्ध, समुद्र के फेन के समान वर्ण वाली तथा उत्ताण ( उलटे किये हुए) छत्र के आकार में स्थित कही गयी है / 279. ( इषत्प्राग्भारा पृथ्वी को ) पैतालिस लाख योजन लम्बाईचौडाई होती है और उससे तीन गुना कुछ अधिक परिधि होती है, . ( इस प्रकार ) जानना चाहिए। 280. ( यह परिधि ) एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दो सौ उनपचास योजन ( से कुछ अधिक है ) / - 281. ( वह पृथ्वी ) मध्य भाग में आठ योजन मोटाई वाली है, (यह क्रमशः कम होते-होते) मक्खी के पंख से भी पतली (हो जाती है)। 282. वह पृथ्वी शंख, श्वेत रत्न तथा अर्जुन सुवर्ण के समान ( श्वेत स्वर्ण के समान ) वर्ण वाली तथा उलटे छत्र के आकार वाली (है)। [सिद्धों के स्थान, संस्थान, अवगाहना और स्पर्श] 283. सिद्धशिला के उपर एक योजन (के बाद) में लोक का अन्त (होता है)। उस (एक योजन) के उपर के सोलहवें भाग में सिद्धस्थान अवस्थित (है)। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . देविदत्थओ तत्थेते निच्चयणा' अवेयणा निम्ममा असंगा य / असरीरा जीवघणा पएसनिव्वत्तसंठाणा // 284 // कहिं पडिहया सिद्धा ? कहिं सिद्धा पइट्ठिया ? / कहिं बोंदि चइत्ताणं कत्थ गंतूण सिज्झई ? // 285 / / अलोए पडिहया सिद्धा, लोयऽग्गे य पइट्ठिया। ... इहं बोंदि चइत्ताणं तत्थ गंतूण सिज्झई / / .286 // जं संठाणं तु इहं भवं चयंतस्स चरिमसमयम्मि। आसी य पएसघणं तं संठाणं तहिं तस्स // 287 / / . दीहं वा हुस्सं वा जं संठाणं हवेज चरिमभवे / तत्तो तिभागहीणा सिद्धाणोगाहणा भणिया // 288 // तिन्नि सया तेत्तीसाधणुत्तिभागो य होइ बोधव्वो। एसा खलु सिद्धाणं उक्कोसोगाहणा भणिया // 289 / / चत्तारि य रयणीओ रयणितिभागूणिया य बोधव्वा। एसा खलु सिद्धाणं मज्झिमओगाहणा भणिया // 290 / / एक्का य होइ रयणी अट्ठव यं अंगुलाई साहीया। एसा खलु सिद्धाणं जहण्ण ओगाहणा भणिया // 291 // 1. अत्र आदर्शेषु निवेयणा, निव्वेयणा, निचेयणा, निच्चेयणा इति पाठभेदा दृश्यन्ते, प्रज्ञापनासूत्रे तत्थ वि य ते अवेदा अवेदणा, निम्ममा असंगा य ( सूत्र 211 गा. 158 ) इति पाठो वर्त्तते, अस्माभिस्तु देविदत्थयप्रतिगतपाठभेदान् विमश्य निच्चयणा इति पाठो विहितोऽस्ति / निच्चयणा =निश्च्यवनाः-मृत्युरहिताः, जन्म-जरा-मृत्युरहिता इति यावत् / अथ चेत् प्रतिगताः पाठभेदा लेखकप्रमादजा एव स्युः तदा निव्वेया इत्यपि पाठोऽत्र चेत् सम्भा व्येत तदाऽपि न किञ्चित् क्षुण्णमिति // 2. °तसव्वोणा सर्वास्वपि प्रतिषु, अत्र मूले प्रज्ञापनासूत्रानुसारी पाठः // 3. चरंतस्स सा० विना // 4. हस्सं सा० // 5. °या छासट्टा धणु प्र० सा० / Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्दस्तव 284. वहाँ (वे) सिद्ध निश्चय हो वेदनारहित, ममतारहित, आसक्तिरहित और शरोररहित घनीभूत आत्मप्रदेशों से निर्मित आकार वाले (होते हैं)। 285. सिद्ध कहाँ प्रतिहत (होते हैं अर्थात् रुकते हैं) ? सिद्ध कहाँ प्रतिष्ठित (हैं) ? कहाँ वे शरीर को त्यागते (हैं) ? तथा कहाँ जाकर सिद्ध होते हैं ? 286. सिद्ध आलोक में प्रतिहत (होते हैं), लोक के अग्रभाग में प्रतिष्ठित (हैं), (तिर्यक्लोक से) शरीर को त्यागकर वहाँ (लोक के अग्रभाग में) जाकर सिद्ध होते हैं। 287. शरीर को छोडते समय अंतिम समय में जो संस्थान (होता है), आत्म प्रदेशों से घनीभूत (होकर) वही संस्थान उस (सिद्ध अवस्था) का होता है। 288. अन्तिम भव में शरीर का जो दोघं या ह्रस्व प्रमाण होता है उसका एक तिहाई भाग कम सिद्धों की अवगाहना होती है। 289. सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना तीन सौ तैतीस धनुष से कुछ अधिक होती है, ( इस प्रकार ) जानना चाहिए / 290. चार रत्नि और एक रत्नि का तीसरा भाग कम, ऐसी सिद्धों की मध्यवर्ती अवगाहना कही गयी है, ( इस प्रकार ) जानना चाहिए। 291. (सिद्धों को ) एक रत्नि और आठ अंगुल ( से कुछ ) अधिक अवगाहना होती है, यह सिद्धों की जघन्य अवगाहना कही गयी है। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ ओगाहणाइ सिद्धा भवत्तिभागेण हुंति परिहीणा / संठाणमणित्यंत्थं जरा-मरणविप्पमुक्काणं // 292 / / जत्थ य एगो सिद्धो तत्थ अणंता भवक्खयविमुक्का। अन्नोन्नसमोगाढा पुट्ठा सव्वे अलोगंते // 293 // असरीरा जीवघणा उवउत्ता दंसणे य नाणे य / सागारमणागारं लक्खणमेयं तु सिद्धाणं // 294 / / फुसइ अणंते सिद्धे सव्वपएसेहिं णियमसो सिद्धो / ते वि. असंखेजगुणा देस-पएसेहिं जे पुढा // 295 // [सिद्धाणं उवओगो] केवलनाणुवउत्ता जाणंती सव्वभावगुण-भावे / पासंति सव्वओ खलु 'केवलदिट्ठीहष्णंताहिं / / 296 // नाणम्मि दंसणम्मि य इत्तो एगयरयम्मि उवउत्ता। सव्वस्स केवलिस्सा जुगवं दो नत्थि उवओगा // 297 // [सिद्धाणं सुहं उवमा य] सुरगणसुहं समत्तं सव्वद्धापिंडियं अणंतगुणं / न वि पावइ मुत्तिसुहं गंताहिं वग्गवग्गूहिं / / 298 // न वि अस्थि माणुसाणं तं सोक्खं न वि य सव्वदेवाणं। जं सिद्धाणं सोक्खं अव्वाबाहं उवगयाणं // 299 / / सिद्धस्स सुहो रासी सव्वद्धापिंडिओ जइ हविज्जा / णंतगुणवग्गुभइओ सव्वागासे न माएजा // 300 // 1. लट्ठिीअणं० सं० विना // Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रस्तव 292. (अन्तिम) भव (शरीर) के तीन भाग (में) से (एक भाग) कम अवगाहना वाले सिद्ध होते है। जरा और मरण से विमुक्त सिद्धों का संस्थान अनित्थस्थ ( होता है ) / 293. जिस स्थान पर एक सिद्ध ( निवास करता है ), उसी स्थान पर क्षीण संसार प्रविमुक्त अनन्त ( सिद्ध निवास करते हैं)। वे सभी लोकान्त स्पर्श करते हुए एक दूसरों का अवगाहन ( करके रहते हैं)। 294. अशरीरी, सघन आत्म प्रदेश वाले, अनाकार दर्शन और साकार ज्ञान में अप्रमत्त, ये सिद्धों के लक्षण ( हैं)। 295. सिद्ध आत्मा अपने आत्म प्रदेशों से अनन्त सिद्धों को स्पर्श करती है / देश-प्रदेशों से सिद्ध भी असंख्यात गुना ( हैं ) / [ सिद्धों के उपयोग] 296.. केवल ज्ञान में उपयोग वाले सिद्ध सभी पदार्थों के सभी गुणों और पर्यायों को जानते हैं और (वे) अनन्त केवल दृष्टि के द्वारा (सभी को) सर्वतः देखते हैं। 297. ज्ञान और दर्शन इन दोनों उपयोगों में ( से ) सभी केवलि के एक समय में एक ही उपयोग (होता है), दो उपयोग युगपद् नहीं होते है / [सिद्धों के सुख और उपमा ] 298. देवगण समूह के समस्त काल के, समस्त सुखों को, अनन्त गुणित किया जाय और पुनः अनन्त वर्गो से वगित ( अर्थात् अनन्त गुणों को अनन्तानन्त गुणों से गुणित ) किया जाय तो भी ( वे सुख ) मुक्ति सुख को प्राप्त नहीं होते हैं ( अर्थात् उसके बराबर नहीं होते हैं ) / 299. मुक्ति को प्राप्त सिद्धों के जो अव्याबाध सुख ( प्राप्त है ), वह - सुख न तो मनुष्यों, न ही समस्त देवताओं को ( प्राप्त होते हैं ) / 300. सिद्ध की समस्त सुखराशि को, समस्त काल से गुणित करके ( उसे ) अनन्त वर्गमूलों से ( भाग देने पर ) जो राशि प्राप्त होगी ( वह) समस्त आकाश में नहीं समाएगी। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ जह नाम कोइ मिच्छो नयरगुणे बहुविहे वियाणंतो। न चएइ परिकहेउं उवमाए तहिं असंतोए / 301 // इअ सिद्धाणं सोक्खं अणोवमं, नत्थि तस्स ओवम्म / किंचि विसेसेणित्तो सारिक्खमिणं सुणह वोच्छं // 302 // जह सव्वकामगुणियं पुरिसो भोत्तूण भोयणं कोई। तण्हा-छुहाविमुक्को अच्छिन्न जहा अमियतित्तो // 303 // इय सव्वकालतित्ता अउलं निव्वाणमुवगया सिद्धा। सासयमव्वाबाहं चिट्ठति सुही सुहं पत्ता // 304 // सिद्ध त्ति य बुद्ध त्ति य पारगय त्ति य परंपरगय त्ति / उम्मुक्ककम्मकवया अजरा अमरा असंगा य // 305 // . निच्छिन्नसव्वदुक्खा जाइ-जरा-मरण-बंधणविमुक्का। 'सासयमव्वाबाहं अणुहुंति सुहं सयाकालं // 306 // [जिणवरीणं इड्ढी] . सुरगणइड्ढि समग्गा सव्वद्धापिडिया अणंतगुणा / न पि पावे जिणइड्ढि णंतेहिं वि वग्गवग्गूहिं / / 307 / / भवणवइ वाणमंतर जोइसवासी विमाणवासी य / सव्विड्ढीपरियारो' अरहते वंदया होति / / 308 // 1. सासयमव्वाबाहं अणुहुंती सासयं सिद्धा सं० हं० / सासयमव्वाबाहं अणुहृवंती सयाकालं प्र० / सासयमव्वाबाहं अणुहवंति सुहं सयाकालं सा० / अव्वाबाहं सोक्खं अणुहुंती सासयं सिद्धा प्रज्ञापनासूत्रे गा. 179 / अत्र प्रज्ञापनासूत्रगतः पाठः शुद्धो निर्दूषणश्व / आदर्शगतास्तु सर्वेऽपि पाठभेदाच्छन्दोभङ्ग-पौनरुक्त्यहीनोक्तिदोषषिता वर्तन्ते / तदत्रार्थे तज्ज्ञाः श्रुतमर्मविदो बहुश्रुता एव प्रमाणम् // 2. सर्वश्चासौ ऋद्धिभूतः परिवारः सद्धिपरिवारः चकारश्चात्र शेषो द्रष्टव्यः, सर्वद्धिपरिवारश्व इत्यर्थः / सव्विड्डीपरिवारो हं० / सविड्डीपरियरिया प्र. सा०॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रस्तव 73 301-302. जैसे कोई म्लेच्छ अनेक प्रकार के नगर गुणों को जानता हुआ भी उनका मिथ्या उपमाओं ( अपनी भाषा में अनुपलब्ध उपमाओं) के द्वारा कथन नहीं कर सकता है। इसी प्रकार सिद्धों का सुख भी अनुपम है, उसकी कोई उपमा नहीं है, फिर भी कुछ विशेष गों के द्वारा उसकी समानता को कहूँगा, ( उसे ) सुनो। 303. कोई पुरुष सबसे उत्कृष्ट भोजन को करके वैसे हो क्षुधा और 'पिपासा से मुक्त ( हो जाता है ) जैसे कि अमृत से तृप्त ( हुआ हो ) / 304. इसी प्रकार समस्त कालों में तप्त, अतुल, शाश्वत और अव्याबाध निर्वाण सुख को प्राप्त करके सिद्ध सुखो रहते हैं। 305. ( वे सिद्ध ) सिद्ध है, बुद्ध है, पारगत है, परम्परागत है, कर्मरूपी कवच से उन्मुक्त, अजर, अमर, और असंग ( हैं ) / 306.. जिन्होंने सभी दुःखों को दूर कर दिया है, (वे) जाति, जन्म, जरा-मरण के बन्धन से मुक्त, शाश्वत और अव्याबाध सुख को निरन्तर अनुभव करते हैं। .. .. [जिन देवों को ऋद्धि ] __ 307. समग्र देवों की और समग्र कालों की जो ऋद्धि है, उसका अनन्तगुना भो जिनेन्द्र की ऋद्धि के अनन्तवें के अनन्तवें भाग के बराबर भी नहीं है। 308. सम्पूर्ण वैभव व ऋद्धि से युक्त भवनपति, वाणव्यंतर ज्योतिषक और विमानवासी देव अरिहंतों को वन्दन करने वाले होते हैं। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ भवणवइ वाणमंतर जोइसवासी विमाणवासी य / इसिवालियमइमहिया' करेंति महिमं जिणवराणं // 309 // . [ देविंदत्थओवसंहारो तक्कारगा य] इसिवालियस्स भदं सुरवरथयकारयस्स वी(? धो)रस्स। जेहि सया थुन्वंता सब्वे इंदा' य पवरकित्तीया' // तेसिं सुराऽसुरगुरू सिद्धा सिद्धि ५उवविहिंतु // 310 // भोमेज-वणयराणं जोइसियाणं विमाणवासीणं / देवनिकायाण थओ इह सम्मत्तो अपरिसेसो // 311 // // देविदत्थो सम्मतो॥ 1. ग्यमयम० प्र० हं० सा० // 2. °दा परव(?पवर)कित्तीया प्र० / दा य कित्तीया हं० / °दा पवरकित्ती सा० // 3. एतदनन्तरं इसिवालियस्स भई सुरवरथयकारयस्स वीरस्स इति गाथार्द्धमधिकं सा० // 4. एतद् गाथाद्ध हं० नास्ति // 5. उवमिहिंतु प्र० / उवणमंतु सा० // 6. त्थओ सम्मत्तो सत्तमओ प्र० / स्थयपइण्णयं सम्मत्तं सा० // Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रस्तव 309. भवनवति, वाणव्यंतर, ज्योतिष्क, विमानवासी (देव) और ऋषिपालित स्व-स्व बुद्धि से जिनेन्द्र देवों की महिमा का वर्णन करते हैं। [देवेन्द्रस्तव का उपसंहार ] 310. वीर और इन्द्रों की स्तुति के कर्ता ऋषिपाल का कल्याण हो। सभी इन्द्र आदि जिनकी सदा स्तुति और किर्तन करते हैं, वह सुरअसुरों के गुरु सिद्ध, सिद्धि को प्रदान करें। 311. इस प्रकार भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषिक और विमानवासी देवनिकाय देवों की स्तुति समग्र रूप से समाप्त (हुई)। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज्ञा EFFERS ### * * भवि व्याकरण संकेत-सूची = अव्यय ( जिसका अर्थ = करके लिखा गया है) अक . - अकर्मक क्रिया अनि - अनियमित आज्ञा कर्म = कर्मवाच्य (क्रिविम) - क्रिया विशेषण अव्यय (जिसका अर्थ = करके लिखा गया है) - पुल्लिग = प्रेरणार्थक क्रिया = भविष्य कृदन्त = भविष्यत्काल = भाववाच्य = भूतकाल = भूतकालिक कृदन्त = वर्तमान काल - वर्तमान कृदन्त वि = विशेषण विधि = विधि विषिक = विधि कृदन्त = सर्वनाम __ = सम्बन्धभूतकृदन्त सक = सकर्मक क्रिया / - सर्वनाम विशेषण = स्त्रीलिंग = हेत्वर्थ कृदन्त ( ) = इस प्रकार के कोष्टक में मूल शब्द रखा गया है / [()+ ()+()+ ()- - ) इस प्रकार के शब्दों में (+) चिन्ह संकृ सवि स्त्री Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 देविदत्थओ संधिका द्योतक है। कोष्टक में गाथा के शब्द ही रख दिये गये हैं। [()-()-()--] इस प्रकार के कोष्टक के अन्दर '-' चिन्ह समास का द्योतक है। जहाँ कोष्टक के बाहर केवल संख्या (जसे 1/1, 2/1... आदि) ही लिखी है वहां उस कोष्ठक के अन्दर' का शब्द "संज्ञा" है। जहाँ कर्मवाच्य, कृदन्त आदि प्राकृत नियमानुसार नहीं बने है, वहाँ कोष्टक के बाहर "अनि" भी लिखा गया है। 1/1 अक या सक = उत्तम पुरुष/एकवचन 1/2 अक या सक = उत्तम पुरुष/बहुवचन 2/1 अक या सक = मध्यमपुरुष/एकवचन 2/2 अक या सक = मध्यमपुरुष/बहुवचन 3/1 अक या सक = अन्यपुरुष/एकवचन / 3/2 अक या सक = अन्यपुरुष/बहुवचन 1/1 = प्रथमा/एकवचन 1/2 = प्रथमा/बहुवचन 2/1 = द्वितीया/एकवचन 2/2 = द्वितीया बहुवचन 3/1 = तृतीया/एकवचन 3/2 = तृतीया/बहुवचन 4/1 = चतुर्थी/एकवचन 4/2 = चतुर्थी/बहुवचन . 5/1 = पञ्चमी/एकवचन 5/2 = पञ्चमी/बहुवचन 6/1 = षष्ठी/एकवचन 6/2 = षष्ठी/बहुवचन 7/1 = सप्तमी/एकवचन 7/2 = सप्तमी/बहुवचन ___8/1 = संबोधन/एकवचन 8/2 = संबोधन/बहुवचन Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण 1. अमर-नरवंदिए [ ( अमर ) - ( नर ) - (वंद ) भूकृ 2/2 ] वंदिऊण (वंद ) संकृ उसभाइए[ ( उसभ ) + ( आइए)] [ ( उसभ )- ( आइअ )2/2 'अ' स्वार्थिक ] जिणरिदे ( जिणवरिंद )2/2 वोरवरपच्छिमंते [ ( वीरवर ) + (पच्छिम) + ( अंते ) ] [ ( वीरवर ) - (पच्छिम ) - ( अंत )2/2 ] तेलोक्कगुरु [ ( तेलोक्क ) - ( गुरु )2/2 वि ] गुणाइन्ने [ ( गुण ) + ( आइण्णे) ] [ ( गुण ) - ( आइन्न ) भूक 212 वि ] 2. कोइ [ ( क )1/1 + (इ )] पढमे (पढम )7/1 पओसम्मि (पओस )7/1 सावओ ( सावअ )1/1 समयनिच्छयविहिण्णू [ ( समय)- (निच्छय ) - (विहिष्णु )1/1 वि ] वन्नेइ ( वन्न) व 3/1 सक थयमुयारं [ (थयं) + (उयारं)] थयं ( थय )2/1 उयारं (उयार )2/1 वि जियमाणे [ (जिय ) भूक अनि( माण ) 1/1 ] बद्धमाणम्मि ( वद्धमाण )7/1 3. तस्स ( त )6/1 थुणंतस्स ( थुण ) वकृ6/1 जिणं (जिण )2/1, सामाइयकडा [ ( सामाइय) + ( कडा)] [( सामाइय )( कडा) भूक 1/1 अनि ] पिया (पिया )1/1 सुहनिसन्ना [ ( सुह)- (निसन्न ) भूकृ 1/1 अनि ] पंजलिउडा (पंजलिउड )2/2 अभिमुही ( अभिमुह-अभिमुही )1/1 सुणइ ( सुण ) व3/1 सक थयं (थय )2/1 बद्धमाणस्स (वद्धमाण )6/1 इंदविलयाहिं [(इंद) - ( विलया )3/2] तिलपरयणकिए [ (तिलय ) + ( रयण ) + (अंकिए )] [ ( तिलय ) - ( रयण) .. - ( अंकिअ) भूक 1/1 अनि ] लक्खणकिए [ ( लक्खण )+ (अंकिए ) ] [ ( लक्खण)- (अंकि ) भूक 1/1 अनि ] सिरसा ( सिरसा )3/1 अनि, पाए ( पाय-पाअ )2/2 वद्धमा Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ जस्स ( वद्धमाण )6/1 दिमो (वंद) व1/2 सक अवगयमाणस्स* [ ( अवगय ) भूक अनि - ( माण )6/1 वि] * कभी-कभी षष्ठी का प्रयोग द्वितीया के स्थान पर पाया जाता है / (हेम प्रा० व्या० 3/134) / 5. विणयपणएहिं [ (विणय )- ( पणय ) भूकृ 3/2 अनि.] सिढिलमउडेहि [ ( सिढिल) - (मउड )3/2.वि] अपडिम* ( अपडिम ) मल शब्द 6/1 जसस्स (जस )6/1 वि देवेहि (देव) 3/2 पाया ( पाय )2/2, पंसतरोसस्स [ (पसंत) भूकृ अनि - ( रोस )6/1] वंदिया (वंद ) भू कृ 1/2 वदमाणस्स (बद्ध माण)6/1 * किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है (पिशेल प्राकृत भाषाओं का व्याकरण-पृ० 517) / 6. बत्तीस* (बत्तीस )2/1 देविदा ( देविंद )1/2, जस्स ( ज )6/1 गुणेहि ( गुण )3/2, उवहम्मिया ( उवहम्म) भूकृ 1/2 बादं ( क्रिविअ ) = अतिशयरूप से तस्स (त) 6/1 स चिय ( अ ) =ही च्छेयं ( छेय )2/2 वि, पायच्छायं [ ( पाय )- (च्छाय) 2/1 वि/ उवेहामो ( उवेह ) व 1/2 सक। * कभी कभी द्वितीया का प्रयोग प्रथमा के स्थान पर भी पाया जाता है (हेम प्रा० व्या० 3/137 वृत्ति) / 7. बत्तोस* ( बत्तीस ) 2/1 देविंद ( देविंद ) मूल शब्द 1/2 भणियं (भण ) भृकृ 1/1 सा ( सा) 1/1 सवि पियं ( पिय ) 2/1 भणइ ( भण) 3/1 अंतरभासं ( अंतरभास ) 2/1 ताहे ( ता) 7/1 स काहामी** ( काह) व 1/1 सक कोउहरलेणं (कोउहल्ल) 3/1 * कभी-कभी द्वितीया का प्रयोग प्रथमा के स्थान पर भी पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3/137 वृत्ति) / ** सन्द पूर्ति के लिए 'काहामि' का 'काहामी' लिखा गया है। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण 81 8. कयरे ( कयर ) 1/1 स ते (त) 1/1 सवि, बत्तीसं (बत्तीस) 2/1 देविदा ( देविंद ) 1/2 को ( क ) 1/1 स कत्थ ( अ ) = कहां, व (अ) = और परिवसइ ( परिवस ) व 3 1 अक, केवइया ( केवइय ) 1/2 वि कस्स ( क ) 6/1 स ठिई ( ठिइ ) 1/1 को ( क ) 1/1 स भवणपरिग्गहो [ ( भवण ) - ( परिग्गह) 1/1 ] कस्स (क) 6/1 स / 9. केवइया ( केवइय ) 1/2 वि विमाणा ( विमाण ) 1/2 भवणा (भवण ) 1/2 नगरा ( नगर ) 1/2 टुति (हु ) व 3/2 अक, पुढवीण ( पुढवि-पूढवी ) 6/2, च (अ) = और बाहल्लं (बाहल्ल) 1/1 उच्चत ( उच्चत ) मूल शब्द 1/1 विमाणवतो [ ( विमाण ) - ( वन्न ) 1/1 ] वा ( अ ) = और। 10. के ( क ) 1/2 स केणाऽऽहारंति [ ( केण + ( आहारंति ) ] [( क ) 3/1 वि - ( आहार ) व 3/2 सक ] कालेणुक्कोस [( कालेणं ) + ( उक्कोस)] कालेणं* ( काल ) 3/1 उकोस ( उक्कोस ) मूल शब्द 3/1 वि मज्झिम (मज्झिम) मल शब्द 3/1 वि जहण्णं** ( जहण्ण ) 2/1 वि उस्सासो ( उस्सास ) 1/1 निस्सासो (निस्सास) 1/1 ओहीविसओ [ (ओहि***) - (विसअ) 1/1 ] को ( क ) 1/1 सवि केसि ( क ) 7/2 स / .. * कभी-कभी सप्तमी विभक्ती के स्थान पर तृतीया का प्रयोग पाया जाता है / (हेम प्रा० व्या० सूत्र 3/137 वृत्ति)। ** कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है / (हे० प्रा० व्या० 3/137) *** समासगत शब्दों में रहे हुए स्वर परस्पर में ह्रस्व के स्थान पर दीर्घ हो जाया करते हैं / (हे० प्रा० व्या० 1/4) 11. विणओवयारउवहम्मियाइ [ ( विणय ) + ( उवयार ) + ( उवह म्मियाइ ) ] [ ( विणय ) - ( उवयार )- ( उवहम्म ) भूकृ 1/2] हासरसमुन्वहंतीए [ ( हास ) + ( रसं ) + ( उव्वहंतीए ) ] Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ [(हास ) - ( रस ) 2/1] उवहंतीए ( उव्वह→उव्वहंत स्त्री →उव्वहंती-उवहंतीए) 3/1] पडिपुच्छिओ (पडिपुच्छ) भूक 1/1 पियाए (पिआ) व 3/1 भणइ (भण) 3/1, अक सुयण (सुयणु) वि 8/1 तं ( त ) 2/1 स निसामेह* ( निसाम ) विधि 2/2 सक * आदरसूचक शब्दों में बहुवचन का प्रयोग होता है। 12. सुयणाणसागराओ [( सुयणाण ) - ( सागर ) 5/1 ] सुणिउं (सुण) संकृ पडिपुच्छणाइ* (पडिपुच्छण) 2/2 जं (ज) 1/1 सविलद्धं ( लद्ध ) भूकृ 1/1 अनि सुण ( सुण ) विधि 2/1 सक वागरणावलियं [ ( वागरण ) + ( आवलियं ) ] [ ( वागरण)( आवलिय ) भूक 1/1 नामावलियाइ [ (नाम) + ( आवलियाइ)] [ ( नाम ) - ( आवलि ) 'य' स्वार्थिक 2/2 इंदाणं ( इंद ) 6/2 * कभी-कभी द्वितीया विभक्ति का प्रयोग सप्तमी विभक्ति के स्थान पर पाया जाता है / ( हेम प्राकृत व्याकरण 3/137 ) . 13. सुण ( सुण ) विधि 2/1 सक वागरणावलियं [ ( वागरण ) + ( आवलियं ) 1 [ ( वागरण ) - ( आवलिय ) भूक 2/1 )) रयणं ( रयण ) 2/1 व ( अ ) = पादपूर्ति पणामियं ( पणामिअ ) भूक 2/1 च ( अ ) = और वीरेहि (वीर) 3/2 तारावलि [ (तारा)+ ( आवलि ) ] [ ( तारा ) - ( आवलि ) मूलशब्द 1/1) व्व (अ) = तरह धवलं (धवल ) 2/1 हियएण ( हिय-हिअय ) 3/1 पसन्नचित्तेणं [ ( पसन्न ) - (चित्त ) 3/1 ] 14. रयणप्पभापुढवीनिकुडवासो [( रयणप्पभा ) - ( पुढवी ) ( निकुड )* - ( वासि ) 2/2 वि ] सुयणु ( सुअणु) 8/1 तेउलेसागा ( तेउलेसा ) 'ग' स्वार्थिक 2/2 वि वीसं ( वीस )** 2/1 विकसियनयणा [(विकसिय) भूक- ( नयणा) 8/2] भवणवई [ ( भवण ) - (वइ) 2/2 ] मे ( अम्ह ) 3/1 स निसा मेह ( निसाम ) विधि 2/2 सक / * निकुड = णिउड्ड = ( निमग्न ) ( पाइय सद्दमहण्णवो) ** वीसं एकवचन है जबकि होना बहुवचन में चाहिए था। * Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण 15. दो ( दो ) 1/2 भवणवई इंदा [ ( भवणवई )* - ( इद ) 1/2] चमरे ( चमर ) 1/1 वइरोयणे (वइरोअण) 1/1 य ( अ )और असुराणं ( असर ) 6/2 दो ( दो) 1/2 नागकूमारिंदा [ ( नागकुमार ) + ( इंदा) ] [ ( नागकुमार ) - ( इद ) 1/2 ] धरणे धरण) 1/1 तह (अ) = उसी प्रकार भूयणंदे** (भूआणंद) 1/1 य ( अ ) = और * समास पदों में ह्रस्व का दीर्घ व दोघं का ह्रस्व हो जाता है / ** भूयणंदे के स्थान पर कोष मे भूआणंद मिलता है। 16. दो (दो) 1/2 सुयणु ( सुअणु ) 8/1 सुवणिंदा [ ( सुवण्ण )+ ( इंदा ) ] [( सुवण्ण ) - ( इंद) 1/2 ] वेणूदेवे (वेणुदेव ) 1/1 य ( अ ) = और वेणुदाली ( वेणुदालि ) 1/1 य ( अ ) = पादपूर्ति वो ( दो) 1/2 दीवकुमारिंदा [ ( दीवकुमार ) + (इंदा)] [ ( दीवकुमार ) - ( इद ) 1/2 ] पुण्णे ( पुण्ण ) 1/1 य (अ) = और, तहा ( अ ) = उसी प्रकार वसिट्टे ( वसिट्ठ ) 1/1 य . ( अ ) = पादपूर्ति / 17. दो ( दो ) 1/2 उदहिकुमारिदा [ ( उदहिकुमार ) + (इदा ) ] [ ( उदहिकुमार )- ( इद ) 1/2 जलकंते ( जलकंत ) 1/1 जलपभे ( जलप्पभ ) 1/1 य ( अ ) = और, नामेण ( नाम ) 3/1 अमियगइ ( अमियगइ ) मूलशब्द1/1 अमियवाहण (अमियवाहण) मूल शब्द 1/1 दिसाकुमाराण (दिसाकुमार ) 6/2 दो ( दो )1/2 इंदा ( इद ) 1/2 18. दो (दो) 1/2 वाउकुमारिदा [ ( वाउकुमार ) + (इदा) ] [ ( वाउकुमार ) - ( इद ) 1/2 ] वेलंब ( वेलंब ) मूलशब्द 1/1 पभंजणे (पभंजण ) 1/1 य ( अ ) = और नामेणं ( नाम ) 3/1 दो ( दो ) 1/2 थणियकुमारिदा [ ( थणियकमार) + ( इंदा)] [ ( थणियकुमार )- ( इद ) 1/2 ] घोसे ( घोस ) 1/1 य ( अ ) = और तहा ( अ ) = उसो प्रकार महाघोसे ( महाघोस ) 1/1 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ दो ( दो) 1/2 विज्जुकुमारिदा [ ( विज्जुकुमार ) + ( इंदा)] [ ( विज्जुकुमार ) - ( इंद ) 1/2 ] हरिकंत (हरिकंत ) मूलशब्द 1/1 हरिस्सहे ( हरिस्सह ) 1/1 य (अ.) = और नामेणं ( नाम ) 3/1 अग्गिसिह ( अग्गिसिह ) मूलशब्द 1/1 अग्गिमाणक (अग्गिमाणव) मूलशब्द1/1 हुयासणवई [ (हुआसण) + (वई)] [(हुआसण )- ( वइ ) 1/1 ] वि ( अ ) = पादपूर्ति वो ( दो ) 1/2 इंदा ( इद ) 1/2 20. एए ( एअ ) 1/1 स वियसियनयणे [ ( वियसिअ ) + (नयणे)] [ ( विअसिअ )- (नयणा) 8/1] वीसं* ( वीस ) 2/1. वियसियजसा [ ( वियसिय ) + ( जसा)] [ ( विअसिअ ) भूक - ( जस ) 1/2 ] मए ( अम्ह ) 3/1 स कहिया ( कह ) भूक 1/2 भवणवरसुहनिसण्णे [ ( भवण ) + ( वर ) + ( सुह ) + ( निसण्णे )] [ ( भवण ) - ( वर )- ( सुह ) - ( निसन्ना) भूक 8/1 ] सुण ( सुण ) विधि 2/1 सक भवणपरिग्गहमिमेसि [( भवण ) + ( परिग्गहं ) + ( इमेसि ) ] [ ( भवण )-(परिग्गह ) 2/1 ] इमेसि ( इम ) 6/2 स * कभी कभी द्वितीया विभक्ति का प्रयोग प्रथमा. विभक्ति के स्थान पर भी पाया जाता है / ( हेम प्राकृत व्याकरण-3/137 वृत्ति) 21. चमर-वइरोयणाणं [ ( चमर )- ( वइरोअण ) 6/2] असुरिंदाणं ( असुरिंद ) 6/2 महाणुभागाणं ( महाणुभाग ) 6/2 तेसि ( त ) स भवणवराणं [ ( भवण ) - (वर) 6/2 ] . चउसट्टिमहे [ ( चउसट्ठि) - ( मह ) 1/1] सयसहस्सा ( सयसहस्सा ) 1/2 22. नागकुमारिंदाणं [ ( नागकुमार ) + ( इंदाणं ) ] [ ( नागकुमार ) - ( इंद) 6/2] भूयाणंद-धरणाण [ ( भूयाणंद ) - (धरण ) 6/2 ] दोहं (दो) 6/2 पि ( अ ) = भी तेसि ( त ) 6/2 स भवणवराणं [ ( भवण ) - ( वर ) 6/2 ] चुलसीइमहे [ (चुलसी) - ( मह ) 1/1 ] सयसहस्सा ( सयसहस्स ) 1/2 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण 23. दो ( दो ) 1/2 सुयणु (सुअणु ) 8/1 वि सुण्णिदा [ ( सुवण्ण) + ( इंदा) ] [ ( सुवण्ण ) - ( इंद ) 1/2 ] वेणूदेवे* ( वेणुदेव ) 1/1 य ( अ ) = और वेणुदालो ( वेणुदालि ) 1/1 य ( अ ) और तेसि ( त ) 6/2 सवि भवणवराणं [ ( भवण ) - ( वर ) 6/2 ] बावत्तरि ( बावत्तरि ) 1/2 मो (अ) = पादपूर्ति सय सहस्सा ( सयसहस्स ) 1/2 * छन्द की मात्रा को पूर्ति हेतु 'उ' का ऊ किया गया है / 24. वाउकूमारिदाणं [ ( वाउकुमार ) + ( इंदाणं)] [ ( वाउकुमार ) - ( इंद ) 6/2 ] वेलंब - पभंजनाण [ ( वेलंब)- (पभंजण) 6/2 ] दोण्हं ( दो ) 6/2 पि ( अ ) = भी तेसि ( त ) 6/2 सवि भवणवराणं [ (भवण )- ( वर ) 6/2 ] छन्नवइमहे [ (छन्नवइ ) - ( मह ) 1/1 ] सयसहस्सा ( सयसहस्स ) 1/2 25. चउसट्ठी ( चउसट्ठि) 1/2 असुराणं ( असुर) 6/2 चुलसीई (चुलसी ) 1/2 चेव [ ( च ) + ( एव ) ] च ( अ ) = और एव ( अ ) = इस प्रकार होइ ( हो ) व 3/1 अक नागाणं ( नाग )6/2 बावत्तरी ( बावत्तरि ) 1/2 सुवण्णाण ( सुवण्ण ) 6/2 वाउ कुमराण (वाउकुमार ) 6/2 छन्नउई ( छण्णउइ ) 6/2 26. दोव-दिसा-उदहीणं [ ( दीव ) - (दिसा ) - ( उदहि ) 6/2] विज्जुकुमारिद-थणिय-मग्गोणं [ ( विज्जुकुमार ) + ( इद) + ( थणियं ) + ( अग्गीणं )] [ ( विज्जुकुमार ) - ( इंद)• ( थणिय ) 21 ] अग्गोणं ( अग्गि) 6/2 छण्हं (छ) 6/2 पि (अ) = भी जुवलयाणं ( जुवल ) 'य' स्वार्थिक 6/2 छावत्तरि ( छावत्तरि ) मूल शब्द 1/2 मो ( अ ) = पादपूर्ति सयसहस्सा ( सयसहस्स ) 1/2 27. एक्कक्कम्मि ( एक्केक्कम ) 7/1 वि य ( अ ) = और जुयले ( जुयल ) 7/1 नियमा ( नियम ) 5/1 छावरिं* ( छावत्तरि ) _2/1 सयसहस्सा ( सयसहस्स ) 1/2 सुंदरि ! (सुंदरी ) 8/1 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 देविदत्थओ लोलाए (लीला) 7/1 ठिए ! (ठिा) 8/1 ठिईविसेसं [ (ठिइ)* - (विसेस ) 2/1 ] निसामेहि ( निसाम ) आज्ञा 2/1 सक * कभी कभी द्वितीया का प्रयोग प्रथमा के स्थान पर भी पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3/137 वृत्ति "चउसंपिजिनवरा" आर्ष ) ** समास पद में रहे हुए ह्रस्व के दीर्घ व दीर्घ के ह्रस्व हो जाते हैं। ( हेम प्राकृत व्याकरण 1/4 ) 28. चमरस्स (चमर) 6/1 सागरोवम (सागरोवम) मूलशब्द 1/1 सुंदरि ! (सुंदरी) 8/1 उक्कोसिया (उक्कोसिया) 1/1 ठिई (ठिइ) 1/1 भणिया ( भणिअ ) भूकृ 1/1 साहोया* (साहिय) 1/2वि बोद्धव्वा (बोद्धव्व) विधि कृ 1/2 अनि बलिस्स (बलि) 6/1 वइरोणिवस्स [(वइरोयण) + (इंदस्स)] [ (वइरोअण) (इंद) 6/1] * छन्द की मात्रा पूर्ति के लिए 'इ' का 'ई' किया गया है। 29. जे (ज) 1/2 स वाहिणाण (दाहिण ) 6/2 इंदा ( इद ) 1/2 चमरं ( चमर ) 2/1 मोत्तूण (मोत्तूण) सकृ अनि सेसया (सेस) 'य' स्वार्थिक 1/2 भणिया ( भण ) भूकृ 1/2 पलिओवमं ( पलिओवम ) 1/1 दिवड्ढे (दिवडढ) 1/1 ठिई (ठिइ ) 1/1 उ (अ) = पादपूर्ति उक्कोसिया ( उक्कोसिया) 1/1 तेसि ( त ) 6/2स 30. ने (ज) 1/2 स उत्तरेण* ( उत्तर) 3/1 इंदा (इद) 1/2 बलि ( बलि ) 21 पमोत्तूण (पमोत्तूण ) सकृ अनि सेसया (सेस) 1/2 "य" स्वार्थिक भणिया (भण) भूकृ 1/2 पलिओवमाइ (पलिओवम ) 1/2 दोण्णि (दो) 1/2 उ ( अ ) = पादपूर्ति देसणाई (देसूण ) 1/2 ठिई (ठिइ) 1/1 तेसि ( त) 6/2स कभी-कभी तृतीया विभक्ति का प्रयोग सप्तमी विभक्ति के स्थान पर पाया जाता है / ( हेम प्राकृत व्याकरण 3/137) Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण 31. एसो ( एअ ) 1/1 स वि ( अ ) = भी ठिइविसेसो [ ( ठिइ)( विसेस ) 1/1] सुदररूवे ( सुंदररूवा ) 8! विसिटरूवाणं [ ( विसिट्ठ) - ( रूव ) 6/2 ] भोमिज्जसुरवराणं [ ( भोमिज्ज ) - ( सुरवर ) 6/2 ] सुण (सुण ) विधि 2/1 सक अणुभागे ( अणुभाग ) 2/2 सुणयराणं ( सु-णयर ) 6/2 32. जोयणसहस्समेगं [ ( जोयण ) + ( सहस्सं ) + ( एगं )] [(जोयण) - ( सहस्स)- ( एग ) 2/1 ] ओगाहित ण* ( ओगाह ) सक भवण-नगराई [ ( भवण ) - ( नगर ) 2/2 ] रयणप्पभाइ ( रयणप्पभा ) 7/1 सव्वे ( सव्व ) 1/2 स एक्कारस ( एक्कारस) मूलशब्द 1/1 जोयणसहस्से [ ( जोयण ) - ( सहस्स ) 1/1] * गमन के योग में द्वितीया आती है / 33. अंतो ( अ ) = भीतर से, चउरसा ( चउरंस ) 1/2 अहियमणो हरसहावरमणिज्जा [ ( अहिय )- ( मणोहर )- ( सहाव)( रमणिज्ज ) 1/2 ] बाहिरओ ( अ ) = बाहर से चिय (अ) = पादपूरक, वट्टा ( वट्टा) मूलशब्द 1/2 निम्मलवइरामया [ ( निम्मल ) - ( वइरामय ) 1/2 वि ] सव्वे ( सव्व ) 1/2 स 34. उक्किन्नतरफलिहा [ ( उक्किन्न ) + ( अंतर ) + ( फलिहा ) ] [( उक्किन्न ) वि - ( अंतर ) - ( फलिह ) 1/2 ] अभितरओ ( अ ) = भीतर, उ (अ) = पादपूरक भवणवासीणं ( भवणवासि ) 6/2 भवण-नगरा [ ( भवण ) - ( नगर ) 1/2] विरायंति (विराय ) व 3/2 अक कणगसुसिलिटुपागारा [ ( कणग)( सुसिलिट्ठ ) - ( पागार ) 1/2 ] 35. वरपउमकण्णियासंठिएहिं [ ( वर ) - ( पउम )- ( कण्णिया ) - ( संठिअ ) 3/2 वि ] हिट्ठा ( हिट्ठ ) 1/2 वि सहावलटेहि [ ( सहाव ) - ( लट्ठ ) 3/2 वि सोहिति ( सोह) व 3/2 अक ( आर्ष प्रयोग ) पइट्ठाणेहिं ( पइट्ठाण ) 3/2 विविहमणि भत्तिचित्तहिं [ (विविह) - (मणि) - (भत्ति) - (चित्त) 3/2 वि] Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ 36. चंदणपयट्ठिएहि [ ( चंदण ) + ( पयदिएहि ) ] [.( चंदण)( पयट्ठिअ) 3/2 वि ] य ( अ ) = और आसत्तोसत्तमल्ल-दामेहि [ ( आसत्त) + (ओसत्त ) + ( मल्ल) + ( दामेहिं ) ] [(आसत्त) - (ओसत्त) - ( मल्ल ) - ( दाम ) 3/2 वि ] दाहिं ( दार ) 3/2 पुरवरा ( पुरवर ) 1/2 ते ( त ) 1/2 स पडागमालाउला [ ( पडाग ) + ( माला ) + ( आउला) ] [ ( पडाग) - ( माला )- (आउल ) 1/2 ] रम्मा ( रम्म ) 1/2 वि. . 37. अट्रेव [ ( अट्ट) + (एव) ] अट्ट ( अटू.) 1/2 एव (अ) = ही जोयणाई ( जोयण ) 1/2 उम्विद्धा ( उम्बिद्ध ) 1/2 होंति (हो) व 3/2 अक ते ( त ) 1/2 स दुवारवरा [ ( दुवार )- (वर) 1/2 ] धूमघडियाउलाई [ ( धूम ) - ( घडिया ) - ( उला)1/2] . कंचणघंटापिणद्धाणि [(कंचण)- (घंट) 1/2 पिणद्धाणि (पिणद्ध ) भूकृ 1/2 अनि ] 38. जहिं ( अ ) = जिसमें देवा ( देव )1/2 भवणवई ( भवणवइ )1/2 वरतरुणीगोय-वाइयरवेणं [ ( वर ) - ( तरुणी)- ( गीय )(वाइय ) - (रव) 3/1 ] निच्चसुहिया [ ( णिच्च ) - (सुहिय) 12 ] पमुइया (पमुइअ) भूकृ 1/2 अनि गयं ( गय) भूक 2/1 अनि पि ( अ ) - भी कालं ( काल ) 2/1 न ( अ )= नहीं याणंति (याण) व 3/2 सक . 39. चमरे ( चमर ) 1/1 धरणे (धरण ) 1/1 तह ( अ ) = पादपूर्ति वेणुदेवे ( वेणुदेव ) 1/1 पुणे ( पुण्ण ) 1/1 य (अ) = पादपूर्ति होइ (हो )व 3/1 अक जलकते ( जलकंत ) 1/1 अमियगई ( अमियगइ ) 1/1 वेलंबे ( वेलंब) 1/1 घोसे ( घोस) 1/1 य (अ) = और हरी (हरि) 1/1 अग्गिसिहे (अग्गिसिह) 1/1 40. कणग मणि-रयणथूभियरम्माई ( कणग) - ( मणि) - ( रयण ) - (थूभ ) भूकृ - ( रम्म ) 1/2 वि] सवेइयाई ( सवेइअ ) 1/2 वि भवणाई ( भवण ) 1/2 एएसि ( एअ) 7/2 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण स दाहिणओ ( दाहिण ) पंचमी अर्थक 'ओ' प्रत्यय सेसाणं (सेस) 6/2स उत्तरे ( उत्तर ) 7/1 पासे ( पास) 7/1 .41. चउतोसा ( चउतोसा ) 1/2 चोयाला ( चोयाला ) 1/2 अटुत्तोसं ( अटतीस ) 1/1 सयसहस्साई ( सयसहस्स) 1/2 चता* . ( चत्तालीसा) 1/2 पन्नासा ( पन्नासा) 1/2 खलु (अ) = पादपूर्ति दाहिणओ ( दाहिण ) पंचमी अर्थक 'ओ' प्रत्यय हुति (हु) व 3/2 अक भवणाई ( भवण ) 1/2 * चत्ता = चत्तालीसा 42. तीसा ( तीसा ) 1/2 चत्तालोसा ( चत्तालीसा) 1/2 चउतो ( चउतीस ) 1/1 चेव [ (च) + (एव)] च (अ) = और एव (अ) ही सयसहस्साई ( सयसहस्स) 1/2 छत्तोसा (छत्तीस ) 1/2 छायाला ( छायाला) 1/2 उत्तरओ ( उत्तर) 5/1 हुति (हु )व 3/2 अक भवणाई (भवण) 1/2 .43. भवण-विमाणवईणं [ ( भवण ) - ( विमाण ) - ( वइ) 6/2 ] तायत्तीसा ( तायत्तीसा ) 1/2 य ( अ ) = और . लोगपाला ( लोगपाला ) 1/2 य ( अ ) = पादपूर्ति सम्वेसि ( सव ) 612 स तिन्नि (ति ) 1/2 परिसा ( परिसा ) 1/2 सामाण (सामाण) 1/2 चउग्गुणाऽऽयरक्खा [ ( चउग्गुण ) + (आयरक्खा)] ... [( चउग्गुण ) - ( आयरक्ख ) 1/2 ] - -44. चउसठ्ठी ( चउसट्ठि) 1/2 सट्ठी ( सट्ठि) 1/2 खलु (अ) - पादपूर्ति छच्च (छ) मूलशब्द 1/2 च्च (अ ) = पादपूर्ति सहस्सा ( सहस्स ) 1/2 तहेव [ ( तह ) + (एव) ] तह (अ) - उसी प्रकार एव ( अ ) = निश्चय चत्तारि (चउ) 1/2 भवणवइ-वाणमंतर-जोइसियाणं [( भवणवइ)- (वाणमंतर)(जोइसिय ) 6/2 ] सामाणा ( सामाण ) 1/2 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ 45. पंचग्गमहोसीओ (पंच) + ( अग्ग ) + ( महीसोओ) ] [ (पंच) - ( अग्गमहिसी ) 1/2 ] चमर-बलीणं [ ( चमर ) - ( बलिं) 6/2 ] हंवति ( हव ) व 3/2 अक नायव्वा ( नायव्व ) विधिकृ 1/2 अनि सेसयभवणिदाणं [ (सेसय ) + ( भवण ) + (इंदाणं)] [ (सेस) 'य' स्वार्थिक (भमण)-(इंद) 6/2] छच्चेव [ (छ) + (च) + ( एव ) ] छ (छ) मूलशब्द 1/2 च्च (अ) = पादपूरक एव ( अ ) = इसीप्रकार य ( अ ) = पादपूर्ति अग्गमहिसीओ ( अग्गमहिसी ) 1/2 46. दो ( दो ) 1/2 चेव [ ( च ) + ( एव ) ] च ( अ ) = और एव ( अ ) = इसीप्रकार जंबुदोवे ( जंबुदीव ) 7/1 चत्तारि ( चउ) 1/2 य (अ) = और माणुसुत्तरे ( माणुसुत्तर ) 7/1 सेले (सेल) 7/1 छ (छ) मूलशब्द 1/2 च्चारुणे [ (च)+ (अरुणे)] च्च ( अ ) = और अरुणे (अरुण ) 7/1 समुद्दे ( समुद्द) 7/1 अट्ठ ( अ ) 1/2 य (अ.) = और अरुणम्मि ( अरुण ) 7/1 दीवम्मि ( दीव ) 7/1 47. जन्नामए [ ( ज ) + ( नामए) ] [(ज) - ( नामअ ) 7/1] समुद्दे ( समुद्द ) 7/1 दोवे ( दीव ) 7/1 वा (अ) = पादपूर्ति जम्मि (ज) 7/1 स होंति ( हो) व 3/2 अक आवासा (आवास) 1/2 तन्नामए [(त)+ (नामए)] [(त)(नामअ ) 7/1 ] समुद्दे ( समुई ) 7/1 दोवे ( दीव ) 7/1 वा (अ)- पादपूर्ति तेसि* (त) 6/2 स उप्पाया ( उप्पाय ) 1/2 * यहाँ तेसिं होना चाहिए था। 48. असुराणं ( असुर ) 6/2 नागाणं ( नाग ) 6/2 उदहिकुमाराण ( उदहिकुमार ) 6/2 हुंति (हु ) व 3/2 अक आवासा ( आवास ) 1/2 अरुणवरम्मि ( अरुणवर ) 7/1 समुद्रे ( समुह) 7/1 तत्थेव [ ( तत्थ )+ (एव) ] तत्थ (अ) = वहाँ एव (अ) = ही य (अ) = पादपूर्ति तेसि* (त) 6/2 स उप्पाया (उप्पाय)1/2 * यहाँ तेसिं होना चाहिए था। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण 49. दीव-दिसा-अग्गीणं [ ( दीव)-(दिसा ) - ( अग्गि ) 6/2 ] थणियकुमाराणं ( थणियकुमार ) 6/2 होति ( हो ) व 3/2 अक आवासा ( आवास ) 1/2 अरुणवरे ( अरुणवर ) 7/1 दीवम्मि ( दीव) 7/1 य (अ) = और तत्थेव [(तत्थ) + (एव) ] तत्थ (अ) = उसमें एव ( अ ) = ही य ( अ ) = पादपूर्ति तेसि* (त) 6/2 स उप्पाया ( उप्पाय ) 1/2 * यहाँ तेसिं होना चाहिए था। 50. वाउ-सुण्णिवाणं [ ( वाउ ) + ( सुवण्ण ) + (इंदाणं) ] [ ( वाउ )-(सुवण्ण ) - ( इंद) 6/2] एएसि ( एअ) 7/2 स माणुसुत्तरे ( माणुसुत्तर) 7/1 सेले ( सेल ) 7/1 हरिणो ( हरिण ) 6/1 हरिस्सहस्स (हरिस्सह ) 6/1 य ( अ ) = और विज्जुप्पभ- मालवंतेसु [( विज्जुप्पभ ) - ( मालवंत ) 7/2 ] 51. एएसि ( एअ ) 6/2 स देवाणं ( देव ) 6/2 बल-विरिय-परक्कमो [(बल)- ( वीरिअ )-(परक्कम ) 1/1] उ (अ) = पादपूर्ति जो ( ज ) 1/1 स जस्स (ज) 6/1 स ते ( त ) 2/2 स सुंदरि ! (सुदरी ) 8/1 वण्णे ( वण्ण ) व 1/1 सक ( अनि ) हं ( अम्ह ) 1/1 स जहक्कम ( अ ) = यथाक्रम से आणुपुवीए ... ( आणुपुव्वी ) 7/11 52. जाव ( अ ) = जब तक य (अ) = और जंबुद्दोवो ( जंबुद्दीव )1/1 जाव ( अ ) = जब तक य ( अ ) = पादपूर्ति चमरस्स ( चमर) ___6/1 चमरचंचा ( चमरचंचा) 1/1 उ ( अ ) = पादपूर्ति असुरेहि ( असुर ) 3/2 असुरकण्णाहिं [ ( असुर )- ( कण्णा) 3/2] अस्थि ( अस ) व 3/1 अक विसओ (विसअ) 1/1 भरेतुं ( भर ) हे जे ( अ ) = पादपूर्ति / 53. तं ( त ) 1/1 स चेव [ ( च ) + ( एव )] च ( अ )= पादपूर्ति एव (अ) = पादपूर्ति समइरेगं [ ( समइय ) + ( एगं)] [ ( समइय ) - ( एग ) 1/1 ] बलिस्स ( बलि ) 6/1 वइरोय Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविंदत्थओ णस्स ( वइरोयण ) 6/1 बोद्धव्वं ( बोद्धव्व ) विधिकृ1/1 अनि असुरेहिं (असुर) 3/2 असुरकण्णाहिं [ ( असुर )- (कण्णा) 3/2] तस्स (त ) 6/1 स विसओ (विसअ) 1/1 भरे ( भर ) हेकृ जे ( अ ) = पादपूर्ति / 54. धरणो ( धरण ) 1/1 वि ( अ ) = भी, नागराया ( नागराय) 1/2 जंबुद्दोवं ( जंबुद्दीव ) 2/1 फडाइ ( फडा) 3/1 छाइज्जा ( छ ) व 3/2 सक तं (त) 1/1 स चेव [ ( च )+ ( एव )] च (अ) = पादपूर्ति एव (अ) = पादपूर्ति समइरेगं [ (समइय)+ ( एग)] [ ( समइय ) - ( एग) 1/1 ] भूयाणंदे ( भुयाणंद ) 1/1 वि ( अ ) = भी बोद्धव्वं (बोद्धव्व) विधि कृ 1/1 अनि / * छाय→छाअ→छाइज्जा / 55. गलिंद [ ( गरूल ) + ( इंद)] [ (गरूल ) - ( इंद) मूल शब्द 1/1 ] वेणुदेवो ( वेणुदेव ) 1/1 जंबुद्दीवं ( जंबुद्दीव ) 2/1 छएज्ज* ( छाअ ) व 3/2 सक पक्खणं ( पक्ख ) 3/1 तं ( त ) 1/1 स चेव ( अ ) = ही समइरेगं [ ( समइय ) + ( एगं)] [ ( समइय ) - ( एग ) 1/1 ] वेणूदालिम्मि (वेणुदालि ) 7/1 बोद्धव्वं ( बोद्धव्व ) विधि कृ 1/1 अनि / * छाय-छाअ→छाएज्ज / . 56. पुण्णो ( पुण्ण ) 1/1 वि ( अ ) = भी जंबुदीवं ( जंबुदीव ) 2/1 पाणितलेण [ ( पाणि ) - ( तल ) 3/1 ] छएज्ज* ( छाअ ) व 3/1 सक एक्केणं ( एक्क ) 3/1 तं ( त ) 1/1 स चेव [ ( च )+ ( एव ) ] च ( अ ) = एव (अ) = इस प्रकार समइरेगं [ ( समइय ) + ( एगं)] [ ( समइय )-(एग) 1/1] हवइ (हव ) व 3/1 अक वसि? ( वसिट्ट) 7/1 वि (अ) - भी बोद्धव्वं ( बोद्धव्व ) विधि कृ 1/1 अनि / * छाय→छाअ-छाएज्ज / Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण 57. एक्काए ( एक्का ) 3/1 जलुम्मीए [ ( जल) - ( उम्मि ) 3/1 ] जंबुद्दीवं ( जंबुद्दीव ) 2/1 भरेज्ज ( भर ) व 3/1 सक जलकतो (जलकंत ) 1/1 तं ( त ) 1/1 स चेव [ ( च ) + ( एव ) ] च (अ) = और एव (अ)= इस प्रकार समइरेगं [( समइय )+ ( एगं)] [ ( समइय )-( एग) 1/1 ] जलप्पभे ( जलप्पभ ) .. 7/1 होइ (हो) व 3/1 अक बोद्धव्वं ( बोद्धव्व ) विधि कृ 1/1 अनि / 58. अमियगइस्स (अमियगइ) 6/1 वि (अ) = भी विसओ (विस) 1/1 जंबुद्दीवं (जंबुद्दीव) 2/1 तु (अ) = पादपूर्ति पायपण्हीए [ (पाय) - (पण्हि ) 3/1] कंपेज्ज ( कंप ) व3/1 सक निरवसेसं (निरवसेस)2/1 इयरो (इयर) 1/1 वि पुण (अ) = किन्तु तं (त) 1/1 स समइरेगं [ (समइय) + (एग) ] [ (समइय) - (एग) 1/1] 59. एक्काए (एक्का) 3/1 वायगुंजाए [(वाय)- (गुंजा) 3/1] जंबद्दीव (जंबुद्दीव) 2/1 भरेज्ज (भर) व 3/1 सक वेलंबो (वेलंब) 1/1 तं (त) 1/1 स चेव (अ) = ही समइरेगं [ (समइय) + (एग) ] [ (समइय) - (एग) 1/1] पभंजणे (पभंजण) 7/1 होइ (हो) व3/ अक बोद्धव्वं (बोद्धव्व) विधिक 1/1 अनि 60. घोसो (घोस) 1/1 वि (अ) = भी जंबुदीवं* (जंबुदीव) 2/1 संदरि (संदरी) 8/1 एक्केण (एक्क) 3/1 थणियसद्देणं [ (थणिय) - (सह) 3/1] बहिरीकरिज्ज [(बहिर) - (कर) व 3/1 सक] सव्वं (सव्व) 2/1 स इयरो (इयर) 1/1 वि. पुण (अ) = पुनः तं (त) 1/1 स समहरेगं [ (समइय) + (एग)] [ (समइय)- (एग) 1/1] * कभी-कभी सप्तमी के स्थान पर द्वितीया का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3/137) 61. एक्काए (एक्का) 3/1 विज्जुयाए (विज्जुया) 3/1 जंबुद्दीवं (जंबुद्दीव) 2/1 हरी (हरि) 1/1 पयासेज्जा (पयास) व 3/1 सक Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ तं (त) 1/1 स चेव (अ) = ही समइरेगं [ (समइय)+ (एग)] [ (समइय) - (एग) 1/1] हरिस्सहे (हरिस्सह) 1/1 होइ (हो) व 3/1 सक बोद्धव्वं (बोद्धव्व) विधि कृ 1/1 अनि 62. एक्काए (एक्का) 3/1 अग्गिजालाए [ (अग्गि) - (जाला) 3/1 ] जंबुद्दोवं (जंबुद्दीव) 2/1 डहेज्ज (डह) व 3/1 सक अग्गिसिहो (अग्गिसिह) 1/1 तं (त) 1/1 स चेव (अ) = ही समइरेगं [ (समइय) + (एग)] [(समइय) - (एग) 1/1] माणवए (माणवअ) 7/1 बोद्धव्वं (बोद्धव्व) विधि कृ 1/1 अनि 63. तिरियं* (तिरिय) 2/1 तु (अ) = पादपूर्ति असंखेज्जा (असंखेज्ज) 1/2 दीव-समुद्दा [ (दोव) - (समुद्द) 1/2] सरहिं (सअ) 3/2 रूवेहिं ( रूव ) 3/2 अवगाढा (अवगाढ ) भूकृ 1/2 अनि उ (अ) = पादपूरक करिज्जा (कर) व 3/1 सक सुंदरि (सुंदरी) 8/1 एएसि* (एम) 6/2 स एगयरो (एगयर) 1/1 * कभी कभी सप्तमी के स्थान पर द्वितीया का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3/137) * कभी-कभी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग सप्तमी विभक्ति के स्थान पर होता है / (हेम प्राकृत व्याकरण 3/137) यहाँ एएसि होना चाहिए। 64. पभ (पभु) 1/1 अण्णयरो (अण्णयर) 1/1 ईदो (इंद) 11 जंबहीव (जंबुद्दीव) 2/1 वामहत्थे] [ (वाम)- (हत्थ) 3/1] छत्तं (छत्त) 2/1 जहा (अ) = जिस प्रकार घरेज्जा (धर) व 3/1 सक अयत्तओ (अयत्त) पंचमी अर्थक 'ओ' प्रत्यय मंदरं (मंदर) 2/1 घिसं (चित्तुं) सकृ अनि 65. जंबुद्दीवं (जंबुद्दोव) 2/1 काऊग (का) सकृ छत्तयं (छत्त) 'य' स्वार्थिक 1/1 मंदरं (मंदर) 2/1 च (अ) = और से (त) 6/1 स दंडं (दंड) 2/1 पभू (पभु ) 1/1 वि अन्नयरो ( अन्नयर ) 1/1 वि इंदो ( इंद ) 1/1 एसो ( एत ) 1/1 स तेसि (त) 6/2 स बलविसेसो [(बल)- (विसेस) 1/1] Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण 66. एसा (एआ) 1/1 स भवणवईणं (भवणवइ) 6/2 भवणठिई [ (भवण) - (ठिइ) 1/1] वनिया ( वन्न ) भूकृ 1/1 समासेणं (समास) 3/1 सुण (सुण) विधि 2/1 सक वाणमंतराणं (वाणमंतर) 6/2 भवणठिई [ (भवण) - (ठिइ) 1/1 ] आणुपुवीए ( आणुपुवी ) 5/1 67. पिसाय (पिसाय) मूलशब्द 1/2 भूया (भूय) 1/2 जक्खा (जक्ख) 1/2. य (अ) = और रक्खसा (रक्खस) 1/2 किन्नरा (किन्नर) 1/2 य (अ) = पादपूर्ति किंपुरिसा (किंपुरिस) 1/2 महोरगा (महोरग) 1/2 य (अ) = पादपूर्ति गंधव्वा (गंधव्व) 1/2 अविहा (अट्ठविहा) 1/2 वाणमंतरिया [ ( वाणमंतर) + (इया]] [ (वाणमंतर)(इय) 1/2 वि] 68. एते (एत) 1/2 स उ (अ) = पादपूर्ति समासेणं (समास) 3/1 कहिया (कह) भूकृ 1/2 भे (अम्ह) 1/2 स वाणमंतरा (वाणमंतर) 1/2 देवा (देव) 1/2 पत्तेयं (अ) = एक-एक करके पि (अ) = भी य (अ) = और वोच्छं (वय) = भ 1/1 सक सोलस (सोलस) मूलशब्द 1/2 इंदे (इंद) 1/2 महिड्ढिए (महिड्ढिअ) 2/2 काले (काल) 1/1 महाकाले (महाकाल) 1/1 सुरुव (सुरूव) मूलशब्द 1/1 पडिरूव (पडिरूव) मूलशब्द 1/1 पुण्णभद्दे (पुण्णभद्द) 1/1 अमरवइ (अमरवइ) मूलशब्द 1/1 माणिभद्रे (माणिभद्द)1/1 भीमे (भीम) 1/1 य (अ) = और तहा (अ) = पादपूर्ति महाभोमे (महाभीम) 1/1 - 70. किन्नर (किन्नर) मूलशब्द 1/1 किपुरिसे (किंपुरिस) 1/1 खलु (अ) = पादपूर्ति सप्पुरिसे (सप्पुरिस) 1/1 चेव [ (च) + (एव) ] च (अ) = और एव (अ) = पादपूर्ति महापुरिसे (महापुरिस) 1/1 अइकाय (अइकाय) मूलशब्द 1/1 महाकाए (महाकाअ) 1/1 गीयरई (गीयरइ) 1/1 गोयजसे (गोयजस) 1/1 चेव (अ) = पादपूरक Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ 11. अणपनी (अणपन्नि) 1/1 पणपनी (पणपन्नि) 1/1 इसिवाइय (इसिवाइय) मूलशब्द 1/1 भूयवाइए (भूयवाइए) 1/1 चेव (अ) = पादपूरक कंदी (कदि) 1/1 य (अ) = पादपूर्ति महाकंदी (महाकंदि) 1/1 कोहंडे (कोहंड) 1/1 चेव (अ) = पादपूरक पयए (पयअ) 1/1 य (अ) = और 71. सन्निहिए ( सन्निहिअ ) 1/1 सामाणे (सामाण) 1/1 धाय (धाय) मूलशब्द 1/1 विधाय ( विधाय) मूलशब्द 1/1 इसी (इसि ) 1/1 य ( अ ) = और इसिवाले ( इसिवाल ) 1/1 इस्सर (इस्सर) मूलशब्द 1/1 महिस्सरे ( महिस्सर ) 1/1 हवइ (हव) व 3/1 अक सुवच्छे ( सुवच्छ ) 1/1 विसाले ( विसाल) 1/1 12. हात हासे ( हास ) 1/1 हासरई (हासरइ ) मूलशब्द 1/1 वि ( अ ) 3 पादपरक सेए (सेअ) 1/1 तहा ( अ ) = तथा य (अ) = और भवे ( भव) व 3/2 अक महासेए ( महासेअ) 1/1 पयए ( पयय ) 1/1 पययवई (पययवइ) 1/1 नेयम्वा (णि ) विधि कृ 1/2 आणपुत्वोए ( आणुपुवी ) 5/1 73. उड्ढमहे [ ( उड्ढ ) + (मह ) 7/1 ] तिरियम्मि ( तिरिय ) 7/1 वसहि* ( वस )व 3/2 सक उवति ( उव-वा) व 3/2 सक वंतरा ( वंतर) 1/2 देवा ( देव ) 1/2 भवणा ( भवण ) 1/2 पुणण्ह [ ( पुण) + (अण्ह) ] पुण (अ) = और अण्ह ( अण्ह ) मूलशब्द 1/1 रयणप्पभाए (रयणप्पभा) 7/1 उव रिल्लए ( उवरिल )7/1 "अ" स्वार्थिक कंडे ( कंड ) 1/1 * यहाँ "वसहि" के स्थान पर "वसेहि" होना चाहिए था। 74, एक्केषकम्मि ( एक्वेवकम ) 7/1 य ( अ ) = और नियमा ( क्रि विअ ) = नियम से भवणा ( भवण ) 1/2 वरा ( वर ) 1/2 असंखेज्जा (असंखेज्ज) 1/2 संखिज्जवित्थडा [ ( संखिज्ज )(वित्थड ) 1/2 ] पुण (अ) = पुनः नवरं (अ) = केवल एतऽत्थ [( एत) + (अत्थ ) ] एत (अ) = अतः अत्थ ( अ ) = यहाँ नाणत्त ( नाणत्त ) 2/1 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 97 ब्याकरणिक विश्लेषण 75. जंबुद्दीवसमा [( जंबुद्दीव ) - ( सम ) 1/2 ] खलु ( अ ) पादपुरक उक्कोसेणं ( उक्कोस ) 3/1 भवंति ( भव )व 3/2 अक भवणवरा [ ( भवण ) - ( वर ) 1/2] खुड्डा ( खुड्ड ) 1/2 खेत्तसमा [ ( खेत्त )- ( सम) 1/2 ] वि ( अ ) = भी य (अ) = और विदेहसमया [ (विदेह) मूलशब्द 1/2 ] समया (अ) समान य ( अ ) - पादपूर्ति मज्झिमया ( मज्झिम ) 'य' स्वार्थिक 1/2 76. जहिं ( अ ) = जहाँ पर देवा ( देव ) 1/2 वंतरिया [ ( वंतर )+ (इया)] [(वंतर) (इय) 1/2 वि]वरतरुणीगीयवाइयरवेणं[(वर) - (तरुणी)- (गीय ) - ( वाइअ )- ( रव ) 3/1 ] निच्चसु. हिया [ ( निच्च ) वि- (सुह ) भूकृ 1/2 ] पमुइया (पमुइय) भूकृ 1/2 अनि गयं ( गय ) भूकृ2/1 अनि पि ( अ ) = भो कालं (काल) 2/1 न (अ) = नहीं जाणंति (जाण) व 3/2 सक काले ( काल.) 1/1 सुरुव (सुरुव ) मूलशब्द 1/1 पुण्णे ( पुण्ण ) 1/1 भीमे ( भीम ) 1/1 तह ( अ ) = उसी तरह किन्नरे (किंनर) 1/1 य ( अ ) - और सप्पुरिसे ( सप्पुरिस ) 1/1 अइकाए ( अइकाअ ) 1/1 गोयरई ( गीयरइ ) 1/1 अट्रेते [ ( अट्ट) + ( एते ) ] [ ( अट्ठ) - ( एत ) 1/2 ] होंति (हो) व 3/2 अक दाहिणओ ( दाहिण ) पंचमी अर्थक 'ओ' प्रत्यय 78. मणि-कणग-रयणथूभिय [ ( मणि ) + ( कणग ) + ( रयण ) + . (थूभ ) + (इय) ] [ ( मणि ) - (कणग ) - ( रयण ) - (थूभ) ( इय ) 1/2 मूलशब्द ] जंबूणयवेइयाइं [ ( जंबूणय ) - (वेइअ) 1/2 वि] भवणाई ( भवण ) 1/2 एएसि ( एअ) 7/2 स दाहिणओ ( दाहिण ) पंचमी अर्थक 'ओ' प्रत्यय सेसाण (सेस) 6/2 स उत्तरे ( उत्तर )7/1 पासे (पास) 7/1 79. दसवाससहस्साई [ ( दस ) - (वास )-(सहस्स ) 1/2] ठिई ( ठिइ ) 1/1 जहन्ना ( जहन्न ) 1/2 उ (अ) = पादपूर्ति वंतरसुराणं [ ( वंतर ) - ( सुर ) 6/2 ] पलिओवमं (पलिओवम ) Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ 2/1 तु ( अ ) = पादपूरक एक्कं ( एक्क )1/1 ठिई ( ठिइ ) 1/1 उ ( अ ) = पादपूर्ति उक्कोसिया ( उक्कोसिया ) 1/1 तेसि (त) 6/2 स 80. एसा (एता) 1/1 स वंतरियाणं [(वंतर)+ (इयाणं)] [(वंतर)(इय)6/2] भवठिई [ (भवण - (ठिइ) 1/2 ] वनिया (वन्न) भूकृ 1/2 समासेणं ( समास) 3/1 सुण ( सुण ) विधि3/2 सक जोइसालयाणं (जोइसालय ) 6/2 आवासविहिं [ ( आवास )( विहि ) 2/1] सुरवराणं ( सुरवर ) 6/2 . 81. . चंदा ( चंद ) 1/2 सूरा ( सूर ) 1/2 तारागणा ( तारागण )1/2 य (अ) = और नक्खत्त ( नक्खत्त ) मूलशब्द 1/2 गहगणसमग्गा [ ( गह ) - (गण) - (समग्ग) 1/2.] पंचविहा ( पंचविह ) 1/2 जोइसिया ( जोइसिअ ) 1/2 ठिई ( ठिइ ) 1/2 वियारो (विआरि ) 1/2 य ( अ ) = और ते ( त ) /2स भणिया ( भण) भूक 1/2 82. अद्धकविट्ठगसंठाणसंठिया [ ( अद्धकविट्ठग ) + ( संठाण ) + (संठिया)] [ (अद्धकविट्ठ) - (संठाण) - (संठिय) 1/2 वि ] फलियामया ( फलियामय ) 1/2 वि रम्मा ( रम्म ) 1/2 वि जोइसियाण ( जोइसिय ) 62 विमाणा (विमाण ) 1/2 तिरियंलोए [ तिरियं ) + ( लोए ) 1 तिरियं ( तिरिय ) 2/1 लोए ( लोअ) 7/1 असंखेज्जा ( असंखेज्ज) 1/2 83. धरणियलाओ (धरणियल ) 5/1 समाओ ( सम ) 5/1 सहि ( सत्त ) 3/2 नउहि ( नउअ ) 3/2 जोयणसएहि [ ( जोयण ) - ( सअ ) 3/2 ] हेट्ठिल्लो ( हेट्ठिल्ल ) 1/1 वि होइ ( हो) व 3/1 अक तलो ( तल ) 1/1 सूरो ( सूर ) 1/1 पुण ( अ ) = पुनः अट्ठहिं ( अट्ठ ) 3/2 सएहिं ( सअ ) 3/2 84. अट्ठसए ( अट्ठसअ) 1/1 असीए* ( आसीअ ) 1/1 वि चंदो ( चंद ) 1/1 तह ( अ ) = उसी प्रकार चेव [ ( च ) + ( एव )] Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण च ( अ ) = और एव (अ) = इस तरह होइ ( हो) व 3/1 अक उवरितले [ ( उवरि )-( तल ) 7/1 ] एगं ( एग) 1/1 दसुत्तरसयं [ (दस) - ( उत्तर)- (सय ) 1/1] बाहल्लं (बाहल्ल) 1/1 जोइसस्स ( जोइस ) 6/1 भवे ( भव ) विधि 3/1 सक / * आसिअ→आसीअ ? = स्थित, पाइय–सद्द-महण्णवो / 85. एगसट्ठिभाग [ ( एगसट्ठि)- (भाग) मूलशब्द 2/1] काऊण ( का ) संकृ जोयणं ( जोयण ) 2/1 तस्स ( त ) 6/1 स भागछप्पण्णं [ ( भाग )-(छप्पण्ण ) 1/1 ] चंवपरिमंडलं [ ( चंद) - (परिमंडल) 1/1 ] खलु ( अ ) = पादपूरक अडयालीसा ( अडयालीस ) 1/2 य ( अ ) = और सूरस्स (सूर ) 6/1 86. हि ( अ ) = जिसमें देवा ( देव ) 1/2 जोइसिया (जोइसिय ) 1/2 वरतरुणीगीय-वाइयरवेणं [( वर )- ( तरुणी)-(गीय ) (वाइय ) - (रव ) 3/1] निच्चसुहिया [ ( निच्च )-( सुहिय ) 1/2 वि] पमुइया (पमुइअ) भूकृ 1/2 अनि गयं ( गय ) भू कृ 2/1 अनि पि ( अ ) भी कालं ( काल ) 2/1 न (अ)= नहीं याणंति (याण ) व 3/2 सक 87. छप्पन्नं (छप्पन्न ) 1/1 खलु ( अ ) = पादपक भागा ( भाग) ___1/2 विच्छिन्न ( विच्छिन्न ) 1/1 वि चंदमंडलं ( चदमंडल )1/1 होइ ( हो ) व 3/1 अक अडवोस* ( अट्ठवीस ) 1/1 कलाओ .' ( कला ) 'अ' स्वार्थिक 1/1 बाहल्लं ( बाहल्ल) 1/1 तस्स (त) 6/1 स बोखत्वं ( बोद्वव्व ) विधि कृ 1/1 अनि * अट्ठवीस→अडवीस 88. अडयालोसं ( अडयालीस ) 1/1 भागा ( भाग ) 1/2 विच्छिन्नं . (विच्छिन्न ) 1/1 सूरमण्डलं [ ( सूर )- ( मंडल ) 1/1] होइ (हो) व 3/1 सक चउवोसं ( चउवोस ) 1/1 च ( अ ) = और कलाओ ( कला) 1/1 'अ' स्वार्थिक बाहल्लं ( बाहल्ल ) 1/1 तस्स ( त.) 6/1 स बोद्धव्वं (बोद्धव्य ) विधिकृ 1/1 अनि / Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 देविदत्थओ 89. अद्धजोयणिया [ ( अद्ध) + ( जोयण ) + (इया )] [( अद्ध ). ( जोयण ) - (इय) 1/2 वि] उ ( अ ) = पादपूर्ति गहा ( गह) 1/2 तस्सद्ध [( तस्स ) + ( अद्व)] तस्स ( त ) 6/1 स अद्ध ( अद्ध ) 1/1 चेव [( च ) + ( एव )] च ( अ ) = और एव ( अ) =ही होइ (हो) व 3/1 अक नक्खत्ता (नक्खत्त) 1/2 नक्खती [( नक्खत्त) + ( अद्धे )] [(नक्खत्त)- ( अद्ध ) 1/1] तारा (तारा) मल शब्द 1/2 तस्सद्ध [( तस्स )+ ( अद्ध)] तस्स (त) 6/1 स अद्धं ( अद्ध ) 1/1 चेव [( च ) + ( एव )] च (अ) = और एव ( अ ) = ही बाहल्लं (बाहल्ल) 1/1 90. जोयणमद्ध [ ( जोयणं ) + ( अद्धं ) ] [ ( जोयण ) - ( अद्ध) . 1/1] तत्तो (अ) = उस कारण से य (अ)- और गाउयं ( गाउय ) 1/1 पंच (पंच ) मूल शब्द 1/2 घणुसया [ ( धणु ) - ( सय ) 1/2 ] होंति (हो ) व 3/2 अक गह-नक्खत्तगणाणं [(गह )-( नक्खत्त)- (गण) 6/2] तारविमाणाण [ ( तारा*)-(विमाण ) 6/2 ] विक्खंभो (विक्खंभ ) 1/1. * समास पद में दीर्घ का ह्रस्व हो जाता है। 91. जो ( ज ) 1/1 स जस्स (ज) 6/1 स उ (अ) = पादपूर्ति विक्खंभो ( विक्खंभ ) 1/1 तस्सद्ध [( तस्स ) + ( अद्धं )] तस्य ( त ) 6/1 स अद्धं ( अद्ध ) 1/1 चेव [ ( च ) + (एव)] च ( अ ) = और एव (अ)- ही होइ (हो) व 3/1 अक बाहल्लं (बाहल्ल) 1/1 तं ( त ) 1/1 स तिगुणं ( तिगुण ) 1/1 सविसेसं ( स - विसेस ) 1/1 तु ( अ ) = पादपूर्ति परिरओ (परिरअ ) 1/1 होइ (हो ) व 3/1 अक बोद्धव्वो (बोद्धव्व ) विधिकृ 1/1 अनि 92. सोलस ( सोलस ) मूलशब्द 1/2 चेव (अ) = पादपूरक सहस्सा ( सहस्स) 1/2 अट्ठ ( अट्ठ) मूलशब्द 1/2 य ( अ ) = Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 101 व्याकरणिक विश्लेषण पादपूरक चउरो ( चउ ) 1/2 दोन्नि ( दो) 1/2 य ( अ ) = पादपूरक सहस्सा ( सहस्स ) 1/2 जोइसियाण ( जोइसिअ ) 6/2 विमाणा ( विमाण ) 1/2 वहंति ( वह )व 3/2 सक देवाऽभिओगा [ ( देवा ) + ( अभिओगा)] [ ( देव ) - ( अभिओग) 1/2] उ ( अ ) = पादपूर्ति 93. पुरओ ( अ ) = पूर्व में वहंति ( वह ) व 3/2 सक सोहा ( सोह) 1/2 दाहिणओ ( दाहिण ) पंचमी अर्थक 'ओ' प्रत्यय कुंजरा ( कुंजर ) 1/2 महाकाया ( महाकाय ) 1/2 पच्चत्थिमेण* ( पच्चत्थिम ) 3/1 वसहा ( वसह ) 1/2 तुरगा ( तुरग) 1/2 पुण ( अ ) = पादपूर्ति उत्तरे ( उत्तर ) 7/1 पासे ( पास ) 7/1 * कभी-कभी सप्तमो विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण, 3/137) 94. चंदेहि* ( चंद ) 3/2. उ ( अ ) = पादपति सिग्घयरा ( सिग्घयर) 1/2 वि सूरा ( सूरा ) 1/2 सूरेहिं* ( सूर ) 3/2 तह (अ) = उसी प्रकार गहा ( गह ) 1/2 सिग्घा ( सिग्घ ) 1/2 नक्खत्ता ( नक्खत्त ) 1/2 उ ( अ ) = पादपूर्ति गहेहि ( गह ) 3/2 य (अ) = और नक्खत्तेहि* ( नक्खत्त ) 3/2 तु ( अ ) = पादपूर्ति - ताराओ ( तारा ) 1/2 * कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। ( हेम प्राकृत व्याकरण, 3/136) . 95. . सव्वाप्पगई [ ( सव्व ) + ( अप्पगई ) ] [ ( सव्व ) - ( अप्प) --( गइ) 1/2 ] चंदा ( चंद) 1/2 तारा (तारा) मूलशब्द 1/2 पुण (अ) = पादपूर्ति होति (हो) व 312 अक सव्वसिग्घगई [ ( सव्व )- ( सिग्घ )- ( गइ ) 1/2 ] एसो (एत ) 1/1 स गई विसेसो [ ( गइ)* -(विसेस) 1/1 ] जोइसियाणं ( जोइसिय )6/2 तु ( अ ) = पादपूर्ति देवाणं ( देव ) 6/2 समासगत शब्दों में रहे हुए स्वर परस्पर ह्रस्व के स्थान पर दीर्घ हो जाते ( हेम प्राकृत व्याकरण, 1/4 ) Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 देविदत्थओ 96. अप्पिड्ढिया [ ( अप्प ) + ( इड्ढिया ) 1 ( अप्प ) - ( इड्ढि ) 'य' स्वार्थिक 1/2 उ (अ)= पादपूरक तारा (तारा) मलशब्द 1/2 नक्खत्ता ( नक्खत्त ) 1/2 खलु ( अ ) = निश्चय ही तओ ( अ ) = उससे महिड्ढियए ( महिड्ढिय ) 'अ' स्वार्थिक 1/1 नक्खतेहि ( नक्खत्त ) 3/2 तु ( अ )=पादपूर्ति गहा (गह ) 1/2 गहेहिं (गह ) 3/2 सूरा ( सूर ) 1/2 तओ ( अ ) = इसी तरह चंदा (चंद ) 1/2 97. सव्वन्भिंतरऽभीई [ (सव्व) + (अन्भितर) + (अभीई)] [ (सव्व - (अभितर) - (अभीइ) 1/1] मूलो (मूल) 1/1 पुण (अ) - पादपूर्ति सव्वबाहिरो [ (सव्व) - (बाहिर) 1/1 वि] होइ. (हो) व 3/1 अक सव्वोवरि [(सव्व) + (उवरिं)] सव्व (सव्व) मूलशब्द 1/1 सवि उवरि (अ) = उपर च (अ) = और साई (साइ) 1/1 भरणी (भरणी) मूलशब्द 1/1 पुण (अ) = पादपूर्ति सव्वहिमिया [ (सव्व) - (हिट्ठिम) 'य' स्वार्थिक 1/1] . 98. सव्वे (सव्व) 1/1 गह-नक्खत्ता [ (गह)- (नक्खत्त) 1/2] मज्झे (मज्झ) 7/1 खलु (अ) = निश्चय ही होति (हो) व 3/2 अक चंदसूराणं [ (चंद)- (सर) 6/2] हिट्ठा (हिए) 1/2 समं (अ) = बराबर उप्पिं (अ) = ऊपर ताराओ (तारा) 1/2 चद-सूराणं [ (चंद) - (सूर) 6/2] च (अ) = और 99. पंचेव [ (पंच) + (एव) ] पंच (पंच) मूलशब्द 1/2 एव (अ) = निश्चय अर्थ में धणसयाई [ (धणु) - (सय) 1/2] जहन्नयं (जहन्न) 1/1 'य' स्वार्थिक अंतरं (अंतर) 1/1 तु (अ) = पादपूरक ताराणं (तारा) 6/2 दो (दो) 1/2 चेव (अ) = और गाउयाई (गाउय) 1/2 निव्वाघाएण (निव्वाघाअ) 3/1 उक्कोसं (उक्कोस) 1/1 100. दोनि (दो) 1/2 सए (सय) 7/1 छावळें* (छाव8) मूलशब्द 1/2 जहन्नयं (जहन्न) 1/1 'य' स्वार्थिक अंतरं (अंतर) 1/1 तु (अ) = पादपूर्ति ताराणं (तारा) 6/2 बारस (बारस) मूलशब्द 1/2 चेक Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण 103 (अ) = और सहस्सा (सहस्स) 1/2 दो (दो) 1/2 बायाला य (अ) = और उक्कोसा (उक्कोस) 1/2 * छावट्ठि-छावढे 101. एयस्स ( एय ) 6/1 स चंदजोगो [ ( चंद ) - ( जोग ) 1/1] सत्तढिं ( सत्तट्ठि) 1/1 खंडिओ ( खंडिअ ) 1/1 अहोस्तो ( अहोरत्त ) 1/1 ते ( त ) 1/1 स हुंति ( हु ) व 3/2 अक नव ( नव ) 1/2 मुहुत्ता ( मुहुत्त ) 1/2 सत्तावोसं* ( सत्तावीस ) 211 कलाओ (कला ) 1/2 य (अ) = और कभी-२ प्रथमा विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का सद्भाव पाया जाता है। . (हेम प्राकृत व्याकरण, 3-137 वृत्ति) 102. सयभिसया ( सयभिसया ) 1/1 भरणीओ ( भरणी ) 1/2 अदा ( अद्दा ) 1/1 अस्सेस* (अस्सेसा) 1/1 साइ (साइ) 1/1 जेठा ( जेट्ठा ) 1/1 य ( अ ) = और एए (एअ ) 1/2 स छ ( छ ) 1/2 नक्खत्ता ( नक्खत्त ) 1/2 पन्नरसमुहुत्तसंजोगा [ ( पन्नरस )- ( मुहुत्त ) - ( संजोग ) 1/2 ] * छन्द की मात्रा - पूर्ति हेतु दीर्घ का हस्व कर दिया जाता है। 103. तिन्नेव [ ( तिन्न ) + ( एव ) ] तिन्न ( तिन्न ) मूलशब्द 1/2 एव ( अ ) = इसप्रकार उत्तराइं ( उत्तर ) 1/2 पुणव्वसू (पुणव्वस ) 1/1 रोहिणी ( रोहिणो ) 1/1 विसाहा ( विसाहा) 1/1 य ( अ ) = और एए (एअ) 1/2 स छ (छ) 1/2 नक्खत्ता ( नक्खत्त ) 1/2 पणयालमुहत्तसंजोगा [ ( पणयाल ). (मुहुत्त )- ( संजोग ) 1/2 ] 104. अवसेसा (अवसेस) 1/2 नक्खत्ता (नक्खत्त) 1/2 पनरस (पनरस) मूलशब्द 1/2 या (अ) = और होंति (हो) व 3/2 अक तीसईमुहुत्ता [ (तीसइ) - (मुहुत्त) 1/2] चंदम्मि* (चंद) 7/1 एस (एअ) 1/1 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 देविदत्थओ स जोगो (जोग) 1/1 नक्खत्ताणं (नक्खत्त) 6/2 मुणेयव्वो (मुण) विधिकृ 1/1 * कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमो विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3/135) 105. अभिई (अभिइ) 1/1 छच्च [ (छ) + (च्च)] छ (छ) मूलशब्दं 1/2 च्च(अ) = पादपूरक मुहत्ते (महत्त) 1/1 चत्तारि (चउ) 1/2 य(अ) = और केवले (केवल) 1/1 अहोरत्ते (अहोरत्त) 1/1 सूरेण (सूर) 3/1 समं (अ) = साथ वच्चई (वच्च) व 3/1 सक एत्तो (अ) = इससे सेसाण (सेस) 6/2 वुच्छामि (वुच्छ) व 1/1 सक 106. सयभिसया (सयभिसया) 1/1 भरणोओ (भरणो) 1/2 अदा (अद्दा) 1/1 अस्सेस* (अस्सेसा)मूलशब्द 1/1 साइ (साइ) मूलशब्द 1/1 जेट्ठा (जेद्रा) 1/1 2 (अ) = और वच्चंति (वच्च) व 3/2 सक छहोरते [ (छ) + (अहोरत्ते) ] [ (छ) - (अहोरत्त) 7/1] एक्कवोसं* (एक्कवीस) 2/1 वि मुहुते (मुहुत्त) 1/1 य (अ) = और * छन्द की मात्रा पूर्ति हेतु दीर्घ का हस्व कर दिया. जाता है / * कभी-कभी सप्तमी के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। . (हेम प्राकृत व्याकरण, 3/137) 107. तिन्नेव [ (तिन्न) + (एव) ] तिन्न(तिन्न)मूलशब्द 1/2 एव(अ) = हो उत्तराई (उत्तर)1/2 पुणव्वसू(पुणव्वसु) 1/1 रोहिणी(रोहिणी) 1/1 विसाहा (विसाहा) 1/1 य (अ) = और वच्चंति (वच्च) व 3/2 सक मुहुत्ते (मुहुत्त) 1/1 तिन्नि(ति) 1/2 चेव [(च) + (एव)] च (अ) = और एव (अ) = ही वोसं* (वीस) 2/1 वि अहोरते (अहोरत्त) 1/1 * कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृतं व्याकरण, 3/137) Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण 105 108. अवसेसा ( अवसेस ) 1/2 नक्खत्ता ( नक्खत ) 1/2 पण्णरस ( पण्णरस ) 1/2 वि ( अ ) = पादपूरक सूरसहगया [ ( सूर )( सहगय ) भूक 1/2 अनि ] जंति* ( जा ) व 3/2 सक बारस (बारस ) मूल शब्द 7/1 वि चेव [ (च) + (एव)] व (अ) = और एव (अ) = ही मुहुत्ते ( मुहुत्त ) 7/1 तेरस ( तेरस ) मूलशब्द 7/1 वि य (अ) = और समे ( सम) 1/1 अहोरत्ते (अहोरत्ते) 7/1 * जा→जांति-जंति / 109. दो ( दो ) 1/2 चंदा ( चंद ) 1/2 दो ( दो) 1/2 सूरा (सूर ) _1/2 नक्खत्ता ( नक्खत्त) 1/2 खलु (अ) = पादपूरक हवंति (हव) व 3/2 अक छप्पन्ना (छप्पन्न ) 1/2 छावत्तरं* (छावत्तर) 2/1 वि गहसयं* [ ( गह )- ( सय ) 2/1 ] जंबुद्दीवे ( जंबुद्दीव ) 7/1 वियारी ( वियारि ) 1/2 वि णं ( अ ) = वाक्यालंकार * कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हेम प्राकृत व्याकरण : 3/137) / 110. एक्कं ( एक्क ) 1/1 च ( अ ) = और सयसहस्सं ( सयसहस्स) 1/1 तित्तोसं ( तित्तोस ) 1/1 खलु ( अ ) = पादपूरक भवे ( भव) व 3/2 अक सहस्साई ( सहस्स ) 1/2 नव ( नव ) 1/2 य (अ) = और सया ( सय ) 1/2 पण्णासा (पण्णास ) 1/2 तारागणकोडिकोडोणं [ ( तारा ) - ( गण ) - ( कोडिकोडि ) 6/2]| __111. चत्तारि ( चउ ) 1/2 चेव ( अ ) = ही चंदा ( चंद) 1/2 चत्तारि ( चउ ) 1/2 य ( अ ) = और सूरिया ( सूरिय ) 1/2 लवणतोए [ ( लवण ) - ( तोअ ) 7/1 ] बारं ( बार ) 1/1 नक्खत्तसयं [ ( नक्खत्त ) - ( सय ) 1/1 ] गहाण ( गह) 6/2 तिन्नेव [ ( तिन्न ) + ( एव ) ] तिन्न (तिन्न) मूलशब्द 1/1 एव (अ) = इसी प्रकार बावन्ना ( बावन्न ) 1/2 | Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 देविदत्थओ 112. दो (दो) 1/2 चेव ( अ ) = ही सयसहस्सा ( सयसहस्स ) 1/2 सत्तट्ठि* ( सत्तट्ठि ) 2/1 खलु ( अ ) = पादपूरक भवे ( भव.) व 3/1 सक सहस्सा (सहस्स) 1/2 उ ( अ )= पादपूर्ति नव ( नव ) 1/2 य (अ) = और सया ( सय ) 1/2 लवणजले [ ( लवण )- (जल) 7/1 ] तारागणकोडिकोडोणं [ ( तारा) - (गण)- ( कोडिकोडि ) 6/2 ] / * कभी-कभी प्रथमा विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है / (हेम प्राकृत व्याकरण 3/137 वृत्ति)। 113. चउवोसं* ( चउवोस ) 2/1वि ससि-रविणो [ ( ससि ) ( रवि )1/2 ] नक्खत्तसया [ ( नक्खत्त )- (सय ) 1/2 ] य (अ) = और तिणि (ति) 1/2 छत्तोसा ( छत्तोस) 1/2 एक्कं ( एक्क ) 111 च ( अ ) = और गहसहस्स [ (गह) - ( सहस्स ) मलशब्द 1/2 ] छप्पन्नं* ( छप्पन्न ) 2/1 घायईसंडे ( धायई संड) 7/1 * कभी-कभी प्रथमा विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है / (हेम प्राकृत व्याकरण, 3/137 वृत्ति)। 114. अठेव [ ( अट्ठ ) + ( एव ) ] अट्ठ ( अट्ठ) 1/2 एव ( अ ) = हो सयसहस्सा ( सयसहस्स) 1/2 तिणि (ति ) 1/2 सहस्सा ( सहस्स ) 1/2 य ( अ ) = पादपूर्ति सत्त ( सत्त) 1/2 य ( अ ) = पादपूर्ति सयाई (सय) 1/2 धायइसंडे (धायइसंड)7/1 दीवे ( दीव ) 7/1 तारागणकोडिकोडोणं [ ( तारा ) - (गण) - ( कोडिकोडि ) 6/2 115. बायालोसं* ( बायालीस ) 2/1 चंदा ( चंद ) 1/2 बायालोस* (बायालीस ) 2/1 च ( अ ) = और दिणयरा (दिणयर ) 1/2 दित्ता ( दित्त ) 1/2 कालोदहिम्मि (कालोदहि) 7/1 एए ( एअ ) 7/1स चरंति ( चर ) व 3/2सक संबद्धलेसाया [ (सं बद्ध ) - ( लेसा ) 'य' स्वार्थिक 1/2 ] * कभी-कभी प्रथमा विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हेमप्राकृत व्याकरण 3/137 वृत्ति) Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण 107 116. नक्खत्तसहस्सं [ ( नक्खत्त ) - (सहस्स)1/1 ] एगमेव [(एग) + (एव)] एगं ( एग ) 1/1 एव ( अ ) = ही छावत्तरं ( छावत्तर ) 2/1 वि च (अ) = पादपूर्ति सयमन्न [ (सय) + ( अन्न) ] सयं (सय) 1/1 अन्नं ( अन्न) 1/1स छच्च (छ) 1/2 च (अ) = पादपूरक सया ( सय ) 1/2 छन्नउया (छन्नउय ) 1/2 गहग्गहा ( महग्गह) 1/2 तिन्नि (ति) 1/2 य (अ) = और सहस्सा (सहस्स) 1/2 * कभी-कभी प्रथमा विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग किया जाता है (हेम प्राकृत व्याकरण 3/137, वृत्ति) 117. अट्ठावीसं* ( अट्ठावीस ) 2/1 वि सयसहस्साई (सयसहस्स) 1/2 कालोदहिम्मि ( कालोदहि ) 7/1 बारस (बारस ) मूलशब्द 1/2 य ( अ ) = और सहस्साइ ( सहस्स) 1/2 नव ( नव ) 1/2 य ( अ )= पादपति सया ( सय ) 1/2 पन्नासा ( पन्नास) 1/2 तारागण कोडिकोडीणं [ ( तारा) - ( गण )- ( कोडि कोडि ) 6/2] * कभी-कभी प्रथमा विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है ( हेम प्राकृत व्याकरण 3/137, वृत्ति) 118. चोयालं (चोयाल ) 1/1 चंदसयं [( चंद) - ( सय ) 1/1] चोयालं ( चोयाल ) 1/1 चेव [(च) + (एव)] च (अ) = और एव ( अ ) = ही सूरियाण ( सूरिय ) 6/1 सयं ( सय ) 1/1 पोक्खरवरम्मि ( पोक्खरवर ) 7/1 एए ( एअ ) 12 स चरंति " (चर). व 3/2 सक संबद्धलेसाया [ ( स )- (बद्ध ) भूकृ आनि ( लेसाया ) मूल शब्द 3/1] 119. चत्तारि ( चउ ) 1/2 च ( अ ) = पादपूर्ति सहस्सा ( सहस्स ) 1/2 बत्तीसं* ( बत्तीस ) 2/1 वि चेव [( च ) + (एव) ] च (अ) = और एव ( अ ) = ही होंति (हो) व 3/2 अक नक्खत्ता (नक्खत्त)1/2 छच्च [(छ) + (च)] छ(छ)1/2 च (अ) = पाद पूरक सया ( सय) 1/2 बावत्तर (बावत्तर) मूलशब्द 1/2 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 देविदत्थओ महगहा ( महग्गह ) 1/2 बारस (बारस ) मूलशब्द 1/2 सहस्सा ( सहस्स) 1/2 * कभी-कभी प्रथमा विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हेम प्राकृत व्याकरण 3/137, वृत्ति) 120. छनउइ ( छन्नउइ ) मलशब्द 1/2 सयसहस्सा ( सयसहस्स) 1/2 चोयालीसं* ( चोयालीस ) 2/1 वि भवे ( भव ) व.3/2 सक सहस्साई (सहस्स) 1/2 चत्तारि (चउ) 1/2 तह (अ) = उसी तरह सयाई ( सय ) 1/2 तारागणकोडिकोडोणं [( तारा )- (गण) - ( कोडिकोडि ) 6/2] * कभी-कभी प्रथमा विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हेम प्राकृत व्याकरण 3/137, वृत्ति) 121. बावत्तरिं* (बावत्तरि ) 2/1 विच ( अ ) = पादपति चंदा (चंद ) 1/2 बावत्तरिमेव [( बावरिं) + (एव)] बावत्तरि (बावत्तरि ) 2/1 वि एव (अ) = ही दिणयरा (दिणयर ) 1/2 दित्ता ( दित्त) 1/2 पुक्खरवरदोवड्ढे [ ( पुक्खरवर )( दीव ) - ( अड्ढ ) 7/1 ] चरंति ( चर ) व 3/2 सक एए (एअ) 7/1 स पगासिंता ( पगास ) व 1/2 आर्ष प्रयोग ___ कभी-२ प्रथमा विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3/137, वृत्ति) 122. तिणि (ति) 1/2 सया(सय) 1/2 छत्तोसा (छत्तीस) 1/2 छ (छ) 1/2 च्च ( अ ) = पादपति सहस्सा ( सहस्स ) 1/2. महग्गहाणं ( महग्गह) 6/2 तु ( अ ) = पादपूर्ति नक्खत्ताणं ( नक्खत्त ) 6/2 तु ( अ ) = भेद भवे ( भव ) व 3/2 सक सोलाणि* ( सोल) 1/2 दुवे ( दु) 1/2 सहस्साणि ( सहस्स ) 1/2 * सोला→सोल→सोलाणि 123. अडयालसयसहस्सा [( अडयाल )- ( सयसहस्स ) 1/2] बावोस ( बावीस ) 2/1 वि खलु (अ) = पादपूरक भवे. ( भव ) व 3/2 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण सक सहस्साई ( सहस्स) 1/2 दो (दो) 1/2 य ( अ ) = और सय ( सय ) मूलशब्द 1/2 पुक्खरद्धे (पुक्खरद्ध ) 7/1 तारागणकोडिकोडोणं [ ( तारा )- ( गण ) - ( कोडिकोडि ) 6/2] कभी-कभी प्रथमा विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है / ( हेम प्राकृत व्याकरण 3/137, वृत्ति ) 124. बत्तीसं (बत्तीस ) 1/1 चदंसयं [ ( चंद)- ( सय ) 1/1] बत्तीसं ( बत्तीस ) 1/1 चेव [ ( च ) + ( एव) ] च ( अ ) = और एव ( अ ) = ही सूरियाण ( सूरिय ) 6/2 सयं ( सय )1/1 सयलं ( सयल ) 1/1 मणुस्सलोयं [ ( मणस्स)- ( लोय ) 1/1] चरंति (चर) व 3/2 सक एए (एअ) 1/2 स पयासिंता ( पयास ) वकृ 1/2 आर्षप्रयोग 125. एक्कारस ( एक्कारस ) मूलशब्द 1/2 य (अ) = और सहस्सा ( सहस्स) 1/2 छ ( छ) 1/2 प्पि (अ) = पादपूरक य (अ) = पादपूर्ति सोला ( सोला ) 1/2 वि महग्गहसया [ ( महग्गह)( सय ) 1/2 ] उ (अ) = पादपूर्ति छ (छ) 1/2 च्च (अ) = पादपूर्ति सया ( सय ) 1/2 छन्त्रउआ (छन्नउअ )1/2 नक्खत्ता ( नक्खत्त) 1/2 तिण्णि (ति ) 1/2 य ( अ ) = और सहस्सा (सहस्स ) 1/2 . 126. अठ्ठासीई* ( अट्टासीइ ) 2/1 वि चत्ताई* ( चत्त ) 1/2 सयसहस्साई ( सयसहस्स) 1/2 मुणयलोगम्मि [ मणुय ) - ( लोग ) 7/1 ] सत्त ( सत्त) 1/2 य (अ) = और सया (सय) 1/2 अणूणा ( अणूण ) 1/2 तारागणकोडिकोडोणं [ (तारा) - ( गण )- (कोडिकोडि ) 6/2] कभी-२ प्रथमा विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3/137, वृत्ति) चत्ता-चत्त →चत्ताई Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविंदत्थओ 127. एसो ( एत ) 1/1 स तारापिंडो [ ( तारा )-(पिंड ) 1/1] सव्वसमासेण* [ ( सव्व ) - ( समास ) 3/1 ] मणुयलोगम्मि ( मणुय ) - (लोग ) 7/1 ] बहिया ( अ ) = बाहर पुण (अ) = पादपति ताराओ ( तारा ) 1/2 जिणेहि (जिण) 3/2 भणिया ( भण ) भूकृ 1/2 असंखेज्जा ( असंखेज्ज ) 1/2_ * * कभी-कभी तृतीया विभक्ति का प्रयोग पंचमी विभक्ति के स्थान पर होता है / हेम प्राकृत व्याकरण 3/136 128. एवइयं ( एवइय ) 1/1 वि तारग्गं ( ताराग्ग ) 1/1 जं (ज) 1/1 स भणियं ( भण) भूक 1/1 तह ( अ )= उसी प्रकार य (अ) = और मणुयलोगम्मि [( मणुय ) - ( लोग़ ) 7/1] . चारं ( चार ) 1/1 कलंबुयापुप्फसंठियं [( कलंबुय ) - ( पुप्फ ) - (संठिय) भूकृ 1/1 जोइस (जोइस ) 1/1 चरइ (चर) व 3/1 अक 129. रवि-ससि-गह-नक्खता [ ( रवि )- ( ससि )- (गह) ( नक्खत्त) 1/2 ] एवइया ( एवइय ) 1/2 वि आहिया ( आह) भूकृ 1/2 मणु यलोए [ ( मणुय ) - (लोअ ) 7/1 ] जेसिं (ज) 6/2 स नामा-गोयं ( नामागोय ) 1/1 न ( अ ) = नहीं पागया (पागय ) 1/2 वि पन्नवेइंति* ( पन्नव ) व 3/2 सक * पन्नव→पन्नति होना चाहिए / 130. छावठिं* (छावट्ठि) 2/1 वि पिडयाई (पिडय) 1/2 चंदाऽऽइच्चाण [ (चंद) + (आइच्चाण) ] [ (चंद)- (आइच्च) 6/2 ] मणु यलोयम्मि [(मणुय) - (लोय) 7/1] दो (दो) 1/2 चंदा (चंद) 1/2 दो (दो) 1/2 सूरा (सूर) 1/2 य (अ) = और होति (हो) व 3/2 अक एक्केक्कए [ ( एक्क ) + (एक्कए) ] [ (एक्क) - (एक्कअ) 7/1] पिडए (पिडअ) 7/1 * कभी-कभी प्रथमा विभक्ति के स्थान पर द्वितीय विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है / (हेम प्राकृत व्याकरण 3/137, वृत्ति) Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण 111 131. छावठि ( छावट्ठि) 2/1 पिडयाई ( पिडय ) 1/2 नक्खत्ताणं ( नक्खत्त) 6/2 तु (अ) = पादपूर्ति मणुयलोगम्मि [ ( मणुय)(लोग) 7/1 ] छप्पन्नं (छप्पन्न) 2/1 नक्खत्ता (नक्खत्त) 1/2 य ( अ ) = और होति (हो) व 3/2 अक एक्केक्कए [ ( एक्क )+ (एक्कए) ] [ (एक्क) - (एक्क) 7/1] पिडए (पिडअ) 7/1 / * कभी-कभी प्रथमा विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। . (हेम प्राकृत व्याकरण 3/137, वृत्ति) 132. छावट्ठी ( छावट्ठि) 1/2 पिडयाइं (पिडय ) 1/2 महग्गहाणं ( महग्गह ) 6/2 तु (अ) = पादपूर्ति मणुयलोगम्मि [(मणुय) - ( लोग ) 7/1 ] छावत्तरं ( छावत्तर ) 1/1 गहसयं [ ( गह) - ( सय ) 1/1] होइ ( हो ) व 3/1 अक एक्केक्कए [ ( एक्क) +(एक्कए)] [( एक्क)-(एक्क ) 'अ' स्वार्थिक 7/1] पिडए ( पिडअ ),7/1 133. चत्तारि ( चउ ) 1/2 य ( अ ) = और पंतीओ ( पंति ) 1/2 चंदाऽऽइच्चाण [ ( चंदा) + ( आइच्चाण )] [ ( चंद) - ( आइच्च ) 6/2 ] मणुयलोगम्मि [ ( मणुय ) - ( लोग ) 7/1 ] छाठि (छावट्ठि) 1/1 छावठि (छावठि ) 1/1 च ( अ ) = और होइ (हो) व 3/1 अक इक्किक्किया [ ( इक्किकक )+ ( इया) ] [ ( इक्किक्क ) - ( इय ) 1/1 ] पंतो ( पंति ) 1/1 / 134. छप्पन्नं* ( छप्पन्न ) 2/1 वि पंतोओ ( पंति ) 1/2 नक्खताणं . ( नक्खत्त ) 6/2 तु (अ)= पादपूर्ति मणुयलोगम्मि [ ( मणय ) -( लोग) 7/1] छावठि (छावट्ठि) 1/1 छावटिंठ (छावठि) 1/1 च ( अ ) = और होइ (हो) व 3/1 अक इक्किक्किया [( इक्किक्क )- (इय) 1/1] पंती ( पंति ) 1/1 / कभी-कभी प्रथमा विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137 वृत्ति) Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 देविदत्थओ 135. छावत्तरं ( छावत्तर ) 1/1 गहाणं ( गह ) 6/2 पंतिसयं [ (पति) -( सय ) 1/1 ] होइ (हो) व 3/1 अक मणुयलोगम्मि [ (मणुय) - ( लोग ) 7/1] छावठ्ठि (छावट्ठि) 1/1 छावट्ठि (छावट्ठि) 1/1 च ( अ ) = और होइ ( हो ) व 3/1 अक इक्किक्किया [ ( इक्किक्क ) - (इय) 7/1 ] पंती ( पंति ) 1/1 | 136. ते ( त ) 1/1 स मेरुमणुचरंतो [ ( मेरुं ) + (अणुचरंती)] मेरुं ( मेरु ) 2/1 अणचरंति ( अणुचर ) व 3/2 सक पयाहिणावत्तमंडला [ ( पयाहिण) + ( आवत्त ) + (मंडला)] [ ( पयाहिण)- ( आवत्त )- ( मंडल ) 5/1 ] 'सव्वे ( सव्व ) 1/1 स अणवठ्ठिएहिं ( अणवट्टिअ ) 3/2 जोएहिं ( जोअ ) 3/2 चंद-सूरा [ ( चंद)-(सूर ) 1/2-] गहगणा [ ( गह ) - ( गण ) 1/2 य (अ) = और। 137. नक्खत्त-तारयाणं [ ( नक्खत्त ) - ( तारय ) 6/2 ] अवटिया ( अवट्ठिय ) 1/2 मंडला ( मंडल ) 1/2 मुणेयव्वा ( मुण ) . विधि कृ 1/1 ते (त) 1/2 स वि (अ) = भी य (अ) = और पयाहिणावत्तमेव [ ( पयाहिण ) + ( आवत्तं ) + ( एव )] [ ( पयाहिण )-( आवत्त) 1/1] एव ( अ ) = इस प्रकार मेरु ( मेरु) 2/1 अणुचरंति ( अणुचर) व 3/2 138. रयणियर-दिणयराणं [ ( रयणियर ) - (दिणयर) 6/2] उड्ढ महे [ ( उडढं)+ ( अहे)] उडढं (अ) = ऊँचा अहे (अ) = नीचा एव ( अ ) = इस प्रकार संकमो ( संकम ) 1/1 नत्थि (अ) = नहीं मंडलसंकमणं [ ( मंडल)-(संकमण) 1/1 ] पुण (अ) = पादपूर्ति अभितर ( अभितर ) 1/1 बाहिरं ( बाहिर ) 1/1 तिरियं ( अ ) = तिरछि 139. रयणियर-दिणयराणं [ ( रयणियर ) - (दिणयर) 6/2 ] नक्ख ताणं ( नक्खत्त ) 6/2 च (अ) = और महगहाणं (महगह) 6/2 च ( अ ) = और चारविसेसेण [ ( चार )- (विसेस ) 3/1 ], भवे ( भव ) व 3/1 अक सुह-दुक्खविही [ (सुह) - (दुक्ख) - (विहि ) 1/1] मणुस्साणं ( मणुस्स ) 6/2 . Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण 113 140. तेसिं ( त ) 6/2 स पविसंताणं ( पविस ) वक 6/2 तावक्खेत्त [ ( ताव )-( खेत्त ) 1/1 ] तु (अ) = पादपूर्ति वड्ढए (वड्ढ) व 3/1 अक नियमा ( क्रिविअ ) = नियम से तेणेव [ ( तेण )+ (एव) ] तेण ( अ ) = इसलिए एव ( अ ) - इसीप्रकार कमेण ( कम ) 3/1 पुणो ( अ ) = पादपूर्ति परिहायइ (परिहाय) व 3/1 अक निखिमिताणं* ( निक्खम ) वक 6/2 आर्ष प्रयोग * निक्षम→निवखमंताणं होना चाहिए। 141. तेसिं (त) 6/2 स कलंबुयापुप्फसंठिया [ (कलंबुआ) - (पुप्फ) ( संठिय ) भूक 1/2 ] होति ( हो) व 3/2 अक तावखेत्तमुहा [(ताव) - (खेत्त) - (मुह) 1/2 ] अंतो (अ) = भीतर य (अ) = और संकुला ( संकुल) 1/2 बाहिं ( अ ) = बाहर वित्थडा ( वित्थड ). 1/2 चंद-सूराणं [ (चंद) - (सूर) 6/2 ] 142. केणं (क) 3/1 स वड्ढइ (वड्ढ) व 3/1 सक चंदो (चंद) 1/1 परिहाणो ( परिहाणि ) 1/1 वा ( अ ) = और वि ( अ ) = भी केण ( क ) 3/1 स चंदस्स ( चंद) 6/1 कालो ( काल )1/1 वा ( अ ) = और जोण्हा ( जोण्हा ) मूलशब्द 1/1 वा (अ) = अथवा केणऽणुभावेण [ (केण) + (अणुभावेण) ] केण (क) 3/1 . अणुभावेण (अणुभाव) 3/1 चंदस्स (चंद) 6/1 143. किण्हं ( किण्ह ) 1/1 राहुविमाणं. ( राहुविमाण ) 1/1 निच्चं (निच्च ) 1/1 चंदेण* ( चंद ) 3/1 होइ ( हो ) व 3/1 अक अविरहियं (अविरह ) भूकृ 1/1 चउरंगुलमप्पत्तं [ ( चउरअंगुलं) + ( अप्पत्तं ) ] [ (चउरअंगुल) 1/1 - (अप्पत्त) 1/1 ] हिट्ठा (हिट्ठ) 1/2 चंदस्स ( चंद ) 6/1 तं (त) 1/1 स चरइ ( चर) व 3/1 सक * कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हेम प्राकृत व्याकरण 3/136) / Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 देविदत्थओ 144. बाट्ठि (बावट्ठि) 1/1 बावठि (बावट्ठि)1/1 दिवसे (दिवस)7/1 दिवसे ( दिवस) 7/1 तु (अ) = पादपूर्ति सुक्कपक्खस्स ( सुक्खपक्ख ) 6/1 जं (अ) = वाक्यालंकार परिवड्ढइ ( परिवड्ढ) व 3/1 अक चंदो ( चंद ) 1/1 खवेह ( खव ) व 3/1 अक तं ( त ) 1/1 स चेव [ (च) + (एव) ] च (अ) = और एव (अ) ही कालेणं' (काल) 3/1 * कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हेम प्राकृत व्याकरण 3/137, वृत्ति) . 145. पन्नरसइभागेण (पन्नरसभाग) 3/1 4 (अ) = और चंदं (चंद) 1/1 पन्नरसमेव [ (पन्नरसम)+ (एव)] पन्नरसम ( पन्नरसम ) मूलशब्द 1/2 एव (अ) = ही संकमा ( संकम ) व 3/1 सक पन्नरसइभागेण ( पन्नरसभाग) 3/1 य (अ)=और पुणो ( अ ) = पादपूर्ति वि (अ) = पादपूर्ति तं (त) 1/1 स चैव [ (च) + (एव)] च ( अ ) = और एव (अ) = ही पक्कमइ (पक्कम) व 3/1 सक 146 एवं (अ) = इसप्रकार वड्ढइ (वड्ढ) व 3/1 अक चंदो (चंद)1/1 परिहाणी (परिहाणि) 1/1 एव (अ) = इसीप्रकार होइ (हो) व 3/1 अक चंदस्स (चंद) 6/1 कालो ( काल ) 1/1 वा (अ) = पादपूर्ति जोण्हा ( जोण्हा ) 1/1 वा (अ) = पादपूर्ति तेणऽणुभावेण [ (तेण) + (अनुभावेण)] तेण ( त ) 3/1 स अणुभावेण (अणुभाव) 3/1 चंदस्स (चंद) 6/1 147. अंतो (अ) = भीतर मणुस्सखेत (मणुस्सखेत्त) 7/1 हवंति (हव) व 3/2 अक चारोवगा [ (चार) + ( उवगा)] [ ( चार ) - (उवग) 1/2 ] य (अ) = और उववण्णा (उववण्ण) 1/2 पंचविहा (पंचविह)1/2 जोइसिया (जोइसिय) 1/2 चंदा (चंद)1/2 सूरा (सूर) 1/2 गहगणा [ (गह) - ( गण ) 1/2] य (अ) = और Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण 115 148. तेण ( अ ) = उसी प्रकार परं (अ) = दुसरे जे ( ज ) 1/1 स सेसा ( सेस ) 1/2 चंदा इच्च-गह-तार-नक्खता [ ( चंद)+ (आइच्च ) + (गह )+ (तार ) + ( नक्खत्ता) ] [ ( चंद)(गह ) -( तार ) - ( नक्खत्त ) 1/2 ] नत्थि ( अ ) = नहीं गई (गइ ) 1/1 न ( अ ) = नहीं वि ( अ ) = पादपूर्ति चारो (चार) 1/1 अवट्ठिया ( अवठ्ठिय ) 1/2 ते (त) 1/2 स मुणेयव्या (मुण ) विधि कृ 1/2 149. एए ( एअ ) 1/2 स जंबुद्दीवे ( जंबुद्दीव ) 7/1 दुगुणा (दुगुण) 1/2 लवणे ( लवण ) 7/1 चउग्गुणा ( चउग्गुण ) 1/2 होति (हो) व 3/2 अक कालोयणा (कालोयण) 5/1 तिगुणिया [(तिगुण +इया ).] [ (तिगुण ) - ( इय ) 1/2 ] ससि-सूरा [ ( ससि )-(सूर) 1/2 ] पायईसंडे (धायईसंड) 7/1 150. दो ( दो) 1/1 चंदा ( चंद ) 1/2 इह (अ) = यहां दीवे (दीव) 7/1 चत्तारि ( चउ) 1/2 य (अ) और सागरे ( सागर) 7/1 लवणतोए [(लवण) - ( तोअ)7/1] धायइसंडे (धायईसंड) 7/1 दोवे ( दीव ) 7/1 बारस (बारस) मूलशब्द 1/2 चंदा (चंदा) 1/2 य ( अ ) = और सूरा (सूर) 1/2 य (अ)3 और 151. पायइसंडप्पभिई* [ (धायइसंड) - (अप्पभिइ) 2/2 ] उदिट्ठा ( उद्दिट्ठ ) भूकृ 1/2 अनि तिगुणिया [(ति) + (गुण) + (इया) ] . . [(ति)- (गुण)-(इय) 1/2] भवे (भव) व 3/2 अक चंदा (चंद) 1/2 आइल्लचंदसहिया [ (आइल्लचंद )- (सहिय) भूकृ 1/2 ] अणंताणंतरे [ ( अणंत ) + ( अणंतरे ) ] [ (अणंत) - (अणंतर) 7/1 ] खेत्ते ( खेत्त ) 7/1 * कभी-कभी द्वितीया विभक्ति का प्रयोग सप्तमी के स्थान पर भी होता है / (हेम प्राकृत व्याकरण 3/137) 132. रिक्ख-गह-तारगं [ (रिक्ख)-( गह) - ( तारग) 2/11 बोवे-समुद्दे / ( दोव ) - ( समुद्द) 7/1 ] जइच्छसे [ ( जइ) + / Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ ( इच्छसे )] जइ ( अ ) = यदि इच्छसे ( इच्छ ) व 2/1 सक नाउं (णाउ) हेकृ तस्स ( त ) 6/1 स ससोहि ( ससि ) 32 उ (अ ) = पादपूर्ति गुणियं* (गुणिअ) भूक 2/1 रिक्ख-ग्गह-तारग्गं [ ( रिक्ख ) - ( गह) - ( तारग्ग ) 2/1 ] तु (अ) = . पादपूर्ति * कभी-कभी द्वितीया विभक्ति का प्रयोग सप्तमी के स्थान पर पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3/137) 153. बहिया (अ) = बाहर उ ( अ ) = पादपूर्ति माणुसनगस्स [ ( माणुस ) - ( नग ) 6/1] चंद-सूराणऽवट्ठिया [ ( चंद )(सुर )-( अवट्टिय ) भूकृ 1/2 अनि ] जोगा ( जोग) 1/2 चंदा ( चंद ) 1/2 अभिईजुत्ता [ ( अभिइ ) - ( जुत्त) भूकृ 5/1 अनि ] सूरा ( सूर ) 1/2 पुण ( अ ) = पादपूर्ति होंति ( हो ) व 3/2 अक पुस्सेहि (पुस्स ) 3/2 / 154. चंदाओ (चंद ) 5/1 सरस्स ( सूर ) 6/1 य (अ) = और सूरा ( सर ) 5/1 चंदस्स ( चंद ) 6/1 अंतरं ( अंतर ) 1/1 होइ (हो) व 3/1 अक पपणास (पण्णास) मूल शब्द 1/2 सहस्साई (सहस्स) 1/2 जोयणाणं ( जोयण ) 6/2 अणूणाई ( अणूण ) 1/2 155. सूरस्स ( सर ) 6/1 य ( अं) = और सूरस्स* ( सर ) 6/1 ससिणो ( ससि ) 6/1 ससिणो* ( ससि ) 6/1 य ( अ ) = और अंतरं ( अंतर ) 1/1 होइ ( हो ) व 3/1 अक बहिया ( अ ) = बाहर उ ( अ ) = पादपूर्ति माणुसनगस्स [ ( माणुस )- ( नग) 6/1] जोयणाणं ( जोयण ) 6/2 सयसहस्सं ( सयसहस्स) 1/1 * कभी-कभी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पंचमी के स्थान पर होता है। ( हेम प्राकृत व्याकरण 3/134) 156. सूरतरिया [ ( सूर ) + ( अंतरिया)] [ ( सूर )- (अंतरिय) 1/1] चंदा (चंद) 5/1 चंदंतरिया [ ( चंद) + ( अंतरिया )] [ ( चंद ) - ( अंतरिया ) 1/1 ] य ( अ ) = और दिणयरा Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण 117 (दिणयर ) 1/2 दित्ता ( दित्त ) भूकृ 1/2 अनि चित्ततरलेसागा [(चित्त ) + ( अंतर ) + ( लेसा )] [ ( चित्त ) - ( अंतर )( लेसा) 'अ' स्वार्थिक 1/2 ] सुहलेसा [ (सुह) - ( लेसा ) 1/1 ] मंदलेसा [ ( मंद) - ( लेसा) 1/1 ] य ( अ ) = और 157. अट्ठासीइ ( अट्ठासीइ ) 1/1 च ( अ ) = और गहा ( गह )1/2 अट्ठावीसं ( अट्ठावीस ) 1/1 च ( अ ) = और होंति ( हो ) व 3/2 अक नक्खत्ता ( नक्खत्त ) 1/2 एगगससोपरिवारो [( एग) - ( ससि)- ( परिवार ) .1/1] एतो ( अ ) - इसके बाद ताराण* ( तारा) 6/2 वोच्छामि ( वोच्छ ) व 1/1 सक * कभी कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है / ( हेम प्राकृत व्याकरण 3-134 ) .. 158. छावठिसहस्साई [( छावट्ठि) - ( सहस्स ) 1/2] नव ( नव ) मूलशब्द .1/2 चेव [(च) + (एव)] च (अ) = और एव (अ) = ही सयाई ( सय ) 1/2 पंचसयराइ [(पंच ) - ( सयर ) 1/2] एगससोपरिवारो [( एग)-(ससि* ) - (परिवार) 1/1] तारा गणकोडिकोडोणं [( तारागण )- (कोडिकोडि ) 6/2 वि ] * मात्रा पूर्ति में दीर्घ का ह्रस्व हो जाया करता है। 159. वाससहस्सं ( वाससहस्स ) 1/1 पलिओवम (पलिओवम )1/1 च ( अ ) = और सूराण ( सूर) 6/2 सा ( सा) 1/1 स ठिई (ठिइ ) 1/1 भणिया ( भण ) भूकृ1/1 पलिओवम (पलिओवम) मूलशब्द 1/1 चंदाणं ( चंद) 6/2 वाससयसहस्समन्भहियं . [ ( वाससयसहस्सं ) + ( अब्भहियं )] [( वाससयसहस्स)(अब्भहिय ) 1/1] 160. पलिओवमं ( पालिओवम ) 1/1 गहाणं ( गह) 6/2 नक्खताणं ( नक्खत्त ) 6/2 च ( अ ) = और जाण ( जाण ) मूलशब्द 1/1 पलियद्ध [( पलिय ) + ( अद्धं )][( पलिय )- ( अद्ध ) 1/1] पलियचउत्थो [(पलिय ) - (चउत्थ ) 1/1] भागो ( भाग )1/1 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 देविंदत्थओ ताराण ( तारा ) 6/2 वि ( अ ) = पादपति सा ( सा) 1/1 स ठिई ( ठिइ ) 1/1 भणिया ( भण ) भूक 1/1 161. पलिओवमऽदृभागो [( पलिओवम ) + ( अट्ठभागो) ] [ (पलि ओवम ) - ( अट्ठभाग) 1/1] ठिई (ठिइ ) 1/1 जहण्णा (जहण्ण ) 1/2 उ (अ) = पादपूर्ति जोइसगणस्स [( जोइस)(गण ) 6/1] पलिओवममुक्कोसं [( पलिओवमं) + ( उक्कोसं )] [( पलिओवम ) - ( उक्कोस ) 1/1] वाससयसहस्सममहियं [( वाससयसहस्सं ) + (अब्भहियं ) ] [ ( वाससयसहस्स ) ( अब्भहिय ) 1/1] 162. भवणवइ-वाणमंतर-जोइसवासोठिई [( भवणवइ)- ( वाणमंतर) - ( जोइसवासि)- (ठिइ) 1/1] मए ( अम्ह )3/1 स कहिया ( कह ) भूकृ 1/2 कप्पवई ( कप्पवइ ) 2/2 वि ( अ ) = पादपूर्ति य (अ) = और वोच्छं ( वोच्छं ) भ 1/1 सक बारस (बारस) ( मूल शब्द ) 1/2 इंवे ( इंद ) 2/2 महिड्ढीए ( महिड्ढिअ ) 2/2 वि 163. पढमो ( पढम ) 1/1 सोहम्मवई ( सोहम्मवइ ) 1/1 ईसाणवई ( ईसाणवइ ) 1/1 उ ( अ ) = पादपूर्ति भण्णए ( भण्ण ) व 3/1 सक बीओ ( बीअ) 1/1 ततो ( अ ) = उसके बाद सणंकुमारो ( सणकूमार ) 1/1 हवइ ( हव ) व 3/1 अक चउत्थो (चउत्थ) 1/1 उ ( अ ) = पादपूर्ति माहिदो ( माहिद ) 1/1 164. पंचमओ (पंचम ) 'अ' स्वार्थिक 1/1 पुण (अ) = पादपूर्ति बंभो (बंभ )1/1 छट्ठो ( छ?) 1/1 पुण ( अ ) = पादपूर्ति लंतओऽस्थ [( लंतओ)+ ( अत्थ )] लंतओ (लंतय ) 1/1 अत्थ ( अ )यहाँ देविदो (देविंद) 1/1 सत्तमओ ( सत्तम) 'अ' स्वार्थिक 1/1 महसुक्को ( महसुक्क ) 1/1 अट्ठमओ ( अठ्ठमअ ) 1/1 भके (भव ) व 3/1 अक सहस्सारो ( सहस्सर ) 1/1 165. नवमो ( नवम ) 1/1 4 (अ) = और आणइंदो ( आणइदं) 1/1 दसमो ( दसम ) 1/1 पुण ( अ ) = पादपूर्ति पाणोऽत्य Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण 119 [( पाणओ )+ ( अत्थ )] पाणओ ( पाणअ ) 1/1 अत्थ ( अ ) = यहां देविदो ( देविंद ) 1/1 आरण (आरण) म्लशब्द 1/1 एक्कारसमो ( एक्कारसम) 1/1 बारसमो (बारसम) 1/1 अच्चुओ ( अच्चुअ ) 1/1 इंदो ( इंद) 1/1 166. एए ( एअ ) 1/2 स बारस (बारस ) मूलशब्द 1/2 इंदा ( इंद) 1/2 कप्पवई ( कप्पवइ) 1/1 कप्पसामिया [ ( कप्प)(सामिय ) 1/2 ] भणिया ( भण) भूकृ 1/2 आणाईसरियं [ ( आणाईसर)+ ( इयं ).] आणाईसर ( आणाईसर ) मूलशब्द 1/1 इयं ( अ ) = इस प्रकार वा ( अ ) = पादपूर्ति तेण ( अ ) इसलिए परं (अ) = दूसरा नत्थि ( अ ) = नहीं देवाणं ( देव ) 6/2 167. तेण ( अ ) = उस कारण से परं (अ) = दूसरा देवगणा (देवगण) 1/2 सयइच्छियभावणाइ [ सय (अ) = स्वयं (इच्छिय) भूकृ - ( भावणा ) 5/1 ] उववन्ना ( उववन्न ) 1/2 गेविज्जेहिं (गेविज्ज ) 3/2 न (अ) = नहीं सक्का ( सक्क ) 1/2 उववाओ ( उववाअ ) 1/2 अन्नलिंगणं [ ( अन्न ) - ( लिंग ) 3/1 ] 168. जे ( ज ) 1/2 स सणवावना [ ( दंसण ) - ( वावन्न ) 1/2] लिंगग्गहणं [ ( लिंग ) + ( अग्गहणं ) ] [ ( लिंग ) - ( अग्गहण) 1/1 ] करेंति ( कर ) व 1/2 सक सामण्णे ( सामण्ण ) 1/1 तेसि (त) 6/2 स पि ( अ ) = भी य (अ) = और उववाओ ( उववाअ ) 1/1 उक्कोसो ( उक्कोस ) 1/1 जाव ( अ ) = यावत् गेवेज्जा ( गेवेज्ज ) 1/2 169. इत्यं ( अ ) = यहाँ किर ( अ ) = पादपूर्ति विमाणाणं ( विमाण) 6/2 बत्तीसं* ( बत्तीस ) 2/1 वणिया ( वण्ण) भूकृ 1/2 सयसहस्सा ( सयसहस्स) 1/2 सोहम्मकप्पवइणो[( सोहम्म)( कप्पवइ ) 1/2 ] सक्कस्स (सक्क) 6/2 महाणुभागस्स (महाणुभाग) 6/1 * कभी-कभी प्रथमा विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है / ( हेम प्राकृत व्याकरण-3/137वृत्ति) Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 देविदत्थओ 170. ईसाणकप्पवइणो [( ईसाण ) - ( कप्पवइ ) 1/2 )] अट्ठावोसं. ( अट्ठावीस ) 2/1 भवे ( भव ) व 3/2 अक सयसहस्सा ( सयसहस्स ) 1/2 बारस ( बारस ) मूलशब्द 1/2 य ( अ ) = और सयसहस्सा ( सयसहस्स ) 1/2 कप्पम्मि ( कप्प) 7/1 सणंकुमा रम्मि ( सणंकुमार ) 7/1 * कभी-कभी प्रथमा विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है / ( हेम प्राकृत व्याकरण 3/137, वृत्ति) 171. अटेव [ ( अट्ट) + ( एव ) ] अट्ट ( अट्ट ) 1/1 एव ( अ ) - इसी तरह सयसहस्सा ( सयसहस्स ) 1/2 माहिदम्मि ( माहिद ) 7/1 उ ( अ ) = पादपूर्ति भवंति (भव ) व 3/2 सक कप्पम्मि (कप्प) 7/1 चत्तारि ( चउ) 1/2 सयसहस्सा ( सयसहस्स) 1/2 कप्पम्मि ( कप्प) 7/1 उ (अ)-पादपूर्ति बंभलोगम्मि (बंभलोग) 7/1 172. इत्थ ( अ ) = यहाँ किर ( अ ) = पादपूर्ति विमाणाणं ( विमाण) 6/2 पन्नासं ( पन्नास ) 1/1 लंतए ( लंतअ ) 1/1 सहस्साई ( सहस्स ) 1/2 चत्ता ( चत्ता ) मूलशब्द. 1/1 य ( अ ) = और महासुक्के ( महासुक्क) 1/1 छ ( छ ) मूलशब्द 1/2 च्च (अ) = पादपूरक सहस्सा ( सहस्स ) 1/2 सहस्सारे ( सहस्सार) 1/1 173. आणय-पाणयकप्पे [ ( आणय ) - ( पाणय ) - ( कप्प) 7/1 ] चत्तारि ( चउ ) 1/2 सयाऽऽरणऽच्चुए [ ( सय ) - ( आरण)( अच्चअ) 7/1] तिन्नि (ति ) 1/2 सत ( सत्त) 1/2 विमाणसयाई[ ( विमाण ) - ( सय ) 1/2 ] चउसु ( चउ) 7/2 वि ( अ ) = पादपूर्ति एएसु ( एअ ) 7/2 स कप्पेसु ( कप्प ) 7/2 174. एयाई ( एअ) 1/2 स विमाणाई ( विमाण ) 1/2 कहियाई ( कह ) भूक 1/2 जाइं (जा) 1/2 जत्य. ( अ ) = जिसमें कप्पम्मि ( कप्प ) 7/1 कप्पवईण ( कप्पवइ ) 6/2 वि (अ) = Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण 121 पादपूर्ति सुंदरि ! ( सुन्दरी ) 8/1 ठिईविसेसे ( ठिइविसेस ) 2/2 निसामेहि ( णिसम ) आज्ञा 2/1 सक 175. दो ( दो) 1/1 सागरोवमाइं (सागरोवम ) 1/2 सक्कस्स (सक्क) 6/1 ठिई (ठिइ) 1/1 महाणुभागस्स ( महाणुभाग) 6/1 साहीया ( साहिय ) 1/2 वि ईसाणे ( ईसाण ) 7/1 सत्तेव [ ( सत्त )+( एव ) ] सत्त ( सत्त ) मूलशब्द 1/1 एव(अ) = ही सणंकुमारम्मि ( सणंकुमार ) 7/1_ 176. माहिदे ( माहिंद ) 7/1 साहियाइं (साहिअ) 1/2 सत (सत्त) 1/2 य (अ) = और दस (दस) 1/2 चेव [ (च)+(एव)] च (अ) = और एव (अ) = ही बंभलोगम्मि ( बंभलोग )7/1 चोइस ( चोद्दस ) मूलशब्द 1/2 लंतयकप्पे [ ( लंनय )- ( कप्प) 7/1] सत्तरस ( सत्तरस ) 1/2 भवे ( भव ) व 3/1 अक महासुक्के ( महासुक्क ) 7/1 . 177. कप्पम्मि (कप्प) 7/1 सहस्सारे (सहस्सार) 7/1 अटारस(अट्ठारस) 1/2 सागरोवमाई ( सागरोवम ) 1/2 ठिई ( ठिइ ) 1/1 आणय (आणय) मूलशब्द 7/1 एगूणवीसा (एगणवोसा) 1/2 वोसा(वीस) . 1/2 पुण (अ) = पादपूर्ति पाणए ( पाणअ ) 7/1 वि कप्पे (कप्प) 7/1 178. पुण्णा ( पुण्ण ) 1/2 य ( अ ) = और एक्कवीसा ( एककवीसा) 1/2 उदहिसनामाण [ ( उदहि )- (स ) वि-(नाम) 6/2] आरणे ( आरण) 7/1 कप्पे (कप्प) 7/1 अह (अ) = पादपूर्ति अच्युयम्मि (अच्चुअ) 7/1 कप्पे ( कप्प ) 7/1 बावीस* (बावीस) _2/1 सागराण ( सागर ) 6/2 ठिई ( ठिइ ) 1/1 * कभी कभी प्रथमा विभक्ति के स्थान पर द्वितीया का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3/137 वृत्ति) 179. एसा ( एआ) 1/1 कप्पवईणं ( कप्पवइ ) 6/2 कप्पठिई (कप्प ठिइ ) 1/2 वणिया ( वण्ण ) भूकृ 1/2 समासेणं ( समास ) 3/1 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 देविंदत्थओ गेवेज्जऽणुत्तराणं [ ( गेवेज्ज ) + ( अणुत्तराणं ) ] [ (गेवेज्ज ) - ( अणुत्तर ) 6/2 ] सुण (सुण ) विधि 2/1 सक अणुभागं ( अणुभाग ) 2/1 विमाणाणं ( विमाण ) 6/2 180. तिण्णेव [ ( तिण्ण ) + (एव)] तिण्ण (तिण्ण ) मूलशब्द 1/2 . एव ( अ ) = इस प्रकार य ( अ ) = और गेवेज्जा (गेवेज्ज) 1/2 हिटिल्ला ( हिटिल्ल ) 1/2 मज्झिमा ( मज्झिम) 1/2 य (अ) = और उवरिल्ला ( उवरिल्ल ) 1/2 एक्केक्कं (एक्केक्क) 1/1 पि ( अ ) = भी य ( अ ) = और तिविहं (तिविह) 1/1 एवं ( अ ) = इस प्रकार नव ( नव ) 1/2 होंति ( हो) व 3/2 अक गेवेज्जा ( गेवेज्ज ) 1/2 181. सुदंसणा* ( सदसण ) 1/2 अमोहा ( अमोह ) 1/2 य (अ) = और सुप्पबुद्धा (सुप्पबुद्ध ) 1/2 जसोधरा ( जसोधर ) 1/2. वच्छा ( वच्छ ) 1/2 सुवच्छा ( सुवच्छ ) 1/2 सुमणा (सुमण ) 1/2 सोमणसा ( सोमणस ) 1/2 पियदसणा (पिअदंसण) 1/2 आदर सूचक शब्दों में बहुवचन का प्रयोग पाया जाता है। 182. एक्कारसुत्तरं [( एक्कारस)+( उत्तरं )] [ ( एक्कारस) ( उत्तर ) 1/1] हेट्ठिमए ( हेट्ठिम ) 'अ' स्वार्थिक 7/1 सत्तसरं [ ( सत्त) + ( उत्तरं )[ ( सत्त)-( उत्तर ) 1/1 ] च (अ) = और मज्झिमए ( मंज्झिम ) 'अ' स्वार्थिक 7/1 सयमेरो [ ( सयं) + (एग) ] सयं (सय) 1/1 एमं ( एग) 1/1 उवरिमए ( उवरिम ) 'अ' स्वार्थिक 7/1 पंचेव [ (पंच)+ (एव) ] पंच (पंच ) 1/2 एव (अ) = ही अणुत्तरविमाणा (अणुत्तरविमाण) 1/2 183. हेट्ठिमगेवेज्जाणं [ ( हेट्ठिम )- ( गेवेज्ज ) 6/2] तेवीसं* ( तेवीस ) 2/1 सागरोवमाइं ( सागरोवम ) 1/2 ठिई ( ठिइ ) 1/2 एक्केक्कमारूहिज्जा [ (एक्केक) + ( आरूहिज्जा ) ] एक्के ( अ ) = एक-एक आरूहिज्जा ( आरूह ) व 3/1 •अक अहि Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण 123 ( अट्ठ) 3/2 सेसेहिं (सेस ) 3/2 नमियंगि [ ( नमिय ) + ( अंगि) ] नमिय ( नम ) भूकृ 8/1 अंगि ( अंगि ) 8/1 कभी-२ प्रथमा विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। ( हेम प्राकृत व्याकरण 3/137, वृत्ति) 184. विजयं (विजय ) 1/1 च (अ) = और वेजयंतं (वेजयंत ) 1/1 जयंतमपराजियं [ (जयंत) + (अपराजिय) ] जयंतं ( जयंत )1/1 अपराजियं ( अपराजिय ) 1/1 च (अ) = और बोद्धब्बं (बोद्धव्व) विधि कृ 1/1 अनि सव्वट्ठसिद्ध नामं [ ( सव्वट्ठसिद्ध) - ( नाम ) 1/1] होइ (हो) व 3/1 अक चउण्हं (चउ) 6/2 तु (अ) = पादपूर्ति मज्झिमयं ( मज्झिम ) 'य' स्वार्थिक 1/1 185. पुश्वेण ( पुच ) 3/1 होइ ( हो ) व 3/1 अक विजयं ( विजय ) 1/1 वाहिणो ( दाहिण ) पंचमी अर्थक 'ओ' प्रत्यय होइ ( हो) व 3/1 अक वेजयंतं (वेजयंत ) 1/1 तु ( अ ) = पादपूर्ति अवरेणं ( अवर ) 3/1 तु (अ) = पादपूर्ति जयंतं ( जयंत ) 1/1 अवराइयमुत्तरे [ ( अवराइयं ) + (उत्तरे ) ] [ ( अवराइय )- (उत्तर) 7/1 ] पासे ( पास ) 7/1 186. एएसु ( एअ ) 7/2 स विमाणेसु (विमाण ) 7/2 उ ( अ ) = पादपूर्ति तेत्तीसं* ( तेत्तीस ) 2/1 वि सागरोवमाइं ( सागरोवम) 1/2 ठिई (ठिइ ) 1/2 सव्वदृसिद्धनामे [ ( सव्वट्ठसिद्ध ) - (नाम) 1/1 ] अजहन्नुक्कोस ( अजहण्णुक्कोस ) मूलशब्द 1/2 तेत्तीसा ( तेत्तीस) 1/2 * कभी-२ प्रथमा विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3/137, वृत्ति) 187. हेढिल्ला ( हेदिल्ल ) 1/2 उवरिल्ला ( उवरिल्ल ) 1/2 दो (दो) 1/2 दो (दो) 1/2 जुवलद्धचंदसंठाणा [ (जुवल ) + (अद्ध)+ (चंद) + ( संठाणा)] [( जुवल ) - ( अद्ध )-(चंद)( संठाण ) 1/2 ] पडिपुण्णचंवसंठाणसंठिया [ ( पडिपुण्ण ) - Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 देविंदत्थओ ( चंद ) - ( संठाण ) - ( संठिअ) भूकृ 1/2 अनि ] मज्झिमा ( मज्झिम ) 1/2 वि चउरो ( चउ) 1/2 188. गेवेज्जावलिसरिसा [( गेवेज्ज ) + ( आवलि ) + ( सरिसा)] [ ( गेवेज्ज )- ( आवलि)- ( सरिस ) 1/2 ] गेवेज्जा (गेवेज) 1/2 तिण्णि (ति ) 1/2 तिण्णि (ति ) 1/2 आसन्ना ( आसण्ण ) भूक 1/2 अनि हुल्लुयसंठाणाई [( हुल्ल ) + ( उ ) + (य)+ ( संठाणाई )] [ (हुल्ल )- उ (अ) = पादपूरक - य (अ) = पादपूरक ( संठाण ) 1/2 ] अणुत्तराई (अणुतर) 1/2 विमाणाई ( विमाण ) 1/2 189. घणउदहिपइट्ठाणा [ ( घगउदहि ) - ( पइट्ठाण ) 1/2] सुरभवणा ( सुरभवण ) 1/2 दोसु ( दो ) 7/2 होति ( हो ) व 3/2 अक कप्पे ( कप्प ) 7/2 तिसु (ति) 7/2 वाउपइट्टाणा ( वाउपइट्ठाण ) 1/2 तदुभयसुपइट्ठिया [ ( तदुभय ) - ( सुपइट्ठिय ) भूक 1/2 अनि ] तिण्णि (ति) 1/2 190. तेण ( त ) 3/1 स परं ( पर ) 1/1 उवरिमया ( उवरिमय ) 1/2 आगासंतरपइट्ठिया [( आगास ) + ( अंतर )+ ( पइट्टिया)] [ ( आगास ) - ( अंतर.)- ( पइट्रिय ) भृकृ 1/2 अनि ] सम्वे { सव्व ) 1/1 स एस ( एत) मूलशब्द 1/1 स पइट्ठाणविही [ ( पइट्ठाण ) - (विहि ) 1/1 ] उड्ढं (अ) = ऊवं लोए (लोअ) 7/1 विमाणाणं ( विमाण ) 6/2 191. किण्हा ( किण्हा ) 1/1 नीला ( नीला ) 1/1 काऊ ( काऊ) 1/1 तेऊलेसा (तेऊलेसा) मूलशब्द 1/1 य (अ) = और भवणवंतरिया* [ ( भवण ) - ( वंतरिय ) 2/2 ] जोइस-सोहम्मोसाणे [ ( जोइस ) - ( सोहम्म) - ( ईसाण ) 7/1 ] तेउलेसा (तेउलेसा) 1/1 मुणेयव्या ( मुण ) विधि कृ 1/1 * कभी-कभी द्वितीया विभक्ति का प्रयोग सप्तमी विभक्ति के स्थान पर पाया जाता है (हेम प्राकृत व्याकरण 3/137) Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 125 व्याकरणिक विश्लेषण 192. कप्पे (कप्प) 7/1 सणंकुमारे ( सणंकुमार ) 7/1 माहिंदे ( माहिंद ) 7/1 चेव / ( च ) + ( एव ) ] च ( अ ) = और एक (अ) = ही बंभलोगे ( बंभलोग ) 7/1 य ( अ ) = और एएसु ( एअ) 7/2 स पम्हलेसा (पम्हलेस ) 1/1 तेण ( अ ) = इस कारण से परं* ( पर ) 2/1 वि सुक्कलेसा ( सुक्कलेस ) 1/1 उ . (अ)- पादपूर्ति * कभी-कभी सप्तमी विभक्ती के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है / (हेम प्राकृत व्याकरण 3/137) 193. कणगत्तपरत्ताभा[ (व.णग ) + ( अत्तय ) + ( रत्त ) + (आभा)] [( कणग)- ( अत्तय)-( रत्त)- (आभा ) 1/1 ] सुरवसभा [ ( सर )-( वसभ ) 1/2 ] दोसू ( दो) 7/2 होंति ( हो ) व 3/2 अक कप्पेस ( कप्प) 7/2 तिसु (ति) 7/2 होति (हो) व 3/2 अक पम्हगोरा ( पम्हगोर ) 1/2 तेण ( अ ) = इसलिए परं (पर) 1/1 सुक्किला ( सुविकल ) 1/2 देवा ( देव ) 1/2 194. भवणवइ-वाणमंतर-जोइसिया [ ( भवणवइ)- ( वाणमंतर) (जोइसिय ) 1/2 ] होति ( हो) व 3/2 अक सत्तरयणीया [ ( सत्त)- ( रयणी ) 'य' स्वार्थिक 1/2 ] कप्पवईण (कप्पवई) .. 6/2 य ( अ ) = और सुंदरि ! ( सुन्दरी ) 8/1 सुण ( सुण ) विधि 2/1 सक उच्चत्तं ( उच्चत्त ) 2/1 सुरवराणं (सुरवर) 6/2 195. सोहम्मे ( सोहम्म ) 1/1 ईसाणे ( ईसाण ) 1/1 य ( अ ) = और सुरवरा ( सुरवर ) 1/2 होति (हो) व 3/2 अक सत्तरयणीया [ ( सत्त ) - ( रयणी ) 'य' स्वार्थिक 1/2 ] दो (दो) 1/2 दो (दो) 1/2 कप्पा ( कप्प ) 1/2 तुरुला ( तुल्ल ) 1/2 दोसु (दो) 7/2 वि ( अ ) = पादपूर्ति परिहायए (परिहायअ ) 1/1 रयणी ( रयणि ) 1/1 - 196. गेवेज्जेसु ( गेवेज्ज ) 7/2 य ( अ )- और देवा ( देव ) 1/2 रयणीओ ( रयणी ) 1/2 दोन्नि ( दो ) 1/2 होति ( हो ) व 3/2 अक उच्चा ( उच्चा ) मूलशब्द 1/2 उ ( अ ) = पादपूर्ति उच्चत्तं Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 देविदत्थओ ( उच्चत्त ) 1/1 अणुत्तरविमाणवासीणं [ ( अणुत्तरविमाण )( वासि ) 6/2] 197. कप्पाओ ( कप्प ) 5/1 कप्पमि ( कप्प ) 7/1 उ (अ ) = पादपूर्ति जस्स (ज) 6/1 ठिई (ठिइ) 1/1 सागरोवमऽन्भहिया [ ( सागरोबम ) + (अब्भहिया) ] [ ( सागरोवम)-- (अब्भहिय) 1/2 ] उस्सेहो ( उस्सेह ) 1/1 तस्स ( त ) 6/1 भवे ( भव ) व 3/1 अक इक्कारसभागपरिहोणो [ ( इक्कारस्स ) - ( भाग )(परिहीण ) 1/1 198. जो ( ज ) 1/1 स य (अ) = और विमाणुस्सेहो [ (विमाण)+ ( उस्सेहो)][ ( विमाण )-(उस्सेह) 1/1] पढवीण (पुढवी) 6/2 य ( अ ) = और जं (ज) 2/1 स च ( अ )- और होइ (हो ) व 3/1 अक बाहल्लं ( बाहल्ल) 1/1 दोण्हं ( दो) 6/2 पि ( अ )= भी तं ( त ) 2/1 स पमाणं ( पमाण ) 1/1 बत्तीसं ( बत्तीस ) 1/1 जोयणसाई [ ( जोयण ) - ( सय ) 1/2 ] 199. भवणवइ-वाणमंतर-जोइसिया [ ( भवणवइ)- ( वाणमंतर ) ( जोइसिय ) 1/2 ] हुंति (हु) व 3/2 अक कायपवियारा [ ( काय )- ( पवियार ) 1/2 ] कप्पवईण ( कप्पवइ) 6/2 वि ( अ ) = पादपूर्ति सुंदरि ! ( सुंदरी ) 8/1 वोच्छं ( वोच्छं ) भवि 1/[ सक पवियारणविही [ ( पवियारण)-(विहि ) 2/2 ] उ (अ) = पादपूर्ति 200. सोहम्मीसाणेसु [ ( सोहम्म ) + ( ईसाणेसुं) ] [ ( सोहम्म ) ( ईसाण ) 7/2 ] च ( अ) = और सुरवरा ( सुरवर ) 1/2 होंति ( हो ) व 3/2 अक कायपवियारा [ ( काय ) - ( पवियार ) 1/2 ] सणंकुमार-माहिदेसु [ ( सणंकुमार)- ( माहिद ) 7/2 ] फासपवियारया [ ( फास)- ( पवियार) 'य' स्वार्थिक 1/2 ] देवा ( देव ) 1/2 201. बंभे (बंभ) 7/1 लंतयकप्पे [ (लं तय) - (कप्प) 7/1] य (अ) = और सुरवरा (सुरवर) 1/2 होंति (हो ) 3/2 अक रूवपवि. Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण 127 यारा [ (रूव) - ( पवियार) 1/2 ] महसुक्क-सहस्सारेसु [ (महसुक्क) - (सहस्सार) 7/2 ] सद्दपवियारया [ (सद्द) - (पवियार) 'य' स्वार्थिक 1/2 ] देवा (देव) 1/2 202. आणय-पाणयकप्पे [ (आणय) - (पाणय) - (कप्प) 7/1] आरण (आरण) मूलशब्द 7/2 तह (अ) = पादपूर्ति अच्चुएसु (अच्चुम)7/2 कप्पम्मि (कप्प) 7/1 देवा (देव) 1/2 मणपवियारा [ (मण)(पवियार) 1/2 ] परओ (पर) 1/1 वि 'य' स्वार्थिक पवियारणा (पवियारणा) मूलशब्द 1/2 नत्थि (अ) = नहीं 203. गोसीसागुरु-केययपत्ता-पुन्नाग-बउलगंधा [ ( गोसीस) + (अगुरु) +(केयय ) + ( पत्ता)+ (पुन्नाग ) + ( बउल ) + (गंधा)] [ ( गोसीस )- ( अगुरु ) - ( केयय )- (पत्त)- (पुन्नाग)(बउल)- (गंध ) 1/2 ] य (अ) = और चंपय-कुवलयगंधा [ (चंपय) - (कुवलय) - (गंध) 1/2] य (अ) = और तगरेलसुगंध गंधा [ (तगरेल) - (सुगंध)- (गंध) 1/2 ] * समास पद में मात्रा पूर्ति हेतु दीर्घ का ह्रस्व हो जाता है। 204. एसा (एत) 1/2 स णं (अ) = वाक्यालंकार गंधविही [ (गंध)' (विहि) 1/1 ] उवमाए* ( उवमा ) 7/1 वण्णिया ( वण्ण ) भक 1/2 समासेणं ( समास ) 3/1 दीट्रिए (दिट्रि) 3/1 वि (अ) = पादपूर्ति य (अ) = और तिविहा (तिविह) 1/2 थिर (थिर) मलशब्द 3/1 सुकुमारा ( सुकुमार ) 1/2 य (अ) = और फासेणं (फास) 3/1 * कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण, 3/135) 205. तेवीसं* (तेवीस) 1/1 च (अ) = और विमाणा ( विमाण ) 1/2 चउरासीई ( चउरासीइ ) 2/1 च (अ) = और सयसहस्साई (सयसहस्स) 1/2 सत्ताणउइ (सत्ताणउइ) मूलशब्द 1/1 सह Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 देविदत्थओ स्सा ( सहस्स ) 1/2 उड्ढलोए ( उड्ढलोअ) 7/1 विमाणाणं (विमाण) 6/2 * कभी-कभी प्रथमा विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हेम प्राकृत व्याकरण 3/137, वृत्ति) 206. उणाणउई (अउणाणउइ) मूलशब्द 1/2 सहस्सा (सहस्स) 1/2 चउरासीई* (चउरासीइ ) 2/1 च ( अ ) = और सयसहस्साई (सयसहस्स) 1/2 एगणयं ( एगणय ) 1/1 दिवढं ( दिवढ) 1/1 सयं ( सय ) 1/1 च (अ) = और पुप्फावकिण्णाणं** [ (पुफ)- व (अ) = पादपूरक ( किण्ण ) 6/2 ] * कभी-२ प्रथमा विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का सद्भाव पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण, 3-137 वृत्ति) ** कभी-कभी समास पद में दीर्घ का ह्रस्व हो जाता है / 207. सत्तेव [ ( सत्त ) + (एव) ] सत्त ( सत्त) मूलशब्द 1/2 एव ( अ ) - पादपूर्ति सहस्साई ( सहस्स ) 1/2 सयाई ( सय ) 1/2 चोवत्तराई ( चोवत्तर ) 1/2 अट्ठ ( अट्ठ ) मूलशब्द 1/2 भवे ( भव ) व 3/2 अक आवलियाइ ( आवेलिआ ) 1/2 विमाणा ( विमाण ) 1/2 सेसा ( सेस ) 1/2 पुप्फावकिण्णा [ (पुप्फ) - व (अ) = पादपूरक - (किण्ण ) 1/2 ] णं ( अ ) = वाक्यालंकार 208. आवलियविमाणाणं [( आवलिय )- (विमाण) 6/2] तु ( अ ) = पादपूर्ति अंतरं ( अंतर ) 1/1 नियमसो ( अ ) = निश्चय से असंखेज्जं ( असंखेज्ज ) 1/1 संखेज्जमसंखेज्ज [ ( संखेज्ज) + ( असंखेज्जं)] [ ( संखेज्ज ) - ( असंखेज्ज ) 1/1 ] भणियं (भण ) भूकृ 1/1 पुप्फावकिनाणं [ ( पुप्फ ) - व ( अ ) = पाद पूरक ( किण्ण ) 6/2] 209. अवलियाइ ( आवलिय ) 1/2 विमाणा (विमाण ) 1/2 वट्टा ( वट्ट ) 1/2 तंसा ( तंस ) 1/2 तहेव ( अ ) = उसी प्रकार चउ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण 129 रंसा ( चउरंसा ) 1/2 पुप्फावकिण्णया [ ( पुप्फ)- व (अ) = की तरह ( किण्ण ) 1/2 ] पुण ( अ ) = पादपूर्ति अणेगविहरुवसंठाणा [ ( अणेग )- ( विह)- (रुव)- ( संठाण ) 1/2 ] 210. वर्ल्ड ( वट्ट ) 1/1 थ ( अ ) = वाक्यालंकार वलयगं ( वलय ) 'ग' स्वार्थिक 1/1 पिव ( अ ) = की तरह तंसा (तंस) 1/2 सिंघाडयं (सिंघाडय ) 1/1 विमाणा ( विमाण ) 1/2 चउरंस ( चउरंस ) मूलशब्द 1/2 विमाणा (विमाण ) 1/2 पुण ( अ ) = पादपूर्ति अक्खाडयसंठिया [( अक्खाडयं)- (संठिअ) भूक 1/2 अनि ] भणिया ( भण ) भूकृ 1/2 211. पढमं ( पढम ) 1/1 वट्टविमाणं [ ( वट्ट) - ( विमाण ) 1/1] बीयं ( बीय ) 1/] तंसं ( तंस ) 1/1 तहेव ( अ ) = उसी प्रकार चउरसं (. चउरंस ) 1/1 एगंतरचउरंसं [( एगं ) + (अंतर )+ (चउरंसं ) ] [ ( एग)- (अंतर )- ( चउरंस ) 1/1] पुणो (अ) = पादपूर्ति वि (अ) = भी वर्ल्ड ( वट्ट ) 1/1 पुणो ( अ ) = पादपूर्ति तसं ( तंस) 1/1 212. वर्ल्ड ( वट्ट )1/1 वट्टस्सुरि [ ( वट्टस्स ) + ( उवरिं)] वट्टस्स ( वट्ट) 6/1 उरि (उवरि) 1/1 तंसं ( तंस ) 1/1 तंसस्स (तंस) 6/1 उपरि ( उवरि ) 1/1 होइ (हो) व 3/1 अक चउरंसे ( चउरंस ) 7/1 चउरंसं ( चउरंस ) 1/1 उड्ढं ( उड्ढ ) 1/1 तु ( अ ) = पादपूर्ति विमाणसेढीओ [ ( विमाण )- ( सेढी ) 1/1 ] . 213. ओलंबयरज्जूमओ [( ओलंब ) 'य' स्वार्थिक - ( रज्जु ) 1/2] सव्व विमाणाण [( सव्व )- (विमाण ) 6/2] होंति ( हो ) व 3/2 अक समियाओ ( समिअ ) 5/1 उवरिम-चरिमंताओ [(उवरिम) वि ( चरिम ) वि - ( अन्त ) 'अ' स्वार्थिक 1/1] हेछिल्लो ( हेटिल्ल ) 1/1 जाव ( अ ) = निश्चय ही चरिमंतो [ ( चरिम ) ___ - ( अन्त ) 1/1] Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 देविदत्थओ 214. पागारपरिक्खित्ता [( पागार ) - ( परिक्खित्त ) 1/2] वट्टविमाणा [( वट्ट )- (विमाण ) 1/2] हवंति ( हव ) व 3/2 अक सव्वे ( सव्व ) 1/1 स वि ( अ ) = भी चउरंसविमाणाणं [( चउरंस ) - (विमाण ) 6/2] चउद्दिसि ( अ ) = चारों दिशाओं में वेइया (वेइया )1/1 भणिया ( भण ) भूक 1/1 . 215. जत्तो (अ) = जिससे वट्टविमाणं [( वट्ट)-(विमाण ) 1/1] तत्तो ( अ ) = उससे तंसस्स ( तंस ) 6/1 वेइया ( वेइया) 1/1 होइ ( हो) व 3/1 अक पागारो (पागार ) 1/1 बोधव्वो ( बोधव्व ) विधि कृ 1/1 अनि अवसेसाणं ( अवसेस }6/2 तु (अ) = पादपूर्ति पासाणं ( पासाण ) 1/1 216. जे ( अ ) = पादपूर्ति पुण ( अ ) = पादपूर्ति वट्टविमाणा [( वट्ट) -(विमाण ) 1/2 ] एगदुवारा [ ( एग)- (दुवार ) 1/2] हवति ( हव ) व 3/2 अक सम्वे ( सव्व ) 1/1 स वि ( अ )= पादपति तिनि (ति) 1/2] य (अ) = और तंसविमाणे [( तंस )- ( विमाण ) 1/1] चत्तारि (चउ) 1/2 य (अ) = और होंति ( हो ) व 3/2 अक चउरंसे ( चउरंस ) 7/1 217. सत्तेव [( सत्त)+ ( एव )] सत्त ( सत्त.) 1/1 एव (अ ) = ही य (अ) = और कोडीओ ( कोडि ) 5/1 हवंति ( हव ) व 3/2 अक बावरि* ( बावत्तरि) 2/1 सयसहस्सा (सयसहस्स) _1/2 एसो ( एस ) 1/1 स भवणसमासो [( भवण)- ( समास) 1/1 ] भोमेज्जाणं ( भोमेज्ज) 6/2 सुरवराणं (सुरवर) 6/2 * कभी-कभी प्रथमा के स्थान पर द्वितीया का सद्भाव पाया जाता है / ( हेम प्राकृत व्याकरण 3.137 वृत्ति ) 218. तिरिओववाइयाणं [ ( तिरिअ ) - ( ओववाइय ) 6/2] रम्मा ( रम्म ) 1/2 भोमनगरा ( भोमनगर ) 1/2 असंखेज्जा ( असंखेज्ज ) 1/2 तत्तो ( अ ) = उससे संखेज्जगुणा ( संखेज्जगुण) 1/2 जोइसियाणं ( जोइसिय ) 6/2 विमाणा (विमाण) 1/2 उ ( अ ) = पादपूर्ति Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण 131 219. थोवा ( थोव ) 1/2 विमाणवासी ( विमाणवासि ) 1/2 भोमेज्जा ( भोमेज्ज ) 1/2 वाणमंतरमसंखा [( वाणमंतरं )+ ( असंखा)] वाणमंतरं ( वाणमंतर ) 2/1 असंखा ( असंख ) 1/2 तत्तो (अ) = उससे संखेज्जगुणा ( संखेज्जगुण ) 1/2 जोइसवासी ( जोइसवासि ) 1/2 भवे ( भव ) व 3/2 अक देवा ( देव )1/2 220. पत्तयविमाणाणं* [( पत्तेय )- (विमाण ) 6/2] देवोणं ( देवि) 6/2 छन्भवे [(छ) + (भवे)] छ (छ) 1/2 भवे (भव) व 3/2 अक सयसहस्सा (सयसहस्स) 1/2 सोहम्मे (सोहम्म) 7/1 कप्पम्मि (कप्प) 7/1 उ (अ) = पादपूर्ति ईसाणे (ईसाण) 7/1 होति (हो) व 3/2 अक चत्तारि ( चउ) 1/2 * कभी-कभी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग सप्तमो विभक्ति के स्थान पर होता है (हेम प्राकृत व्याकरण 3/134) 221. पंचेवऽणुत्तराई [ (पंच ) + ( एव ) + ( अणुतराइं) ] पंच ( पंच ).1/2 एव ( अ ) = ही अणुत्तराई ( अणुत्तर ) 1/2 अणुत्तरगईहिं [ ( अणुत्तर)- ( गइ ) 3/2 ) जाइ (जाइ) 2/1 विट्ठाइं (दिट्ठ) 1/2 ] जत्य ( अ ) - जहाँ पर अणुत्तरदेवा * [ ( अणुत्तर)- ( देव ) 1/2 ] भोगसुहं ( भोगसुह ) 2/1 अणु वमं ( अणुवम ) 2/1 पत्ता (पत्त) भकू 1/2 अनि 222. जत्थ ( अ ) = जिस प्रकार अणुत्तरगंधा [ ( अणुत्तर)- ( गंघ ) . 1/2 ] तहेव ( अ ) = उसी प्रकार रूवा (रूव) 1/2 अणुत्तरा (अणुत्तर) 1/2 सदा ( सद्द) 1/2 अच्चित्तपोग्गलाणं [(अच्चित) --- ( पोग्गल ) 6/2 ] रसो ( रस ) 1/1 य ( अ ) = और फासो ( फास ) 1/1 य ( अ) = पादपूरक गंधो ( गंध ) 1/1 य (अ) _ = पादपूरक - 223. पप्फोडियकलिकलुसा [ (पप्फोडिय)-( कलिकलुस) 5/1 ] पप्फोडियकमलरेणुसंकासा [ ( पप्फोडिय) - (कमल ) - ( रेणु ) - ( संकास ) 1/2 ] वरकुसुममहुकरा [ ( वर ) - ( कुसुम ) - ( महुकर ) 1/2 ] इव ( अ ) = समान सुहमयरंदं [ ( सुहु) Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविंदत्थओ (मयरंद ) 2/1 ] निघोट्टंति = नि घोटृति नि ( अ )- निश्चयही . घोट्टति ( घोट्ट) व 3/2 सक 224. वरपउमगब्भगोरा [ ( वर )- ( पउम )- ( गब्भ )- (गोर ) 1/2 ] सव्वेते [ ( सव्व ) + ( एते ) ] सव्व ( सव्व ) मूलशब्द 1/1 एते (एत ) 1/1 एगगम्भवसहीओ [ ( एग) - ( गब्भ ) . - ( वसहि ) 1/2 ] गब्भवसहीविमुक्का [ ( गब्भ ) - ( वसहि) - (विमुक्क ) भूकृ 1/2 अनि ] सुंदरि ! ( सुंदरी ) 8/1 सुक्खं ( सुक्ख ) 2/1 अणुहवंति ( अणुहव ) व 3/2. सक 225. तेत्तीसाए ( तेत्तीस ) 3/1 सुंदरि ! ( सुंदरी ) 8/1 पाससहस्सेहि* ( वाससहस्स ) 3/2 होइ ( हो) व 3/1 अक पुणेहिं ( पुण्ण ) 3/2 आहारो ( आहार ) 1/1 देवाणं ( देव ) 6/2 अणत्तरविमा णवासीणं [ ( अणुत्तरविमाण)-(वासि ) 6/2 ] * कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है / (हेम प्राकृत व्याकरण : 3/137 वृत्ति)। 226. सोलसहि* ( सोलस ) 3/2 सहस्सेहि* ( सहस्स ) 3/2 पंचेहि* ( पंच ) 372 सएहि* ( सय ) 3/2 होइ (हो) व 3/1 अक पुण्णेहि ( पुण्ण ) 3/2 आहारो ( आहार ) 1/1 देवाणं ( देव ) 6/2 मज्झिममाउं [ ( मज्झिमं)+ ( आउं) ] [ ( मज्झिम ) ( आउ) 2/1 ] धरताणं (धर ) वकृ 6/2 . * कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी का प्रयोग होता है / (हेम प्राकृत व्याकरण 3/137 ) / 227. दस ( दस ) 1/1 वाससहस्साई (वाससहस्स ) 1/2 जहन्नमा [ ( जहन्नं ) + (आउ) ] जहन्न ( जहन्न ) 2/1 आउं ( आउ) 2/1 धरंति (धर ) व 3/2 सक जे ( ज ) 1/1 स देवा ( देव ) 1/2 तेसि (त) 7/2 स पि ( अ ) = भी य (अ) = और आहारो (आहार ) 1/1 चउत्थभत्तण ( चउत्थभत्त ) 3/1 बोधवो ( बोधव्व ) भूकृ 1/1 अनि Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण 133 228. संवच्छरस्स ( संवच्छर ) 6/1 सुंवरि ! ( सुदरी ) 8/1 मासाणं ( मास ) 6/2 अद्धपंचमाणं* ( अद्धपंचम ) 6/2 च ( अ ) = और उस्सासो ( उस्सास ) 1/1 देवाणं ( देव ) 6/2 अणुत्तरविमाण वासोणं [ ( अणुत्तरविमाण )- ( वासि ) 6/2 ] *कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का भी प्रयोग होता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3/134) / 229. अट्ठमेहि ( अट्ठम ) 3/2 राइविएहिं (राइदिय) 3/2 अहि ( अट्ठ) 3/2 य ( अ ) = और सुतणु! ( सुतणु ) 8/1 मासेहि ( मास ) 3/2 उस्सासो ( उस्सास) 1/1 देवाणं ( देव ) 6/2 मज्झिममाउं [ ( मज्झिमं)+ (आउं) ] मज्झिमं (मज्झिम ) 2/1 आउ (आउ ) 2/1 घरेताणं (धर ) वक 6/2 230. सत्तण्हं ( सत्त ) 6/2 थोवाणं ( थोव ) 6/2 पुण्णाणं* ( पुण्ण ) 6/2 पुण्णयंदसरिसमुहे ! [(पुण्णचंद ) - (सरिस)- ( मुह )8/1] ऊसासो ( ऊसास ) 1/1 देवाणं ( देव ) 6/2 जहन्नमाउं [(जहन्न) + ( आउ)] जहण्णं ( जहन्न ) 2/2 आउ (आउ) 2/1 धरताणं (धर ) वकृ 6/2 *"कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है / (हेम प्राकृत व्याकरण 3/134) 231. जइसागरोवमाइं[(जई)-(सागरोवमाई)] जई (अ) = यदि सागरोवमाइं ( सागरोवम ) 1/2 जस्स (ज) 6/1 स ठिई (ठिइ) 1/1 तत्तिएहि ( तत्तिअ) 3/2 पक्खेहिं* (पक्ख ) 3/2 ' ऊसासो ( ऊसास ) 1/1 देवाणं** (देव) 6/2 वाससहस्सेहि* (वाससहस्स ) 3/2 आहारो ( आहार) 1/1 * कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का भी प्रयोग होता है / (हेम प्राकृत व्याकरण, 3/137 वृत्ति)। ** कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग भी होता है / (हेम प्राकृत व्याकरण 3/134) . - Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 देविंदत्थओ 232. आहारो ( आहार ) 1/1 ऊसासो ( ऊसास ) 1/1 एसो ( एत). 1/1 स मे ( अम्ह) 3/1 स वन्निओ ( वण्ण) भूकृ 1/1 समासेणं ( समास ) 3/1 सुहुमंतरा [ ( सु)+(अंतरा)] [(सुहु) -(अंतर ) 1/2 ) य ( अ ) = और नाहिसि ( णा) भ 2/1 सक सुंदरि ! ( सुंदरि ) 8/1 अचिरेण ( अ ) - शीघ्र कालेण . ( काल ) 3/1 233. एएसि ( एअ ) 6/2 स देवाणं ( देव ) 6/2 विसओ. (विसअ) 1/} ओहिस्स ( ओहि ) 6/1 होइ ( हो ) व 3/1 अक जो ( ज ) 8/1 स जस्स (ज) 6/1 स तं ( त ) 2/1 स संवरि ! ( सुंदरी ) 8/1 वण्णे ( वण्ण ) व 3/1 सक हं ( अम्ह ) 1/1 स अहक्कम ( अहक्कम ) 2/1 आणुपुवीए ( आणुपुव्वी) 5/1 234. सक्कोसाणा [ ( सक्क ) + ( ईसाणा ) [ ( सक्क )-( ईसाण) 1/2 ] पढमं ( पढम ) 2/1 दोच्चं (दोच्च ) 2/1 च ( अ ) = और सणंकुमार-माहिंदा [(सणंकुमार )- ( माहिंद ) 1/2 ] तच्चं ( तच्च ) 2/1 च ( अ ) = और बंभ-लंतग [ ( बंभ)- ( लंतग) मूलशब्द 1/1] सुक्क-सहस्सारय [ ( सुक्क )- ( सहस्सार ) 'य' स्वार्थिक मूलशब्द 1/1] चत्थि ( चउत्थी ) 2/1 235. आणय-पाणयकप्पे [ ( आणय )-(पाणय )-( कप्प) 7/1 ] देवा ( देव ) 1/2 पासंति.( पास ) व 3/2 अक पंचम (पंचमि) 2/1 पुढवि (पुढवि ) 2/1 तं ( त ) 1/1 स चेव [ ( च ) + ( एव ) ] च ( अ ) = और एव ( अ ) - निश्चय अर्थ में आरण. ऽच्चुय [ ( आरण)- ( अच्चुय ) मूलशब्द 1/1] ओहिन्नाणेण ( ओहिनाण) 3/1 पासंति ( पास ) व 3/2 अक 236. छठि ( छट्ठि) 1/2 हिट्ठिम-मज्झिमगेवेज्जा [ ( हिटिम ) (मज्झिम)- (गेवेज्ज ) 1/2 ] सतमि ( सत्तमी) 2/1 च (अ) = और उवरिल्ला (उवरिल्ल) 1/2 संभिन्नलोगनालिं [(संभिण्ण) - ( लोगनालि ) 2/1] पासंति ( पास ) व 3/2 सक अणुत्तरा ( अणुत्तर ) 1/2 देवा ( देव ) 1/2 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण 135 237. संखेज्जजोयणा [ ( संखेज्ज )- ( जोयण ) 1/2 ] खलु ( अ ) निश्चय देवाणं ( देव ) 6/2 अद्धसागरे ( अद्धसागर ) 2/2 ऊणे (ऊण ) 2/2 तेण ( त ) 3/1 स परमसंखेज्जा [ ( परम ) - ( संखेज्ज ) 1/2 ] जहन्नयं ( जहन्नय ) 1/1 पन्नवीसं ( पन्नवीस ) 2/1 तु (अ) = पादपूति 238. तेण ( त ) 3/1 स परमसंखेज्जा [ ( परम )- ( संखेज्ज ) 1/2] तिरियं ( तिरिय ) 2/1 दीवा ( दीव ) 1/2 य ( अ ) = और सागरा ( सागर ) 1/2 चेव [ (च ) + ( एव ) ] च ( अ )और एव ( अ ) = निश्चय बहुययरं [ (बहु ) - ( ययर ) 1/11 उवरिमया ( उवरिमय ) 1/2 उड्ढं ( उड्ढ ) 1/1 तु (अ) = पादपूरक सकप्पथूभाई [ ( सकप्प) - (थूभ ) 1/2 ] 239. नेरइय-देव-तित्थंकरा [ ( नेरइय ) - (देव ) - (तित्थंकर ) 1/2] य (अ) = और ओहिस्सऽबाहिरा [(ओहिस्स) + (अबाहिरा)] ओहिस्स** (ओहि) 6/1 अबाहिरा ( अ- बाहिर ) 1/2 वि होंति (हो) व 3/2 अक पासंति (पास) व 3/2 सक सव्वाओ (सव्व) 1/1 स खल ( अ ) = निश्चयात्मक सेसा ( सेस ) 1/2 देसेणं* ( देस ) 3/1 पासंति (पास ) व 3/2 सक कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। ( हेम प्राकृत व्याकरण, 3/137वृत्ति) कभी-कभी द्वितीया के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। . (हेम प्राकृत व्याकरण, 3/134) 240. ओहिन्नाणे ( ओहिन्नाण ) 1/1 विसओ ( विसअ) 1/1 एसो (एत) 1/1 स मे ( अम्ह ) 3/1 स वण्णिओ ( वण्ण ) भूकृ 1/1 समासेणं ... (समास ) 3/1 बाहल्लं (बाहल्ल ) 21 उच्चत्त ( उच्चत्त ) 2/1 विमाणवन्नं [ ( विमाण )- ( वण्ण ) 2/1 ] पुणो (अ) = पुनः वोच्छं* ( वोच्छं ) भ 1/1 सक भविष्यकाल में धातु सहित प्रत्यय का 'वोच्छं' बनता है। (हेम प्राकृत व्याकरण सूत्र 3/171) Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 देविदत्थओ 241. सत्तावीसं ( सत्तावोस ) 1/1 जोयणसयाई [ (जोयण ) - (सय) 1/2 ] पुढवीण ( पुढवी) 6/2 होइ (हो ) व 3/1 अक बाहल्ल (बाहल्ल ) 1/1 सोहम्मोसाणेसुं [ ( सोहम्म )+( ईसाणेसु)] [ ( सोहम्म) - ( ईसाण) 7/2 ] रयणविचित्ता [ ( रयण )(विचित्त) 1/2 ] य ( अ ) = और सा ( स ) 1/1 स पुढवो ( पुढवी ) 1/1 242. तत्थ ( अ ) = उसमें विमाण ( विमाण ) मूलशब्द 1/2 बहुविहा ( बहुविह ) 1/2 पासाया (पासाय ) 1/2 य ( अ ) = और मणिवेइयारम्मा [ ( मणि )- ( वेइया ) - ( रम्म ) 1/2 ] वेरुलियथूभियागा [ ( वेरूलिअ )- (थूभियागा ) मूलशब्द 1/2 ] रयणामयदामऽलंकारा [ ( रयणामय ) + ( दाम ) + ( अलंकारा)] [ ( रयणामय ) - ( दाम )- ( अलंकार ) 1/2 ] 243. केइत्यऽसियविमाणा [ (के) - ( इत्थ) - ( असिय) ( विमाणा) ] के ( क ) 1/1 स इत्थ (अ) = अतः असिय (असिय) मूलशब्द 1/2 विमाणा (विमाण) 1/2 अंजणधाऊसमा [ (अंजण) - ( धाउ) - ( सम ) 1/2 ] सभावेणं ( सभाव ) 3/1 अहयरिट्ठयवण्णा [ ( अद्ध ) 'य' स्वार्थिक - (रिट्ठ) 'य' स्वार्थिक - ( वण्ण ) 1/2 ] जत्थाऽऽवासा [ ( जत्थ ) + ( आवासा)] जत्थ (अ) = जिसमें आवासा ( आवासा) 1/2 सुरगणाणं [ ( सुर) - (गण ) 6/2] * छन्द की मात्रा- पूर्ति लिए ह्रस्व का दीर्घ हो जाया करता है / 244. केह ( क ) 1/1 स - इ य ( अ ) = और हरियविमाणा [ (हरिय) -( विमाण ) 1/2 ] मेयगधाउसरिसा [ (मेय) - 'ग' स्वार्थिक (धाउ) - सरिस) 1/2] सभावेणं (सभाव) 3/1 मोरग्गोवसवण्णा [(मोरग्गी) + (इव) + (सवण्णा)] [ (मोरग) इव (अ) = समान - ( सवण्ण ) 1/2 ] जत्थाऽवासा [ ( जत्थ ) - ( आवासा)] जत्थ (अ) = जिसमें आवासा (आवास) 1/2 सुरगणाणं [ (सुर) -(गण) 6/2] Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण 137 245. दीवसिहसरिसवण्णित्थ [ ( दीव ) - (सिह)- ( सरिस ) (वण्ण ) - ( इत्थ ) मूलशब्द 1/2 ] केइ (अ ) = कोई एक जासुमण-सूरसरिवण्णा [ ( जासुमण)-(सुरसरि )- ( वण्ण) 1/2 ] हिंगुलुयधाउवण्णा [ (हिंगुलुय)-(धाउ) - ( वण्ण)1/2 ] जत्थाऽवासा [ ( जत्थ ) + ( आवासा) ] जत्थ ( अ ) जिसमें आवासा ( आवास ) 1/2 सुरगणाणं [ ( सुर)- ( गण ) 6/2 ] - 246. कोरिटघाउवण्णऽत्थ [ ( कोरिट )- (धाउ ) - (वण्ण) - (अत्थ) मुलशब्द 1/2 ] केइ (अ) कोई एक फुल्लकणियारसरिवण्णा [ ( फुल्ल ) - (कणियार)- (सरि)- ( वण्ण ) 1/2] हालिदभेयवण्णा [ ( हालिद्द ) - ( भेय ) - (वण्ण ) 1/2 ] जत्थाऽऽवासा [ ( जत्थ ) + ( आवासा) ] जत्थ (अ ) = जिसमें आवासा ( आवास ) 1/2 सुरगणाणं [ ( सुर ) - ( गण ) 6/2 ] 247. अविउत्तमल्लदामा [ ( अवि ) - ( उत्त)-(मल्ल )- (दाम) 1/2 ] निम्मलगत्ता [ (णिम्मल)- ( गत्त) 1/2] सुगंधनीसासा [ (सुगंध ) - ( नीसास) 1/2] सम्वे ( सव्व ) 1/2 स अवट्रियवया [ ( अवट्रिय )- (वय) 1/2 ] सयंपभा (संयपभ) 1/2 अणिमिसऽच्छा [ ( अणिमिस ) + ( अच्छा ] [ ( अणिमिस )( अच्छ) 1/2 ] य ( अ ) = और - 248. बावरिकलापंडिया [ बावत्तरि ) - (कला)- (पंडिय ) 1/2 ] उ. (अ)- पादपूर्ति देवा ( देव ) 1/2 हवंति (हव) व 3/2 अक सव्वे ( सव्व ) 1/2 स वि (अ) = पादपति भवसंकमणे [ (भव)(संकसण) 1/2 ] तेसि ( त) 7/2 स पडिवाओ (पडिवाब) 1/1 होइ ( हो ) व 3/1 अक नायव्वो ( नायव्व ) विधि कृ 1/1 .. . अनि : 246. कल्लाणफलविवागा (कल्लाणफलविवाग ) 1/2 सच्छंदविउम्विया भरणधारी [ (सच्छंद) + ( विउव्विय) + (आभरण) + (धारी)] [ ( सच्छंद)- (विउव्विअ )- (आभरण ) - ( धारि) 1/2 ] आभरण-वसणरहिया [ ( आभरण ) - ( वसण )-( रहिय ) Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 देविदत्थओ 1/2 ] हवंति (हव) व 3/2 अक साभावियसरीरा [ (साभाविय)-.. ( सरीर ) 1/2 ] 250. बत्तुलसरिसवरुवा [ ( वत्तुल ) - ( सरिसव)- ( रुव ) 1/2] देवा ( देव ) 1/2 एक्कम्मि ( एक्क) 7/1 ठिइविसेसम्मिः ( ठिइविसेस ) 7/1 पच्चगहोणमहिया [ ( पच्चग्ग )- (हीण)-.. (महिय ) 1/2 ] ओगाहण-वण्णपरिणामा [ ( ओगाहण) - ( वण्णपरिणाम ) 1/2 ] 251. किण्हा (किण्ह ) 1/2 नीला ( नील ) 1/2 लोहिय ( लोहिय ) मूलशब्द 1/2 हालिद्दा ( हालिद्द ) 1/2 सुक्किला (सुक्किल ) 1/2 विरायंति (विराय ) व 3/2 अक पंचसए (पंच)-(सय). 1/2 ] उन्विद्धा ( उव्विद्ध ) 1/2 पासाया (पासाय ) 1/2 तेसु.. (त) 7/2 स कप्पेसु ( कप्प) 7/2 252. तत्थाऽसणा [ ( तत्थ ) + ( आसणा) ] तत्थ ( अ ) = वहां पर आसणा (आसण ) 1/2 बहुविहा (बहुविह ) 1/2 सयणिज्जा (सयणिज्ज) 1/2 य (अ) = और मणिभत्तिसयचित्ता [ (मणि)( भत्ति ) - ( सय ) - (चित्त) 1/2] विरइयवित्थडदूसा [ ( विरइय) - (वित्थड) - ( दूस ) 1/2 ] रयणामयदामऽलंकारा [( रयणामय )-(दाम)-(अलंकार ) 1/2] 253. छब्बीस ( छव्वीस ) 1/2 जोयणसया [ ( जोयण ) - (सय) 1/2] पुढवीणं (पुढवी) 6/2 ताण (त) 6/2 स होइ ( हो ) व 3/1 अक बाहल्लं ( बाहल्ल) 1/1 सणंकुमार-माहिदे* [ ( सणंकुमार )(माहिद ) 2/2 ) रयणविचित्ता [ ( रयण ) - (विचित्त) 1/2 ] 4 ( अ ) = और सा ( सा ) 1/1 स पुढवी ( पुढवी ) 1/1 * कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है / ( हेम प्राकृत व्याकरण 3/137) 254. तत्थ ( अ ) = वहाँ विमाण ( विमाण) मूलशब्द 1/2 बहुविहा (बहुविह) 1/2 पासाया (पासाय ) 1/2 य ( अ ) = और Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण 139 मणिवेइयारम्मा [ ( मणि )- ( वेइअ )- ( रम्म ) 1/2] वेरुलियथूभियागा [ ( वेरुलिय )- (थूभियागा ) मूलशब्द 1/2 ] रयणामयदामऽलंकारा [( रयणामय )- (दाम)- ( अलंकार) 1/2 ] 255. तत्थ ( अ )- वहां य ( अ ) = और नोला ( नील ) 1/2 लोहिय (लोहिय) मूलशब्द 1/2 हालिद्दा (हालिद्द ) 1/2 सुक्किला (सुक्किल ) 1/2 विरायंति (विराय ) व 3/2 अक छ (छ) मूलशब्द 1/1 च्च ( अ ) = पादपूरक सए ( सअ) 1/1 उविद्धा ( उम्विद्ध ) 1/2 वि पासाया (पासाय ) 1/2 तेसु (त) 7/2 स कप्पेसु ( कप्प ) 7/2 256. तत्याऽऽसणा [ ( तत्थ ) + ( आसणा)] तत्थ ( अ ) = वहाँ पर आसणा ( आसण.) 1/2 बहुविहा ( बहुविह ) 1/2 सयणिज्जा ( सयणिज्ज) 1/2 य (अ) = और मणिभत्तिसयचित्ता [ (मणि)( भत्ति )-( सय )-(चित्त) 1/2] विरइयवित्थडदूसा [(विरइय - ( वित्थड ) - (दूस) 1/2] रयणामयदामsलंकारा [ ( रयणामय )- (दाम)- ( अलंकार ) 1/2 ] 257. पण्णावीसं* ( पण्णावीस ) 2/1 जोयणसयाई [ ( जोयण ) ( सय ) 1/2] पुढवीण ( पुढवी) 6/2 होइ ( हो) व 3/1 अक बाहल्लं (बाहल्ल) 1/1 बंभय-लंतयकप्पे [ ( बंभ ) 'य' स्वार्थिक (लंतय )- ( कप्प )7/1 ] रयणविचित्ता [( रयण ) ( विचित्त ) 1/2 ] य (अ) = और सा ( सा) 1/1 स पुढवी ... (पुढवी ) 1/1 * कभी-कभी प्रथमा विभक्ति के स्थान पर द्वितीया का सद्भाव पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3/137 वृत्ति) - 258. तत्थ ( अ ) = वहाँ विमाण ( विमाण ) मूलशब्द 1/2 बहुविहा (बहुविह ) 1/2 पासाया ( पासाय ) 1/2 य ( अ ) = और मणि वेइयारम्भा [( मणि ) - ( वेइय )- ( रम्म ) 1/2] वेरुलियथूभियागा [ ( वेरुलिय )- (थूभियागा) मूलशब्द 1/2 ] रयणामयवामऽलंकारा [( रयणामय ) - ( दाम ) - ( अलंकार )1/2] Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 देविदत्थओ 259. लोहिय ( लोहिय ) मूलशब्द 1/2 हालिद्दा ( हालिद्द ) 1/2 पुण ( अ ) = पादपूर्ति सुक्किलवण्णा [( सुक्किल )- ( वण्ण ) 1/2] 4 (अ) = और ते ( त ) 1/2 स विरायंति ( विराय ) व 3/2 अक सत्तसए [( सत्त ) - (सय) 1/2] उम्विद्धा ( उव्विद्ध ) 1/2 वि तेसु ( त) 7/2 स कप्सु ( कप्प ) 7/2 260. तत्थाऽऽसणा [ ( तत्थ ) + ( आसणा) ] तत्थ ( अ ) = वहाँ पर आसणा ( आसण) 1/2 बहुविहा ( बहुविह) 1/2 सयणिज्जा ( सयणिज्ज ) 1/2 य (अ) = और मणिभत्तिसयचित्ता [ ( मणि) - ( भत्ति ) - ( सय ) - ( चित्त ) 1/2 ] विरइयवित्थडदूसा [ ( विरइय)-( वित्थड)-( दूस) 1/2 ] रयणामयदामsलंकारा [ ( रयणामय ) - ( दाम ) - ( अलंकार ) 1/2 ] 261. चउवीस ( चउवीस ) 1/2 जोयणसयाई [( जोयण ) - ( सय ) 1/2 ] पुढवीणं ( पुढवी ) 6/2 तासि ( तासि ) वि होइ ( हो ) व 3/1 अक बाहल्लं ( बाहल्ल) 1/1 सुक्के . ( सुक्क ) 7/1 य (अ) और सहस्सारे ( सहस्सार ) 7/1 रयणविचित्ता [(रयण) - (विचित्त ) 1/2 ] य ( अ ) = और सा ( सा ) 1/1 स पुढवी (पुढवी ) 1/1 262. तत्थ ( अ ) = वहाँ विमाण ( विमाण ) मूलशब्द 1/2 बहुविहा (बहुविह) 1/2 पासाया ( पासाय ) 1/2 य ( अ ) = और मणिवेइयारम्मा [ ( मणि) - ( वेइय ) - ( रम्म) 1/2 ] वेरुलियथूभियागा [ ( वेरुलिय ) - ( थूभियागा ) मूलशब्द 1/2 ] रयणामयदामऽलंकारा [ ( रयणामय ) - (दाम) - ( अलंकार) 1/2 ] 263. हालिद्दभेषवण्णा [( हालिद्द ) - ( भेय ) - ( वण्ण ) 1/2 ] सुक्किलवण्णा [ ( सुक्किल ) - ( वण्ण ) 1/2 ] य ( अ ) = और ते ( त ) 1/2 स विरायंति (विराय ) व 3/2 अक अट्ठसते [ ( अट्ठ) - ( सय ) 1/2 ] उविद्वा ( उविद्ध ) 1/2 पासाया (पासाय ) 1/2 तेसु ( त ) 7/2 स कप्पेसु ( कप्प ) 6/2 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण 141 264. तत्थाऽऽसणा [( तत्थ ) + ( आसणा )] तत्थ (अ)= वहां पर आसणा ( आसण) 1/2 बहुविहा (बहुविह ) 1/2 सयणिज्जा ( सयणिज्ज ) 1/2 य ( अ ) = और मणिभत्तिसयचित्ता [(मणि) -(भत्ति ) - ( सय ) - (चित्त) 1/2 ] विरइयवित्थडदूसा [( विरइय )- (वित्थड)- (दस )1/2] रयणामयदामऽलंकारा [( रयणामय ) - ( दाम ) - ( अलंकार ) 1/2] 265. तेवीस ( तेवीस ) 1/2 जोयणसयाइ [( जोयण ) - ( सय )1/2] ढवीणं ( पुढवी ) 6/2 तासि ( तासि ) वि-होइ ( हो ) व3/1 अक बाहल्लं (बाहल्ल) 1/1 आणय-पाणयकप्पे [ ( आणय )( पाणय )- (कप्प )7/1] आरण-ऽच्चुए [(आरण) + (अच्चुए)]. [( आरण )- (अच्चुअ) 7/1] रयणविचित्ता [ ( रयण )(विचित्त) 1/2] उ ( अ ) = पादपूर्ति सा ( सा) 1/1 स पुढवी (पुढवी )1/1 266. तत्थ ( अ ) = वहाँ विमाण (विमाण ) मलशब्द 1/2 बहविहा (बहुविह )1/2 पासाया ( पासाय ) 1/2 य ( अ ) = और मणिवेइयारम्मा [( मणि)- ( वेइय) - ( रम्म) 1/2] वेरुलियथूभियागा [( वेरुलिय)- (थूमियागा ) मूलशब्द 1/2 ] रयणा. मयदामऽलंकारा [( रयणामय ) - ( दाम)- ( अलंकार )1/2] 267. संखंकसनिकासा [ ( संख ) - ( सन्निकास ) 1/2 ] सव्वे ( सव्व) 1/1 स दगरय-तुसारसरिवण्णा [ ( दगरय)-(तसार)- (सरि) - ( वण्ण ) 1/2 ] नव ( नव ) 1/1 य ( अ ) = और सते (सय) ___1/1 उविता ( उविद्ध ) 1/2 पासाया ( पासाय ) 1/2 तेसु (त) 7/2 स कप्पेसु ( कप्प) 7/2 _268. तत्थाऽऽसणा [ ( तत्थ ) + ( आसणा) ] तत्थ ( अ ) = वहाँ पर आसणा ( आसण ) 1/2 बहुविहा (बहुविह) 1/2 सयणिज्जा ( सयणिज्ज ) 1/2 य (अ) = और मणिभत्तिसयचित्ता [(मणि) - ( भत्ति )- ( सय )-( चित्त ) 1/2 ] विरइयवित्थडदूसा [ ( विरइय )- ( वित्थड)- (दूस) 1/2 ] रयणामयदाम - लंकारा [ ( रयणामय ) - ( दाम )- ( अलंकार ) 1/2 ] Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 देविदत्थओ 269. बावोस (बावीस) 1/2 जोपणसयाई [ (जोयण) - ( सय ) 1/2 ] पुढवीणं ( पुढवो ) 6/2 तासि ( तासि ) वि होइ ( हो ) व 3/1 अक बाहल्लं ( बाहल्ल) 1/1 गेवेज्जविमाणेसु [ ( गेवेज्ज )( विमाण ) 7/2 ] रयणविचिता [(रयण )- ( विचित्त ) 12] उ ( अ ) = पादपूर्ति सा ( सा) 1/1 स पुढवी ( पुढवी) 1/1 270. तत्थ ( अ ) = वहाँ विमाण (विमाण ) मूलशब्द 1/2 बहुविहा (बहुविह) 1/2 पासाया (पासाय) 1/2 य ( अ ) = और मणिवेइयारम्मा [ ( मणि)-( वेइय )-( रम्म ) 1/2 ] वेरुलियथूभियागा [ ( वेरुलिअ)- (थूभियागा ) मूलशब्द 1/2 ] रयणामयवामऽलंकारा [ ( रयणामय ) - (दाम) - ( अलंकार ) 1/2 ] 271. संखंकसनिकासा [( संख ) - ( सनिकास ) 1/2] सव्वे ( सव्व ) 1/1 स दगरय-तुसारसरिवण्णा [ ( दगरय )-( तुसार )(सरि )- (वण्ण ) 1/2 ] दस (दस) 1/2 य (अ) = और सए ( सअ) 1/1 उविद्या ( उम्विद्ध ) 1/2 पासाया (पासाय ) 1/2 ते ( त) 1/2 स विरायंति (विराय ) व 3/2 अक 272. तत्थाऽऽसणा [ ( तत्थ )+ (आसणा)] तत्थ (अ) = वहाँ पर आसणा ( आसण ) 1/2 बहविहा (बहविह) 1/2 सयणिज्जा ( सयणिज्ज ) 1/2 य (अ) = और मणिभत्तिसयचित्ता [(मणि) -(भत्ति)- ( सय )- (चित्त) 1/2 ] विरइयवित्थडदूसा [ (विरइय ) - ( वित्थड ) - ( दूस) 1/2 ] रयणामयामऽलं कारा [ ( रयणामय) - ( दाम ) - ( अलंकार ) 1/2 ] 273. इगवोस ( इगवोस ) 1/2 जोयगसयाई [ (जोयण ) - (सय)1/2] पुढवीणं ( पुढवी) 6/2 तासि ( तासि ) वि होइ ( हो ) व 3/1 अक बाहल्लं ( बाहल्ल) 1/1 पंचसु (पंच) 7/2 अणुत्तरेसुं ( अणत्तर ) 7/2 रयणविचित्ता [ ( रयण )-(विचित्त ) 1/21 उ ( अ ) = पादपूर्ति सा ( सा ) 1/1 स पुढवो ( पुढवी ) 1/1 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण 143 274. तत्थ ( अ ) = वहां विमाण ( विमाण ) मूलशब्द 1/2 बहुविहा (बहुविह) 1/2 पासाया (पासाय ) 1/2 य (अ) = और मणिवेइयारम्मा [( मणि ) - ( वेइय ) - ( रम्म ) 1/2 ] वेरुलियथूभियागा [ ( वेरुलिय ) - (थूभियागा) मूलशब्द 1/2 ] रयणामयदामऽलंकारा [ ( रयणामय ) - (दाम)- ( अलंकार) 1/2] 275. संखंकसन्निकासा [ ( संख ) + ( कंख ) + ( सन्निकासा )] [ ( संख ) - ( कंख ) - ( सन्निकास) 1/2] सव्वे ( सव्व ) 1/1 स दगरय-तुसारसरिवण्णा [ ( दगरय )-( तुसार )( सरि)- ( वण्ण ) 1/2 ] इक्कारस ( इक्कारस ) 1/2 उव्विद्धा ( उव्विद्ध) 1/2 पासाया (पासाय) 1/2 ते (त) 1/2 स विरायंति ( विराय ) व 3/2 अक 276. तत्थाऽसणा [ ( तत्थ )+(आसणा)] तत्थ (अ) = वहां पर आसणा ( आसण ) 1/2 बहुविहा (बहुविह ) 1/2 सयणिज्जा ( संयणिज्ज ) 1/2 य ( अ ) = और मणिभत्तिसयचित्ता [(मणि) - ( भत्ति ) - ( सय ) - ( चित्त) 1/2 ] विरइयवित्थडदूसा [ ! विरइय )-(वित्थड)-(दूस ) 1/2 ] रयणामयदामsलंकारा [ ( रयणामय ) - ( दाम ) - ( अलंकार ) 1/2 ] 277. सव्वट्ठविमाणस्स [ ( सव्वट्ठ)- ( विमाण ) 6/1 ] उ ( अ ) = पादपूर्ति सव्वुवरिल्लाओ [ ( सव्व ) + ( उवरिल्लाओ )] . सव्व ( सव्व ) मूलशब्द 5/1 स उवरिल्लाओ (उवरिल्ल) 5/1 ... थूभियंताओ [ (थूभिय ) + (अंताओ) ] [(थूमिय) - (अंत) 5/1 ] बारसहि* ( बारस ) 3/2 जोयणेहिं* ( जोयण ) 3/2 . इसिपब्भारा ( इसिपन्भारा ) 1/1 तओ ( अ ) = उससे पुढवी ( पुढवि )1/1 * कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3/136 ) Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविंदत्थओ 278. निम्मलवगरयवण्णा [ ( णिम्मल )- ( दगरय)- (वण्ण ) 1/2]: तुसार-गोखोर हारसरिवण्णा [ ( तुसार ) - (गोखीर)- (हार) -(सरि )- (वण्ण ) 1/2 ] भणिया (भण) भूक 1/2 उ (अ) = पादपूर्ति जिणवरेहिं (जिणवर) 3/2 उत्ताणयछत्तसंठाणा [ ( उत्ताणय ) - ( छत्त)- ( संठाण ) 1/2 ] 279. पणयालीसं* ( पणयालीस ) 2/1 आयाम वित्थडा [ ( आयाम ) - (वित्थड ) 1/2 ] होइ ( हो) व 3/1 अक सयसहस्साई ( सयसहस्स) 1/2 तं (अ) = उससे तिगुणं (तिगुण ) 1/1 सविसेसं ( सविसेस ) 1/1 परीरओ ( परिरअ ) 1/1 होइ ( हो) व 3/1 अक बोधव्वो ( बोधव्व ) विधिकृ 1/1 अनि * कभी-कभी प्रथमा विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का सद्भाव पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3/137 वृत्ति ) 280. एगा ( एग) 1/2 जोयणकोडो [ ( जोयण )-( कोडि ) 1/1] बयालीसं* ( बयालीस ) 2/10 (अ) = और, सयससहस्साई (सयसहस्स ) 1/2 तीसं* ( तीस ) 2/1 सहस्सा ( सहस्स) 1/2 दो ( दो ) 1/2 य (अ)- और सया ( सय ) 1/2 अउणपन्नासा [ ( अउण )-(पन्नास ) 1/2 ] * कभी-कभी प्रथमा विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का सद्भाव पाया जाता है। . (हेम प्राकृत व्याकरण 3/137 वृत्ति ) 281. खेत्तद्धयविच्छिन्ना [ (खेत्त) + ( अद्ध ) + ( विछिन्न)] [ (खेत्त) - ( अद्ध )-(विच्छिन्न ) भूकृ 1/2 अनि ] अद्वैव [ (अट्ठ)+ (एव) ] अट्ठ ( अट्ठ ) मूलशब्द 1/2 एव (अ) = ही जोयणाणि ( जोयण ) 2/2 बाहल्लं (बाहल्ल) 1/1 परिहायमाणो (परिहा) वकृ 1/1 चरिमंते ( चरिमअंत ) 1/1 मच्छियपत्ताओ [ (मच्छिय) -(पत्त ) 5/1 ] तणुययरी [ ( तणुय ) - ( यरि ) 1/2] 282. संखंकसन्निकासा [ (संख) + ( अंक ) + ( सन्निकासा)] [( संख) - ( अंक ) - ( सन्निकास ) 1/2 ] नामेण (नाम ) 3/1 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण 145 सुदंसणा ( सुदंसण ) 1/2 अमोहा ( अमोह ) 1/2 य ( अ )और अज्जुणसुवण्णयमई [( अज्जुण) - ( सुवण्ण ) 'य' स्वार्थिक ( मइ ) 1/2 ] उत्ताणयछतसंठाणा [ (उत्ताणय) - ( छत्त)(संठाण ) 1/2 ] 283. ईसीपब्भाराए ( ईसीपब्भारा ) 6/1 उवरि (अ) = ऊपर की ओर खलु ( अ ) = निश्चयात्मक, जोयणम्मि ( जोयण) 7/1 लोगंतो [ ( लोग ) + ( अंतो ) 1 [ (लोग) - (अंत) 1/1 ] तस्सुवरिमम्मि [(तस्स) + (उवरिमम्मि)] तस्स(त) 6/1 स उवरिमम्मि (उवरिम) 7/1 भाए ( भाअ ) 7/1 सोलसमे ( सोलसम) 7/1 सिद्धमोगाढे [ ( सिद्धं ) + ( ओगाढे ) ] [ (सिद्ध ) - ( ओगाढ ) 1/1 ] 284. तत्थेते [ ( तत्थ ) + ( एते ) ] तत्थ ( अ ) = वहाँ एत ( एअ) मूलशब्द 1/2 स निच्चयणा (नि-च्चयण ) 1/2 अवेयणा (अ - वेयण) 1/2 निम्ममा ( निम्मम ) 1/2 असंगा (असंग) 1/2 य(अ) = और असरीरा [ (अ) - (सरीर)1/2 ] अ (अ) = अभाव, जीवघणा ( जीवघण ) 1/2 पएसनिव्वत्तसंठाणा [ (पएस )(निव्वत्त)- ( संठाण) 1/2 ] 285. कहिं ( अ ) - कहां, पडिहया ( पडिहय ) भूकृ 1/2 अनि सिद्धा (सिद्ध ) 1/2 पाइट्ठिया (पइट्ठिय) भूकृ 1/2 अनि बोंवि (बोंदि) 2/1 चइत्ताणं ( चअ ) संकृ कत्थ (अ) = कहाँ गंतूण (गंतण) सकृ अनि सिजाई ( सिज्झ ) व 3/1 सक। 286. अलीए ( अलोअ ) 7/1 पडिहया ( पडिहय ) भूकृ 1/2 अनि सिता ( सिद्ध ) 1/2 लोयग्गे [ ( लोय ) + ( अग्गे) ] [ ( लोय )( अग्ग ) 7/1] य ( अ ) = और पइट्ठिया ( पइट्ठिय ) भूकृ 1/2 अनि इहं ( अ ) = यहाँ बोंदि ( बोंदि ) 2/1 चइत्ताणं ( चअ ) संकृ तत्थ ( अ ) = वहाँ गंतूण ( गंतूण ) संकृ अनि सिमई* (सिज्झ ) व 3/1 सक * कभी-कभी पद में अन्त की क्रिया में 'इ' का 'ई' हो जाता है / (प्राकृत भाषाओं का व्याकरण-पिशेल- 138) Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविदत्थओ 287. जं ( ज ) 1/1 स संठाणं ( संठाण ) 1|| तु ( अ ) = पादपूर्ति इहं (अ)- यहाँ भवं ( भव) 2/1 चयंतस्स (चय) वकृ 6/1 चरिमसमयम्मि [ ( चरिम ) - ( समय ) 7/1 ] आसी (अस) भू 3/1 सक य (अ) = और पएसघणं (पएसघण) 1/1 तं (त) 1/1 स संठाणं (संठाण) 1/1 तहिं (अ) = वहां तस्स ( त ) 61 स 288. दोहं ( दीह) 1/1 वा ( अ ) = अथवा हुस्सं (हुस्स) 1/1 वा (अ) = अथवा जं (ज) 1/1 स संठाणं (संठाण ) 1/1 हवेज्ज ( हव ) व 3/1 अक चरिमभवे [ ( चरिम)- ( भव ) 7/1 ] ततो (अ) = उससे, तिभागहीणा (तिभागहीण ) 1/2 वि सिद्धाणोगाहणा [ ( सिद्धाण ) + ( ओगाहणा)] सिद्धाणं (सिद्ध ) 6/2 ओगाहणा ( ओगाहण ) 1/2 भणिया ( भण) भूक 1/2 289. तिन्नि (ति ) 1/2 सया ( सय ) 1/2 तेत्तीसा ( तेत्तीस ) 1/2 घणुत्तिभागो [ (धणु ) - (तिभाग) 1/1 ] य ( अ ) = और होई* ( हो) व 3/1 अक बोधव्वो ( बोधव्व ) विधिक 1/1 अनि एसा ( अ ) = इस प्रकार, खलु ( अ ) = निश्चयात्मक, सिद्धाणं ( सिद्ध ) 6/2, उक्कोसोगाहणा [ ( उक्कोस ) + ( ओगाहणा)] [ ( उक्कोस ) - ( ओगाहण ) 1/2 ] भणिया (भण ) भूक 1/2 * छन्द की मात्रा पूर्ति के लिए हस्व का दीर्घ हो जाया करता है / 290. चत्तरि ( चउ ) 1/2 य ( अ ) और रयणीओ ( रयणी ) 1/2 रयणितिभागूणिया [( रयण ) + ( इति ) + (भाग) + (उणिया)] रयण(रयण) मूलशब्द 1/2 इति (अ) = इस प्रकार भाग (भाग) मलशब्द 1/2 उणिया (उणिय) भूक 1/2 अनि य (अ) = और, बोषव्वा ( बोधव्व ) विधिक 1/2 अनि एसा ( अ ) = इस प्रकार खलु (अ) = निश्वयार्थक सिद्धाणं ( सिद्ध ) 6/2 मज्झिमओगाहणा [ ( मज्झिम )-(ओगाहण) 1/2 ] भणिया ( भण) भूकृ 1/2 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण 147 291. एक्का ( एक्का ) 1/1 य (अ) = और, होइ (हो) व 3/1 अक रयणी (रयणी) 1/1 अद्वैव [ ( अट्ठ)+ (एव) ] अट्ठ ( अट्ठ) मूलशब्द 1/2 एव (अ) = हो, य (अ) = और, अगुलाई ( अगुंल ) 1/2 साहीया ( साहीय ) 1/2 वि एसा (अ) = इस प्रकार, खलु (अ) = निश्चयार्थक, सिद्धाणं (सिद्ध ) 6/2 जहण्ण (जहण्ण) मूल शब्द 1/2 ओगाहणा ( ओगाहण) 1/2 भणिया ( भण) भूकृ 1/2 292. ओगाहणाइ ( ओगाहण) 1/2 सिद्धा (सिद्ध ) 1/2 भवत्तिभागेण [( भव ) - (ति )- ( भाग ) 3/1 ] हुंति (हु ) व 3/2 अक परिहोणा ( परिहीण ) भूक 1/2 अनि संठाणमणिस्थत्थं [(संठाण) + ( मणि ) + ( अत्थ )+ ( अत्थं ) ] [ ( संठाण)- ( मणि) मूलशब्द 7/1] अत्थ (अ ) = यहा, अत्थं (अ) = स्थान में जरामरण विप्पमुक्काणं [ (जरा) - (मरण) - (विप्पमुक्क )6/2] 293. जत्थ (अ) = जहाँ, य ( अ ) = और, एगो ( एग ) 1/1 तत्थ (अ)- वहाँ, अणंता (अणंत ) 1/2 भवक्खयविमुक्का [ ( भवक्खय ) - (विमुक्क) 1/2] अन्नोन्नसमोगाढा [ (अण्णोण्ण) ___ -( समोगाढ ) 1/2 ] पुट्ठा (पुट्ठ ) 1/2 वि सम्वे ( सव्व ) 1/2 स अलोगते ( अलोगंत) 7/1 294. असरोरा ( असरीर ) 1/2 जीवघणा ( जीवघण ) 1/2 उवउत्ता " ( उवउत्त) 1/2 दंसणे ( सण ) 7/1 य (अ) = और नाणे .. ( नाण ) 7/1 सागारमणागारं [ ( सागारं ) + ( अणागारं )] सागारं ( सागारं ) 1/1 अणागारं ( अणागार ) 1/1 लक्खण मेयं [ ( लक्खणं ) + ( एयं ) ] [ ( लक्खण ) - ( एअ) 1/1] तु (अ) = पादपूर्ति सिवाणं ( सिद्ध ) 6/2 295. फुसइ ( पुस ) व 3/1 सक, अणते (अणंत) 2/2 सिद्धे (सिद्ध) 2/2 सव्वपएसेहिं ( सव्वपएस ) 3/2 णियमसो (अ) = निश्चिय से, सिद्धो (सिद्ध ) 1/1 ते (त) 1/2 स वि (अ) = भी असंखेज्जगुणा ( असंखेज्जगुण ) 1/2 देसपएसेहिं [ ( देस )(पएस ) 3/2 ] जे ( ज ) 1/2 स पुट्ठा (पुट्ठ ) 1/2 वि / [भिव Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 देविदत्यो 296. केबलनाणुवउत्ता [ ( केवलनाण ) - ( उवउत्त ) 1/2 ] माणंतो* . ( जाण ) व 3/2 सक सव्वभावगुण-भावे [ ( सव्वभाव ) - (गुण) - ( भाव ) 2/2 ] पासंति ( पास ) व 3/2 सक सव्वओ (अ) - सब ओर से खलु ( अ ) = निश्चय अर्थ में केवलविठ्ठीहणताहि [ ( केवल ) - (दिट्ठि) - ( अणंत ) 3/2 ] * छन्द की मात्रा पूर्ति के लिए ह्रस्व का दीर्घ कर दिया जाता है। 297. नाणम्मि ( नाण ) 7/1 दंसणम्मि ( दंसण ) 7/1 य (अ) = और इत्तो ( अ ) = इसमें एगयरयम्मि ( एगयर ) 'य' स्वार्थिक 7/1 उवउत्ता ( उवउत्त) 1/2 सव्वस्स ( सव्व ) 6/1 स केवलिस्स ( केवलि ) 6/1 जुगवं ( अ ) = एक साथ दो (दो) 1/1 नत्यि (अ ) = नहीं उवओगा ( उवओग ) 1/2 298. सुरगणसुहं [ ( सुर ) - ( गण ) - ( सुह ) 2/1 ] समत्तं (समत्त) 2/1 सम्वद्धापिडियं [ ( सव्वद्धा)- (पिडिय ) 2/1 ] अणंतगुणं ( अणंतगुण ) 2/1 न ( अ ) = नहीं वि ( अ ) = भी पावइ (पाव) व 3/1 सक मुत्तिसुहं [ (मुत्ति ) - ( सुह ) 2/1] ताहिं [(णं) + (ताहिं ) ] णं (अ) = वाक्यालंकार ताहि (त) 5/1 स 299. न ( अ ) = नहीं वि (अ.) = भी अस्थि (अस ) व 3/2 अक माणुसाणं ( माणुस ) 6/2 तं ( त ) 1/1 स सोक्खं (सोक्ख )1/1 न ( अ ) = नहीं वि ( अ ) = भी य (अ) = और सव्वदेवाणं [ ( सव्व )- ( देव ) 6/2 ] जं (ज) 1/1 स सिद्धाणं ( सिद्ध ) 6/2 सोक्खं ( सोक्ख ) 1/1 अव्वाबाहं ( अव्वाबाह ) 1/1 उवगयाणं ( उवगय ) 6/2 300. सिद्धस्स ( सिद्ध ) 6/1 सुहो ( सुह) 1/1 रासी ( रासि ) 1/1 सव्वद्वापिंडिओ [ ( सव्वदा ) - (पिडिय) 5[1] जई (अ ) = यदि हविज्जा (हव ) विधि 3/1 अक गंतगुणवग्गुभइओ [ ( णंत ) + (गुण ) + ( वग्ग ) + ( उभइओ)] Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण 149 [ ( अणंत )- (गुण )- ( वग्ग ) - ( उभय ) 5/1 ] सव्वागासे [ ( सव्व ) + ( आगासे )] [ ( सव्व )- ( आगास ) 7/1] न (अ) = नहीं माएज्जा ( माअ ) भ 3/1 सक 301. जइ ( अ ) = यदि नाम ( अ ) = वाक्यालंकार, कोइ (अ) = कोई मिच्छो ( मिच्छ ) 1/1 नयरगुणे [ ( नयर)- ( गुण ) 2/2] बहुविहे ( बहुविह ) 2/2 वियाणंतो ( वियाण ) वकृ 1/1 न ( अ ) = नहीं, चएइ ( चअ ) व 3/1 सक परिकहेउं ( परिकह ) हेक उवमाए (उवमा) 3/1 तहिं (अ) = उसमें असंतीए ( असंति ) 3/1 302. इअ ( इअ ) 1/1 सिद्धाणं (सिद्ध ) 6/2 सोक्खं ( सोक्ख ) 1/1 अणोवमं ( अणोवम ) 1/1 नत्थि ( अ ) = नहीं तस्स ( त ) 6/1 स, ओचम्मं ( ओवम्म) 1/1 किंचि ( अ ) = अल्प, थोड़ा, विसेसेणित्तो [(विसेसेण) + (इत्तो)] विसेसेण (विसेस) 3/1 इत्तो ( अ ) = इसमेंसारक्खमिणं [ (सारक्ख) + (इणं) ] [ (सारक्ख)( इण ) 2/1 ] सुणह ( सुण ) विधि 2/1 अक वोच्छं (वोच्छ ) भ 1/1 सक। 303. जह ( अ ) = जैसे, सव्वकामगुणियं [ ( सव्व ) + ( कामगुण )+ ( इयं ) ] [ ( सव्व ) - ( कामगुण ) - ( इय ) 2/1 ] पुरिसो (पुरिस ) 1/1 भोत्तु ण ( भोत्त ) संकृ. भोयणे ( भोयण ) 212 कोई ( अ ) = कोई भी तण्हा-छुहा विमुक्को (तण्हा) - (छुहा)(विमुक्क ) 1/1 वि ] अन्छिज्ज ( अच्छिज्ज ) मूलशब्द, 1/1 जहा ( अ ) = जिस तरह अमियतित्तो [ ( अमिय ) - (तित्त ) 1/2 वि] 304. इय ( अ ) = इस प्रकार, सव्वकालतित्ता [ (सव्व ) - ( काल ) तित्त ) 1/2 वि ] अउलं ( अउल) 1/1 निव्वाणमुवगया [ (निव्वाण) + (उवगया) ] [ ( निव्वाण ) - ( उवगय ) भूकृ 1/2 अनि ] सिद्धा ( सिद्ध ) 1/2 सासयमव्वाबाहं [ ( सासयं )+ ( अव्वाबाहं )] सासयं ( सासय ) 2/1 अव्वाबाहं ( अव्वाबाह) Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 देविदत्थओ 1/1 चिट्ठति (चिट्ठ ) व 3/2 अक सुही ( सुहि ) 1/1 सुहं (सुह ) 1/1 पत्ता( पत्त) भूक 1/1 अनि 305. सिद्ध (सिद्ध ) मूलशब्द, 1/1 चि ( अ ) = और, य (अ) और ब्रद्ध ( बुद्ध ) मलशब्द, 1/1 पारगय ( पारगय) मूलशब्द, भूकृ 1/1 अनि परंपरगय (परंपरग ) 'य' स्वार्थिक मलशब्द 1/1 उम्मक्ककम्मकवया [ ( उम्मुक्क)- (कम्म)-( कवय) 1/2 ] अजरा ( अजर ) 1/2 अमरा ( अमर ) 1/2 असंगा (असंग) 1/2 306. निच्छिन्नसव्वदुक्खा [ ( णिच्छिण्ण )- (सव्व) - (दुक्ख ) 1/2 ] जाइ-जरा-मरण-बंधणविमुक्का [ ( जाइ )- (जरा) - (मरण) - ( बंधण ) - ( विमुक्क ) भूकृ 1/2 अनि ] सासयमव्वाबाहं [ ( सासयं ) + ( अव्वाबाहं )] [ ( सासय ) 1/1 - ( अव्वाबाह) 1/1 ] अणु हुति ( अणुहु ) व 3/2 सक सुहं ( सुह ) 1/1 सयाकालं ( सयाकाल ) 1/1 307. सुरगणइड्ढि [ ( सुर )- ( गण ) - ( इड्ढि ) 1/1] समग्गा ( समग्ग ) 1/2 सव्वद्वापिंडिया [ ( सव्वद्धा )- (पिडिया) 1/1] अणंतगुणा ( अणंतगुण) 1/2 न ( अ ) = नहीं वि (अ) = भी पावे ( पाव ) व 3/2 अक जिणइड्ढि [ ( जिण ) - (इड्ढि ) 2/1] गतेहिं ( अणंत ) 3/2 वि ( अ ) = पादपूर्ति वग्गवहिं ( वग्गवग्गु ) 3/2 308. भवणवइ ( भवणवइ) मूलशब्द 1/1 वाणमंतर (वाणमंतर ) मूलशब्द 1/1 जोइसवासो [( जोइस ) - ( वासि ) 1/1] विमाणवासी ( विमाणवासि ) 11 य ( अ ) = और सन्विड्ढीपरियारो [ ( सव्विड्ढि )-(परियार) 1/1 ] अरहते ( अरहंत ) 2/2 वंदया ( वंदय ) 1/2 होंति ( हो) व 3/2 अक 309. भवणवई ( भवणवइ ) मूलशब्द 1/1 वाणमंतर ( वाणमंतर ) मूलशब्द 1/1 जोइसवासी (जोइसवासि ) 1/1 - विमाणवासी (विमाणवासि ) 1/1 य (अ ) = और इसिवालियमइमहिया Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण 151 [( इसिवालिय)- (मइ )-(महिय ) 1/2 ] करेंति (कर) व 3/2 सक महिमं ( महिम ) 2/1 जिणवराण( जिणवर ) 6/2 310. इसिवालियस्स ( इसिवालिय ) 6/1 भदं ( भद्द ) 1/1 सुरवरथय कारयस्स [( सुरवर )- ( थय )- ( कारय ) 6/1] वोरस्स (वीर) 6/1 जेहिं ( जेह ) 3/2 सया ( अ ) = सदा थुव्वंता ( थुव ) वक 1/2 सम्वे ( सव्व ) 1/2 स इंदा (इंद) 1/2 य (अ) = और पवरकित्तीया [ ( पवर )-(कित्तिय ) 1/2] तेसि ( त) 7/2 स सुराऽसुरगुरु [ ( सुर ) - (असुर) - (गुरु) 1/2 ] सिद्धा (सिद्ध) 1/2 सिद्धि ( सिद्धि ) 211 उवविहिंतु ( उववह ) हेकृ 311. भोमेज्ज-वणयराणं [( भोमेज्ज )-( वणयर ) 6/2] जोइसियाणं ( जोइसिय) 6/2 विमाणवासीण ( विमाणवासि ) 6/2 देवनिकायाण ( देवनिकाय ) 6/2 थओ ( थअ ) 1/1 इह ( अ ) - इस प्रकार सम्मत्तो (सम्मत्त) 1/1 अपरिसेसो ( अपरिसेस ) 1/1 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक ग्रन्थ व कोश सूची 1. पइण्णय-सुत्ताई-मुनि पुण्यविजय, महावीर विद्यालय, बम्बई 2. प्रकीर्णक सूत्र-आगमोदय समिति, सूरत 3. हेमप्राकृतव्याकरण भाग 1, भाग २,-प्यारचंद जी म० सा० 4. अभिनव प्राकृत व्याकरण, नेमिचन्दशास्त्री, तारा पब्लिकेशन, वाराणसी 5. प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, डा०पिशेल, बिहार राष्ट्रभाषापरिषद,पटना 6. गणितानुर्याग,मुनि कन्हैयालाल 'कमल', आगमअनुयोग ट्रस्ट, अहमदाबाद 7. सिद्धान्तसार, जिणदास शास्त्री-जैन संस्कृति रक्षकसंघ, शोलापुर 8. लोकविभाग,बालचन्द सिद्धान्तशास्त्री,जैन संस्कृति रक्षकसंघ, शोलापुर 9. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, घासीलालजी मसा०,जैन शास्त्रोद्धार समिति, राजकोट 10. चन्द्रप्रज्ञप्ति, घासीलाल जी म० सा०, जैनशास्त्रोद्धार समिति-राजकोट 11. सूर्यप्रज्ञप्ति, घासीलाल जी म० सा०, जैनशास्त्रोद्धार समिति-राजकोट 12. जीवाभिगमसूत्र, घासीलाल म० सा०, जैनशास्त्रोद्धार समिति, राजकोट 13. जैन तत्व प्रकाश, अमोलक ऋषि-अमोल जैन ज्ञानालय, धूलिया 14. प्रज्ञापना-मधुकर मुनि-आगम प्रकाशन समिति, चावर 15. स्थानांग-आ० तुलसी-जैन विश्व भारती, लाडनूं 16. समवाओ-आ० तुलसी-जैन विश्व भारती, लाडनूं 17. वृहद् अनुवाद चन्द्रिका, चन्द्रधर शास्त्री, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली 18. गणितसार-एल० सी० जैन०-जैन संस्कृति रक्षक संघ, शोलापुर 19. आचारांग चयनिका-डॉ० कमल चन्द सोगानी-प्राकृत भारती अकादमी-जयपुर . 20. दशवकालिक चयनिका-डॉ० कमल चन्द सोगानी-प्राकृत भारती अकादमीजयपुर 21. संस्कृत हिन्दी कोश,वामन शिवराजआप्टे,प्राकृतभारती अकादमी,जयपुर 22. पाइअ सद्द महण्णवो, प० हरगोविन्द दास, प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी, वाराणसी 23. नालन्दा विशाल शब्द सागर-नवल जी, आदीश बक डिपो 24. संस्कृत अंग्रेजी डिक्शनरी-विलियमस् 25. अर्द्धमागधी कोश भाग 1 से 5-रत्नचन्द जी मा० सा०-अमर पब्लिकेशनस्-वाराणसी Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शुद्धि-पत्र पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध vi. 139 वैमानिक देव 16 vii vii 4 19 201 176 यूर्यप्रज्ञप्ति कुमारों के इन्द्र भवन एवं 129 ज्योतिष्क देवों की स्थिति 159-61 38 202 276 सूर्यप्रज्ञप्ति कुमार इन्द्र भवनों की ऊँचाई एवं बहिर0 बाहिर0 199 19 . महोरग-गंधर्व और . पणपषि और चन्द्र भवरणभइ महोरग और गंधर्व पणपरिण (मौर) उससे चन्द्र भवरणवई 3. या लाख 16-17 7 . 22 11.. 554 हजार और वेजयन्त और विजय (विमान) होता है और दक्षिण दिशा की और वेजयन्त कही गयी है जाननी चाहिए उसके बाद उसी प्रकार (होते है) जानना चाहिए और अनुपम और जहाँ अनुत्तरदेव अनुपम (होता है) जानना चाहिए अनि बदमाणम्मि वद्धमाणम्मि सामाइयकडा [(सामाइय) सामइय कडा [(सामइय) बादं भरिणयं भणियमित्तम्मि [(भणियं) + (इत्तम्मि)] भणियं 8 . 14 16 15 बाद 80 21 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति, अशुद्ध 23 80 81 15 82 23 . (भण) भूकृ 1/1 इत्तम्मि (इय) 7/1 स व 3/1 सक . उक्कोस सुतरण. (सुतणु) सयसहस्स (छण्णउइ) 1/2 एक्केक (भण) (लोगपाल) . 23 85 18 3/1 उकोस सुयणु (सुमणु) सयसहस्सा (छण्ण उइ) 6/2 एक्केक्कम (भरिण) (लोगपाला) छच्च (भमण) एक्का (भूयवाइए) विधाय (विधाय) मूल शब्द 1/1 26 10 89 17 89 22 906 932 96 968 (भवण) एक्क (भूयवाइप्र) विधाए (विधाय) 1/1 27 (एचकेक्क) (पद्धकविट्ठ) 'ग' स्वार्थिक - आसीए एगट्ठिभाग तस्स (सूर) बायाला (बायाल) 1/2 20 96 17 96 24 98 17 98 997 100 101 15 103 2 1073 1076 107 21 107 24 1088, 24 109 2 . 110 13 (एक्केक्कम) (अद्धकविट्ठ) असीए एगसट्ठिभाग तस्य (सूरा) बायाला छावत्तरं गहरगहा 6/1 मानि सक सक 1/1 छावत्तरं महग्गहा 6/2 अनि . प्रक प्रक 1/1 प्रनि] Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति 4 111 112 6 10 23 4. 27 25 10 6. 113 115 115 116 118 127 128 130 131 132 132 132 132 133 137 . 141 . प्रशुद्ध (छप्पण्णं) 7/1 1/2 (चंदा) 1/2 2/1 सहस्सर 1/1 पुफ / 1/1 1/1 (सुहु) पुरोहिं द्वितीया तृतीया सप्तमी संवच्छरस्स संकसरण [(संख)- (सन्नि) (छप्पण्ण) 1/1 1/2 अनि (चंद) 1/2 अनि 2/1 अनि सहस्सार 2/1 पुप्फ 1/2 (सुह) 29 11/18 पुण्णेहि 14 21 तृतीया सप्तमी तृतीया संवच्छरस्स* संकमण [(संख) + (अंक) + (सन्निकासा)] [ (संख)(अंक)-(सन्निकास) 23 . 20 14. 142 . 1438 * 143 1421 144 145 146 19 .23 (कंख) (कंख) (अ) + (विच्छिन्ण) पाइट्ठिया चत्तरि (सागार) (पुस) परिषद गणितानुर्याग (अंक) (अंक) (अद्धय)+ (विच्छिण्णा) पइट्रिया चत्तारी (सागार.) 147 147 152 --152 परिषद गणितानुयोग Page #229 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्थान-परिचय आगम अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान आचार्य श्री नानालाल जी म० सा० के 1981 के उदयपुर वर्षावास की स्मृति में जनवरी 1983 में स्थापित किया गया। संस्थान का मुख्य उद्देश्य जैन विद्या एवं प्राकृत के विद्वान तैयार करना, अप्रकाशित जैन साहित्य का प्रकाशन करना जैन विद्या में रुचि रखने वाले विद्यार्थियों को अध्ययन की सुविधा प्रदान करना, जैन संस्कृति की सुरक्षा के लिए जैन आचार दर्शन और इतिहास पर वैज्ञानिक संस्करण तैयार कर प्रकाशित करवाना एवं जैन विद्या-प्रसार की दष्टि से संगोष्ठियां, भाषण, समारोह आयोजित करना है। ___संस्थान राजस्थान सोसायटीज एक्ट 1958 के अन्तर्गत रजिस्टर्ड है एवं संस्थान को अनुदान रूप में दी गयी धनराशि पर आयकर अधिनियम की धारा 80 (G) और 12 (A) के अन्तर्गत छूट प्राप्त है / जैन धर्म और संस्कृति के इस पुनीत कार्य में आप इस प्रकार सहभागी बन सकते है : (1) व्यक्ति या संस्था एक लाख रुपया या इससे अधिक देकर परम संरक्षक सदस्य बन सकते हैं। ऐसे सदस्यों का नाम अनुदान तिथिक्रम से संस्थान के लेटरपैड पर दर्शाया जाता है। (2) 51,000 रुपया देकर संरक्षक सदस्य बन सकते हैं / (3) 250000 रुपया देकर हितैषी सदस्य बन सकते हैं। (4) 11000 रुपया देकर सहायक सदस्य बन सकते हैं। (5) 1000 रुपया देकर साधारण सदस्य बन सकते हैं। (6) संघ, ट्रस्ट, बोर्ड, सोसायटी आदि जो संस्था एक साथ 20,000 रुपये का अनुदान प्रदान करती है वह संस्थान परिषद की संस्था सदस्य होगी। (7) अपने बुजुर्गों की स्मृति में भवन-निर्माण हेतु व अन्य आवश्यक यंत्रादि हेतु अनुदान देकर आप इसकी सहायता कर सकते हैं। (8) अपने घर पर पड़ी प्राचीन पांडुलिपियां, आगम-साहित्य व अन्य उपयोगी साहित्य को प्रदान कर सकते हैं। आपका यह सहयोग ज्ञान-साधना के रथ को प्रगति के पथ पर अग्रसर करेगा।